MP/CG चुनाव: सांसद-मंत्रियों को विधायकी का चुनाव लड़ाना भाजपा की मजबूरी या रणनीति?

Written by Navnish Kumar | Published on: September 28, 2023
"अमूमन दुनिया भर में नेतृत्व और जनप्रतिनिधित्व का विकास नीचे से ऊपर तरफ होता है। कतिपय अपवादों को छोड़कर अपने कार्यकर्ताओं को ग्राम पंचायत या पार्षद स्तर से विधायकी और फिर वहां से सासंदी का रास्ता दिखलाया जाता है लेकिन भाजपा में उल्टी धारा बह रही है। इसी नवंबर में जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं उनमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी हैं। दोनों राज्यों के अब तक जितने उम्मीदवारों की घोषणा हो चुकी है उनमें से अनेक सांसद और केंद्र में मंत्री तक हैं लेकिन उन्हें विभिन्न विधानसभा सीटों पर लड़ाया जा रहा है।"



जी हां, मध्यप्रदेश में भाजपा ने तीन केंद्रीय मंत्रियों समेत सात सांसदों को उम्मीदवार बनाने के पीछे चाहे जो मजबूरी या रणनीति रही हो लेकिन इसे लेकर ढेरों सवाल खड़े हो रहे हैं। 6 बार के सांसद और केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद पटेल पहली बार विधानसभा  लड़ेंगे। 4 बार के सासंद राकेश सिंह पहली बार MLA का चुनाव लड़ेंगे। केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते 33 साल बाद MLA का चुनाव लडेंगे तो सवाल खुद ब खुद बड़े और खड़े हो जाते हैं। संसद सदस्यों को राज्यों में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिये उतारना साबित करता है कि भाजपा के पास मुद्दों के साथ-साथ चेहरों की भी कमी है। हालांकि कई राजनीतिक विश्लेषक इसके पीछे पार्टी सर्वेसर्वा पीएम नरेन्द्र मोदी और उनके प्रमुख सहयोगी व केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की सुनियोजित चाल नजर आती है। खैर देखना यही होगा कि यह कदम आत्मघाती साबित होता है या सफलता दिलाएगा।

मोदी-शाह ने तीन केन्द्रीय मंत्रियों- प्रह्लाद पटेल, नरेन्द्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते समेत 7 सांसदों को विधानसभा सीटों की टिकटें थमाकर राज्य में भेज दिया है। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय सहित, जो कभी खुद ही प्रत्याशी तय करते थे, अब इंदौर-1 से चुनाव लडेंगे। कहा जाता है कि मप्र भाजपा के सामने मुद्दों के साथ चेहरों के भारी अभाव के ही चलते भाजपा ने इतने सांसदों को उतारा है। अब अगर भाजपा को बहुमत मिलता है तो मुख्यमंत्री पद के लिये और हारती है तो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के लिये बड़ों के बीच घमासान तय है।

सांसदों को विधायकी लड़ाने पर नया इंडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार अजीत द्विवेदी सवाल खड़े करते हुए कहते हैं कि पहले भी ऐसा होता था लेकिन वह अपवाद था कि सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ाया जाए। अब भारतीय जनता पार्टी ने इस अपवाद को नियम बना दिया है। वह सभी राज्यों में सांसदों को विधानसभा के चुनाव लड़ाती है। यहां तक कि केंद्रीय मंत्री भी विधानसभा का चुनाव लड़ते हैं। अभी मध्य प्रदेश में भाजपा ने तीन केंद्रीय मंत्रियों- नरेंद्र सिंह तोमर, प्रहलाद पटेल और फग्गन सिंह कुलस्ते को चुनाव मैदान में उतारा है। हैरानी नहीं होगी अगर चौथे मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी चुनाव में उतारा जाए। इससे पहले त्रिपुरा में केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक को चुनाव लड़ाया गया था। उससे भी पहले 2021 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में केंद्रीय मंत्री निशीथ प्रमाणिक और बाबुल सुप्रियो को चुनाव लड़ाया था। हालांकि बाबुल सुप्रियो चुनाव हार गए थे।

