पिछले 3 महीनों से जारी मणिपुर हिंसा में एक पर्यावरण का पहलू भी है जो मणिपुर में पहाड़ी भूमि के खनन से चिंताओं को गहरा करता है. मणिपुर में पहाड़ी भूमि पर मूल निवासियों का क़ब्ज़ा है जिसमें अधिकतर लोग ईसाई धर्म को मानने वाले हैं. पहाड़ी भूमि से चूना पत्थर, क्रोमाईट, निकेल, मैलाकाइट, मैग्नेटाइट और अज़ुराइट जैसे क़ीमती खनिजों का खनन ‘फ़ारेस्ट राइट्स एक्ट 2006’ का उल्लंघन है क्योंकि इसपर राज्य के मूल निवासियों का अधिकार है.
मणिपुर में जारी हिंसा के पीछे धन, ताक़त और राजनीतिक पदों पर एकाधिकार बनाए रखने की चाल भी बराबर ज़िम्मेदार है. मार्च, 2023 में उच्च न्यायालय ने राज्य में बहुसंख्यक मैतेयी समुदाय को ST वर्ग में रख दिया था जिसका सीधा सा अर्थ था कि वह अब पहाड़ी भूमि की ख़रीद फ़रोख़्त में हिस्सा ले सकते थे, ये अधिकार पहले उनके दायरे से बाहर था. फ़िलहाल हिंसा भड़कने के बाद इसे कोर्ट द्वारा कुछ वक़्त के लिए टाल दिया गया है.
इससे पहले मूल समुदाय कुकी- ज़ो और नागा ने खनन के लिए कार्पोरेट को अपनी ज़मीन बेचने का विरोध किया था. ऐसे में मैतेयी वर्ग को ST के दायरे में शामिल होने से भूमि के मनमाने खनन का डर, मूल निवासियों के संस्कृतिक अधिकारों के हनन और पर्यावरण की उभरती चिंता लाज़मी ही है. ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकार की ये नीति जानबूझकर पहाड़ी ज़मीन पर कार्पोरेट के दख़ल को आसान बनाने की नीति का हिस्सा है. लोकसभा द्वारा पारित जंगल संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 के तहत सरकार को जंगल की ज़मीन पर बिना रोक टोक अपार अधिकार सौंप दिए गए हैं, बिल्कुल इसी तर्ज़ पर 2015 और 2021 में ‘खान और खनिज विकास और विनियमन संशोधन अधिनियम (MMDRA) 1957’) ने भी जंगल की ज़मीन पर पीढ़ियों से निवास कर रहे मूल निवासियों से अधिकारों को छीना है.
उद्योगों का प्रभाव
पिछले कुछ दशकों में विकास की दौड़ में मणिपुर में कंपनियों का दख़ल लगातार बढ़ा है. अनेक कंपनियों ने भारत की ‘पूरब की ओर देखो’ नीति के तहत खनन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों की अवहेलना की है. मणिपुर के उखरूल, कामजोंग, तेंगनाओपाल, चंदेल ज़िलों में और क्रोमाइट और चूना पत्थर का खनन सबसे अधिक हुआ है.
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) और मणिपुर सरकार के उद्योग और वाणिज्य विभाग (DIC) ने अनेक सर्वे के ज़रिए खनिज के खनन पर रौशनी डाली है. जबकि मणिपुर सरकार ने औद्योगिक और निवेश पॉलिसी 2013 को फिर से 2017 में सूचित करके इन अत्यधिक सक्रिय उद्योगों को विकसित करने और सहयोग देने की कोशिश की है. इस पॉलिसी का मक़सद कंपनियों को कच्चा माल, मानव संसाधन, प्राकृतिक संसाधन मुहैय्या कराकर और बुनियाद, ढांचे, बाज़ार आदि में सहयोग देकर अधिक से अधिक निवेश को आकर्षित करना है. इसी तरह मणिपुर गौण खनिज नीति (Minor Mineral Policy, 2018) भी इन्हीं उद्देश्यों पर बल देती है.
मणिपुर में खनिज स्त्रोत
भारत सरकार के खनन मंत्रालय के अंतर्गत भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) ने मणिपुर में ज़मीन की नए सिरे से मैपिंग की है. इस कोशिश के नतीजे में अनेक नए खनिजों जैसे चूना पत्थर, क्रोमाइट, निकेल, मैलाकाइट, मैग्नेटाइट, अज़ुराइट कॉपर, प्लेटिनम ग्रुप एलीमेंट्स (PGE) के नए स्त्रोतों को पहचाना गया है.
GSI के आकलन के मुताबिक मणिपुर के तेंगुनोपाल व चंदेल ज़िले के ताउपोकपी, चाकपिकारोंग, पॉलेल, लुंगफुरा, नूंगफल, साजिक थंपक, हरिकोट गांवों और उखरूल के हुंडंग, फुंगयार, मैलांग गांवों में क़रीब 20 मिलियम मैट्रिक टन चूनापत्थर है. इस आंकड़े से ये भी ज़ाहिर होता है कि खनिज के लिहाज़ से समृद्ध इन इलाक़ों में क़रीब 80 प्रतिशत आबादी ईसाई है. ये समुदाय इस समय मणिपुर में लक्षित हिंसा का मुख्य निशाना भी है. हिंसा की मार ने इन पहाड़ी इलाक़ों को ही प्रभावित किया है जहां 80-85 प्रतिशत आबादी ईसाई है.
