चुनावी जनादेश का विश्लेषण: क्यों हारी कांग्रेस, क्या रहा भाजपा का प्लस प्वाइंट?

Written by Navnish Kumar | Published on: December 4, 2023
"जनादेश आ गया है। लोगों ने अपने मन की बात बता दी है। राजस्थान से लेकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तक सब तरफ मोदी ही मोदी हैं। प्रदेशों के चुनावों में भी मोदी! सवाल, क्या यह अजीब है? क्या यह चौंकाने वाला है? क्यों हारी कांग्रेस?, कहां अटकी है (जनता जनार्दन की) कृपा?"



जी हां, 4 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के लिए मतों की गिनती का काम पूरा हो गया है। बीजेपी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बहुमत लायक ज़रूरी सीटें जुटा ली हैं। वहीं अपवाद के तौर पर तेलंगाना में कांग्रेस पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने जा रही है। केंद्रीय चुनाव आयोग की वेबसाइट पर हर राज्य में हर पार्टी की जीती गई और बढ़त वाली सीटों का ब्योरा पेश किया गया है। उसके अनुसार,

छत्तीसगढ़

यहां कुल 90 सीटों में से बीजेपी को 54 सीटें जीत लीं जो सरकार बनाने के लगभग पास है। अब तक सत्तारूढ़ रही कांग्रेस पार्टी को 35 सीटें मिली हैं। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने एक सीट जीती है। छत्तीसगढ़ में बीजेपी को इस बार सबसे अधिक 46.3 प्रतिशत मत मिले, वहीं कांग्रेस को 42.23 प्रतिशत। इस तरह इन दोनों दलों के बीच मतों का अंतर लगभग 4 प्रतिशत रहा। बीएसपी को 2.05 प्रतिशत मत मिले हैं, जबकि नोटा में 1.26 प्रतिशत वोट पड़े।

मध्य प्रदेश

यहां कुल 230 सीटों में से बीजेपी को 163 सीटें मिली हैं। विपक्षी कांग्रेस पार्टी 66 सीटें मिल पाईं वहीं, भारत आदिवासी पार्टी ने एक सीट जीतने में कामयाबी पाई है। मध्य प्रदेश में बीजेपी को सबसे अधिक 48.6 प्रतिशत मत मिले हैं, जबकि कांग्रेस को 40.40 प्रतिशत। इस तरह इन दोनों दलों के बीच मतों का अंतर 8.2 प्रतिशत रहा। बीएसपी को 3.4 प्रतिशत मत मिले हैं, जबकि नोटा में 0.98 प्रतिशत वोट पड़े।

राजस्थान

राजस्थान में 200 सीटों में से बीजेपी ने 115 सीटें जीती हैं। वहीं कांग्रेस ने अब तक 69 सीटें जीती हैं। भारत आदिवासी पार्टी को 3 सीटें, बहुजन समाज पार्टी को 2 सीटें, राष्ट्रीय लोक दल और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी को 1-1 सीट मिली है। वहीं निर्दलीय उम्मीदवारों को 8 सीटें मिली हैं।

जहां तक मत प्रतिशत की बात है तो बीजेपी को सबसे ज़्यादा 41.7 प्रतिशत मत मिले और कांग्रेस को 39.53 प्रतिशत। इस तरह इन दोनों दलों के बीच वोटों का अंतर 2.2 प्रतिशत का रहा है। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी को 2.4 प्रतिशत, बीएसपी को 1.8 प्रतिशत और नोटा को 0.96 प्रतिशत मत मिले। तीनों राज्यों में आम आदमी पार्टी के सभी सीटों पर जमानत जब्त होने की खबर है, उसे नोटा से भी कम वोट मिले हैं।

तेलंगाना

तेलंगाना में 119 सीटों में से कांग्रेस ने 64 सीटें जीती हैं। भारत राष्ट्र समिति को 39 सीटें मिलीं। असदुद्दीन ओवैशी की एआईएमआईएम को  सीटें मिलीं। इस तरह तेलंगाना में कांग्रेस अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने जा रही है।
 
