उत्तराखंड: अधिकारियों ने सभी बच्चों के साथ खाना खाकर कराया 'दलित भोजन माता' विवाद का अंत

Written by Navnish Kumar | Published on: December 30, 2021
उत्तराखंड में पिछले हफ्ते से चले आ रहे दलित भोजन माता विवाद का अधिकारियों ने अंत करा दिया। शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने स्कूल के सभी 66 छात्रों के साथ मिलकर दलित भोजन माता के हाथ का बना खाना खाकर विवाद खत्म कराया।



दरअसल चंपावत जिले के सूखीढांग राजकीय इंटर कॉलेज में दलित भोजन माता के हाथ का बना खाना स्कूल के सवर्ण छात्रों ने खाने से इनकार कर दिया था। इस पर दलित भोजन माता को हटाकर सवर्ण भोजन माता की तैनाती कर दी गई मगर अबकी दलित बच्चों ने खाने से इनकार कर दिया। 
 
सूखीढांग स्थित इंटर कॉलेज में बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई होती है और छठी से आठवीं कक्षा तक के छात्रों के लिए मध्याह्न भोजन यानी मिड डे मील की व्यवस्था की जाती है। स्कूल में छठी से आठवीं तक के 66 छात्र छात्राओं के लिए भोजन बनता है लेकिन शुक्रवार को अनुसूचित जाति के 23 बच्चों ने सवर्ण भोजनमाता के हाथों बना खाना खाने से इनकार कर दिया। शिक्षा विभाग ने इसकी जांच के आदेश दिए हैं। इससे पहले, दलित भोजनमाता प्रकरण की घटना के भी जांच के आदेश मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने दिए थे। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो दलित छात्रों के बीच चर्चा है कि यदि दलित भोजन माता का पकाया खाना सवर्ण छात्र नहीं खाएंगे तो सवर्ण भोजन माता के हाथ का खाना वो भी नहीं खाएंगे। 

देखा जाए तो दलित भोजन माता सुनीता देवी दोहरे उत्पीड़न का शिकार हुईं हैं। सामाजिक अपमान और जातीय घृणा के साथ सरकार द्वारा उनकी नौकरी छीन ली गई लेकिन “असाधारण समय में असाधारण कदम उठाये जाते हैं।” इंसाफ और आत्मसम्मान के लिए दलित समुदाय के बच्चों ने सुनीता देवी के पक्ष में असाधारण प्रतिरोध किया और दलित बच्चों ने सवर्ण भोजनमाता का बहिष्कार कर दिया। इससे सवर्ण समाज सकते में आ गया तो देश ही नहीं दुनिया से दलित बच्चों और सुनीता देवी के पक्ष में इंसाफ पसंद लोग खड़े हो रहे हैं। मामले को ‘सैटल’ करने की कोशिश की गई लेकिन सुनीता देवी ने साफ़ कहा है कि उनकी बहाली के बिना कुछ सैटल नहीं होगा और वो संघर्षरत रहेंगी।

इससे चम्पावत के सूखीडांग के दलित बच्चे और सुनीता देवी बहुतों के लिए आइकन बन गए हैं। इन्होंने बताया है कि अपने मानवीय अधिकारों के लिये लड़ना ही इस समाज को लोकतांत्रिक बनायेगा। लेकिन क्या भारत में अस्पृश्यता से लड़ने के लिए बायकॉट एक असरदार रणनीति हो सकती है? यह सवाल आज उत्तराखंड के चंपावत जिले के एक स्कूल में दोपहर के उस भोजन का अनुसूचित जाति के छात्रों द्वारा बायकॉट किए जाने के बाद उठाया जा रहा है, जिसे एक ब्राह्मण महिला पुष्पा भट ने पकाया था।

छात्र उससे पहले जो दलित महिला सुनीता देवी भोजन पकाती थी, उसे हटाए जाने का विरोध कर रहे थे। ऊंची जातियों के छात्रों ने सुनीता देवी का पकाया भोजन खाने से मना कर दिया था। इसलिए जिला शिक्षा अधिकारी ने उसे हटाकर पुष्पा भट को नियुक्त कर दिया था। इसके जवाब में अनुसूचित जाति के छात्रों ने भी विरोध का वही तरीका अपनाया।