हिंसा का मक़सद
मणिपुर में 3 मई से मूल निवासियों और बहुसंख्यक आबादी के बीच सांप्रदायिक हिंसा का दौर जारी है. गहरी पड़ताल करने पर ज़ाहिर होता है कि नफ़रत और विभाजन को तूल देती इस झड़प के पीछे पहाड़ी ज़मीन पर नियंत्रण और आर्थिक लाभ मुख्य वजह है.
भारतीय खान ब्यूरो, 2013 के रिपोर्ट के हिसाब से मणिपुर ओपहिनोटाइट बेल्ट में क़रीब में 6.66 मिलियन टन क्रोमाईट भंडार है. इसके तहत उरूखुल और कामजोंग में 5.5 मिलियन टन और तेंगुनोपाल और चंदेल ज़िले में 1.1 मिलियन टन क्रोमाइट पाया गया है. ये क्रोमाइट वाले इलाक़े उखरूल के फांगेरी, लुंघर, सिग्चा-गामनोन से लेकर तेंगुनोपाल और चंदेल ज़िले के क्वाथा, खुंदेनगथाबी, मिनोउ मांगकांग तक फैले हुए हैं.
खनन अनुबंध और पर्यावरण की अवहेलना
2007 से 2012 के बीच भारतीय खनन ब्यूरो और खनन मंत्रालय ने उखरूल और चंदेल में प्राईवेट कंपनियों को खनन के लिए अनुबंध सौंपा था. इसके तहत मणिपुर सरकार और निजी कंपनियों के बीच में जो अनुबंध तय किया गया था वो भू- खनन अधिकारों का परिधि में आता है. नवंबर 2017 में इंफ़ाल में ‘उत्तरपूर्वी बिज़नेस समिट’ में खनन के लिए अनुबंध तय किए गए थे. इस दौरान क़रीब 9 कंपनियों ने मणिपुर सरकार से क्रोमाइट और चूना पत्थर के उत्खनन के लिए अनुबंध तय किए थे.
2013-2023
2012 से पहले मणिपुर में अनेक कंपनियों को अनुबंध सौंपे जाते थे जिनमें से उड़ीसा की कंपनी आनंद एक्सपोर्ट्स लिमिटेड (जितेन्द्र मोहपात्रा और मुहम्म्द कुतुबुद्दीन), विज़ा स्टील लिमिटेड (विशम्भर सरन), बालासौर एलोस लिमिटेड उड़ीसा आदि का नाम प्रमुख है जो कि उखरूल और कामजोंग ज़िले में आते थे. बाद में गल्फ़ नेचुरल रिसोर्सेज़ प्राइवेट लिमिटेड, राउरकेला मिनिरल्स प्राइवेट लिमिटेड, (शम्भू दयाल अग्रवाल और रबीन्द्र बिस्वास चंद्रा), सर्वेश रिफ्रेक्टोरिज़ प्राईवेट लिमिटेड (अशोक अग्रवाल) ने भी मणिपुर में क्रोमियम खनन के लिए अनुबंध किए.
नवंबर 2018 में व्यापार, वाणिज्य और उद्योग महानिदेशलय ने एक कैबिनेट मेमो का ड्राफ़्ट पेश किया जिसमें हुंडंग सीमेंट फ़ैक्ट्री को इंफ़ाल के रामुंग इंटरप्राइसेज़ को सौंपकर 400 TPD का सीमेंट प्लांट तैयार करने के लिए अनुबंध तय किया गया था. 18 फ़रवरी 2019 को एक कैबिनेट निर्णय में सार्वजनिक-निजी साझेदारी के तहत 500 TPD और 400 TPD के 2 सीमेंट प्लॉंट लगाने का फ़ैसला लिया गया था.
आंध्र प्रदेश के फ़ाकोर एलोएस लिमिटेड ने 6 अप्रैल,2018 को DTCI मणिपुर के तहत लूनघर, सिहाई खुल्लेन, नूनगबी और उखरूल ज़िले में क्रोमाइट के लाइसेंस के लिए 2 साल अवधि बढ़ा दी थी. उन्होंने DTCI की सलाह पर 14 दिसंबर, 2028 को लूनघर में क्रोमामाइट के खनन के लिए राज्य स्तर की कमेटी के सामने अनुबंध भी पेश किया. 23 फ़रवरी, 2019 को DTCI ने M/s सर्वेश रिफैक्ट्री प्राइवेट लिमिटेड और M/s. राउरकेला मिनिरल कंपनी प्राइवेट लिमिटेड के साथ लूनघर गांव में खनन के समझौते के पर हस्ताक्षर किया था. ग़ौरतलब है कि सरकार के साथ खनन के लिए ऐसे समझौते ग्रामीणों की मर्ज़ी और सूचना के बिना किए जाते हैं.
