आम जनता के अधिकारों को सुरक्षित करने में न्यायालयों की मुख्य भूमिका

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: June 13, 2017
राजस्थान हाई कोर्ट के न्यायाधीश श्री महेश चन्द्र शर्मा ने रिटायरमेंट से पहले दिए अंतिम निर्णय में ‘गाय’ को रास्ट्रीय पशु बनाने के लिए केंद्र सरकार को संस्तुति भेजी है . उन्होंने गौहत्या पर सख्त कानूनों की बात भी कही है और इसके लिए आजीवन कारावास देने की बात कही है . अपने निर्णय में उन्होंने वेद, पुराण, गीता और अन्य धर्मग्रंथो का हवाला भी दिया है . मोर के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उनका कहना था के मोर मोरनी की साथ सेक्स नहीं करता और मोर के आंसुओ के सहारे ही मोरनी गर्भवती हो जाती है . इस बात को उन्होंने विशेष जोर देकर कहा जिसके फलस्वरूप सोशल मीडिया में इसका बेहद मजाक भी उड़ा जो शायद पहली बार हुआ है क्योंकि अमूमन लोग न्यायलय के निर्णयों पर टिपण्णी भले ही करें लेकिन उसका मजाक नहीं उड़ाते क्योंकि इससे न्याय प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर असर पड़ता है .



राजस्थान हाई कोर्ट के परिसर में मनु की प्रतिमा स्थापित है . बहुत समय से वहा के मानवाधिकार कार्यकर्त्ता, अम्बेडकरवादी संगठन इस प्रतिमा को हटाने की मांग कर रहे है क्योंकि परिसर में जहा न्याय के लोग आते हों वह मनु के मूर्ती का होना निसंदेह शर्मनाक बात है लेकिन राजस्थान के मुख्य धारा के वकील या राजनेता इस प्रश्न पर कुछ नहीं कहते. अब तो इन बातो में शर्म या दुःख व्यक्त करने के बजाये मनु को महानतम कानूनविद भी बताया जा रहा है . जस्टिस महेश चन्द्र शर्मा ने अपने लम्बे निर्णय में संविधान को छोड़कर बाकी सभी हिन्दू ग्रंथो का रिफरेन्स दिया है .

कुछ ही दिन बाद आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने फिर से ऐसा निर्णय दे दिया जिससे लोगो में ऐसा संदेह हो रहा है क्या न्यायालयों में भी वर्तमान निज़ाम की बदली हवा का प्रभाव पड रहा हैं . जस्टिस बी शिव शंकर राव ने अपने आदेश में कहा के मुसलमानों को बकरीद में गौमांस खाने के लिए गौकसी का मूलभूत अधिकार नहीं है. सुप्रीम कोर्ट का कहना था के बकरीद में गौमांश खाने के लिए कोई धार्मिक मान्यताये या नियम कानून इस्लाम में नहीं है इसलिए मुसलमानों के लिए ईद के अवसर पर गौमांश की कोई आवश्यकता नहीं है . वेदों और पुरानो का उद्धरण देते हुए जस्टिस शंकर राव ने कहा के हमारे देश भारत की अधिसंख्य आबादी के लिए गाय माँ है, जो भगवान के बराबर है इसलिए गाय के हमारे समाज में विशेष मान्यता है और उसकी हत्या निषेध की गयी है . गाय का दूध अन्य किसी भी जानवर के दूध से ज्यादा बेहतरीन और माँ के दूध के बराबर माना जाता है .गाय का डीएनए भी मनुष्य के डीएनए से मिलता जुलता है . जज साहेब ने आगे और भी धर्मग्रंथो के उदहारण देते हुए कहा के गाय हमारी माँ के बराबर है. जब माँ का दूध सूख जाता है या बच्चे को नहीं मिलता तो गाय का दूध हमें उर्जा और ताकत प्रदान करता है .जिसने पवित्र गौ मा  का दूध पिया हो वो उसकी हत्या कैसे स्वीकार कर सकता है . गाय का मीट खाने के बारे में सपने में भी सोचना पाप है . गाय से हम सभी को ख़ुशी मिलती है और इसी कारण उसकी पूजा की जाती है .

