नई दिल्ली। 2018 के बाद 2023 के चुनाव परिणामों को देख देश के धुरंधर चुनावी पंडित हैरान हैं। उदार बुद्धिजीवी सोशल मीडिया छोड़ने का संकल्प ले रहे हैं। ऐसा जान पड़ता है कि इन चुनाव परिणामों ने उनके लिए 2024 की अंतिम आस को 3 दिसंबर को ही खत्म कर दिया है। शायद उन्हें अब सोशल मीडिया पर लिखे पोस्ट पर पछतावा भी हो रहा हो, कि 2024 में तो आएगा तो मोदी ही। हाय यह मैंने क्या कर दिया।
कुछ लोग हिंदी प्रदेशों को गोबर पट्टी बताकर अब पूरी तरह से मान चुके हैं कि इनका कुछ नहीं हो सकता। ये लोग उत्तर-भारतीय ही हैं। समाज में बुद्धिजीवी समझे जाते हैं, और उपदेश देना इनका हमेशा से शगल रहा है। इनकी प्राथमिकता में प्रगतिशीलता एक प्रधान तत्व रहा है, और वे उसी छवि को आज भी शान से आगे बढ़ाये हुए हैं। हालांकि इस छवि से अब फायदे की जगह घाटे की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है, लेकिन चूंकि वे इसे जारी रखे हुए हैं, इसलिए इसे ही क्रांतिकारी कदम समझते हैं।
अभी चुनाव का परिणाम आये एक दिन हुआ है, और इसके गहन विश्लेषण के लिए कई कारकों का विश्लेषण आवश्यक है। 2018 विधानसभा चुनावों में ये तीनों राज्य कांग्रेस की झोली में आये थे, और लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी इन तीनों राज्यों में प्रचंड बहुमत से जीती थी। इससे पहले 2003 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था, जिसे अपने पक्ष में लहर समझकर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने समय से पहले ही आम चुनावों की घोषणा कर दी थी, लेकिन 2004 में यूपीए के हाथ में केंद्र की सत्ता आ गई। इसलिए चट मासा चट तोला बनने की यह मध्यवर्गीय मनोवृत्ति से हमें बचना चाहिए और बदलाव के पीछे छिपे उन कारकों को तलाश करना चाहिए, जो शायद अगले ही मोड़ पर पूरी ताकत से रंगमंच पर छा जाने के लिए पर्दे के पीछे तैयारी कर रहे हों। इसलिए आज के परिणामों का मूल्यांकन करने के लिए 2018 का विश्लेषण करें:
मध्यप्रदेश में कमलनाथ सभी समीकरणों को साधने में लगे रहे
एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाई। मध्यप्रदेश में 2018 में कांग्रेस 114 सीट (40.89%) और 1.56 करोड़ वोट के साथ पहले स्थान पर रही। बीजेपी 109 सीट (41.02%) और करीब 1.57 करोड़ वोट के साथ मत प्रतिशत में कांग्रेस से आगे होने के बावजूद सत्ता गंवा बैठी। यहां बसपा का रोल नहीं भूलना चाहिए जो तीसरे स्थान पर थी। 2018 में बसपा को मात्र 2 सीटें ही हासिल हुई थीं, लेकिन उसका वोट प्रतिशत 5.01% और वोटों की संख्या 19.11 लाख थी। अगर ये वोट कांग्रेस या भाजपा के साथ गठबंधन बनाने के काम आ जाते तो जितनी सीटें आज भाजपा को हासिल हुई हैं, उतनी सीटें तब कांग्रेस/भाजपा को मिली होतीं। लेकिन इससे 5 वर्ष पूर्व की स्थिति को भी गौर करें जब 2013 में कांग्रेस 36.38% और (58) सीट, भाजपा 44.88% और (165) और बसपा 6.29% और (4) सीट जीतने में कामयाब रही थीं।
आज 10 वर्ष बाद कांग्रेस (40.4%) मत प्रतिशत और 1.76 करोड़ वोट के साथ 65 सीटों पर सिमट चुकी है, जबकि भाजपा (48.6%) 2.11 करोड़ मत हासिल कर 164 सीट पर काबिज हो चुकी है, लेकिन बसपा 4 से 2 और इस बार 3.40% मत और 14.78 लाख वोट पाकर भी 0 सीट पर धकेली जा चुकी है। भाजपा, कांग्रेस के अलावा एकमात्र सीट पाने वाली राज्य में तीसरी पार्टी भारत आदिवासी पार्टी (बाप) है।