फ़ॉरेस्ट कंज़र्वेशन एक्ट, FCA, 1980 जंगल और जंगल से अलग गतिविधियों पर नियंत्रण रखता है लेकिन इसके लिए वन, पर्यावरण औऱ जलवायु परिवर्तन मंत्रालय MoEFCC की मंज़ूरी की ज़रूरत होती है. 2023 के ताज़ा संशोधन से पहले वन संरक्षण अधिनियम (FCA) और FRA 2006 के तहत तयशुदा वन-अधिकार ही इन मामलों का विनियमन करते थे. FCA, 1980 के सेक्शन 2 के तहत राज्य सरकार की विशेष गाईडलाइन्स के मुताबिक़ राज्य सरकार केंद्र सरकार की मंज़ूरी के बिना जंगल और जंगल की ज़मीन से जुड़ी किसी गतिविधि को अंजाम नहीं दे सकती है. इस तरह ज़मीन के खनन को लेकर निजी कंपनियों से अनुबंध के लिए केंद्र की रज़ामंदी की ज़रूरत होती है.
संविधान और क़ानून से गतिरोध-
खनन अधिनियमों और कोर्ट ने अनेक ऐसे फ़ैसले किए हैं जिनके मुताबिक़ पर्यावरण के लिए तय ‘ग्रीन लॉ’ और संबंधित दायरों को पहचाना जा सके. खनिज और खनन विकास अधिनियम (MMDRA) 1957 के मुताबिक़ आदिवासी और मूल निवासी जंगल की ज़मीन और उससे जुड़ी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक और परंपरागत संपदा पर पूरा हक़ रखते हैं.
भारतीय संविधान Sl. No. 54 और 7वीं अनुसूची के अनुसार इससे जुड़े विषयों पर राज्य सरकारों का क़ानून केंद्र सरकार के क़ानून से नियंत्रित होता है. MMDR अधिनियम,1957, 15 वें नियम के तहत राज्य सरकार को गौण खनिजों के खनन का अधिकार सौंपता है. असके अलावा 16 जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘खनिज संपदा पर राज्य सरकार का नहीं बल्कि ज़मीन के मालिक का हक़ होगा.’ 1997 में सामंता बॉक्साइट खनन मामले में भी कोर्ट ने फ़ैसला देते हुए ज़मीन और खनन पर आदिवासियों के हक़ को रेखांकित किया था.
एक दूसरे मामले में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने अनुसूचित जनजाति के सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक पहलूओं का संज्ञान लेते हुए ओडिशा बॉक्साइट खनन प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी. भारतीय संविधान की 5वीं और 6वीं अनुसूची में स्वायत्त ज़िला काउंसिल को इन मामलों में निर्णय लेने का पूरा हक़ है. फिर भी पर्यावरण और संविधान की फ़िक्र न करते हुए इस सरकार ने 2015 में और फिर 2021 में क़ानूनों में संशोधन पेश किया. पहले संशोधन को MMDR अधिनियम, 2015 के नाम से जाना जाता है जिसके तहत केंद्र सरकारों को राज्यों के मुक़ाबले इन मामलों के निर्धारण में अधिक शक्तियां सौंप दी गईं जबकि 2021 के संशोधन के तहत केंद्र सरकार को FRA 2006 को नियंत्रित करने का पूरा अधिकार सौंप दिया गया.
ये संशोधन गैस, तेल व किसी भी दूसरे खनिज का पता चलते ही फ़ौरन खनन का अधिकार सौंप देता है. 2021 का अधिनियम ग्राम सभाओं की अनुमति को दरकिनार करते हुए खनन रोकने या नियंत्रित करने के उनके अधिकार को नियंत्रित करता है. जिसका सीधा सा अर्थ है केंद्र और निजी कंपनियों की तानाशाही और आदिवासी और मूल निवासियों के अधिकारों का हनन!
इससे किसे लाभ मिलता है?
गल्फ़ रिसोर्सेज़ प्राइवेट लिमिटेड (GNRPL) कंपनी (दीना चंद्र सिंह औऱ अब्दुल्लाह अल हादी की कंपनी) ने गुड़गांव के क्वाथा गांव में क्रोमाइट उत्खनन के लिए 5 अक्टूबर, 2016 में एक अनुबंध किया था जिसमें कंपनी को गांव में 15 sq किमी. ज़मीन पर क्रोमाइट के खनन के लिए सौंप दी गई थी.
23 फ़रवरी, 2019 के रोउरकेला मिनिरल्स कंपनी प्राइवेट लिमिटेड (ROMCO) (शंभू दयाल अग्रवाल और रवीन्द्र विस्वास चंद्रा की कंपनी) ने मणिपुर के सिंगचा गामनोम गांव में 20 सालों के लिए 85 हेक्टेयर क्षेत्र में खनन के लिए राज्य सरकार से अनुबंध किया. क़रीब 50 करोड़ के इस प्रोजेक्ट को DTCI और MoEFCC ने मंज़ूरी भी दे दी.
सर्वेश रिफ़्रैक्ट्री प्राइवेट लिमिटेड (अशोक अग्रवाल की कंपनी) ने भी उखरूल के सिरोही-लूनघर गांव में क्रोमाइट के खनन के लिए 132,781 हेक्टेयर भूमि के लिए मणिपुर सरकार से अनुबंध किया था.
