बिजली संकट का कारण, प्रभाव और सरकारी मंशा

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: May 2, 2022
उत्तर भारत का लगभग पूरा इलाका हीटवेव (लू) की चपेट में है तो दूसरी तरफ बिजली संकट ने विकराल रूप ले लिया है. कोरोना महामारी फिर से पैर पसार रही है, वहीं तापमान के बढ़ने से चिंता बढ़ रही है. कोरोना महामारी में हुई बंदी के बाद अर्थव्यवस्था को संभालने के नाम पर फैक्टरियों में उत्पादन बढाया गया. खेतों में भी बिजली की जरुरत बढ़ी है. मौजूदा स्थिति आगे चल कर बड़े बिजली संकट का संकेत दे रही है. देश में संभावित बिजली संकट को लेकर हाहाकार मचा हुआ है.



कोयले की आपूति में कमी और बिजली की मांग में वृद्धि की वजह से व देशभर की जरूरतों के हिसाब से बिजली का उत्पादन नहीं हो पा रहा है. वर्तमान में बिजली संकट के हालत यह हैं कि राजधानी दिल्ली में अस्पतालों और मेट्रो तक पर इसका असर दिखाई दे रहा है. इस संकट की चपेट में दिल्ली के साथ-साथ UP, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान समेत उतर भारत के कई राज्य शामिल हैं.

बिजली संकट की वजह:
बिजली के संकट की वजह कोयले की कमी को बताया जा रहा है. देश में अधिकांश बिजली कोयले से चलने वाले पावर प्लांट से ही बनायी जाती है. आज भी देश में करीब 70 फीसदी बिजली उत्पादन कोयले की मदद से ही होता है. पावर प्लांट में कोयले की कमी होने की एक वजह रूस युक्रेन युद्ध भी है. युद्ध की वजह से कोयले के दाम में बढ़ोत्तरी हुई जिससे भारत ने इन देशों से कोयले के आयत को कम किया है. गैस की कीमतों में बढ़त को भी बिजली के किल्लत के लिए जिम्मेवार माना जा रहा है. 

हालांकि कोयले की उपलब्धता में कमी होना बिजली संकट का एक मात्र पहलू है. सप्लाई में कमी के साथ ही जो चीज इस संकट को और अधिक गंभीर बना रही है वह है मांग में अप्रत्याशित वृद्धि. लगातार बढ़ते तापमान की वजह से बिजली की खपत में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. बढ़ते तापमान की वजह से हाइड्रो पावर यानि पानी से तैयार होने वाली बिजली में भी कमी आई है. वर्तमान में हाइड्रो पावर प्लांट अपनी क्षमता से महज 30 से 40 प्रतिशत तक ही बिजली का उत्पादन कर रही है. वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन का असर और मौसम में असमय हो रहे बदलाव नें भी बिजली संकट को जन्म दिया है. तापमान में समय से पहले हुई बढ़ोत्तरी के कारण बिजली की मांग समय से पहले ही बढ़ गयी है. वर्तमान में बिजली की मांग 38 साल के उच्च स्तर पर पहुँच चुकी है. 

पावर मिनिस्ट्री के मुताबिक, 26 अप्रैल को बिजली की मांग 201.066 गीगावाट रही जबकि गुरूवार को यह 204.653 गीगावाट तक पहुँच गयी. पिछले साल बिजली की अधिकतम मांग 200.53 गीगावाट रही थी. कई राज्यों द्वारा उर्जा संकट और कोयले के अभाव के लिए केंद्र सरकार पर दबाब बनाया गया जिसके जबाब में नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन (NTPC) ने बयान दिया है कि उसके पास कोयले की कमी नहीं है. 

बिजली संकट का प्रभाव 
बिजली वर्तमान जीवनचर्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है. तकनीकी क्रांति ने मोबाईल से लेकर कम्पूटर तक पर इंसानों की निर्भरता को बढाया है जिसमें उर्जा की जरुरत अनिवार्य है. इस संकट की वजह से कई राज्यों को 8 से 10 घंटे तक बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है. आज फोन चार्ज करने से लेकर खेतों में उत्पादन तक, उद्योगों में जरूरतों से लेकर यातायात के साधनों में बिजली का बहुतायत उपयोग है. माहे रमजान के समय में बिजली का संकट होना एक बड़े समुदाय की खुशियों पर ग्रहण लगने जैसा है. 

बिजली संकट पर संभावित सरकारी मंशा 
लगातार अखबार व पत्रिकाओ में यह खबर आ रही है कि कोयले की कमी से देश के 60 फीसदी संयंत्र संकट में हैं. देश को जिस तरह से निजीकरण की तरफ ले जाया जा रहा है इसकी प्रबल सम्भावना है कि उर्जा क्षेत्र में भी निजीकरण की कोशिश है. देश की कुल बिजली उत्पादन की क्षमता 400 गीगावाट है और वर्तमान में मांग 220 गीगावाट की है. भारत में कोयला आधारित 173 बिजली इकाइयों में से 105 में 20-30% कोयला ही बचा है हालंकि NTPC का दावा है कि कोयले की कोई कमी नहीं है.

गौर करने वाली बात यह है कि कोयले की भारी कमी दिखा कर केंद्र सरकार राज्यों पर महंगा विदेशी कोयला को आयात करने का दबाब डाल सकती है. पिछले साल की तुलना में विदेशी कोयला इस वर्ष 4 गुना महंगा है. अगर राज्य सरकारें 10 प्रतिशत कोयला भी आयात करती है तो उसका भार बिजली बिल के रूप में आम जनता पर पड़ेगा. केंद्र सरकार पहले भी निजी प्लांट्स को कोयला आपूर्ति करवाने की हिमायती रही है. निजी क्षेत्र के पावर प्लांट विदेशी आयातित कोयले का इस्तेमाल करते रहे हैं और कोयला महंगा होने पर प्लांट को बंद कर लोगों को परेशान होने के लिए छोड़ चुके हैं. इस बार भी हालत वैसे ही हैं. मुनाफे के बगैर जनता को बिजली आपूर्ति नहीं करवाने की मंशा निजी कंपनियों की साफ़ झलकती है जिसे सरकारी सह प्राप्त है. देश में बढती बिजली मांग के बावजूद भी खदानों से निकलने वाला 40 फीसदी कोयला सीधे प्राइवेट प्लांट्स में जाता रहा है जो महँगी बिजली बनाते हैं.

राज्य और केंद्र की बिजली इकाइयाँ तेजी से घाटे में जा रही हैं और सरकार जनता के पैसे से प्राइवेट पावर प्लांट को सब्सिडी दे रही है. सरकार उपभोक्ताओं पर घाटे का बोझ डाल रही है. जिसका नतीजा प्रचंड महंगाई व छोटे मंझोले उद्योगों के बंद होने के रूप में सामने आ रहा है जो रोजगार सृजन का स्रोत भी रहा है. यह संभव है कि कोयले की कमी और बिजली कटौती की आड़ में बिजली क्षेत्र में पूर्ण रूप से निजीकरण का रास्ता खोला जा रहा है. जो भी हो संभावित बिजली संकट से जनता डरी हुई है और जनता को डर दिखाकर राजनीतिक हित साधने का काम पिछले कई वर्षों से वर्तमान सरकार बखूबी करती आ रही है.

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