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किसान मसीहा पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न के ऐलान के फौरी बाद उनके पौत्र राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष जयंत चौधरी ने प्रतिक्रिया दी कि मोदी जी आपने (उनका) 'दिल जीत लिया' और इसके अगले ही पल यह कहते हुए, 'अब किस मुंह से मना करूं', पाला बदल लिया। मोदी ने 'दिल जीता' कि नहीं जीता लेकिन सवाल आपका है जयंत बाबू। आपने क्या किया? पाला बदल बहुतों का दिल तोड़ दिया, खुद चौधरी साहब का भी! आपकी प्रतिक्रिया, अब किस मुंह से मना करूं, में ही जहां सौदेबाजी (डील होने) की बू आ रही हैं वहीं निज स्वार्थ में आपने, एक तरह से चौधरी साहब के उसूलों, किसानों के प्रति उनके अगाध प्रेम, फिक्र और प्रतिबद्धताओं का भी सौदा कर डाला है! चौधरी साहब ने, किसानों को गुलाम बनाने वाली को-ऑपरेटिव फार्मिंग का न सिर्फ विरोध किया बल्कि 'एक्ट' खत्म कराकर ही माने। पर आप तो सीधे कॉरपोरेट फार्मिंग (तीन काले कानून) समर्थकों की ही गोद में जा बैठे?
लिहाजा सवाल आपका है। इसलिए भी कि आप चौधरी साहब की विरासत का दावा करते हैं। जहां तक चौधरी साहब का सवाल है, किसानों में उनके प्रति सम्मान था, है और हमेशा रहेगा। उन्होंने, जमींदारा प्रथा तोड़ी, किसान को जमीन का मालिक बनाया। को-ऑपरेटिव फार्मिंग रोककर तो वो रातों रात राष्ट्रीय नेता बन गए। आज 3 काले कानूनों के रूप में उससे भी सौ गुना खतरनाक कॉरपोरेट फार्मिंग का फंदा किसानों के गले में डाला जा रहा है जिसके विरोध में 750 से ज्यादा किसान शहादत दे चुके हैं। ऐसे में सीना ठोककर कॉरपोरेट फार्मिंग से किसानों को बचाने की बजाय, आप उलटे उसके समर्थकों की गोद में जा बैठे हैं। किसानों और कानून के बीच दीवार बनने का काम कर रहे हैं। अब जहां तक भारत रत्न सम्मान की बात है तो निसंदेह यह स्वागतयोग्य कदम है। लेकिन किसान की नजर में चौधरी साहब हमेशा भारत रत्न थे, हैं और रहेंगे। इसके लिए उन्हें किसी सरकारी तमगे की आवश्यकता नहीं है। इसकी जरूरत शायद आपको ज्यादा है।
पूर्व गवर्नर सत्यपाल मालिक के शब्दों में कहें तो आप संघर्ष नहीं करना चाहते हैं और आपने अपने आराम की राजनीति के लिए भाजपा के साथ हाथ मिला लिया है। यही नहीं, पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने ट्वीट कर परोक्ष तौर से मोदी को लेकर जयंत चौधरी के झलके प्रेम पर भी निशाना साधा है। मालिक ने यहां तक कह दिया कि जिसको जहां जाना है वो जाए लेकिन किसान मसीहा चौधरी चरण सिंह की तुलना 750 से ज्यादा किसानों के हत्यारों से बिल्कुल न करें।
किसानों-कमेरों के लिए धड़कता था चौधरी साहब का दिल
चौधरी चरण सिंह ने जब कांग्रेस के जरिए राजनीति में कदम रखा तो काश्तकार जमींदारों के शोषण से त्रस्त थे। इसलिए अपनी राजनीति को उन्होंने किसान-कमेरा वर्ग की भलाई का माध्यम बनाया। 1937 में जब चौधरी चरण सिंह पहली बार कांग्रेस के टिकट पर संयुक्त प्रांत के विधायक चुने गये थे, तभी से जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार के प्रयासों में जुट गये। रूरल वाइस की एक रिपोर्ट के अनुसार, किसानों को व्यापारियों व आढ़तियों के उत्पीड़न से बचाने के लिए संयुक्त प्रांत धारासभा में उन्होंने प्राइवेट मेंबर बिल के रूप में एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट बिल (कृषि उत्पादन विपणन बिल) प्रस्तुत किया। हालांकि, यह बिल पारित नहीं हो पाया। लेकिन यही से कृषि उपज मंडियों को संचालित करने वाले एपीएमसी एक्ट की नींव पड़ी जो तीन दशक बाद 1964 में चौधरी चरण सिंह के यूपी में कृषि मंत्री रहने के दौरान पारित हुआ।
किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले चौधरी चरण सिंह खेतिहर किसानों और काश्तकारों की मुश्किलों को समझते थे। 1939 में उन्होंने कांग्रेस विधान मंडल दल की कार्यसमिति के सामने किसान परिवारों की संतानों के लिए सरकारी नौकरियों में 50 फीसदी आरक्षण की मांग रखी थी। हालांकि, पार्टी द्वारा इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया, लेकिन इससे उनकी किसान हितैषी सोच का पता चलता है। उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधारों को श्रेय चौधरी चरण सिंह को जाता है। 1946 में मुख्यमंत्री गोविंदबल्लभ पंत ने चौधरी चरण सिंह को अपना संसदीय सचिव नियुक्त किया। उसी दौरान उन्होंने संयुक्त प्रांत जमींदारी उन्मूलन समिति की रिपोर्ट तैयार करने में अहम भूमिका निभाई। यही रिपोर्ट उत्तर प्रदेश में भूमि सुधारों का आधार बनी। हालांकि कांग्रेस और राज्य की सरकार का एक वर्ग इन भूमि सुधारों का धुर विरोधी था। इसी दौरान जमींदारी उन्मूलन पर उन्होंने अपनी पहली पुस्तक "एबोलिशन ऑफ जमींदारी : टू अल्टेरनेटिव्स" लिखी। यहीं से चौधरी साहब ग्रामीण और कृषक वर्ग के पैरोकार के तौर पर स्थापित होते चले गये।
आजादी के बाद उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि व्यवस्था विधेयक, 1950 को तैयार करने और इसे पारित कराने में चौधरी चरण सिंह ने गांव-किसान के प्रतिनिधि की भूमिका निभाई। इस कानून के जरिए लाखों काश्तकारों को जमीन का मालिकाना हक मिलने का रास्ता साफ हुआ। जमींदारों की ताकत और पार्टी के भीतर तमाम विरोध के बावजूद चौधरी चरण सिंह इस कानून में किसान और काश्तकार हित की बातों की शामिल करवाने में सफल रहे। इससे न सिर्फ जमींदारी प्रथा का अंत हुआ बल्कि काश्तकार जमीन के मालिक बन गए। यूपी में राजस्व और कृषि मंत्री रहते हुए चौधरी चरण सिंह ने कृषि एवं ग्राम उद्योगों को कई तरह की रियायतें दिलाने में मदद की। जबकि उस समय विकास का नेहरूवादी मॉडल बड़े शहरों और बड़े उद्योंगों के विकास पर केंद्रित था। 1953 में राजस्व और कृषि मंत्री के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश चकबंदी अधिनियम को पारित कराया। इसके बाद ही प्रदेश में सीलिंग से प्राप्त भूमि को अनुसूचित जाति के लोगों को आवंटित करने की नीति बनाई गई। उन्होंने साढ़े तीन एकड़ भूमि वाले किसानों को लगान में भी छूट दिलवाई।
चौधरी चरण सिंह साफ-सुथरी छवि वाले, स्पष्टवादी, ईमानदार नेता और सख्त प्रशासक थे। 1953 में जब वे यूपी के राजस्व मंत्री थे तो प्रदेश में पटवारियों ने जमींदारों की शह पर हड़ताल कर दी। यह वो दौर था जब जमींदारी उन्मूलन कानून लागू हो रहा था। सरकार पर दबाव बनाने के लिए 27 हजार पटवारियों ने इस्तीफे दे दिए। लेकिन चौधरी चरण सिंह ने सख्त रुख अपनाते हुए अनुचित मांगों के आगे झुकने से इंकार कर दिया और सभी 27 हजार पटवारियों के इस्तीफे स्वीकार कर उनकी जगह लेखपाल का पद सृजित किया।