इस चुनाव में कांग्रेस के मत प्रतिशत में 0.5% की गिरावट दर्ज की गई है, जबकि बीजेपी के मत प्रतिशत में 7.5% का उछाल दर्ज किया गया है। इसकी तुलना में एमपी में कांग्रेस की बागडोर कांग्रेस मुख्यालय के पास न होकर खुद को भावी मुख्यमंत्री मान चुके उन कमलनाथ के हाथ में थी, जिन्हें इंडिया गठबंधन की भोपाल में प्रस्तावित रैली नाकाबिले-बर्दाश्त थी।
जो व्यक्ति इंडिया गठबंधन की राष्ट्रीय कार्यकारणी में भी न हो, उसे भोपाल रैली को रद्द करने का अधिकार किसने दिया? उसकी हैसियत को कांग्रेस ने बेईज्जत होते हुए भी गठबंधन में स्वीकार किया। जिस चुनावी रणनीतिकारों ने कर्नाटक कांग्रेस के लिए रणनीति और उम्मीदवारों के चयन में हिस्सेदारी निभाई थी, ऐसी जानकारी है कि कमलनाथ ने उन सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया था। उम्मीदवारों के चयन को लेकर कमलनाथ-दिग्विजय झगड़े को देश जानता है। शुरू-शुरू में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की सेवाएं ली गईं, बाद में पूरा मामला ही कमलनाथ-प्रियंका गांधी की जोड़ी संभाल रही थी। याद करें कि राहुल गांधी ने दो दिन मिजोरम और उसके बाद अधिकांश चुनाव प्रचार तेलंगाना में ही किया।
कुल-मिलाकर देखें तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनावों की कमान क्षेत्रीय क्षत्रपों के हाथ रही। ये वे लोग थे, जो या तो राज्य के मुख्यमंत्री थे या होने वाले थे। संभवतः चुनावी मशीनरी में आवश्यक धन का सारा प्रबंध भी इन्हीं के जिम्मे था, जिसके कारण कांग्रेस की केंद्रीय कमान के पास कोई पहल लेने की गुंजाइश भी नहीं थी।
राजस्थान में सुपर चीफ मिनिस्टर अशोक गहलोत की सीमा
2023 में कांग्रेस (39.7%) के साथ 69 सीट और वोटों की संख्या 1.57 करोड़, जबकि भाजपा (41.69%) के साथ 115 सीटें हासिल करने में कामयाब हो जाती है, जबकि उसे हासिल 1.65 करोड़ वोट को देखें तो कांग्रेस और भाजपा के बीच में यह अंतर मात्र 8 लाख मतों का ही रहा। लेकिन आज इस जीत का सारा सेहरा पीएम मोदी की गारंटी और गृह मंत्री अमित शाह की रणनीति को देने वाले बहुत से लोग मिल जायेंगे।
2018 में क्या हुआ था? कांग्रेस को 2018 में आज की तुलना में कम वोट हासिल हुए थे। 39.30% और 1.39 करोड़ वोट हासिल कर कांग्रेस को 100 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई थी, जबकि भाजपा 38.08% एवं करीब 1.38 करोड़ मत पाकर 73 सीटों पर सिमट गई थी। जबकि 2013 में कांग्रेस को मात्र 21 सीटें हासिल हुई थीं, और भाजपा 200 में 163 सीटों को हासिल कर तीन-चौथाई बहुमत पाकर 5 साल राज कर चुकी थी।
राजस्थान में अशोक गहलोत चार साल से सचिन पायलट और केंद्रीय नेतृत्व से जूझने में व्यस्त थे। आखिरी वर्ष में जाकर सुलह-समझौते के बाद उन्होंने चमत्कारिक रूप से एक के बाद एक घोषणाएं करनी शुरू कर दिए, जिनमें से कई वास्तव में बेहद शानदार हैं। लेकिन अपनी पारी के 4 वर्ष पार्टी के अंतर्कलह में निपटाने में व्यस्त गहलोत ने कांग्रेस पार्टी का भला करने के बजाय मुख्यमंत्री पद का दुरूपयोग करते हुए अपने स्वामीभक्त विधायकों और मंत्रियों को मनमानी करने की छूट दी, जिन्हें वे टिकट वितरण के दौरान निकाल नहीं सके। उन्हें डर था कि बहुमत पाने की सूरत में गहलोत खेमा हर हाल में बहुमत में होना चाहिए। इतना ही नहीं सीपीआई(एम) सहित क्षेत्रीय दलों के साथ किसी प्रकार का समझौते से इंकार कर गहलोत ने राजस्थान में कम से कम 20 सीटें गंवाई हैं। इसका विश्लेषण आगे के दिनों में देखने को मिलेगा।