असल में न्यायलय के सामने तेलंगाना के नलगोंडा जिले के एक पशुपालक ने पेटीशन दायर की थी जिसकी ६३ गाये और २ सांड पिछले साल सीज कर लिए गए थे . ये जानना आवश्यक है के क्या ऐसा व्यक्ति गायो पर अपना दावा कर सकता है जिसके पास से गाये मारने हेतु ले जाते समय जब्द की गयी हो ?

इस प्रकार के बहुत से निर्णय लगातार आ रहे हैं जिनमे न्यायाधीश अब शास्त्रों का बखान कर रहे हैं और हकीकत में कानून और संविधान की कोई बात नहीं कर रहे . जब इस प्रकार के निर्णय दिए जाते हैं जो किसी के आस्थाओं पर आधारित हैं तो वे केवल संविधान को मर्यादाओं को ताक पर रख कर दिए जा सकते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा हो रहा है जो गंभीर है . जस्टिस करनन कलकत्ता उच्च न्यायलय से रिटायर हो गए हैं लेकिन उन्होंने कुछ ऐसे निर्णय दिए जो अमर्यादित थे और हर एक को पता था के खतरनाक भी . चेन्नई से जब उनका तबादला कलकत्ता किया गया था तब उन्होंने स्वमय्म इस पर रोक लगा दी . अभी रिटायरमेंट से पहले उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश समेत अन्य कई जजों के खिलाफ अनुसूचित जाति अधिनिअम के तहत कार्यवाही करने के आदेश दे दिए जो पूर्णतय अवेधानिक हैं आखिर हाई कोर्ट का एक जज सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जजों के खिलाफ कैसे कोई आदेश दे सकता हैं और वह भी अपने आप बिना किसी पेटीशन के . मामला बहुत गरम हुआ तो सुप्रीम कोर्ट ने उनके आदेश पर न केवल रोक लगाईं अपितु उनकी गिरफ़्तारी के आदेश भी दिए लेकिन वह अभी भी अंडरग्राउंड चल रहे हैं .

अभी लखनऊ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लखनऊ विश्विद्यालय में आगमन का विरोध कर रहे छात्रो ने उन्हें काले झंडे दिखाए,( यहाँ मैं बताना चाहता हूँ के काला को ख़राब या नकारात्मक मनाने के संकेतो के भी मैं खिलाफ हूँ ) और पुलिस ने उनकी न केवल पिटाई की अपितु उन्हें गिरफ्तार भी किया जो ऐसे मामलो में होता भी है लेकिन सबसे गंभीर बात यह है के स्थानीय न्यायलय ने उन्हें रिहा करने से इनकार कर दिया और १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया . लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिए प्रदर्शन करना हम सभी का अधिकार है और छात्रो को तो ये अधिकार और अधिक है क्योंकि मौजूदा शिक्षा नीति के फलस्वरूप उनका भविष्य लगातार अंधकारमय होता जा रहा है इसलिए काले झंडे दिखाना को बहुत खतरनाक आतंकवादी घटना नहीं है . पुलिस ने सभी छात्रो पर गंभीर धाराए लगाईं ताकि वे बार बार न्यायलय और थानों के चक्कर लगाते रहे.