अस्पृश्यता की कुप्रथा को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत समाप्त कर दिया गया है। नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1955 की धारा 4 और 7 के तहत इस कुप्रथा को दंडनीय अपराध भी घोषित कर दिया गया है। इसलिए, अस्पृश्यता के शिकार के लिए कानूनी समाधान उपलब्ध है। लेकिन उन छात्रों ने इन कानूनों का सहारा न लेकर जवाबी बायकॉट का रास्ता चुना, जो नाइंसाफी से लड़ने की सामाजिक रणनीति बन गई है। लेकिन क्या जवाबी बायकॉट असर करता है, पर लंदन विश्वविद्यालय के रॉयल हॉलवे के राजनीति एवं अंतर्राष्ट्रीय सबंध विभाग में पीएचडी स्कालर अरविंद कुमार कहते हैं कि अनुसूचित जातियों द्वारा जवाबी बायकॉट छुआछूत बरतने वालों का व्यवहार बदलने में मदद करता है क्योंकि यह उन्हें अपने सामाजिक व्यवहार और निजी आचरण पर आत्म विश्लेषण करने का मौका देता है। 

समाज में गलत-सही क्या है, यह अक्सर सामाजिक सहमति से तय होता है, जो बदलती रहती है। लोग अपने व्यवहार की खोट को इसलिए नहीं समझ पाते कि उन पर आपत्ति नहीं की जाती। आपति की जाने पर प्रायः वे अपनी गलती को सुधार लेते हैं। छुआछूत बरतने वाले अकसर यही सोचते हैं कि वे कोई गलत काम नहीं कर रहे, लेकिन जब उन्हें जब टोका जाता है तो उन पर आत्म विश्लेषण करने का दबाव पड़ता है। प्रसिद्ध दार्शनिक इमानुएल कान्ट ने कहा है कि मनुष्य में ऐसे नियम-कायदे बनाने की आंतरिक प्रवृत्ति होती है जिन्हें व्यापक बनाया जा सकता है। इस लिए, जब उनका बहिष्कार किया जाता है तब वे यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि अगर उन्होंने अपना आचरण नहीं सुधारा तो उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार हो सकता है।

खैर मामले की तह में जाएं तो मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार सूखिढांग स्कूल में 13 दिसंबर को दलित भोजन माता की नियुक्ति हुई थी और अगले ही दिन से कुछ सवर्ण छात्रों ने उनके हाथ का बना भोजन करने से इनकार कर दिया था। धीरे-धीरे ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती गई और आखिरकार सभी सवर्ण बच्चों ने अपने घर से खाना लाना शुरू कर दिया। उनके अभिभावकों ने भी इस पर आपत्ति जताई। शिकायत मिलने पर चंपावत जिले के मुख्य शिक्षा अधिकारी आरसी पुरोहित ने 21 दिसंबर को भोजन माता की नियुक्ति को अवैध बताते हुए उन्हें बर्खास्त कर दिया। बच्चों के अभिभावकों ने आरोप लगाया था कि भोजन माता की नियुक्ति नियमों के विपरीत हुई थी।

इसके बाद से ही यह मामला न सिर्फ सुर्खियों में आ गया बल्कि गांव के लोग भी दो खेमे में बंट गए हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, घटना को लेकर उस समय ग्रामसभा के सदस्यों में भी जातीय तनाव देखा गया जब ऊंची जाति के पांच ग्राम सभा सदस्यों ने गांव के दलित प्रधान का विरोध करते हुए इस्तीफा दे दिया। ग्राम सभा सदस्यों का आरोप है कि फैसले लेते समय प्रधान उनसे सलाह नहीं लेते। हालांकि बाद में प्रशासनिक अधिकारियों के हस्तक्षेप के बाद इन सदस्यों ने इस्तीफे वापस ले लिए।