छत्तीसगढ़ में छोटी पार्टियों और आदिवासियों से बघेल की दूरी
छत्तीसगढ़ पर नजर दौडाएं तो इस बार कांग्रेस को सबसे अधिक मायूसी इसी राज्य में देखने को मिली है, क्योंकि कांग्रेस के नेताओं सहित सभी चुनाव सर्वेक्षणों में इस राज्य जो कांग्रेस के लिए सबसे सेफ माना जा रहा था। नतीजे सभी के अनुमानों और सर्वेक्षणों की पोल खोलकर रख देते हैं।
2023 में कांग्रेस (42.23%) और 66.02लाख वोट के साथ 35 सीट जीतने में कामयाब रही तो बीजेपी (46.27%) 72.35 लाख वोट के साथ 54 सीटों पर काबिज होने में सफल रही, जबकि एकमात्र तीसरे सफल दल जीजीपी के हाथ में 1 सीट आई है। कांग्रेस और भाजपा के मतों में करीब 4% का अंतर आया है। यहां पर बसपा 2.05% वोट हासिल कर एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पाई है।
2018 चुनावों में कांग्रेस को 43% और 61.36 लाख वोट के साथ 68 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई थी, जबकि भाजपा 33% मत प्रतिशत पाकर कांग्रेस के मुकाबले 10% कम वोट हासिल कर सकी थी। उसके खाते में कुल 47 लाख वोट और महज 15 सीटें आई थीं। उस चुनाव में अजित जोगी की पार्टी जेसीसी ने 7.6% और 10.81 लाख वोट हसिल कर संघर्ष को त्रिकोणीय बना दिया था, और उसके खाते में 5 सीटें आई थीं।
2013 से यदि 2018 की तुलना करें तो कांग्रेस के वोट शेयर में मात्र 2.71% का उछाल आया था, लेकिन उसे 29 सीटों का फायदा हुआ था, जबकि भाजपा का मत प्रतिशत 8.04% गिरा था, और उसे 34 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा था। इसकी बड़ी वजह अजित जोगी की पार्टी थी, जिसने 7.6% मत हसिलकर मामले को त्रिकोणीय बना दिया था।
इसी प्रकार पत्थलगांव विधानसभा में देखें तो आप पायेंगे कि यहां से भारतीय जनता पार्टी की गोमती साईं ने कांग्रेस के रामपुकार सिंह ठाकुर को मात्र 255 मतों के अंतर से हराकर यह सीट भाजपा की झोली में डाल दी है। इस सीट पर भाजपा को 82,320 मत प्राप्त हुआ, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी 82,065 मत हासिल कर सका। लेकिन यदि अन्य प्रत्याशियों को मिले वोटों को देखें तो मामला स्पष्ट हो जाता है।
इस सीट पर आम आदमी पार्टी (आप) के राजा राम लाकरा को 3,675 वोट हासिल हुए, अर्थात इंडिया गठबंधन के एक घटक दल ने यह कमाल का रिजल्ट लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आगे देखिये, बसपा के कुजूर बिदाना ओराव को इसी सीट से 2,234 वोट हासिल होते हैं, और हमार राज पार्टी (अरविन्द नेताम पूर्व कांग्रेस केंद्रीय मंत्री) के अनिल कुमार परहा को 1,755 वोट और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जेसीसी (जोगी) के नेहरु लाकरा को 1,754 वोट हासिल हुए हैं। ये कुल मिलाकर 9,500 वोट होते हैं, जो कांग्रेस और विपक्षी दल चाहते तो आसानी से भाजपा को ज्यादा अंतर से हराना संभव हो सकता था। अन्य दलों को 5.55% वोट प्राप्त हुए हैं, और यह भी बड़ा अंतर पैदा करने में कारक रहे हैं।