1950 के दशक में देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू सोवियत संघ की कॉआपरेटिव फार्मिंग के मॉडल से प्रभावित होकर इसे भारत में बढ़ावा देना चाहते थे। तब चौधरी चरण सिंह कांग्रेस की ही यूपी सरकार में मंत्री थे। लेकिन किसानों के हितों को लेकर वह तत्कालीन प्रधानमंत्री और अपनी पार्टी के सर्वोच्च नेता से भी भिड़ गए थे। सन 1959 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में चौधरी चरण सिंह ने सहकारी खेती के नेहरू मॉडल का पुरजोर तरीके से विरोध किया कर अपने राजनैतिक कॅरियर को दांव पर लगा दिया। इस कदम ने चौधरी साहब को किसानों के बीच बहुत लोकप्रिय बना दिया। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व से मतभेद के चलते उन्हें 19 महीने प्रदेश सरकार से बाहर रहना पड़ा। इस दौरान उन्होंने ज्वाइंट फार्मिंग एक्स-रेड: प्राब्लम एंड इट्स सॉल्यूशन किताब लिखकर सहकारी खेती के विरोध को वैचारिक और तार्किक आधार दिया।
पिता का अपमान भी भूल गए जयंत!
जिस बीजेपी के साथ जाने के लिए जयंत चौधरी पुलकित दिख रहे हैं। और चरण सिंह को भारत रत्न पर मोदी के लिए ‘दिल जीत लिया’ कह कर बयान दे रहे हैं। उस मोदी सरकार ने खुद उनके और उनके पिता के साथ क्या किया था इसको भी उन्हें याद कर लेना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र मिश्र जनचौक के अपने कॉलम में लिखते हैं कि आपको याद होगा तुगलक रोड का वह बंगला जिसमें कभी चौधरी अजित सिंह रहा करते थे। जब से वह राजनीति में आए। सांसद रहे या नहीं रहे वह बंगला ही उनका घर था। दरअसल उस बंगले से उनकी यादें जुड़ी थीं। क्योंकि इसी बंगले में कभी उनके पिता चौधरी चरण सिंह रहा करते थे। उस बंगले में रहते हुए उनको अपने पिता की खुशबू महसूस होती थी। यह बंगला उन्हें अपने पिता के करीब रहने का एहसास दिलाता था।
लेकिन जैसे ही चौ अजित सिंह एक चुनाव हारे और संयोग से ऊपरी सदन के भी सदस्य नहीं बन सके तो रातों-रात केंद्र की मोदी सरकार ने उसे खाली करने का फरमान जारी कर दिया। और जब उन्होंने सरकार से कुछ दिनों के लिए विस्तार चाहा या फिर उसे चौधरी चरण सिंह के स्मारक के तौर पर घोषित करने की इच्छा जाहिर की तो उस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया गया। चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने वाली इस सरकार को उस समय उनकी विरासत और सम्मान का ख्याल नहीं आया। क्या उस समय चौधरी चरण सिंह बदल गए थे या फिर उनकी रूह कहीं खो गयी थी? उस समय भी वही चौधरी चरण सिंह थे जो आज हैं। और जब समय रहते अजित सिंह ने बंगला नहीं खाली किया तो सरकार ने उनके सामानों को निकाल कर सड़क पर फिंकवा दिया। मजबूरन अजित सिंह को वह बंगला छोड़ना पड़ा। यह न केवल अजित सिंह का अपमान था बल्कि चौधरी चरण सिंह और उनकी विरासत का भी अपमान था। क्योंकि वह उसी बंगले में रहे थे। लेकिन मोदी सरकार ने उसका रत्ती भर भी ख्याल नहीं रखा। उस समय तो जयंत जी बालिग हो गए थे और शायद सांसद भी बन चुके थे। क्या उन्होंने अपनी नंगी आंखों से यह सब कुछ नहीं देखा था? अपने पिता के साथ यह उनका भी अपमान था।
