सोशल मीडिया के इस दौर में राजनीति में नेता ब्रांडिंग और गढ़ी गयी छवियों के सहारे आगे बढ़ते हैं यहाँ ब्रांड ही विचार है और विज्ञापन सबसे बड़ा साधन, साल 2014 में नरेंद्र मोदी ने इसी बात को साबित किया था और अब राहुल गाँधी भी इसे ही दोहराना चाह रहे हैं. इसी आजमाये हुये हथियार के सहारे वे अपनी पुरानी छवि को तोड़ रहे हैं और सुर्खियां बटोर रहे हैं. इसका असर भी होता दिखाई पड़ रहा है जिसका अंदाजा गुजरात में उनको मिल रहे रिस्पांस और भाजपा की बेचैनी को देख कर लगाया जा सकता है.
2014 में मिली करारी हार के बाद से देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी, पहले केंद्र और फिर एक के बाद एक सूबों में अपनी सरकारें गवाने के बाद उसके भविष्य पर ही सवालिया निशान लग गया था, वैसे तो किसी भी राजनीतिक दल के लिये चुनाव में हार-जीत सामान्य बात है लेकिन यह हार कुछ अलग थी कांग्रेस इससे पहले भी हारती थी लेकिन तब उसकी वापसी को लेकर किसी को संदेह नहीं होता था लेकिन इस बार कांग्रेसी भी उसकी वापसी को संदेह जताते हुए देखे जा सकते थे.
ज्यादा दिन नहीं बीते जब इतिहासकार रामचंद्र गुहा कांग्रेस को बगैर नेता वाली पार्टी बता रहे थे. सबसे ज्यादा सवाल राहुल गाँधी और उनके नेतृत्व उठाये गये क्योंकि वही नेहरु खानदान और कांग्रेस पार्टी के वारिस हैं, खुद उनकी ही पार्टी के नेता खुलेआम उन्हें सियासत के लिए अनफिट करार देने लगे थे और उनके अंडर काम करने की अनिच्छा जताने लगे थे. इसकी ठोस वजहें भी रही हैं, अपने एक दशक से ज्यादा के लम्बे पॉलिटिकल कैरियर में राहुल ज्यादातर समय अनिच्छुक और थोपे हुए गैर-राजनीतिक प्राणी ही नजर आये हैं जिससे उनकी छवि एक “कमजोर” 'संकोची' और 'यदाकदा' नेता की बन गयी जो अनमनेपन से सियासत में है.
इस दौरान उनकी दर्जनों बार री-लांचिंग हो चुकी है हर बार की री-लांचिंग के बाद कुछ समय के लिये वे बदले हुए नज़र आये लेकिन इसकी मियाद बहुत कम होती थी. एक बार फिर उनकी रीब्रांडिंग हुयी है, अब अपने आप को वे धीरे-धीरे एक ऐसे मजबूत नेता की छवि में पेश कर रहे हैं जो नरेंद्र मोदी का विकल्प हो सकता है, उनकी बातों, भाषणों और ट्वीटस में व्यंग, मुहावरे, चुटीलापन, हाजिरजबावी का पुट आ गया है जो कि लोगों को आर्कर्षित कर रहा है .
इधर परिस्थितियाँ भी उनको मदद पहुंचा रही हैं हर बीते दिन के साथ मोदी सरकार अपने ही वायदों और जनता के उम्मीदों के बोझ तले दबती जा रही है, अच्छे दिन,सब का साथ सब का विकास, गुड गवर्नेंस, काला धन वापस लाने जैसे वायदे पूरे नहीं हुये हैं और नोटबंदी व जीएसटी जैसे कदमों ने परेशानी बढ़ाने का काम किया है आज की स्थिति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सामने चुनौती यह है कि उन्होंने पिछले तीन सालों में जो हासिल किया था उसे बचाये रखना है, जबकि राहुल और उनकी पार्टी पहले से ही काफी-कुछ गवां चुके है अब उनके पास खोने के लिए कुछ खास बचा नहीं है, ऐसे में उनके पास तो बस एक बार फिर से वापसी करने या विलुप्त हो जाने का ही विकल्प बचता है. इस दौरान घटित दो घटनायें भी कांग्रेस और राहुल गाँधी के लिये के लिये मौका साबित हुई हैं, पहला पंजाब विधानसभा चुनाव में “आप” के गुब्बारे का फूटना और दूसरा नीतीश कुमार का भगवा खेमे में चले जाना. पंजाब में आप की विफलता से राष्ट्रीय स्तर पर उसके कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरने की सम्भावना क्षीण हुयी है, जबकि नीतीश कुमार को 2019 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष का चेहरा माना जा रहा था लेकिन उनके पाला बदल लेने से अब राहुल गाँधी के पास मौका है कि वे इस रिक्तता को भर सकें. कांग्रेस के रणनीतिकार राहुल को भारत के कनाडा के युवा और उदारपंथी प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के रूप में पेश करना चाहते है जो दुनिया भर के उदारपंथियों के चहेते हैं. यह एक अच्छी रणनीति हो सकती है क्योंकि नरेंद्र मोदी का मुकबला आप उनकी तरह बन कर नहीं कर सकते बल्कि इसके लिये सिक्के का दूसरा पहलू बनना पड़ेगा जो ज्यादा नरम, उदार, समावेशी और लोकतान्त्रिक हो, शायद राहुल की यही खासियत भी है.