बीजेपी का प्रदर्शन इस बार पिछले बार से बेहतर रहा है। 2018 के चुनाव में बीजेपी ने केवल एक सीट जीती थी। लेकिन इस बार यह पार्टी कुल 8 सीटों पर जीत दर्ज की है। एक सीट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के खाते में गई है। कांग्रेस को इस बार 39.40 प्रतिशत मत मिले हैं। वहीं बीआरएस को 37.35 प्रतिशत वोट मिले हैं। इस तरह इन दोनों दलों के बीच मतों का अंतर दो फ़ीसदी से अधिक रहा। बीजेपी के मतों का प्रतिशत इस बार पिछली बार की तुलना में बढ़कर दोगुना हो गया है। 2018 में बीजेपी को 6.98 प्रतिशत वोट मिले थे। लेकिन इस बार बीजेपी को 13.90 प्रतिशत मत मिले हैं। एआईएमआईएम को 2.22 प्रतिशत वोट मिले, जबकि बीएसपी को 1.37 प्रतिशत। वहीं नोटा पर यहां 0.73 प्रतिशत मत पड़े।

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में जीत मिलने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार शाम नई दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय से कार्यकर्ताओं और आम लोगों को संबोधित किया। कहा, "इस चुनाव में देश को जातियों में बांटने की बहुत कोशिशें हुई, लेकिन मैं लगातार कह रहा था कि मेरे लिए देश में 4 जातियां ही सबसे बड़ी जातियां है।" "जब मैं इन 4 जातियों की बात करता हूं तब हमारी नारी, युवा, किसान और हमारे ग़रीब परिवार इन 4 जातियों को सशक्त करने से ही देश सशक्त होने वाला है।" बीजेपी की जीत पर अमित शाह ने कहा कि जनता के दिल में सिर्फ और सिर्फ मोदी जी हैं... उधर, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि पार्टी को मजबूत करेंगे तो राहुल गांधी ने कहा कि विचारधारा की लड़ाई जारी रहेगी।

क्या बताते हैं नतीजे, कहां रही कमी?

चार राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के नतीजे ऊपरी तौर पर यह बताते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के समर्थन आधार में विस्तार का सिलसिला अभी रुका नहीं है। तेलंगाना में एक हैरतअंगेज उलटफेर में कांग्रेस ने भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) को हरा दिया, लेकिन उसका भाजपा की सियासत के लिए कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होगा। असलियत तो यह है कि वहां भी भाजपा के समर्थन आधार में विस्तार ही हुआ है। यहां तक कि दक्षिण राज्य कर्नाटक में पिछले विधानसभा चुनाव में अन्य समीकरणों के कारण भले भाजपा हार गई हो, लेकिन अपने वोट आधार (36 प्रतिशत) की रक्षा करने में वह वहां भी सफल रही थी।

तो प्रश्न है कि आखिर भाजपा क्यों बेरोक-टोक आगे बढ़ रही है? क्या इसे विपक्ष की कुछ बुनियादी नाकामियों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? इन नाकामियों में सर्व-प्रमुख तो संभवतः यही है कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भाजपा ने देश की राजनीति का संदर्भ बिंदु जिस मूलभूत रूप में बदल दिया है, विपक्ष ने संभवतः अभी तक उसके समझने की शुरुआत भी नहीं की है। वह अभी तक अपनी रणनीतियां इन्कम्बैंसी- एंटी इन्कम्बैंसी और जातीय- सामाजिक समीकरणों के पुराने संदर्भ बिंदुओं पर ही बना रहा है। 