अभी सुप्रीम कोर्ट ने भी आधार मामले में ऐसा निर्णय दिया जिसे सरकार की जीत माना जा रहा है . आधार बिल पर कोर्ट को अभी निर्णय देना है के यह मनी बिल के तौर पर पास किया गया जिसके लिए राज्यसभा की सहमती की आवश्य्कता नहीं है, संवैधानिक या नहीं . इस प्रश्न को लेकर जनता और मानवाधिकार कार्यकर्ताओ में बहुत रोष है. सरकार इसको लागु करने के हड़बड़ी में है और इस पर न्याय प्रक्रिया के पुरे होने का इंतज़ार भी नहीं कर रही . उम्मीद है जून २६ को सुप्रीम कोर्ट की पूरी संविधान पीठ इस पर विस्तार पूर्वक चर्चा करेगी और देश की जनता के अधिकारों के रक्षा करेगी . हम सभी जानते हैं के राज्यों की उच्च्न्ययालायो के विपरीत निर्णयों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पलटा भी है और इस कारण लोगो का उन पर भरोषा है . चाहे कन्हैया कुमार, उमर खालिद और जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय के अन्य छात्रो का मामला हो जिन पर मीडिया ने देशद्रोही होने का आरोप लगा दिया, सुप्रीम कोर्ट का त्वरित हस्तक्षेप के बाद मामला बदला . ऐसा नहीं है के सभी जगह हाई कोर्ट में ऐसे निर्णय आये हैं क्योंकि तमिलनाडु हाई कोर्ट ने तो केंद्र के पर्यावरण मंत्रालय के कैटल ट्रेड पे निकाले नोटिफिकेशन पर रोक लगा दी . अभी उत्तराखंड हाई कोर्ट ने एसिड अटैक से प्रभावित महिलाओं की याचिका पर एक बेहद महत्वपूर्ण निर्णय दिया है जो देश भर में अन्य राज्यों के लिए भी आदर्श हो सकता है . कोर्ट ने उत्तराखंड स्थित निचली अदालतों को आदेश दिया के वे एसिड अटैक से सम्बंधित मामलो को रोज सुनकर तीन महीने में उस पर फैसला सुनाये. इसके अलावा कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया के एसिड अटैक प्रभावित महिला को ऍफ़ आई आर दर्ज होने के तुरंत बाद एक लाख रुपैया की धनराशी प्रदान की जाए और ७००० रुपैया प्रति माह उन महिलाओं को मिले जो अधिक प्रभावित हैं और जो उससे थोडा कम हैं उन्हें ५००० रुपैया मासिक की धनराशी प्रदान की जाए. निर्णय का सबसे महत्वपूर्ण पहलु यह के सरकार न्याय प्रक्रिया पूरा होने तक गवाहों को पूरी सुरक्षा प्रदान करे और ऐसी घटनाओं की जांच एक राजपत्रित अधिकारी एक सप्ताह के अन्दर संपन्न करे . हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को चार हफ्तों की भीतर एसिड अटैक प्रभावित महिला को मुआवजा देने के लिए क्रिमिनल इंजुरी प्रोटेक्शन बोर्ड बनाने के लिए भी कहा है और एसिड सर्वाइवर को डिसेबिलिटी कोटा के तहत आरक्षण भी प्रदान किया जाए और उसके पूर्णतः स्वस्थ होने तक सरकार उनके पुरे इलाज का खर्चा वहन करे . अब इस प्रकार के निर्णयों से जनता का विश्वास न्यायपालिका में बढ़ता है क्योंकि कोर्ट ने पूरे पहलुओ को ध्यान में रखकर और भविष्य का सोचकर निर्णय दिया है . उम्मीद है ऐसे फैसलों से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार कम होंगे .

लेकिन देश में जिस प्रकार के हालत हैं वो गंभीर हैं, खासकर उन लोगो के लिए जो ज्वलंत प्रश्नों पर सरकार और उसके तंत्र से भिन्न राय रखते हैं . मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता सभी इस खतरे को भांप रहे हैं क्योंकि इस दौर में जब मीडिया का इस्तेमाल झूठ फ़ैलाने के लिए किया जा रहा हो और चैनलों पर ‘ब्रेक न्यूज़’ में चुप-चाप लीक करवाई गई खबरों के आधार पर मीडिया ट्रायल करके उनका चरित्र हनन कर न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश भी की जा रही है जो न्याय प्रक्रिया में बाहरी हस्तक्षेप हैं हालाँकि हम सब जानते हैं के कम से कम उच्च स्तर पर न्यायलय इससे से प्रभावित नहीं रहा है फिर भी एक प्रकार का माहौल बनाने की कोशिशे जारी हैं.