भाजपा को देखें तो उसने इस बार छत्तीसगढ़ में युवा चेहरों को तरजीह देकर खुद को पूरी तरह से पिछले पापों से मुक्त कर लिया था। इसका उन्हें अच्छा-खासा फायदा भी मिला है। एक तो नेतृत्व को लेकर पुराने दिग्गजों वाला कोई बैगेज भी नहीं है, दूसरा नए प्रत्याशियों के आ जाने से कांग्रेस के दागों पर जमकर हमला बोलने और पुराने आधार में सेंध लगाने में भी भाजपा कामयाब हुई है।
इसकी एक मिसाल सीतापुर विधानसभा में देखने को मिलती है, जिस पर आजादी के बाद से अभी तक भाजपा जीत दर्ज कर पाने में नाकामयाब रही थी। इस सीट पर पहली बार 1951 में चुनाव हुआ था तब यहां से निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत हासिल की थी। तब से लेकर 2003 तक यहां कांग्रेस और निर्दलीय प्रत्याशी जीतते आ रहे थे। 2003 में अमरजीत भगत ने कांग्रेस से यहां चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इसके बाद 2008, 2013 और 2018 में भी अमरजीत भगत लगातार जीतते आ रहे थे। लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव में इस बार भाजपा ने कांग्रेस के इस गढ़ पर कब्जा कर लिया है। भाजपा ने इस बार अमरजीत भगत को 17,160 मतों के भारी अंतर से हराकर यह जीत हासिल करने में सफलता प्राप्त की है। भाजपा को यह जीत उनके उम्मीदवार पूर्व सैनिक राम कुमार टोप्पो ने दिलाई है, और इस प्रकार कांग्रेस का पुराना किला और दिग्गज दोनों धराशायी हो गये।
छत्तीसगढ़ में इस बार कांग्रेस के दिग्गज नेता और उप-मुख्यमंत्री टी.एस. सिंह देव तक को हार का मुंह देखना पड़ा है। अंबिकापुर सीट पर मात्र 94 मतों से भाजपा के राजेश अग्रवाल के हाथों हार का मुहं देखने वाले देव को 90,686 मत प्राप्त हुए, जबकि भाजपा को प्राप्त हुए 90,780 मत। जबकि तीसरे स्थान पर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के बलसाईं कोरराम को 6,083 वोट प्राप्त हुए हैं।
गोंडवाना राज्य के लिए अलग राज्य की मांग के साथ 1991 में स्थापित गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का आदिवासी समाज के बीच आधार रहा है, और इस बार के चुनाव में पार्टी को छत्तीसगढ़ में एक सीट भी हासिल हुई है। इसके अध्यक्ष तुलेश्वर हीरा सिंह मकराम को पाली-तनखर विधानसभा सीट पर 60,862 वोट मिले, जो कांग्रेस की दुलेश्वरी सीदर (60,148) की तुलना में 714 वोट अधिक थे। हालाँकि इस सीट पर भाजपा 46,522 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहते हुए मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने में सफल रही, लेकिन चौथे स्थान पर जोगी की पार्टी ने 5,000 से अधिक वोट हासिल कर कांग्रेस की हार को मुकम्मल बना दिया है।
दंतेवाड़ा में हालांकि भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई है, जिसमें भाजपा के चैतराम अतामी ने 57,739 वोट हासिल कर कांग्रेस के छविन्द्र कर्मा को हासिल 40,936 वोटों के मुकाबले 16,803 वोटों से बड़ी जीत दर्ज की। लेकिन यहां पर भी अन्य प्रत्याशियों के वोटों की गणना करें तो सीपीआई 9,217, आप 7,202 और बसपा को मिले 5,427 वोट ही 22,000 को पार कर जाते हैं।
कांकेर सीट में तो हार जीत का अंतर मात्र 16 वोट से रहा, जिसमें बीजेपी के आशाराम नेताम को 67,980 वोट तो कांग्रेस के शंकर ध्रुव को 67,964 वोट प्राप्त हुए थे। तीसरे स्थान पर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को 4,236 वोट प्राप्त हुए हैं। इन वजहों से भाजपा आज 15 सीटों से 54 तो कांग्रेस बहुमत से घटकर 35 पर सिमट चुकी है। गोंडवाना गणतन्त्र पार्टी को इस बार 1 सीट जीतने में कामयाबी हासिल हुई है।