आपके खुद के सम्मान की बात करें? जो अब पाला बदलते ही आपको याद आया है। आपने आरोप लगाया कि राज्यसभा में आपका अपमान हुआ है लिहाजा बात करनी बनती है। वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र मिश्र जनचौक के अपने कॉलम में लिखते है कि कुछ सालों पहले बतौर आरएलडी अध्यक्ष आप की बातचीत और भाषण सुनने के बाद लगा था कि आप, अपने पिता की राह पर नहीं चलेंगे और राजनीति में उससे कुछ अलग रास्ता बनाएंगे, जो बिल्कुल स्वतंत्र होने के साथ ही अपनी बनायी नींव पर खड़ा होगा। लेकिन आप ऐसा नहीं कर सके। और मौजूदा दौर में बीजेपी के साथ जुड़ने का उन्होंने जो फैसला लिया है वह न केवल उनकी स्वतंत्रता को मारने का काम करेगा बल्कि उनके मान-सम्मान को भी गिरवी रखने जैसा है। क्या जयंत चौधरी अपने इस अपमान को भूल गए?
यह तो एक घटना रही। अब दूसरी घटना की आपको याद दिलाते हैं। हाथरस में दलित बच्ची के साथ कुछ सवर्णों ने बलात्कार किया था और फिर उसकी हत्या कर दी थी। घटना के बाद पुलिस ने उसकी लाश को रातों-रात बगैर परिजनों की उपस्थिति के जला दिया। बड़ा मुद्दा बना था। और विपक्ष के नेताओं समेत सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर पत्रकार तक में मौके का दौरा करने की होड़ लग गयी। लेकिन योगी प्रशासन वहां किसी को भी जाने नहीं दे रहा था। उसी दौरान जयंत चौधरी भी मौके पर जाना चाहते थे और परिजनों से मिलकर उन्हें सांत्वना और भरोसा दिलाना चाहते थे। महेंद्र मिश्र के अनुसार, चूंकि मामला पश्चिमी उत्तर प्रदेश का था लिहाजा यह उनकी (जयंत की) नैतिक जिम्मेदारी भी बन जाती थी। लेकिन कौन कहे जयंत को मौके पर ले जाकर परिजनों से मिलवाने के बजाय योगी की पुलिस ने उनका लाठियों से स्वागत किया। जयंत चौधरी के साथ वह अपमानजनक व्यवहार किया गया जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। उन्हें दस-पंद्रह पुलिसकर्मियों ने बाकायदा घेर लिया और फिर उन पर लाठियां बरसानी शुरू कर दी। वो तो कहिए कुछ समर्पित कार्यकर्ता थे जो कवच बनकर खड़े हो गए और हमले को अपने ऊपर ले लिया। वरना तो पुलिस ने उन्हें मार कर बेसुध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
ऐसा नहीं है कि जयंत चौधरी को पुलिस वाले पहचानते नहीं थे। यह सब कुछ बिल्कुल होशो-हवास और सोचे समझे तरीके से किया गया था। याद करने पर पूरा दृश्य आज भी आंखों के सामने जिंदा हो जाता है। मिश्र के अनुसार, अगर थोड़े से भी स्वाभिमान और आत्मसम्मान वाला नेता होता तो वहीं कसम खाता और योगी-मोदी सरकार को जड़ से उखाड़ने का संकल्प ले लेता। एकबारगी लगा था कि इस अपमान के बाद जयंत उसी रास्ते पर बढ़ेंगे। जाटों ने भी सभा कर के इसका जबर्दस्त प्रतिकार किया था। लेकिन जयंत के मौजूदा फैसले ने बता दिया है कि उनके भीतर कोई आत्मसम्मान नाम की चीज नहीं बची है। वह एक तरह से बेपेंदी के लोटे हैं। आगे बढ़ने से पहले यहां एक चीज स्पष्ट करनी जरूरी है कि जो शख्स अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकता वह किसी दूसरे शख्स या फिर समाज के सम्मान की भी रक्षा नहीं कर सकता है। हां ऊपर से उस पर समय- समय पर दाग लगाने के लिए वह ज़रूर जिम्मेदार रहेगा।
आज चौधरी साहब होते तो...?
