साल 1987 में पहली बार किसी गैर-भारतीय को भारत सरकार ने ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा। भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान प्राप्त करने वाले यह शख़्स थे ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, जिन्हें बाचा ख़ान और सीमांत गांधी के नाम से भी जाना जाता है। बाचा ख़ान पाकिस्तानी नागरिक थे लेकिन भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा क्योंकि वे इसके हकदार थे। बाचा खान दस्तावेजों में भले ही गैर-हिंदुस्तानी हों लेकिन दिलोजान से हिंदुस्तानी थे।
6 फरवरी 1890 को पेशावर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। पठानों के खानदान से ताल्लुक रखने वाले ख़ान ने आज़ादी का महत्व और अपने वतन पर जान तक कुर्बान करने का जज़्बा अपने पुरखों से विरासत में मिला था। मिशनरी स्कूल स्कूल से पढ़ाई करने के बावजूद उनके अंदर देशभक्ति की भावना ठूंस-ठूंसकर भरी थी।
सीमांत गांधी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गांधी जी से प्रभावित होकर अहिंसा को अपने जीवन में उतारा था लेकिन हकीकत यह है कि गांधीजी से मिलने से बहुत पहले ही वे कुरान का पाठ करते हुए उसकी आध्यात्मिक गहराइयों में अहिंसा का दर्शन ढूंढ चुके थे। अहिंसा और समाज सेवा का जज्बा उनके अंदर बहुत कम उम्र से ही जाग्रत हो गया था और उन्होंने अविभाजित भारत के पख़्तून (पठान) इलाकों की दशा बदलने का बीड़ा उठाया। खान अब्दुल गफ्फार खान ने सिर्फ 20 साल की उम्र में पेशावर के पास एक स्कूल खोलकर इसकी शुरूआत कर दी।
स्कूल खोलने के बाद खान अब्दुल गफ्फार खान आम पख़्तून लोगों के लिए बादशाह बन गये। इसके बाद से ही उन्हें ‘बादशाह ख़ान’ बुलाया जाने लगा। खान अब्दुल गफ्फार खान 1928 में महात्मा गांधी से मिले तब तक वे बादशाह खान बन चुके थे। खान और गांधी एक दूसरे के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि मरते दम तक उनकी मित्रता बनी रही। खान अब्दुल गफ्फार खान महात्मा गांधी के आंदोलन से भी जुड़ गए जिससे वे अंग्रेजों को खटकने लगे क्योंकि अब गफ्फार खान की वजह से पठान पूरी तरह गांधी जी के समर्थन में उतर आए थे।
खान अब्दुल गफ्फार खान को महात्मा गांधी से अलग करने के लिए अंग्रेज उनके ऊपर झूठे मुकदमे लगाकर जेल भेजने की साजिशें करते रहे लेकिन कोर्ट में कोई गवाह तक उनके खिलाफ पेश नहीं कर पाते। इसी दौरान 1929 में बाचा खान ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘खुदाई खिदमतगार’नाम का संगठन शुरू किया जिसका मतलब था ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक। इस संगठन के सभी लोग अहिंसात्मक रूप से भारतीय स्वतंत्रता औऱ एकता के लिए प्रयत्नरत थे। कहा जाता है कि हिंसात्मक आंदोलनों से ज्यादा अंग्रेजों को अहिंसात्मक संगठनों से डर लगता था।
अंग्रेजों के डर का नतीजा ही था कि गांधीजी के नमक सत्याग्रह में हिस्सा लेते ही अंग्रेजों ने बादशाह खान को गिरफ्तार कर लिया। खान की गिरफ्तारी होते ही खुदाई खिदमतगार के समर्थन में लोगों का हुजूम पेशावर के क़िस्सा ख्वानी बाज़ार में लग गया और बढ़ता ही गया। इस जुलूस को बढ़ते देखकर अंग्रेज़ी अफ़सरों ने बिना किसी चेतावनी के इन निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलवा दीं।