लेकिन इस रिक्तता को भरने के लिये केवल ब्रांडिंग ही काफी नहीं है, कांग्रेस पार्टी का संकट गहरा है और लड़ाई उसके आस्तित्व से जुडी है. दरसल कांग्रेस का मुकाबला अकेले भाजपा से नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके विशाल परिवार से है जिसके पास संगठन और विचार दोनों हैं. इसलिए कांग्रेस को अगर मुकाबले में वापस आना है तो उसे संगठन और विचारधार दोनों स्तर पर काम काम करना होगा उसे अपने जड़ों की तरफ लौटना होगा और आजादी के आन्दोलन के दौरान जिन मूल्यों और विचारों की विरासत उसे मिली थी उन्हें अपने एजेंडे में लाना होगा, उग्र और एकांकी राष्ट्रवाद के मुकाबले समावेशी और बहुत्लावादी राष्ट्रवाद की अवधारणा को पेश करना होगा तभी जाकर वह अपनी खोई हुई जमीन दोबारा हासिल कर सकती है.
बहरहाल बदले हुये इस माहौल में लोगों की राहुल गाँधी से उम्मीदें बढ़ रही हैं खासकर उदारपंथियों के वे चहेते होते जा रहे हैं उनका नया रूप कांग्रेस के लिए उम्मीद जगाने वाला है लेकिन यह निरंतरता की मांग करता है जिसमें उन्हें अभी लम्बा सफर तय करना है इसके साथ ही उन्हें कई कसौटियों पर भी खरा उतरना पड़ेगा. अभी भी उन्हें पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह एक प्रेरणादायक और चुनाव जिता सकने वाले नेता के तौर पर स्वीकृति नहीं मिली है जो उन्हें हासिल करना है.
अपनी पार्ट टाइम, अनिच्छुक नेता की छवि से बाहर निकलने के लिए भी उन्हें और प्रयास करने होंगें क्योंकि उनके समर्थकों को ही यह शक है कि कहीं वे अपनी पुरानी मनोदशा में वापस ना चले जायें. फिलहाल तो वे “ब्रांड राहुल” की मार्केटिंग सफलता के साथ करते हुये नजर आ रहे हैं आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि राहुल की ब्रांडिंग का असर क्या होता है और भाजपा इसका मुकाबला कैसे करती है?
2014 में मिली करारी हार के बाद से देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी, पहले केंद्र और फिर एक के बाद एक सूबों में अपनी सरकारें गवाने के बाद उसके भविष्य पर ही सवालिया निशान लग गया था, वैसे तो किसी भी राजनीतिक दल के लिये चुनाव में हार-जीत सामान्य बात है लेकिन यह हार कुछ अलग थी कांग्रेस इससे पहले भी हारती थी लेकिन तब उसकी वापसी को लेकर किसी को संदेह नहीं होता था लेकिन इस बार कांग्रेसी भी उसकी वापसी को संदेह जताते हुए देखे जा सकते थे.
ज्यादा दिन नहीं बीते जब इतिहासकार रामचंद्र गुहा कांग्रेस को बगैर नेता वाली पार्टी बता रहे थे. सबसे ज्यादा सवाल राहुल गाँधी और उनके नेतृत्व उठाये गये क्योंकि वही नेहरु खानदान और कांग्रेस पार्टी के वारिस हैं, खुद उनकी ही पार्टी के नेता खुलेआम उन्हें सियासत के लिए अनफिट करार देने लगे थे और उनके अंडर काम करने की अनिच्छा जताने लगे थे. इसकी ठोस वजहें भी रही हैं, अपने एक दशक से ज्यादा के लम्बे पॉलिटिकल कैरियर में राहुल ज्यादातर समय अनिच्छुक और थोपे हुए गैर-राजनीतिक प्राणी ही नजर आये हैं जिससे उनकी छवि एक “कमजोर” 'संकोची' और 'यदाकदा' नेता की बन गयी जो अनमनेपन से सियासत में है.
इस दौरान उनकी दर्जनों बार री-लांचिंग हो चुकी है हर बार की री-लांचिंग के बाद कुछ समय के लिये वे बदले हुए नज़र आये लेकिन इसकी मियाद बहुत कम होती थी. एक बार फिर उनकी रीब्रांडिंग हुयी है, अब अपने आप को वे धीरे-धीरे एक ऐसे मजबूत नेता की छवि में पेश कर रहे हैं जो नरेंद्र मोदी का विकल्प हो सकता है, उनकी बातों, भाषणों और ट्वीटस में व्यंग, मुहावरे, चुटीलापन, हाजिरजबावी का पुट आ गया है जो कि लोगों को आर्कर्षित कर रहा है .