खैर बात चौधरी चरण सिंह को मिले सम्मान की करें तो इसमें कोई शक नहीं कि चौधरी साहब सही मायने में भारत रत्न के हकदार हैं। मिश्र के अनुसार, उन्हें यह सम्मान पहले ही मिल जाना चाहिए था। लेकिन अगर मौजूदा सरकार ने दिया है तो यह भी देखा जाना चाहिए कि उसके पीछे उसकी मंशा क्या है? वह चौधरी की विरासत का कितना सम्मान करती है और कितनी उसकी हिफ़ाज़त। यह बात कही जाए तो और ज्यादा सच होगी कि इस फैसले के पीछे सम्मान से ज्यादा उनका इस्तेमाल प्रमुख वजह है। बीजेपी ने जाटों या फिर किसानों के साथ जो किया है चरण सिंह जिंदा रहते तो लेने की बात दूर वह इस सम्मान को लात मार देते। दिल्ली पड़ाव के दौरान 750 से ज्यादा किसानों की मौत हुई थी।
क्या चौधरी उनकी लाशों पर चढ़ कर इस सम्मान को लेना कबूल करते? कतई नहीं। जिन तकलीफों से किसानों को गुजरना पड़ा और जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा क्या चौधरी उसके बाद भी बीजेपी के करीब जाते। या मोदी सरकार के लिए किसी भी तरीके से मददगार साबित होते? बिल्कुल नहीं। चौधरी चरण सिंह का मयार इतना छोटा नहीं था। वह कभी भी विचारधारा से समझौता नहीं कर सकते थे। जाट बेल्ट में हिदू-मुस्लिम भाईचारे के बीच दरार डालकर साम्प्रदायिक वोटों की फसल काटने वाली बीजेपी के साथ एक पल के लिए भी खड़ा होना उनके लिए गुनाह होता। भाई-भाई के बीच भेद पैदा करने वाली बीजेपी कभी भी उनके लिए पनाहगाह नहीं साबित होती। अनायास नहीं उनके जिंदा रहने तक इलाके के मुस्लिम वोटों को कोई दूसरी पार्टी नहीं ले सकी। शायद यही कारण है कि पूर्व गवर्नर सत्यपाल मलिक ने अपने ट्वीट में जयंत को चेताया है कि उन्हें जो करना है करें जहां जाना है जाए लेकिन 750 से ज्यादा किसानों के हत्यारों से चौधरी साहब की तुलना न करें।
और हां एक और सबसे महत्वपूर्ण बात। चौधरी जिंदा होते तो वह बीजेपी-संघ की तानाशाही का विरोध कर रहे होते। क्योंकि उन्होंने इमरजेंसी का विरोध किया था। और उसके विरोध में जेल की सजा भुगती थी और 1000 वाट के जलते बल्ब का सामना किया था जो जेल में उन्हें रात को सोने नहीं देता था। और अब जबकि इमरजेंसी से भी कड़ी शासन-व्यवस्था चल रही है तब उससे सम्मान लेने की जगह वह उसका विरोध कर रहे होते। पोते के तौर पर उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी आपकी थी, है लेकिन अफसोस! निरंकुश सत्ता के सामने आपने समर्पण कर दिया। इससे आपको कितना राजनीतिक फायदा होगा और भविष्य में कितना नुकसान यह अलग आकलन का विषय है। लेकिन एक बात तय है कि आपने इस फैसले से न केवल अपना स्वतंत्र वजूद खो दिया है बल्कि भविष्य की अपनी राजनीतिक संभावनाओं को भी अंधेरे रास्ते पर धकेल दिया है।
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