भारत जोड़ो यात्राः चुनावी चुनौतियां और भारतीय समाज

Written by Ram Puniyani | Published on: November 19, 2022
भारत जोड़ो यात्रा की शानदार सफलता के चलते भारतीय समाज और राजनीति से जुड़े कई मसले उभरकर सामने आए हैं. यद्यपि भारत जोड़ो यात्रा का घोषित उद्धेश्य पिछले तीन दशकों में हुए धार्मिक विभाजन को समाप्त करना है परंतु इससे किसानों, महिलाओं और युवाओं की समस्याएं, बढती महंगाई, आदिवासियों की बदहाली व समाज में बढ़ता असुरक्षा का भाव भी उजागर हो रहे हैं. यह यात्रियों के बयानों और भाषणों से तो जाहिर हो ही रहा है, यह इससे भी जाहिर है कि लोग अत्यंत उत्साह से यात्रा में शामिल हो रहे हैं और उन्हें इससे बड़ी उम्मीदें हैं.



पिछले तीन दशकों में भारतीय समाज का तेजी से विभाजन हुआ है. भावनात्मक मुद्दों का बोलबाला हो गया है, धार्मिक हिंसा बढ़ रही है और निर्धन व हाशियाकृत समुदायों की स्थिति खराब होती जा रही है. मुख्यधारा का मीडिया, जिसे अब गोदी मीडिया कहा जाता है, इन सब मुद्दों को नजरअंदाज कर रहा है. परंतु यह सुखद है कि सोशल मीडिया का एक हिस्सा, अनेक छोटे टीवी चैनल और यूट्यूबर, भारतीय समाज की इस उथल-पुथल को जनता के सामने ला रहे हैं. इससे निराशा में डूबे लोगों में आशा का संचार हुआ है. जहां तक चुनावी राजनीति का प्रश्न है, भाजपा की स्थिति बहुत मजबूत है. उसे संघ परिवार द्वारा चलाए गए अभियान से हिन्दू राष्ट्रवाद के मजबूत होने का लाभ तो मिल ही रहा है, वह धनबल, बाहुबल और ईडी जैसी संस्थाओं का दुरूपयोग कर अवसरवादी राजनेताओं को अपने शिविर में लाने में भी कामयाब रही है. ऐसा लगता है कि भाजपा अजेय बन गइ है. प्रचारकों से लेकर स्वयंसेवकों और उनसे लेकर पन्ना प्रमुखों तक की लगातार सक्रियता और समाज में बढ़ती धार्मिकता के कारण हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि एक समय भाजपा के शीर्ष नेताओं में से एक अमित शाह ने यहां तक दावा किया था कि उनकी पार्टी अगले 50 सालों तक देश पर शासन करेगी.

देश की दूसरी राष्ट्रीय पार्टी - कांग्रेस - बहुत कमजोर हो गई थी. ऐसे अनेक नेता जिनकी निष्ठा धर्मनिरपेक्षता और भारतीय संविधान के मूल्यों में नहीं थी, कांग्रेस छोड़कर अन्य पार्टियों में जाने लगे थे क्योंकि उन्हें लगता था कि उनका भविष्य कांग्रेस की अपेक्षा अन्य पार्टियों में बेहतर होगा. परंतु जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ती जा रही है, राहुल गांधी की छवि बेहतर होती जा रही है. ऐसा लगता है कि इस अग्निपरीक्षा से राहुल गांधी एक निपुण, ईमानदार और संवेदनशील नेता बनकर उभरेंगे और यह साबित करेंगे कि वे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के सपनों के भारत का निर्माण करने के प्रति प्रतिबद्ध हैं.

कांग्रेस, जो विचारधारा और संगठन दोनों की दृष्टि से दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही थी, को मानो नया जीवन मिल गया है. अब ऐसा लग रहा है कि वह वर्तमान स्थितियों से निपटने में सक्षम है. प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस उपस्थित चुनौतियों से निपटने का प्रयास करेगी ताकि वह देश की राजनीति में अपना खोया हुआ स्थान फिर से प्राप्त कर सके. भारत में कई दशकों तक कांग्रेस अत्यंत मजबूत राजनैतिक जमावड़ा थी.  स्वाधीनता संघर्ष के दौरान वह ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करने वाली सबसे बड़ी संस्था थी. कांग्रेस के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने  धर्मनिरपेक्षता की नींव पर आधुनिक भारतीय राष्ट्र का निर्माण किया और यह सुनिश्चित किया कि प्रजातांत्रिक मूल्य भारत के मानस का हिस्सा बनें. हमारे औपनिवेशिक आकाओं की भविष्यवाणियों के विपरीत, भारत में स्वाधीनता के बाद सत्ता में आए नेताओं ने यह सुनिश्चित किया कि देश प्रजातंत्र बना रहे और स्वतंत्रता के लाभ हर नागरिक तक पहुंचें.