बेशक, आज भाजपा के पास धन एवं प्रचार माध्यमों (मीडिया) के रूप में अकूत संसाधन हैं। लेकिन उसकी जीत का सिर्फ यही कारण नहीं है। बल्कि वह अपनी हिंदुत्व की राजनीति के पक्ष में इतनी ठोस गोलबंदी कर चुकी है कि चुनावों में उसे परास्त करना अति कठिन हो गया है। राष्ट्रवाद को हिंदुत्व के नजरिए से परिभाषित कर उसने बड़ी संख्या में लोगों की मन-मस्तिष्क में पैठ बना ली है। दूसरी तरफ विपक्ष में कोई भाजपा की वैचारिक शक्ति का विकल्प तैयार करने का प्रयास करता हुआ भी नहीं दिखता है। संभवतः विपक्षी दलों को लगता है कि वे मतदाताओं को प्रत्यक्ष लाभ बांटने की होड़ में आगे दिखा कर चुनाव जीत लेंगे। जबकि भाजपा इस बिंदु पर भी उन्हें ज्यादा जगह नहीं देती। इस पृष्ठभूमि में विपक्षी दलों के लिए असल विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या बिना राजनीति की नई परिकल्पना किए और बिना राजनीति करने के नए तरीके ढूंढे वे कभी भी भाजपा को चुनौती दे पाएंगे? इसके साथ ही दूसरे कारण भाजपा की सांगठनिक मजबूती, लोगों से जुड़ाव और उसके लिए पूरे समय पांच साल चौबीस गुना सात की राजनीति भी विपक्ष के लिए विचारणीय प्रश्न होना चाहिए।

सवाल खाली कांग्रेस का ही करें कि कांग्रेस क्यों हारी? तो जवाब उपरोक्त कारणों में ही छिपे हैं। इसके साथ ही मध्यप्रदेश में कमलनाथ की मनमानी सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति और राजस्थान की अंदरूनी कलह जैसे कारणों का भी समय पर उचित हल न तलाश पाना है। इसके साथ विपक्ष वाली सड़क की राजनीति को भी ज्यादातर कांग्रेस नेता भूल चुके हैं।

जी हां, चार में से तीन राज्य भाजपा के खाते में और एक कांग्रेस के खाते में गया है। यानी मुकाबला बीजेपी के नाम ही रहा है। तीन में से दो राज्य, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पिछले पांच साल कांग्रेस की सरकार रही और अब अगले पांच साल के लिए सत्ता भाजपा के खाते में जा रही है। वहीं मध्यप्रदेश की सत्ता इस बार नैतिक तरीके से भाजपा के पास आ गई है। पिछली बार कांग्रेस के हाथों से भाजपा ने छल के जरिए सत्ता हथिया ली थी और विधानसभा चुनावों में यह बड़ा मुद्दा भी बना था। लेकिन जनता को शायद सरकार चुराने के इस खेल से खास फर्क नहीं पड़ा या फिर अन्य कारण कांग्रेस के खिलाफ काम कर गए और सत्ता पूरी तरह से भाजपा के हाथ में आ गई है। ये तीनों हिंदी पट्टी के राज्य हैं, और यहां भाजपा बरसों से कांग्रेस से मजबूत रही है।

बात करें तो हिंदी पट्टी राज्यों में धर्म का कार्ड कैसे चलना है, इस की विशेषज्ञ भाजपा है। जबकि कांग्रेस उसकी नकल करने के चक्कर में पिट गई। सामाजिक- राजनीतिक विश्लेषकों और वरिष्ठ पत्रकारों की मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, जब लोगों को धर्म के आधार पर ही वोट देना है, तो वो असली छोड़, नकली माल की ओर क्यों देखेंगे। कांग्रेस पता नहीं कब इस बात को समझेगी कि सॉफ्ट हिंदुत्व से वो बीजेपी का मुकाबला नहीं कर पाएगी। बागेश्वरधाम जैसे बाबा के चरणों में सिर नवाने में किसी कांग्रेस नेता की निजी श्रद्धा हो सकती है, और ऐसा करके वह अपनी और अपने परिवार की जीत सुनिश्चित कर सकता है, लेकिन यहां पार्टी आलाकमान की जिम्मेदारी है कि वे पूछें कि इससे कांग्रेस का भला कैसे हो सकता है। जाहिर है कमलनाथ जैसे नेताओं की इस तरह की मनमर्जी पर आलाकमान रोक नहीं लगा पाया और इसका नतीजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा है।