जबकि भाजपा को पिछली विधानसभा चुनाव में मात्र 15 सीटें हासिल हुई थीं। आदिवासी क्षेत्रों में 29 सीटों में उसे महज 4 सीटें हासिल हुई थीं। लेकिन कांग्रेस से अरविन्द नेताम ने कुछ महीनों पूर्व कांग्रेस से किनारा कर अपनी अलग पार्टी ‘हमर राज पार्टी’ बनाने का फैसला लिया था, जिसकी भनक राष्ट्रीय स्तर पर नहीं सुनाई दी थी।
पिछले 10 वर्षों के 3 चुनावों के आंकड़ों को दिखाने का मकसद सिर्फ इतना है कि कोई इसे किसी व्यक्ति विशेष या पार्टी की लहर समझता है तो उसे एकबार आंकड़ों पर जरुर गौर करना चाहिए। इसमें कुछ चीजें जुड़ रही हैं, और कुछ घट रही हैं। ये तीनों हिंदी राज्य सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछड़े माने जाते हैं। इसमें से मध्य प्रदेश को आरएसएस का पुराना गढ़ माना जाता है। इस चुनाव में मध्य प्रदेश को भाजपा ने एक केस स्टडी के तौर पर चुना और अपने सभी मुख्यमंत्री पद की लालसा रखने वाले राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय नेताओं को चुनावी अखाड़े में उतार दिया।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को घोषित मुख्यमंत्री का चेहरा न बताकर भी भाजपा ने महिला मतदाताओं का जमकर भावनात्मक दोहन किया है। कई सर्वेक्षण बताते हैं कि इस बार के चुनाव में भाजपा को मध्यप्रदेश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का 10% वोट अधिक मिला है। लाडली बहना के भाई शिवराज मामा को पीएम मोदी मुख्यमंत्री पद से बाहर न कर दें, यह महिलाओं को अंदर तक प्रभावित करता रहा। जबकि अपने-अपने जति-बिरादरी के नेता को मुख्यमंत्री बनता देखने की चाह रखने वाले मतदाताओं के लिए भी भाजपा एक आकर्षण बनी रही।
कई लोग और कांग्रेस पार्टी के भीतर भी एक धड़ा डीएमके की ‘सनातन धर्म’ की बहस को इन 3 राज्यों में बड़ी हार की वजह मान रहा है। कुछ लोग राहुल गांधी के जातिगत जनगणना को बेवकूफी बता रहे हैं। यह बात कुछ हद तक सही भी है, लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। ये तीनों राज्य सांस्कृतिक रूप से अति पिछड़े सामंती समाज को आज भी बरकरार रखे हुए हैं। ये वही राज्य हैं, जहां झाड़-फूंक के नाम पर अंधविश्वास और डायन बताकर महिलाओं के साथ जघन्यतम अपराध किये जा रहे हैं।
मध्यप्रदेश में 50% से अधिक ओबीसी होने और शिवराज सिंह के ओबीसी समुदाय से आने के बावजूद उसका सामूहिक बल न के बराबर है। राहुल गांधी ओबीसी की वकालत कर रहे थे, जबकि मध्य प्रदेश में कांग्रेस का ऐतिहासिक नेतृत्व हमेशा से सवर्णों के हाथ में रहा है। इस बार भी कहा जा रहा है कि अधिकांश ओबीसी उम्मीदवार तो भाजपा में थे। इसीलिए कमलनाथ ने खीझकर कहा कौन अखिलेश-वखिलेश। बता दें कि मध्य प्रदेश में भले ही सपा का अस्तित्व न के बराबर हो, लेकिन यादवों की संख्या काफी अधिक है।