इस नरसंहार में करीब 250 लोगों की जान चली गई लेकिन इसके बावजूद इन लोगों ने अहिंसा का प्रण नहीं तोड़ा। इस नरसंहार पर बादशाह खान ने कहा, “ब्रिटिश सरकार को हिंसात्मक पख़्तून से ज्यादा डर अहिंसात्मक पख़्तून से है। उन्होंने जो भी अत्याचार हम पर किये, उसके पीछे सिर्फ़ एक ही वजह थी कि वे हमें उकसा सकें और हम अपने उसूल भूलकर हिंसा करें। अंग्रेज़ों का यह मंसूबा कभी कामयाब नहीं हुआ और अपनी शख़्सियत के दम पर बादशाह खान ने पूरे सीमाप्रान्ती पख़्तूनों को उनके खिलाफ़ खड़ा कर दिया। ” शायद इसलिए लोग बादशाह खान को ‘सीमांत गाँधी’ या ‘सरहदी गाँधी’ कहने लगे।
भारत की स्वतंत्रता तक ख़ान साहब ने गाँधी जी की परछाई बनकर उनके साथ काम किया। बिहार दंगों के समय महात्मा गाँधी और बादशाह ख़ान ने गलियों में घूम-घूमकर लोगों को शांत किया। 12 मार्च, 1947 को पटना में एक सभा में गांधी ने ख़ान साहब की ओर इशारा करते हुए कहा, “बादशाह ख़ान मेरे पीछे बैठे हैं। वे तबीयत से फकीर हैं, लेकिन लोग उन्हें मुहब्बत से बादशाह कहते हैं, क्योंकि वे सरहद के लोगों के दिलों पर अपनी मुहब्बत से हुकूमत करते हैं।”
स्वतंत्रता के बाद बादशाह ख़ान बिल्कुल भी बँटवारे के पक्ष में नहीं थे। पर फिर भी बँटवारा हुआ और पख़्तूनों को पाकिस्तान का हिस्सा बनना पड़ा। मुल्क भले ही नया था पर ख़ान ने अन्याय के खिलाफ़ अपनी आवाज हमेशा बुलंद रखी। कई बार स्वतंत्र पाकिस्तान में भी उन्हें गिरफ्तार किया गया, क्योंकि वे यहाँ भी दबे हुए लोगों के मसीहा बने रहे।
साल 1970 में भारत आये और पूरे देशभर में घूमे। इसके बाद वे 1985 के ‘कांग्रेस शताब्दी समारोह’ में भी शामिल हुए। साल 1988 में 20 जनवरी को पाकिस्तान में उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली। उस वक़्त भी पाकिस्तान सरकार ने उन्हें नज़रबंदी में रखा हुआ था।
आज जब हर तरफ हिंसा और तनाव का माहौल है तो बादशाह ख़ान जैसे लोगों को याद करना बेहद जरूरी है। क्योंकि कहीं न कहीं हम उनकी धरोहर को बचाकर ही अपना आज और आने वाला कल शांति में जी सकते हैं।
इनपुट्स- द बेटर इंडिया से साभार
6 फरवरी 1890 को पेशावर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। पठानों के खानदान से ताल्लुक रखने वाले ख़ान ने आज़ादी का महत्व और अपने वतन पर जान तक कुर्बान करने का जज़्बा अपने पुरखों से विरासत में मिला था। मिशनरी स्कूल स्कूल से पढ़ाई करने के बावजूद उनके अंदर देशभक्ति की भावना ठूंस-ठूंसकर भरी थी।
सीमांत गांधी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गांधी जी से प्रभावित होकर अहिंसा को अपने जीवन में उतारा था लेकिन हकीकत यह है कि गांधीजी से मिलने से बहुत पहले ही वे कुरान का पाठ करते हुए उसकी आध्यात्मिक गहराइयों में अहिंसा का दर्शन ढूंढ चुके थे। अहिंसा और समाज सेवा का जज्बा उनके अंदर बहुत कम उम्र से ही जाग्रत हो गया था और उन्होंने अविभाजित भारत के पख़्तून (पठान) इलाकों की दशा बदलने का बीड़ा उठाया। खान अब्दुल गफ्फार खान ने सिर्फ 20 साल की उम्र में पेशावर के पास एक स्कूल खोलकर इसकी शुरूआत कर दी।
स्कूल खोलने के बाद खान अब्दुल गफ्फार खान आम पख़्तून लोगों के लिए बादशाह बन गये। इसके बाद से ही उन्हें ‘बादशाह ख़ान’ बुलाया जाने लगा। खान अब्दुल गफ्फार खान 1928 में महात्मा गांधी से मिले तब तक वे बादशाह खान बन चुके थे। खान और गांधी एक दूसरे के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि मरते दम तक उनकी मित्रता बनी रही। खान अब्दुल गफ्फार खान महात्मा गांधी के आंदोलन से भी जुड़ गए जिससे वे अंग्रेजों को खटकने लगे क्योंकि अब गफ्फार खान की वजह से पठान पूरी तरह गांधी जी के समर्थन में उतर आए थे।