मणिपुर सरकार ने गुवहाटी में M/S सुपर ओरिस और माइन्स प्राइवेट लिमिटेड (संजय शर्मा और सुरेश शर्मा की कंपनी) को अगले 20 सालों तक 500 टन चूनापत्थर रोज़ाना की दर से खनन करने के समझौते पर रज़ामंदी दी. इसके अलावा 18 नवंबर 2018 को इंफ़ाल में रामुंग इंटरप्राज़ेज़ के लिए 47 एकड़ ज़मीन 400 TPD सीमेंट प्लांट के लिए तय की गई थी.
इसी तर्ज़ पर सत्यम कंपनी और मणिपुर सरकार ने कामजोंग ज़िले के मैलिलांग गांव में चूना पत्थर और उससे जुड़े सर्वे के लिए 50 किमी तक की ज़मीन घेर रखी है.
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की मुखअ बेंच ने ओम दत्त सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में 7 मई 2025 में खनन से जुड़े पर्यावरणीय पहलू का संज्ञान लिया. FCA 1980 और FRA, 2006 ने जंगल, खनन, अंडरग्राउंड खनन और केंद्र सरकार के अधिपत्य के बारे में क़ानून ज़रूर तय किए थे लेकिन 2023 के संशोधन ने केंद्र को अपार शक्तियां दे दी हैं. ये संशोधन लोकसभा में ग़ैरलोकतांत्रिक तरीक़े से पारित हुआ और अभी इसे राज्यसभा से मंजूरी मिलना बाक़ी है. इसके तहत संघ सरकार को बार्डर एरिया के 100 किमी. तक के दायरे में आने वाले क्षेत्रों की ज़मीन पर पूरा अधिकार सौंप दिया गया है. आम तौर पर आदिवासी और वन क्षेत्रों के मूल निवासियों में इन क़ानूनों को लेकर जागरूकता का अभाव है.
स्वास्थ्य पर पर्यावरणीय प्रभाव
एक माइनिंग कंपनी की प्री-फ़ैसिलिटी स्टडी रिपोर्ट में गलत दावा किया गया है कि मणिपुर के सबसे अधिक वन क्षेत्रों में से एक होने के बावजूद लुनघर में खनन पट्टा क्षेत्र वन और कृषि भूमि से रहित है.[1] इस PFR में कुकी और तांगखुल जनजातियों पर खनन के प्रभाव और वन संपदा पर निर्भरता के सवाल को भी नज़रअंदाज़ किया गया है. क़ानूनी रूप से खनन की योजना को आर्टिकल 371 C के तहत हिल एरिया कमेटी से रज़ामंदी भी लेनी थी लेकिन इस पहलू की अवहेलना की गई है.
मणिपुर में जारी खनन योजनाएं पर्यावरण के लिहाज़ से नुक़सानदेह हैं. उड़ीसा की M/s राउरकेला मिनिरल कंपनी प्राइवेट लिमिटेड, M/s सर्वेश रिफ्रैक्ट्री प्राइवेट लिमिटेड और M/s ग़ल्फ़ नेचुरल रिसोर्सेज़ सभी में पर्यावरण और जंगल को लेकर एक स्पष्ट नज़रिए का अभाव है.
सिंगचा गामनोन में RAMCO की प्री-फ़ैसिलीटी स्टडी रिपोर्ट ने भी जंगल भूमि न होने का ग़लत दावा पेश किया. क्वाथा, सिंगचा- गामनोन, मैलिलंग, हंगदुंग, फानगेई, लूनघर आदि इलाक़ों में अनेक खनन कंपनियां सक्रिय हैं जिनसे ग्रामीणों का जीवन विपरीत ढंग से प्रभावित होता है.
क्लोरियम के खनन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को भी दरकिनार किया जा रहा है. जबकि क्लोरियम युक्त हवा में सांस लेने से साइनस, नाक और फेफड़े का कैंसर होने तक का ख़तरा पैदा हो सकता है.[2]
आदिवासियों और मूल निवासियों का प्रतिरोध
कामजोंग ज़िले के सिंगचा गांव में 27 सितंबर, 2020 को क्रोमियम खनन के विरोध में एक बड़ा प्रतिरोध हुआ था. इसी तरह 3 अक्टूबर,2020 को तेंगनउपाल ज़िले में रिलराम एरिया मारिंग ऑर्गनाइज़ेशन (RAMO) ने क्रोमाइट खनन के ख़िलाफ़ क़दम उठाते हुए नो ऑब्जेक्शन सार्टिफ़िकेट (NOC) की घोषणा की थी.