हमें अभी भी १९७५ में इलाहाबाद हाई कोर्ट का जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का वो निर्णय याद है जिसमे उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के रायबरेली से जीते चुनाव को अवैध घोषित कर दियाऔर उन्हें किसी भी पद के अयोग्य घोषित कर दिया  हालांकि बाद में उच्चतम नयायालय ने उस निर्णय को पलट दिया लेकिन एक निर्णय ने देश के राजनैतिक तस्वीर बदल दी और साबित किया के देश के न्यायपालिका लोकतंत्र और संविधान की रक्षा में किसी भी मजबूत राजनैतिक शख्सियत के विरुद्ध भी निर्णय दे सकती हैं .

इसलिए देश में संवैधानिक जनतंत्र और बहुलतावाद को बचाने के लिए  राजस्थान और आंध्र तेलंगाना हाई कोर्टो के निर्णयों पर सुप्रीम कोर्ट को उसी तरह सख्त होने की जरुरत है जैसे जस्टिस कन्नन के मामले में उन्होंने किया . सवाल इस बात का नहीं है के कोर्ट का निर्णय किस ओर गया लेकिन इस बात का है के क्या निर्णयों में संवैधानिकता के प्रश्न है या जजों की व्यक्तिगत आस्थाए. भारत के कानून सम्मत देश है जिसका एक संविधान है जिसे दुनिया भर में बहुत सम्मान की दृष्टी से देखा जाता है . भारत संवैधानिक तौर पर एक धर्मनिरपेक्ष देश  है और भाषागत, जातीय, क्षेत्रीय और धार्मिक मामलो में विविधताओं से परिपूर्ण देश है जो हमारी कमी नहीं ताकत है . हमारे यहाँ नागरिक अदालते हैं जो संवैधानिकता के आधार पर सही और गलत का निर्णय करती हैं. पाकिस्तान या किसी इस्लामिक देश की तरह यहाँ शरिया अदालतों का हिन्दू स्वरूप नहीं है लेकिन जो लोगो भारत को इस तौर पर देखना चाहते हैं वो इसकी आबादी, इतिहास और परम्पराओं के उलट काम कर रहे हैं .

१९७५ में आपातकाल में और उसके बाद से भारत में न्यायालयों ने लगातार सिविल लिबर्टीज, मानवाधिकारों और अन्य महत्वपूर्ण जन प्रश्नों पर जनता में भरोषा पैदा करने वाले निर्णय दिए हैं. १९८४ में दिल्ली और २००२ में गुजरात के ‘प्रायोजित’ दंगो से प्रभावित पीडितो की आशा केवल न्याय-पालिका ही है. भारत ही वो देश है जहाँ से पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की नीव पड़ी . पिछले सालो में उच्चतम न्यायलय ने आदिवासियों और दलितों के कई महत्वपूर्ण सवालो पर अपने फैसलों से लोगो का विश्वाश न्याय प्रक्रिया में और मजबूत किया है, इसलिए आवश्यकता इस बात की है के सुप्रीम कोर्ट विशेषकर हाई कोर्ट में विशेषकर जहाँ सिंगल जज बेंच निर्णय देती है के लिए कोई विशेष गाइड लाइन जारी करे ताकि सभी उसका पालन करें. यह भी आवश्यक है के निर्णय में भाषण कम और संवैधानिक विश्लेषण ज्यादा हो तभी हमारा धर्मनिरपेक्ष चरित्र बचा रहेगा. आज जब हमारे देश की बहुभाषी,  बहुसांस्कृतिक आधार को कमज़ोर करने की कोशिश है, उस पर बहुसंख्यकवाद और फर्ज्ज़ी राष्ट्रवाद  जबरन लादा जा रहा है इसलिए उसको बचाने का एकमात्र उपाय संविधान की सर्वोच्चता है जिसको केवल उच्च न्यायप्रक्रिया के हस्तक्षेप से ही कायम रखा जा सकता है .

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