इधर परिस्थितियाँ भी उनको मदद पहुंचा रही हैं हर बीते दिन के साथ मोदी सरकार अपने ही वायदों और जनता के उम्मीदों के बोझ तले दबती जा रही है, अच्छे दिन,सब का साथ सब का विकास, गुड गवर्नेंस, काला धन वापस लाने जैसे वायदे पूरे नहीं हुये हैं और नोटबंदी व जीएसटी जैसे कदमों ने परेशानी बढ़ाने का काम किया है आज की स्थिति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सामने चुनौती यह है कि उन्होंने पिछले तीन सालों में जो हासिल किया था उसे बचाये रखना है, जबकि राहुल और उनकी पार्टी पहले से ही काफी-कुछ गवां चुके है अब उनके पास खोने के लिए कुछ खास बचा नहीं है, ऐसे में उनके पास तो बस एक बार फिर से वापसी करने या विलुप्त हो जाने का ही विकल्प बचता है. इस दौरान घटित दो घटनायें भी कांग्रेस और राहुल गाँधी के लिये के लिये मौका साबित हुई हैं, पहला पंजाब विधानसभा चुनाव में “आप” के गुब्बारे का फूटना और दूसरा नीतीश कुमार का भगवा खेमे में चले जाना. पंजाब में आप की विफलता से राष्ट्रीय स्तर पर उसके कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरने की सम्भावना क्षीण हुयी है, जबकि नीतीश कुमार को 2019 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष का चेहरा माना जा रहा था लेकिन उनके पाला बदल लेने से अब राहुल गाँधी के पास मौका है कि वे इस रिक्तता को भर सकें. कांग्रेस के रणनीतिकार राहुल को भारत के कनाडा के युवा और उदारपंथी प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के रूप में पेश करना चाहते है जो दुनिया भर के उदारपंथियों के चहेते हैं. यह एक अच्छी रणनीति हो सकती है क्योंकि नरेंद्र मोदी का मुकबला आप उनकी तरह बन कर नहीं कर सकते बल्कि इसके लिये सिक्के का दूसरा पहलू बनना पड़ेगा जो ज्यादा नरम, उदार, समावेशी और लोकतान्त्रिक हो, शायद राहुल की यही खासियत भी है.
लेकिन इस रिक्तता को भरने के लिये केवल ब्रांडिंग ही काफी नहीं है, कांग्रेस पार्टी का संकट गहरा है और लड़ाई उसके आस्तित्व से जुडी है. दरसल कांग्रेस का मुकाबला अकेले भाजपा से नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके विशाल परिवार से है जिसके पास संगठन और विचार दोनों हैं. इसलिए कांग्रेस को अगर मुकाबले में वापस आना है तो उसे संगठन और विचारधार दोनों स्तर पर काम काम करना होगा उसे अपने जड़ों की तरफ लौटना होगा और आजादी के आन्दोलन के दौरान जिन मूल्यों और विचारों की विरासत उसे मिली थी उन्हें अपने एजेंडे में लाना होगा, उग्र और एकांकी राष्ट्रवाद के मुकाबले समावेशी और बहुत्लावादी राष्ट्रवाद की अवधारणा को पेश करना होगा तभी जाकर वह अपनी खोई हुई जमीन दोबारा हासिल कर सकती है.
बहरहाल बदले हुये इस माहौल में लोगों की राहुल गाँधी से उम्मीदें बढ़ रही हैं खासकर उदारपंथियों के वे चहेते होते जा रहे हैं उनका नया रूप कांग्रेस के लिए उम्मीद जगाने वाला है लेकिन यह निरंतरता की मांग करता है जिसमें उन्हें अभी लम्बा सफर तय करना है इसके साथ ही उन्हें कई कसौटियों पर भी खरा उतरना पड़ेगा. अभी भी उन्हें पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह एक प्रेरणादायक और चुनाव जिता सकने वाले नेता के तौर पर स्वीकृति नहीं मिली है जो उन्हें हासिल करना है.
अपनी पार्ट टाइम, अनिच्छुक नेता की छवि से बाहर निकलने के लिए भी उन्हें और प्रयास करने होंगें क्योंकि उनके समर्थकों को ही यह शक है कि कहीं वे अपनी पुरानी मनोदशा में वापस ना चले जायें. फिलहाल तो वे “ब्रांड राहुल” की मार्केटिंग सफलता के साथ करते हुये नजर आ रहे हैं आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि राहुल की ब्रांडिंग का असर क्या होता है और भाजपा इसका मुकाबला कैसे करती है?