तेंगनउपाल ज़िले में मोलनोई में 8 अक्टूबर, 2020 को महिला और विद्यार्थी संगठनों ने मणिपुर में बिना जनमत के जारी खनन का विरोध किया था. 27 नवंबर, 2020 को तेंगनउपाल नागा लॉंग (TNL) ने उखरूल और कामजोंग ज़िले में खनन पर सामाजिक, पर्यावरणीय और स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताएं ज़ाहिर कीं. जेजो थामसन कहते हैं – ‘इसकी मुख्य वजह खनन प्रक्रिया में शामिल धांधली है जिसमें प्रकृतिक संसाधनों से असल मालिक (हक़दर) के अधिकार और स्पष्टीकरण को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया जाता है. इसके अलवा ग्रामीणों और मूल निवासियों को खनन की योजना के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है और इसमें उनकी सहमति भी नहीं ली जाती है. ’
भारत में सुकींडा, ओड़िशा में क्रोमियम खनन से पैदा प्रदूषण को देखते हुए मणिपुर में खनन के परिणाम का आकलन किया जा सकता है. सुकींडा में खनन से फैले प्रदूषण ने कैंसर पैदा करने वाले ज़हरीले उत्सर्जन पैदा किए हैं.[3] सुकींडा खनन में शामिल कंपनियों जैसे बालासोर एलोसय लिमिटेड आदि ने मणिपुर में खनन के लिए MoUs पर हस्ताक्षर किया है. 2015 में ‘खनन और खनिज संशोधन अधिनयम’ (विकास और विनियमन) ने खनन से जुड़ी कंपनियों को विशेषाधिकार सौंप दिए हैं जिसके तहत किसी समुदाय की सहमति के बिना भी अगले 50 सालों तक खनन अनुबंधों को बढ़ाया जा सकता है. जबकि 2020 का ‘ड्राफ़्ट इनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट’ खनन से पहले खनन गतिविधियों की नाप-जोख के कटघरे से आज़ाद रखता है. 2020 का खनन नोटिफ़िकेशन खनन कंपनियों को आदिवासी समुदाय की सुरक्षा, परंपरागत क़ानूनों और पर्यावरणीय मानकों के ऊपर वारीयता देता है.
देश और विश्व भर में खनन कंपनियों की गतिविधियों का नकारात्मक नतीजा देखा जा सकता है. उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखंड इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं. वेदांता जैसी कंपनियां जहां अमीरों के लिए समृद्धि का सबब बनी हैं वहीं इन्होंनें ग़रीब समुदायों का नुक़सान भी किया है. सामाता बॉक्साइट केस 1997 में ज़मीन पर अदिवासियों के अधिकारों की पैरवी करते हुए कहा गया था कि उनकी ज़मीनें ग़ैर आदिवासी समूहों को खनन के लिए नहीं सौंपी जा सकती हैं.
केरल बनाम जेनिन्स 7SCR 863 में कहा गया कि ज़मीन से हासिल संसाधनों पर ज़मीन के मालिक का हक़ होगा जिसमें राज्य दख़ल नहीं कर सकता है. इसी तरह नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने ओम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में खनन के पर्यावरणीय प्रभावों की तरफ़ ध्यान खींचा. कॉमन काज़ बनाम भारतीय संघ मामले (याचिका नं. 114, 2014) में न्यायमूर्ति एस. ए. बोबेज ने कहा कि ये अनुंबंध ख़त्म होने के बाद खनन कंपनियों की ज़िम्मेदारी है कि वो संबंधित ज़मीन को फिर से हरा-भरा बनाएँ. इसी तरह 18 अप्रैल, 2013 में उड़ीसा माइनिंग कोर्पोरेशन लिमिटेड बनाम पर्यावरण और जंगल (याचिका नं 180, 2011) मामले में भी कहा गया कि खनन प्रोजेक्टस में ग्राम सभा की अनुमति ज़रूरी है. वैदांता जैसी कंपनी के शामिल होने के कारण इस फैसले पर क़रीब एक दशक तक लंबा आंदोलन चला. 2009 में ‘अवतार’ फ़िल्म के साथ भी खनन के ख़िलाफ़ आंदोलनों में तेज़ी आई थी.
ये साफ़ ज़ाहिर है कि खनन कंपनियां किसी समुदाय के अधिकारों और आदिवासी अधिकारों की अवहेलना करती हैं और पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाती हैं. ज़मीन पर क़ब्ज़ा, सस्ता श्रम, संसाधनों पर अधिकार करके वो आदिवासियों और मूल निवासियों को मुख्यधारा से और भी दूर कर देती हैं.
खनन की गतिविधियां अनेक बार मानवाधिकारों का भी हनन करती हैं. संयुक्त राष्ट्र की मूल निवासियों के अधिकारों की घोषणा में आर्टिकल 26 में कहा गया है कि ऐतिहासिक तौर पर जिस ज़मीन पर मूल निवासियों का अधिकार है उससे जुड़े संसाधनों पर भी उनका ही हक़ है.
मणिपुर में प्राकृतिक संसाधनों के खनन की सरकरी योजना जहां निजी कंपनियों को वारीयता देती है वहीं दूसरी तरफ़ खनन के प्रभावों के आकलन और मूल निवासियों की सहमति को भी दरकिनार करती है. लेकिन ज़मीन, तेल, खनिज के दोहन या संबंधित किसी योजना के लिए इसके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को आंकना और मूल निवासियों की सहमति हासिल करना बेहद ज़रूरी है. सरकार को मणिपुर के मूल निवासियों के अधिकारों और विकास की उम्मीदों का संज्ञान लेने तक इन खनन योजनाओं को रोक देना चाहिए.