द्विवेदी के अनुसार, कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी राजस्थान में भी कुछ केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा का चुनाव लड़ाएगी। केंद्र जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल दोनों के नाम की चर्चा है। तेलंगाना में भाजपा के चार सांसद हैं, जिनमें से एक जी किशन रेड्डी केंद्र सरकार में मंत्री हैं। बताया जा रहा है कि भाजपा ने केंद्रीय मंत्री सहित अपने चारों सांसदों को तेलंगाना विधानसभा का चुनाव लड़ाने का फैसला किया है। खबरों के मुताबिक मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के परिवार के सदस्य, जहां से चुनाव लड़ेंगे वहां भाजपा अपने सांसदों को मैदान में उतारेगी। पहले भी पार्टियां विधानसभा चुनाव में अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए बड़े चेहरों को मैदान में उतारती थी। इसलिए कई बार सांसदों को भी चुनाव लड़ाया जाता था। लेकिन यह काम तब होता था जब पार्टियों के पास कोई करिश्माई नेतृत्व नहीं होता था या जब पार्टी मुश्किल मुकाबले में फंसी होती थी। तभी हैरानी है कि भाजपा के पास नरेंद्र मोदी का चेहरा है और पार्टी मान रही है कि कहीं भी उसकी लड़ाई नहीं है, वह आराम से चुनाव जीत रही है तब भी इतनी बड़ी संख्या में सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव लड़ा रही है। बहरहाल, सांसदों या केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा लड़ाने को लेकर कुछ नैतिक व राजनीतिक सवाल हैं, जिनका जवाब पार्टियों को देना चाहिए।

द्विवेदी कहते है कि पहले तो सांसदों के विधानसभा का चुनाव लड़ना ही सवाल खड़े करता है। एक सांसद अपने लोकसभा क्षेत्र की पांच या छह विधानसभा सीटों का प्रतिनिधित्व करता है। उसको एक विधानसभा सीट से चुनाव लड़ाने की क्या तुक है? क्या इससे पक्षपात की संभावना नहीं बनती है? यह हो सकता है कि सांसदों को अंदाजा हो कि उनको विधानसभा का चुनाव लड़ना पड़ सकता है तो वे पहले से ही किसी खास विधानसभा क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देते हों। यह भी हो सकता है कि अगर चुनाव लड़ रहा सांसद विधानसभा का चुनाव हार जाए तो बतौर सांसद वह उस क्षेत्र की जनता से बदला लेने के लिए उस विधानसभा क्षेत्र में काम न कराए या अपनी निधि का पैसा वहां खर्च न करें? इस तरह यह एक तरह के पक्षपात की संभावना को जन्म देता है। पांच या छह सीटों का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी सांसद को विधानसभा का चुनाव लड़ाने से यह मैसेज तो बनता है कि पार्टी ने बड़ा चेहरा उतारा है लेकिन इससे उस सांसद का कद छोटा होता है।

दूसरा सवाल राजनीतिक नैतिकता को लेकर है। अगर कोई सांसद विधानसभा का चुनाव जीत जाता है तो इसका मतलब है कि किसी एक सीट पर निश्चित रूप से उपचुनाव होगा। क्योंकि या तो वह लोकसभा की सीट छोड़ेगा या विधानसभा का। यह सिर्फ अभी के चुनाव की बात नहीं है। अभी लोकसभा का कार्यकाल बहुत कम बचा हुआ है इसलिए हो सकता है कि विधायक बनने के बाद कोई सांसद इस्तीफा दे तो उपचुनाव नहीं कराया जाए। लेकिन आमतौर पर अगर कोई नेता लोकसभा और विधानसभा दोनों सीटों पर जीता हुआ होता है तो वह एक सीट से इस्तीफा देता है और वहां उपचुनाव होता है। जैसा कि पश्चिम बंगाल में निशीथ प्रमाणिक और जगन्नाथ सरकार की सीट पर हुआ या त्रिपुरा में प्रतिमा भौमिक की सीट पर हुआ। इस तरह के उप चुनाव के लिए आचार संहिता लगती है, केंद्रीय बलों की तैनाती होती है, बड़े नेता कामकाज छोड़ कर प्रचार करते हैं और चुनाव आयोग का बेवजह खर्च बढ़ता है।