खान अब्दुल गफ्फार खान को महात्मा गांधी से अलग करने के लिए अंग्रेज उनके ऊपर झूठे मुकदमे लगाकर जेल भेजने की साजिशें करते रहे लेकिन कोर्ट में कोई गवाह तक उनके खिलाफ पेश नहीं कर पाते। इसी दौरान 1929 में बाचा खान ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘खुदाई खिदमतगार’नाम का संगठन शुरू किया जिसका मतलब था ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक। इस संगठन के सभी लोग अहिंसात्मक रूप से भारतीय स्वतंत्रता औऱ एकता के लिए प्रयत्नरत थे। कहा जाता है कि हिंसात्मक आंदोलनों से ज्यादा अंग्रेजों को अहिंसात्मक संगठनों से डर लगता था।
अंग्रेजों के डर का नतीजा ही था कि गांधीजी के नमक सत्याग्रह में हिस्सा लेते ही अंग्रेजों ने बादशाह खान को गिरफ्तार कर लिया। खान की गिरफ्तारी होते ही खुदाई खिदमतगार के समर्थन में लोगों का हुजूम पेशावर के क़िस्सा ख्वानी बाज़ार में लग गया और बढ़ता ही गया। इस जुलूस को बढ़ते देखकर अंग्रेज़ी अफ़सरों ने बिना किसी चेतावनी के इन निहत्थे लोगों पर गोलियाँ चलवा दीं।
इस नरसंहार में करीब 250 लोगों की जान चली गई लेकिन इसके बावजूद इन लोगों ने अहिंसा का प्रण नहीं तोड़ा। इस नरसंहार पर बादशाह खान ने कहा, “ब्रिटिश सरकार को हिंसात्मक पख़्तून से ज्यादा डर अहिंसात्मक पख़्तून से है। उन्होंने जो भी अत्याचार हम पर किये, उसके पीछे सिर्फ़ एक ही वजह थी कि वे हमें उकसा सकें और हम अपने उसूल भूलकर हिंसा करें। अंग्रेज़ों का यह मंसूबा कभी कामयाब नहीं हुआ और अपनी शख़्सियत के दम पर बादशाह खान ने पूरे सीमाप्रान्ती पख़्तूनों को उनके खिलाफ़ खड़ा कर दिया। ” शायद इसलिए लोग बादशाह खान को ‘सीमांत गाँधी’ या ‘सरहदी गाँधी’ कहने लगे।
भारत की स्वतंत्रता तक ख़ान साहब ने गाँधी जी की परछाई बनकर उनके साथ काम किया। बिहार दंगों के समय महात्मा गाँधी और बादशाह ख़ान ने गलियों में घूम-घूमकर लोगों को शांत किया। 12 मार्च, 1947 को पटना में एक सभा में गांधी ने ख़ान साहब की ओर इशारा करते हुए कहा, “बादशाह ख़ान मेरे पीछे बैठे हैं। वे तबीयत से फकीर हैं, लेकिन लोग उन्हें मुहब्बत से बादशाह कहते हैं, क्योंकि वे सरहद के लोगों के दिलों पर अपनी मुहब्बत से हुकूमत करते हैं।”
स्वतंत्रता के बाद बादशाह ख़ान बिल्कुल भी बँटवारे के पक्ष में नहीं थे। पर फिर भी बँटवारा हुआ और पख़्तूनों को पाकिस्तान का हिस्सा बनना पड़ा। मुल्क भले ही नया था पर ख़ान ने अन्याय के खिलाफ़ अपनी आवाज हमेशा बुलंद रखी। कई बार स्वतंत्र पाकिस्तान में भी उन्हें गिरफ्तार किया गया, क्योंकि वे यहाँ भी दबे हुए लोगों के मसीहा बने रहे।
साल 1970 में भारत आये और पूरे देशभर में घूमे। इसके बाद वे 1985 के ‘कांग्रेस शताब्दी समारोह’ में भी शामिल हुए। साल 1988 में 20 जनवरी को पाकिस्तान में उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली। उस वक़्त भी पाकिस्तान सरकार ने उन्हें नज़रबंदी में रखा हुआ था।
आज जब हर तरफ हिंसा और तनाव का माहौल है तो बादशाह ख़ान जैसे लोगों को याद करना बेहद जरूरी है। क्योंकि कहीं न कहीं हम उनकी धरोहर को बचाकर ही अपना आज और आने वाला कल शांति में जी सकते हैं।
इनपुट्स- द बेटर इंडिया से साभार