[1] An article, Mining and fraudulent clearances in Manipur Jajo Themson;
http://e-pao.net/epSubPageExtractor.asp?src=news_section.opinions.Mining_and_fraudulent_clearances_in_Manipur_By_Jajo_Themson
[2] A paper by Alok Prasad Dad and Shikha Singh, Occupational health assessment of chromite toxicity among Indian miners, on the website of the National Library of Medicine (of the National Center for Biotechnology Information) details this deleterious impact.
Related:
मणिपुर में जारी हिंसा के पीछे धन, ताक़त और राजनीतिक पदों पर एकाधिकार बनाए रखने की चाल भी बराबर ज़िम्मेदार है. मार्च, 2023 में उच्च न्यायालय ने राज्य में बहुसंख्यक मैतेयी समुदाय को ST वर्ग में रख दिया था जिसका सीधा सा अर्थ था कि वह अब पहाड़ी भूमि की ख़रीद फ़रोख़्त में हिस्सा ले सकते थे, ये अधिकार पहले उनके दायरे से बाहर था. फ़िलहाल हिंसा भड़कने के बाद इसे कोर्ट द्वारा कुछ वक़्त के लिए टाल दिया गया है.
इससे पहले मूल समुदाय कुकी- ज़ो और नागा ने खनन के लिए कार्पोरेट को अपनी ज़मीन बेचने का विरोध किया था. ऐसे में मैतेयी वर्ग को ST के दायरे में शामिल होने से भूमि के मनमाने खनन का डर, मूल निवासियों के संस्कृतिक अधिकारों के हनन और पर्यावरण की उभरती चिंता लाज़मी ही है. ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि सरकार की ये नीति जानबूझकर पहाड़ी ज़मीन पर कार्पोरेट के दख़ल को आसान बनाने की नीति का हिस्सा है. लोकसभा द्वारा पारित जंगल संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 के तहत सरकार को जंगल की ज़मीन पर बिना रोक टोक अपार अधिकार सौंप दिए गए हैं, बिल्कुल इसी तर्ज़ पर 2015 और 2021 में ‘खान और खनिज विकास और विनियमन संशोधन अधिनियम (MMDRA) 1957’) ने भी जंगल की ज़मीन पर पीढ़ियों से निवास कर रहे मूल निवासियों से अधिकारों को छीना है.
उद्योगों का प्रभाव
पिछले कुछ दशकों में विकास की दौड़ में मणिपुर में कंपनियों का दख़ल लगातार बढ़ा है. अनेक कंपनियों ने भारत की ‘पूरब की ओर देखो’ नीति के तहत खनन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों की अवहेलना की है. मणिपुर के उखरूल, कामजोंग, तेंगनाओपाल, चंदेल ज़िलों में और क्रोमाइट और चूना पत्थर का खनन सबसे अधिक हुआ है.
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) और मणिपुर सरकार के उद्योग और वाणिज्य विभाग (DIC) ने अनेक सर्वे के ज़रिए खनिज के खनन पर रौशनी डाली है. जबकि मणिपुर सरकार ने औद्योगिक और निवेश पॉलिसी 2013 को फिर से 2017 में सूचित करके इन अत्यधिक सक्रिय उद्योगों को विकसित करने और सहयोग देने की कोशिश की है. इस पॉलिसी का मक़सद कंपनियों को कच्चा माल, मानव संसाधन, प्राकृतिक संसाधन मुहैय्या कराकर और बुनियाद, ढांचे, बाज़ार आदि में सहयोग देकर अधिक से अधिक निवेश को आकर्षित करना है. इसी तरह मणिपुर गौण खनिज नीति (Minor Mineral Policy, 2018) भी इन्हीं उद्देश्यों पर बल देती है.
मणिपुर में खनिज स्त्रोत
भारत सरकार के खनन मंत्रालय के अंतर्गत भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) ने मणिपुर में ज़मीन की नए सिरे से मैपिंग की है. इस कोशिश के नतीजे में अनेक नए खनिजों जैसे चूना पत्थर, क्रोमाइट, निकेल, मैलाकाइट, मैग्नेटाइट, अज़ुराइट कॉपर, प्लेटिनम ग्रुप एलीमेंट्स (PGE) के नए स्त्रोतों को पहचाना गया है.
GSI के आकलन के मुताबिक मणिपुर के तेंगुनोपाल व चंदेल ज़िले के ताउपोकपी, चाकपिकारोंग, पॉलेल, लुंगफुरा, नूंगफल, साजिक थंपक, हरिकोट गांवों और उखरूल के हुंडंग, फुंगयार, मैलांग गांवों में क़रीब 20 मिलियम मैट्रिक टन चूनापत्थर है. इस आंकड़े से ये भी ज़ाहिर होता है कि खनिज के लिहाज़ से समृद्ध इन इलाक़ों में क़रीब 80 प्रतिशत आबादी ईसाई है. ये समुदाय इस समय मणिपुर में लक्षित हिंसा का मुख्य निशाना भी है. हिंसा की मार ने इन पहाड़ी इलाक़ों को ही प्रभावित किया है जहां 80-85 प्रतिशत आबादी ईसाई है.