हालांकि तेलंगाना में कांग्रेस सरकार बनने से भाजपा के लिए दक्षिण के दरवाजे एक बार फिर बंद हो गए हैं। इन नतीजों की एक और व्याख्या ये है कि देश में दक्षिण और उत्तर भारत की मानसिकता का फर्क पूरी तरह सतह पर आ गया है। कांग्रेस ने जैसी गारंटियां कर्नाटक में दी थीं, वैसी ही तेलंगाना और छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी दी थीं। लेकिन इन गारंटियों का असर दक्षिण भारत में अलग हुआ और उत्तर भारत में अलग रहा। रोजगार, नौकरियों के लिए परीक्षाएं, सस्ता परिवहन, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा, किसानों, मजदूरों के हित, ओबीसी का हक ऐसे तमाम मुद्दों पर उत्तर और दक्षिण भारत की जनता की सोच अलग नजर आई।

कर्नाटक के बाद तेलंगाना के लोगों ने कांग्रेस की विकासपरक सोच को धर्म के ऊपर तरजीह दी, लेकिन हिंदी पट्टी में धर्म बाजी मार गया। इन नतीजों में क्षत्रपों के रवैये ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है। तेलंगाना में कांग्रेस अध्यक्ष रेवंत रेड्डी का कहना है कि 20 साल की राजनीति में 15 साल वो विपक्ष में रहे हैं और इसने उन्हें जनता से जोड़ा है, नयी पहचान दी है। गौरतलब है कि एबीवीपी से राजनीति की शुरुआत करने वाले रेवंत रेड्डी टीडीपी में भी रहे और फिर कांग्रेस में आए। दो साल पहले ही उन्हें कांग्रेस की राज्य ईकाई की कमान मिली और अपने पर दिखाए इस भरोसे को उन्होंने गलत साबित नहीं होने दिया। तेलंगाना में बीआरएस, एआईएमआईएम और भाजपा की मिली-जुली घेराबंदी को तोड़ते हुए उन्होंने कांग्रेस को आगे निकाला।

जाहिर है ये काम एक अकेले के बस का नहीं है, बल्कि पूरे संगठन को साथ लेकर चलने की क्षमता की जरूरत होती है। रेवंत रेड्डी ने इसी क्षमता का परिचय दिया। लेकिन छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में तीन की जगह केवल एक प्रतिद्वंद्वी यानी भाजपा से ही कांग्रेस को मुकाबला करना था, उसमें भी छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो उसकी अपनी सरकारें थीं, मगर फिर भी कांग्रेस यहां फेल हो गई, क्योंकि उसके क्षत्रपों ने पार्टी की जगह खुद को जरूरत से अधिक तवज्जो दे दी। पार्टी आलाकमान इन्हें साध नहीं पाया या इन क्षत्रपों का अहंकार पार्टी से बढ़कर हो गया, इसकी विवेचना खुद कांग्रेस को करनी होगी। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान, तीनों जगह कांग्रेस में बड़े पदों पर बैठे नेता भाजपा से अधिक एक-दूसरे से लड़ने में व्यस्त रहे। इस तरह कहा जा सकता है कि इन क्षत्रपों का अहंकार जीत गया, और पार्टी की हार या जीत से इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

क्योंकि फर्क पड़ता होता तो चुनाव के करीब आने पर एकता का दिखावा करने की जगह वे ईमानदारी से अपनी दरारें भरते, ताकि पार्टी को जीत मिलती। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेता न आलाकमान के भरोसे पर खरे उतरे, न स्थानीय कार्यकर्ताओं के। वे केवल अपने अहंकारों की कसौटी पर खरे उतरे। अब ये कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के विचार करने का सवाल है कि इसके बाद इन राज्यों में कांग्रेस को सही अर्थों में वे कैसे पुनर्जीवित करेंगे और कैसे बेलगाम हो चुके नेताओं को काबू में रखेंगे।