सोचें, एक तरफ पूरे देश में एक चुनाव के लिए विधानसभा और लोकसभा का कार्यकाल फिक्स्ड करने पर विचार हो रहा है तो दूसरी ओर सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ाया जा रहा है! केंद्र सरकार ने एक देश, एक चुनाव पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में आठ सदस्यों की एक कमेटी बनाई है। सबको अंदाजा है कि एक देश, एक चुनाव का कोई भी सिद्धांत तभी कामयाब हो सकता है, जब लोकसभा और विधानसभा का कार्यकाल फिक्स्ड किया जाए। यानी तय कर दिया जाए कि पांच साल के भीतर किसी हाल में लोकसभा और विधानसभा भंग नहीं होगी ताकि सरकार गिरने पर मध्यावधि चुनाव न कराना पड़े। ऐसा एक कानून ब्रिटेन की संसद ने पास किया था लेकिन 2017 में उसे बदल दिया गया। बहरहाल, एक तरफ फिक्स्ड कार्यकाल की बात हो रही है तो दूसरी ओर लोकसभा के सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ाया जा रहा है! यह तो सीधे सीधे उपचुनाव की संभावना पैदा करने वाला कदम है!

आखिर में एक बड़ा सवाल केंद्रीय मंत्रियों को चुनाव लड़ाने पर है। द्विवेदी के अनुसार, अगर कोई केंद्रीय मंत्री विधानसभा का चुनाव लड़ता है तो यह प्राकृतिक न्याय के विरूद्ध होता है। इससे चुनाव का मैदान बराबरी का मैदान नहीं रह जाता है। केंद्रीय मंत्री देश के 140 करोड़ लोगों का मंत्री होता है। उसका कद और प्रोटोकॉल बहुत बड़ा होता है। उसकी सुरक्षा और अन्य तामझाम बहुत बड़ा होता है। जबकि दूसरी ओर उसके खिलाफ लड़ने वाला नेता किसी पार्टी का सामान्य कार्यकर्ता हो सकता है। अगर वह राज्य का मंत्री भी है तब भी उसका दर्जा बहुत नीचे है। दूसरे उम्मीदवार के प्रति स्थानीय प्रशासन, पुलिस और चुनाव आयोग के अधिकारियों-कर्मचारियों का रवैया वही नहीं रहेगा, जो केंद्रीय मंत्री के प्रति होगा। कोई कुछ भी दावा करे लेकिन इससे स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की संभावना प्रभावित होती है। तभी दुनिया के कई देशों में आम चुनाव से पहले सरकार को हटा दिया जाता है और कोई कार्यवाहक सरकार चुनाव कराती है। भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं है। फिर भी आम चुनावों की बात अलग है लेकिन अगर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपने किसी मंत्री को विधानसभा का चुनाव लड़ाती है तो उसे कम से कम मंत्री पद से हटा कर चुनाव में भेजना चाहिए।

 *मध्यप्रदेश का मसला पेचीदा मगर दिलचस्प* 

बात करें तो मध्यप्रदेश का मसला जितना दिलचस्प है उतना ही पेचीदा भी है। छत्तीसगढ़ में भाजपा के पास खोने के लिये कुछ नहीं है परन्तु मप्र में तो पूरी सरकार ही उसकी झोली से सरक सकती है। वैसे भी पिछली बार कांग्रेस की ही सरकार बनी थी। कमलनाथ के नेतृत्व में वह डेढ़ साल चली भी परन्तु ज्योतिरादित्य सिंधिया की अगुवाई में दर्जन भर से ज्यादा विधायकों को तोड़कर अपने पक्ष में लेते हुए शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी थी। इस लिहाज से यह पराजित पार्टी की सरकार है। इस सरकार के खिलाफ जन आक्रोश तगड़ा है। वहां तीन तरह की भाजपा बतलाई जाती है- शिवराज की, महाराज की (सिंधिया) और नाराज की (असंतुष्टों की)। यहां पीएम व शाह के लगातार दौरे हो रहे हैं लेकिन हालत सुधरने के नाम नहीं ले रहे हैं। उल्टे, कांग्रेस सतत मजबूत हो रही है। ज्योतिरादित्य के निकटस्थ कई लोग कांग्रेस में लौट चुके हैं।