हिंसा का मक़सद
मणिपुर में 3 मई से मूल निवासियों और बहुसंख्यक आबादी के बीच सांप्रदायिक हिंसा का दौर जारी है. गहरी पड़ताल करने पर ज़ाहिर होता है कि नफ़रत और विभाजन को तूल देती इस झड़प के पीछे पहाड़ी ज़मीन पर नियंत्रण और आर्थिक लाभ मुख्य वजह है.
भारतीय खान ब्यूरो, 2013 के रिपोर्ट के हिसाब से मणिपुर ओपहिनोटाइट बेल्ट में क़रीब में 6.66 मिलियन टन क्रोमाईट भंडार है. इसके तहत उरूखुल और कामजोंग में 5.5 मिलियन टन और तेंगुनोपाल और चंदेल ज़िले में 1.1 मिलियन टन क्रोमाइट पाया गया है. ये क्रोमाइट वाले इलाक़े उखरूल के फांगेरी, लुंघर, सिग्चा-गामनोन से लेकर तेंगुनोपाल और चंदेल ज़िले के क्वाथा, खुंदेनगथाबी, मिनोउ मांगकांग तक फैले हुए हैं.
खनन अनुबंध और पर्यावरण की अवहेलना
2007 से 2012 के बीच भारतीय खनन ब्यूरो और खनन मंत्रालय ने उखरूल और चंदेल में प्राईवेट कंपनियों को खनन के लिए अनुबंध सौंपा था. इसके तहत मणिपुर सरकार और निजी कंपनियों के बीच में जो अनुबंध तय किया गया था वो भू- खनन अधिकारों का परिधि में आता है. नवंबर 2017 में इंफ़ाल में ‘उत्तरपूर्वी बिज़नेस समिट’ में खनन के लिए अनुबंध तय किए गए थे. इस दौरान क़रीब 9 कंपनियों ने मणिपुर सरकार से क्रोमाइट और चूना पत्थर के उत्खनन के लिए अनुबंध तय किए थे.
2013-2023
2012 से पहले मणिपुर में अनेक कंपनियों को अनुबंध सौंपे जाते थे जिनमें से उड़ीसा की कंपनी आनंद एक्सपोर्ट्स लिमिटेड (जितेन्द्र मोहपात्रा और मुहम्म्द कुतुबुद्दीन), विज़ा स्टील लिमिटेड (विशम्भर सरन), बालासौर एलोस लिमिटेड उड़ीसा आदि का नाम प्रमुख है जो कि उखरूल और कामजोंग ज़िले में आते थे. बाद में गल्फ़ नेचुरल रिसोर्सेज़ प्राइवेट लिमिटेड, राउरकेला मिनिरल्स प्राइवेट लिमिटेड, (शम्भू दयाल अग्रवाल और रबीन्द्र बिस्वास चंद्रा), सर्वेश रिफ्रेक्टोरिज़ प्राईवेट लिमिटेड (अशोक अग्रवाल) ने भी मणिपुर में क्रोमियम खनन के लिए अनुबंध किए.
नवंबर 2018 में व्यापार, वाणिज्य और उद्योग महानिदेशलय ने एक कैबिनेट मेमो का ड्राफ़्ट पेश किया जिसमें हुंडंग सीमेंट फ़ैक्ट्री को इंफ़ाल के रामुंग इंटरप्राइसेज़ को सौंपकर 400 TPD का सीमेंट प्लांट तैयार करने के लिए अनुबंध तय किया गया था. 18 फ़रवरी 2019 को एक कैबिनेट निर्णय में सार्वजनिक-निजी साझेदारी के तहत 500 TPD और 400 TPD के 2 सीमेंट प्लॉंट लगाने का फ़ैसला लिया गया था.
आंध्र प्रदेश के फ़ाकोर एलोएस लिमिटेड ने 6 अप्रैल,2018 को DTCI मणिपुर के तहत लूनघर, सिहाई खुल्लेन, नूनगबी और उखरूल ज़िले में क्रोमाइट के लाइसेंस के लिए 2 साल अवधि बढ़ा दी थी. उन्होंने DTCI की सलाह पर 14 दिसंबर, 2028 को लूनघर में क्रोमामाइट के खनन के लिए राज्य स्तर की कमेटी के सामने अनुबंध भी पेश किया. 23 फ़रवरी, 2019 को DTCI ने M/s सर्वेश रिफैक्ट्री प्राइवेट लिमिटेड और M/s. राउरकेला मिनिरल कंपनी प्राइवेट लिमिटेड के साथ लूनघर गांव में खनन के समझौते के पर हस्ताक्षर किया था. ग़ौरतलब है कि सरकार के साथ खनन के लिए ऐसे समझौते ग्रामीणों की मर्ज़ी और सूचना के बिना किए जाते हैं.