दरअसल, पूरा मामला स्कूल में भोजन माता की नियुक्ति से जुड़ा है। स्कूल में 66 बच्चों के खाने के लिए भोजन माता के 2 पद हैं। 11 अक्टूबर तक यहां भोजन माता के रूप में शकुंतला देवी और विमलेश उप्रेती काम कर रही थीं लेकिन शकुंतला देवी की उम्र 60 साल से ज्यादा होने के कारण उन्हें हटा दिया गया और दूसरी भोजनमाता की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू हुई। बताया जाता है कि विद्यालय प्रबंधन और अभिभावक संघ के लोगों ने जिस महिला की नियुक्ति की सिफारिश की थी वो सवर्ण वर्ग से थीं लेकिन गरीबी रेखा से ऊपर होने के चलते प्रधानाचार्य ने उसे मानकों के अनुसार न मानते हुए संस्तुति नहीं दी। फिर दोबारा आवेदन निकाले गए और आवेदनों पर चर्चा के लिए एक कमेटी बनाई गई। कमेटी ने दलित महिला सुनीता देवी के नाम की संस्तुति की जो बीपीएल श्रेणी यानी गरीबी रेखा से नीचे वाली श्रेणी में आती हैं। इस कमेटी में विद्यालय के शिक्षकों के अलावा अभिभावक संघ के लोग और आस-पास के गांवों के प्रधान भी शामिल थे। विद्यालय के एक शिक्षक बताते हैं कि भोजन माता नियुक्ति की इस प्रक्रिया के लिए बुलाई गई बैठक में ही सदस्यों के बीच जमकर विवाद हुआ था और वहीं से ये मामला सवर्ण बनाम दलित बन गया था। उनके मुताबिक, वहीं से ये बात तय हो गई कि यदि दलित महिला की नियुक्ति होती है तो सवर्ण अभिभावक अपने बच्चों को इस तरह के व्यवहार के लिए उकसाएंगे और आखिरकार वैसा ही हुआ।

हालांकि सुनीता देवी 13 दिसंबर से काम जरूर करने लगी थीं लेकिन उन्हें तब तक कोई नियुक्ति पत्र नहीं मिला था। सुनीता देवी बताती हैं, "पहले ही दिन से कई बच्चों ने खाना खाने से मना कर दिया और दो-तीन दिन बाद तो सिर्फ दलित बच्चे ही खाना खा रहे थे।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, चंपावत में शिक्षा विभाग के अधिकारियों का कहना है कि सुनीता देवी को भोजन माता की नौकरी से हटाने के पीछे यह विवाद नहीं है बल्कि उन्हें हटाने के पीछे नियुक्ति प्रक्रिया में हुई गड़बड़ी है। लेकिन सुनीता देवी ने इस मामले में खुद के उत्पीड़न को लेकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। वहीं इस विवाद के सामने आने के बाद दिल्ली सरकार ने उन्हें नौकरी देने का वादा किया लेकिन सुनीता देवी का कहना है कि उन्होंने इस बारे में सिर्फ सुना है, उनसे किसी ने संपर्क करके ऐसा आश्वासन नहीं दिया है। सुनीता देवी कहती हैं, "मेरे द्वारा पकाए गए भोजन को खाने से बच्चों के इनकार करने और उनके अभिभावकों के व्यवहार से मैं आहत और अपमानित महसूस कर रही हूं और मैंने इसकी शिकायत भी पुलिस में दर्ज कराई है।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन सवाल यह भी है कि क्या दलित भोजन माता को सिर्फ नियुक्ति प्रक्रिया में खामी की वजह से ही निकाल दिया गया। अभिभावक संघ के एक सदस्य कहते हैं कि यदि पूरी प्रक्रिया के तहत भी दलित महिला की नियुक्ति हुई होती, तब भी यही स्थिति आती। उनके मुताबिक, "यदि दोबारा दलित महिला की नियुक्ति होती है तब भी बच्चे नहीं खाएंगे और यदि ऐसा करने पर बाध्य किया गया तो लोग अपने बच्चों को वहां पढ़ने भी नहीं भेजेंगे।” 

हालांकि कुछ स्थानीय लोग इस विवाद को लेकर काफी व्यथित भी हैं। चंपावत जिले में रिटायर्ड शिक्षक जगदीश चंद्र नेगी कहते हैं, "जिस उम्र में बच्चों को जाति-धर्म की हर दीवार से ऊपर उठकर मानवता की शिक्षा दी जानी चाहिए, उस उम्र में उन्हें ऊंच-नीच और छुआछूत जैसी मध्यकालीन बुराइयों की कुशिक्षा दी जा रही है जो न सिर्फ उनके जीवन के लिए बल्कि देश और समाज के लिए भी बहुत ही घातक है। मैंने 32 साल अध्यापन किया, हर जाति-धर्म के बच्चे आते थे, उस वक्त समाज में ऐसी प्रथाएं आमतौर पर प्रचलित थीं। लेकिन शिक्षक धर्म निभाते हुए हम लोग बराबरी की समझ विकसित करते रहे और कभी किसी अभिभावक ने इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं की।”

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