कांग्रेस की तीन राज्यों में हार का असर क्या अब इंडिया गठबंधन पर पड़ेगा या 2024 के चुनाव इससे किसी तरह प्रभावित होंगे, अभी ऐसे कुछ सवालों पर चर्चा चलेगी। हालांकि पिछले चुनाव के अनुभव यही बताते हैं कि राज्य जीतने के बावजूद कांग्रेस आम चुनाव हार गई थी। मुमकिन है इस हार से कांग्रेस की तंद्रा भंग हो और वो 2024 की रणनीति तैयार करने में इस बार हुई भूलों से सबक ले सके। अगर कांग्रेस तीन राज्यों में जीत जाती, तो शायद उसके क्षत्रपों की मनमानी और बढ़ जाती और 2024 में उसका अच्छा असर नहीं होता। इस लिहाज से ठीक ही हुआ कि कांग्रेस ने हिंदी पट्टी के राज्यों में हार का स्वाद चख लिया है।

देश की असल पहचान और संविधान बचाने के लिए जरूरी है कि उन सामाजिक मूल्यों की पुनर्स्थापना हो, जो बीते दशक में तेजी से दफन कर दिए गए हैं। जिन बातों को न्यू नॉर्मल कहकर सहज स्वीकृति मिल चुकी हैं, वे दरअसल भारत की जड़ों को खोखला कर रही हैं। इसलिए सत्ता का केन्द्रीकरण और व्यक्तिकेन्द्रित राजनीति दोनों को खत्म करना होगा। इंडिया गठबंधन की जीत से यह मुमकिन हो सकता है, इसलिए 2024 के चुनावों पर अब कांग्रेस और गठबंधन के बाकी दलों का फोकस होना चाहिए। हालांकि भाजपा की पूरी कोशिश रहेगी कि मोदी मैजिक जैसे जुमले को वो भारतीय राजनीति का सच बनाने की कोशिश करे।

फिलहाल इस बार के बाद अब यह देखना है कि भाजपा का अहंकार और कितना बढ़ता है, गांधी परिवार पर उसके हमलों में कितनी तेजी आती है और ये भी देखना है कि कांग्रेस कब ईमानदारी से आत्ममंथन कर अपनी गलतियों को सुधारती है। कांग्रेस को यह समझना होगा कि मोहब्बत के कारोबार का जिम्मा केवल राहुल गांधी के कंधों पर नहीं डाला जा सकता, इसमें सबको अपनी हिस्सेदारी निभानी होगी। भाजपा की जीत का एक प्रमुख कारण सोशल इंजीनियरिंग की उसकी नीति भी है। जातीय प्रतिनिधित्व की आकांक्षाओं को उसने अपनी हिंदुत्ववादी राजनीति के बड़े तंबू के अंदर समेट लिया है। इस तरह वह 1990 के दशक में उभरी मंडलवादी राजनीति की काट तैयार कर ली है। आज हकीकत यह है कि उत्तर भारत में ओबीसी मतदाताओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा का मतदाता है। दलित और आदिवासी समुदायों में भी उसकी पैठ अब काफी मजबूत हो चुकी है।

2024 और उसके आगे भी आम चुनावों में कांग्रेस या विपक्ष का कोई भविष्य नहीं है। अगर वह अपना भविष्य बनाना चाहता है, तो उसे राजनीति की नई परिकल्पना करनी होगी- राजनीति क्या है इसकी एक नई समझ बनानी होगी। नई राजनीति नए तौर-तरीकों से ही की जा सकती है। इसलिए ऐसे तौर-तरीके ढूंढ़ने होंगे। लेकिन ऐसा इलीट कल्चर (अभिजात्य संस्कृति) में जीते हुए करना असंभव है। यह एक श्रमसाध्य राजनीति है, जिसके लिए कम से कम आज का विपक्ष तो तैयार नहीं दिखता।

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