पिछले हफ्ते मोदी आये थे तो उन्होंने मंच पर शिवराज से जो व्यवहार किया तथा संबोधन के दौरान उनका नाम तक नहीं लिया, उससे कुछ साफ संकेत मिल रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स में यहां तक कहा जा रहा है कि चौहान, अब मोदी के विश्वासपात्र नहीं रहे। उन्हें निपटाने को ही मोदी-शाह ने 3 केंद्रीय मंत्रियों- प्रह्लाद पटेल, नरेन्द्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते समेत 7 सांसदों को विधानसभा की टिकटें थमाकर राज्य में भेज दिया है। मजेदार बात यह है कि अब तक खुद शिवराज सिंह चौहान की उम्मीदवारी का अता-पता नहीं है। अगर वे चुनावी मैदान में नहीं उतारे जाते तो किसके चेहरे पर पार्टी चुनाव लड़ेगी, यह सवाल भी बड़ा है। स्थानीय चेहरे के अभाव में यह चुनाव अपने आप मोदी की छवि और उन्हीं के चेहरे पर लड़ा जायेगा। पराजय सामने दिख रही है, तो ऐसे में क्या मोदी अपना नाम राज्य इकाई को उधार देंगे? रणनीति की यह उलटबांसी भाजपा के लिये वरदान बनती है या कयामत- देखना अपने आप में दिलचस्प होगा।

 *छत्तीसगढ़ में भाजपा की स्थिति और दयनीय* 

छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां भाजपा बेहद कमजोर स्थिति में है। 'देशबंधु' के अनुसार, 90 सीटों वाले सदन में उसके केवल 14 सदस्य हैं। यहां जिन प्रत्याशियों के नामों का ऐलान हो गया है, उनमें दुर्ग से लोकसभा में पहुंचे विजय बघेल को उनके चाचा व प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ पाटन क्षेत्र से उतारा गया है। यह सीट दुर्ग की 8 विधानसभा सीटों में से एक है। राज्यसभा के सदस्य रामविचार नेताम सरगुजा क्षेत्र की रामानुजगंज सीट से चुनाव लड़ेंगे। रायपुर (शहर) सीट पर वर्तमान विधायक श्रीचंद सुंदरानी के साथ ही राजधानी के पूर्व महापौर सुनील सोनी का नाम सबसे आगे चल रहा है जो इस वक्त रायपुर के सांसद हैं। बिलासपुर सीट का लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले अरूण साव भाजपा के अध्यक्ष हैं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उन्हें बिलासपुर विधानसभा सीट से लड़ाया जा सकता है ताकि जीत की स्थिति में (जो वर्तमान परिदृश्य में दूर की कौड़ी है) उनका ओबीसी चेहरा काम आ सके और भूपेश बघेल का यह चुनाव प्रचार के दौरान जवाबी नाम भी हो। छत्तीसगढ़ की पिछले मुख्यमंत्रियों के समय से यह परम्परा बनी है कि जो पार्टी अध्यक्ष बहुमत दिला सके वही सीएम बन सकता है।

2003 में डॉ. रमन सिंह को सीएम पद इसलिए मिला था क्योंकि उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा जीती थी। ऐसे ही, भूपेश बघेल की अध्यक्षता में कांग्रेस जीती जिसके बाद उनकी इस पद की दावेदारी पर पार्टी हाईकमान की मुहर लगी थी। देखना होगा कि अरूण साव को टिकट थमाई जाती है या नहीं और अगर ऐसा होता है तो क्या साव इस मौके को अपने लिये भुना पायेंगे? छत्तीसगढ़ की केन्द्रीय मंत्रिमंडल में एकमात्र प्रतिनिधि सरगुजा लोकसभा क्षेत्र की सांसद रेणुका सिंह हैं। क्या उन्हें भी छग में किसी सीट पर विधानसभा चुनाव लड़ने के लिये कहा जायेगा? अब तक इसका खुलासा नहीं हुआ है। हालांकि अभी काफी सीटों पर नाम घोषित होने बकाया हैं।

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