बिहार चुनाव: विरोधियों की कमजोर गुटबंदी का जाल या जातीय गठजोड़ का कमाल?

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: November 13, 2020
लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया का एक मजबूत और महत्वपूर्ण पहलू होता है किसी भी एक फार्मूले से चुनाव परिणाम के नतीजे का विश्लेषण नहीं किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिए. दुनिया भर के सभी लोकतान्त्रिक देश में अलग-अलग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और भौगोलिक कारण होते हैं जो उस देश की देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करते हैं. हर क्षेत्र की चुनावी राजनीति और परिणामों के समीकरण के गणित भिन्न-भिन्न होते हैं. 



कोरोना की गंभीर स्थितियों को पार कर बिहार चुनाव का परिणाम घोषित हो चुका है जो जीतने वाले या हारने वाले दोनों पक्षों को स्तब्ध कर देने वाला है इसलिए नहीं कि केवल हार जीत का सवाल है बल्कि इसलिए कि सता या विपक्ष दोनों को ही उम्मीद से बढ़ कर सफलता या विफलता हाथ लगी है. दुनिया 21वीं सदी में है लेकिन बिहार आज भी जातीय गठजोड़ की गिरफ्त में है या यूँ कहें कि विरोधियों की कमजोर गुटबंदी या गठबंधन के बढ़ते तादाद ने बिहार की आम जनता के सामने भ्रम की स्थिति को पैदा किया जिसका मजबूत माध्यम सुचना तकनीक के इस्तेमाल को बनाया गया. 

शह और मात के चुनावी खेल में भारतीय जनता पार्टी ने बाजी मारते हुए चिराग पासवान सहित नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को अपने रहमोकरम का मोहताज बना कर रख दिया है. पिता के मौत की सहानुभूति वोट की उम्मीद कर चुनाव मैदान में उतरे चिराग पासवान आज बीजेपी के हाथों का खिलौना बन कर रह गए और अपनी पहचान तक को भी अन्य पार्टी के हाथों गिरवी रखने वाली पार्टी बन गए. 
इतिहास गवाह है बीजेपी जिस भी राजनीतिक दल का चुनावी सहयोगी रहा है उसके वजूद को ही दीमक की तरह चाट कर खत्म करने की कोशिश किया है जिसके उदहारण भारत के कई राज्यों में भरे पड़े हैं. बिहार में आहिस्ता आहिस्ता योजनाबद्ध तरीके से बीजेपी ने एलजेपी और जेडीयू के लिए ऐसी ही स्थिति को पैदा कर दिया है, वैसे भी बीजेपी जो अपने सबसे मजबूत राजनीतिक सहयोगी शिवसेना का साथ नहीं दे सकी तो वह अन्य किसी भी दल की सहयोही क्या ही होगी. भारतीय जनता पार्टी ने एलजेपी को हथियार बना कर नीतीश सरकार की जनता के सामने वर्षों से बनी बनायीं विश्वास की जमीन को ध्वस्त करने का काम किया है. यह अचरज की बात नहीं होगी कि नीतीश की सरकार बना लेने के बाद भी बीजेपी मुख्यमंत्री की दावेदारी करने लगे. 

निश्चित तौर पर यह ऐसा चुनाव था जो केवल जातीय बातचीत से हट कर मुद्दों की बात कर रहा था यहाँ तक कि 2 करोड़ रोजगार की बात कर नदारद हो जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी को भी रोजगार के मुद्दे पर बात करने के लिए मजबूर कर देना इस बार के चुनाव में तेजस्वी यादव व् उनके गठ्वंधन की जीत है लेकिन केवल एजेंडे के साथ ही चुनाव प्रक्रिया ख़त्म नहीं हो जाती है. चुनाव सम्बन्धी तमाम मशीनरी को भी दुरुस्त करने की जरुरत होती है चाहे वह सूचना तकनीक, गठजोड़ या गठबंधन से सम्बंधित क्यूँ न हो.  

बिहार में इस बार बदलाव के पक्ष में लोग थे और रुख भी बदलाव का नजर आ रहा था इसमें कोई शक नहीं था जिसका केंद्र तेजस्वी यादव और बीजेपी था और इन्हें ही सबसे ज्यादा फायदा भी मिला. गठबंधन की कमज़ोरी, सहयोगी दलों के साथ गठजोड़ में सीट बंटवारे के अपरिपक्व निर्णय ने भी नतीजों को प्रभावित किया है. सत्ता विरोधी अन्य राजनीतिक दलों का महागठबंधन के प्रति सकारात्मक रवैया होने के वावजूद भी आरजेडी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार तेजस्वी यादव की बेरुखी ने कई अन्य गठबंधन बनने पर मजबूर किए नतीजतन बहुत कम वोट से कई सीट पर हार का सामना करना पड़ा. बीजेपी चुनावी गठबंधन बनाकर न केवल लाभ प्राप्त करता है बल्कि अपनी वर्षों पुरानी विस्तारवादी सोच को अमलीजामा पहनाने का भी काम बखूबी करता है. ऐसे हालात में अन्य पार्टियों को अपना वजूद राजनीति के मैदान में बचाए रखने के लिए बीजेपी से दुरी बनाए रखना जरुरी है. 

जहाँ तक सूचना तकनीक के इस्तेमाल के तालमेल का सवाल है तो इसे समझने में बिलकुल देर नहीं लगाया जा सकता है कि केंद्र में बैठे सरकार का सुचना तकनीक के सभी साधनों पर नियंत्रण है और उसे उपयोग में लाना उनके ही नियंत्रण में सर्वाधिक होता है जिस शक्ति का प्रयोग करते इनके द्वारा बखूबी देखा और समझा जा सकता है. चुनाव में संशयपूर्ण परिणाम को देखते हुए केंद्र सरकार पर लगातार चुनावी प्रकिया में ईवीएम से छेड़छाड़ के आरोप की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता है. परिणाम घोषित होने की आखिरी रात में सबसे कम मार्जिन वाली सीटों की घोषणा किया जाना संशय और सवाल खड़ा करता है. महेंद्र मिश्रा लिखते हैं कि ‘बिहार चुनाव के पुरे मामले से नदारद रहने वाले गृह मंत्री अमित शाह का फ़ोन आने के बाद नीतीश कुमार हरकत में आते हैं और जिलों के जिलाधिकारी को जो आम तौर पर चुनाव अधिकारी का काम करते हैं, से अपने  पक्ष में सर्टिफिकेट जारी करने का निर्देश दिलवाया और आखिरी के 10,15 सीटों का इसी तरह से निपटारा किया गया जिसके बाद विपक्ष के पक्ष में जाने से पूरी गणित बदल गयी जिसका उधारों लगभग दो दर्जन सीटों का है.’

पिछले कई सालों से ईवीएम मशीन से करवाए जा रहे चुनाव पर तरह-तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं जिसमें वोट की हेरा फेरी के गंभीर आरोप तक भी शामिल हैं. देश की जनता और राजनीतिक दलों के लिए भविष्य में यह सुनिश्चित करना एक चुनौती से कम नहीं होगा कि देश निष्पक्ष लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं और साधनों से चले साथ देश के तमाम संसाधनों पर कुंडली मार कर बैठे सत्ताधारी दलों को यह भी समझना होगा कि यथास्थितिवाद कैसा भी हो उसमे बदलाव अवश्यम्भावी है आसन शब्दों में कहें तो हर अँधेरी रात के बाद सवेरा आता है. 

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