महात्मा गांधी ने किसानों सहित देश के सभी वर्गों के आम लोगों को स्वाधीनता संघर्ष का हिस्सा बनाया. उन्होंने महिलाओं के अन्तर्निहित गुणों को पहचाना और उन्हें गोलबंद किया.

कुल मिलाकर प्रजातान्त्रिकरण एवं समावेशी राजनीति के जरिए देश ने औपचारिक समानता से वास्तविक समानता की ओर यात्रा शुरू की. परंतु कांग्रेस में कई आंतरिक कमियां थीं और ऐसी अनेक बाहरी शक्तियां भी थीं जिनके कारण इस यात्रा की राह में कई बाधाएं खड़ी होने लगीं. कांग्रेस अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं में विचारधारात्मक निष्ठा उत्पन्न नहीं कर सकी. कई लोग केवल सत्ता के लालच में पार्टी का हिस्सा बन गए. नेहरू ने कई बार यह चेतावनी दी कि साम्प्रदायिक तत्वों ने पार्टी में घुसपैठ कर ली है परंतु संगठन के स्तर पर इसे रोकने का गंभीर प्रयास नहीं किया गया.

देश में भू-सुधार न होने और पूर्व-आधुनिक सोच का बोलबाला बने रहने का लाभ धार्मिक दक्षिणपंथियों ने उठाया. हिन्दू राष्ट्रवादियों ने दकियानूसी, पुरातनपंथी एवं प्रतिगामी विचारधारा को मजबूती दी. समाज में व्याप्त धार्मिकता का लाभ उठाते हुए उसने राममंदिर, गौरक्षा आदि को राष्ट्रीय मुद्दे बना दिया. आरएसएस की सबसे बड़ी ताकत है प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की विशाल सेना. ये कार्यकर्ता इतिहास को एक विशेष नजरिए से देखते हैं, उनकी मान्यता है कि प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी अवधारणाएं हैं जो भारत के लिए प्रासंगिक नहीं हैं और वे अतीत का महिमामंडन करते हैं - उस काल का जिसमें मनुस्मृति का राज था. उन्होंने ऐसी स्थिति निर्मित कर दी है जिसके चलते आम लोगों का जीवन दूभर हो गया है.

एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस को एक ओर प्रजातंत्र और बहुवाद के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का मुकाबला करना है तो दूसरी ओर देश में आर्थिक समानता स्थापित करनी है. कांग्रेस को आंतरिक प्रजातंत्र की भी आवश्यकता थी जिसकी शुरूआत हाल में पार्टी के अध्यक्ष के प्रजातांत्रिक निर्वाचन से हो गई है. इसके अलावा यह भी जरूरी है कि उसके कार्यकर्ताओं को वैचारिक प्रशिक्षण दिया जाए. उन्हें यह बताया जाए कि गांधी और नेहरू की सोच क्या थी, वे भारतीय इतिहास को किस रूप में देखते थे और आज देश को उस समावेशी विचारधारा की जरूरत क्यों है जो स्वाधीनता संग्राम की प्रेरक शक्ति थी.

आने वाले समय में पार्टी को विचारधारा और संगठन दोनों के स्तर पर खुद को मजबूत बनाना होगा. इस सिलसिले में यह यात्रा चमत्कारिक परिणाम लाने वाली साबित हो सकती है. इस यात्रा से पार्टी के नेतृत्व को देश के आम लोगों की समस्याएं समझ में आएंगी. कुबेरपतियों की समस्याएं तो हमेशा से आसानी से सुलझती रही हैं. भारत जोड़ो यात्रा हमें महात्मा गांधी की देशव्यापी यात्रा की याद दिलाती है. महात्मा गांधी रेल के तीसरे दर्जे में यात्रा करते थे जिससे उन्हें देश की नब्ज समझने में मदद मिली.

यह जरूरी है कि यात्रा में सभी धर्मों जातियों और वर्गों के पुरूषों और महिलाओं को शामिल किया जाए. ट्रोल सेना और हिन्दू राष्ट्रवाद के रंग में पूरी तरह रंग चुके लोग चाहे कुछ भी कहते रहें, अधिकांश नागरिक चाहते हैं कि देश में सामाजिक-आर्थिक समानता हो और सभी को पूरी आजादी उपलब्ध हो. ऐेसे लोगों को भी यात्रा का हिस्सा बनाया जाना चाहिए जो स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. यह यात्रा संभावनाओं से भरी हुई है और ऐसा लगता है कि वह भारत को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मार्ग पर तेजी से आगे ले जाने में कामयाब होगी.

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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