लेकिन इन तीनों राज्यों में ओबीसी, दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों (मुस्लिम, ईसाई) की मजबूत आवाज कोई नहीं है। इन प्रदेशों के बारे में गहरी जानकारी रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुदीप श्रीवास्तव की छत्तीसगढ़ को लेकर की गई टिप्पणी को ध्यान में रखना समीचीन होगा, “2018 में साहू समाज ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के पक्ष में वोट दिया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि उनके समाज से इस बार ताम्रध्वज साहू के रूप में प्रदेश का मुख्यमंत्री मिलेगा।
जबकि इससे पहले साहू समाज भाजपा का वोटर रहा है, एक बार तो नरेंद्र मोदी ने स्वयं बताया था कि गुजरात में साहू ही मोदी हैं। इस बार साहू समाज फिर से भाजपा के पक्ष में चला गया, यहां तक कि ताम्रध्वज साहू भी दुर्ग ग्रामीण से अपनी सीट नहीं बचा सके। इसी तरह आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार भाजपा राज में आम बात थी, और आदिवासियों को कांग्रेस से उम्मीद थी। लेकिन सिल्गेर के गोली काण्ड के खिलाफ आदिवासी समाज की ओर से लगातर धरना-अनशन के बावजूद जांच की मांग से इंकार कर भूपेश बघेल यही मानकर चलते रहे कि आदिवासी समाज को उन्होंने इतना दे दिया है कि वे भाजपा के साथ कभी नहीं जायेगा। आदिवासी और प्रमुखतया ईसाई समुदाय कांग्रेस से न्याय की मांग कर रहा था, जो उसे नहीं मिला।
राजस्थान में दलितों पर अत्याचार की घटनाओं और महिलाओं, विशेषकर दलित समाज की महिलाओं के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं सुर्ख़ियों में बनी हुई थीं। यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश की तुलना में पुलिस की कार्यवाई भी हुई, लेकिन इस बर्बर अत्याचार को ढाने वाले लोगों के खिलाफ मुखर विरोध न कर गहलोत सरकार ने प्रभुत्वशाली वर्ग के साथ सेफ गेम खेलने की जिस नीति पर चलने का फैसला किया, अंत में उसी को भाजपा ने अपना सबसे बड़ा चुनावी हथियार बनाया और उन्हीं गरीबों, मजलूमों और महिला वर्ग को समझाने में कामयाब रही जिनके लिए कांग्रेस सरकार खुद को कृत-संकल्पित बताती रही है। मजे की बात यह है कि पीड़ित और प्रताड़ित करने वाले दोनों वर्गों को अपने पाले में लाने में सफल भाजपा के खिलाफ आज भी हिंदी पट्टी में कांग्रेस सहित सभी दल कोई काट नहीं खोज पाए हैं।
2024 का गेम तो असल में अब खुला है। दक्षिण से भाजपा के लिए दरवाजे बंद कर इंडिया गठबंधन ने एक महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है। अगला कदम हिंदी प्रदेशों में मजबूत लोकतांत्रिक इरादे की है, जिसमें प्रभु वर्ग के वोटों और नैरेटिव की चिंता किये बगैर संघ की विचारधारा के बरक्श साफ़ विभाजन रेखा खींचकर ही वह उत्तर भारत के मतदाताओं को बता सकता है कि मंदिर-मस्जिद और लव जिहाद, मुसलमानों के खिलाफ जहर भरकर कैसे कई दशकों से उन्हें रोटी-रोजगार और शिक्षा से वंचित कर दक्षिण और पश्चिम के राज्यों में सस्ते श्रमिक के रूप में एक्सपोर्ट किया जा रहा है। यह लड़ाई कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल के रहते तो संभव नहीं थी, एक तरह से यह तेलंगाना की तरह कांग्रेस के लिए फिर से साफ़ स्लेट है। साफ़ स्लेट पर नई इबारत लिखने का समय है, वरना कमलनाथ 2019 की तरह 2024 में भी एक बार फिर अपने बेटे का परिचय पीएम नरेंद्र मोदी से कराने दिल्ली में उनके आवास पर पहुंच सकते हैं।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
साभार- जनचौक
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