फ़ॉरेस्ट कंज़र्वेशन एक्ट, FCA, 1980 जंगल और जंगल से अलग गतिविधियों पर नियंत्रण रखता है लेकिन इसके लिए वन, पर्यावरण औऱ जलवायु परिवर्तन मंत्रालय MoEFCC की मंज़ूरी की ज़रूरत होती है. 2023 के ताज़ा संशोधन से पहले वन संरक्षण अधिनियम (FCA) और FRA 2006 के तहत तयशुदा वन-अधिकार ही इन मामलों का विनियमन करते थे. FCA, 1980 के सेक्शन 2 के तहत राज्य सरकार की विशेष गाईडलाइन्स के मुताबिक़ राज्य सरकार केंद्र सरकार की मंज़ूरी के बिना जंगल और जंगल की ज़मीन से जुड़ी किसी गतिविधि को अंजाम नहीं दे सकती है. इस तरह ज़मीन के खनन को लेकर निजी कंपनियों से अनुबंध के लिए केंद्र की रज़ामंदी की ज़रूरत होती है.
संविधान और क़ानून से गतिरोध-
खनन अधिनियमों और कोर्ट ने अनेक ऐसे फ़ैसले किए हैं जिनके मुताबिक़ पर्यावरण के लिए तय ‘ग्रीन लॉ’ और संबंधित दायरों को पहचाना जा सके. खनिज और खनन विकास अधिनियम (MMDRA) 1957 के मुताबिक़ आदिवासी और मूल निवासी जंगल की ज़मीन और उससे जुड़ी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक और परंपरागत संपदा पर पूरा हक़ रखते हैं.
भारतीय संविधान Sl. No. 54 और 7वीं अनुसूची के अनुसार इससे जुड़े विषयों पर राज्य सरकारों का क़ानून केंद्र सरकार के क़ानून से नियंत्रित होता है. MMDR अधिनियम,1957, 15 वें नियम के तहत राज्य सरकार को गौण खनिजों के खनन का अधिकार सौंपता है. असके अलावा 16 जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘खनिज संपदा पर राज्य सरकार का नहीं बल्कि ज़मीन के मालिक का हक़ होगा.’ 1997 में सामंता बॉक्साइट खनन मामले में भी कोर्ट ने फ़ैसला देते हुए ज़मीन और खनन पर आदिवासियों के हक़ को रेखांकित किया था.
एक दूसरे मामले में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने अनुसूचित जनजाति के सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक पहलूओं का संज्ञान लेते हुए ओडिशा बॉक्साइट खनन प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी. भारतीय संविधान की 5वीं और 6वीं अनुसूची में स्वायत्त ज़िला काउंसिल को इन मामलों में निर्णय लेने का पूरा हक़ है. फिर भी पर्यावरण और संविधान की फ़िक्र न करते हुए इस सरकार ने 2015 में और फिर 2021 में क़ानूनों में संशोधन पेश किया. पहले संशोधन को MMDR अधिनियम, 2015 के नाम से जाना जाता है जिसके तहत केंद्र सरकारों को राज्यों के मुक़ाबले इन मामलों के निर्धारण में अधिक शक्तियां सौंप दी गईं जबकि 2021 के संशोधन के तहत केंद्र सरकार को FRA 2006 को नियंत्रित करने का पूरा अधिकार सौंप दिया गया.
ये संशोधन गैस, तेल व किसी भी दूसरे खनिज का पता चलते ही फ़ौरन खनन का अधिकार सौंप देता है. 2021 का अधिनियम ग्राम सभाओं की अनुमति को दरकिनार करते हुए खनन रोकने या नियंत्रित करने के उनके अधिकार को नियंत्रित करता है. जिसका सीधा सा अर्थ है केंद्र और निजी कंपनियों की तानाशाही और आदिवासी और मूल निवासियों के अधिकारों का हनन!
इससे किसे लाभ मिलता है?
गल्फ़ रिसोर्सेज़ प्राइवेट लिमिटेड (GNRPL) कंपनी (दीना चंद्र सिंह औऱ अब्दुल्लाह अल हादी की कंपनी) ने गुड़गांव के क्वाथा गांव में क्रोमाइट उत्खनन के लिए 5 अक्टूबर, 2016 में एक अनुबंध किया था जिसमें कंपनी को गांव में 15 sq किमी. ज़मीन पर क्रोमाइट के खनन के लिए सौंप दी गई थी.
23 फ़रवरी, 2019 के रोउरकेला मिनिरल्स कंपनी प्राइवेट लिमिटेड (ROMCO) (शंभू दयाल अग्रवाल और रवीन्द्र विस्वास चंद्रा की कंपनी) ने मणिपुर के सिंगचा गामनोम गांव में 20 सालों के लिए 85 हेक्टेयर क्षेत्र में खनन के लिए राज्य सरकार से अनुबंध किया. क़रीब 50 करोड़ के इस प्रोजेक्ट को DTCI और MoEFCC ने मंज़ूरी भी दे दी.
सर्वेश रिफ़्रैक्ट्री प्राइवेट लिमिटेड (अशोक अग्रवाल की कंपनी) ने भी उखरूल के सिरोही-लूनघर गांव में क्रोमाइट के खनन के लिए 132,781 हेक्टेयर भूमि के लिए मणिपुर सरकार से अनुबंध किया था.
मणिपुर सरकार ने गुवहाटी में M/S सुपर ओरिस और माइन्स प्राइवेट लिमिटेड (संजय शर्मा और सुरेश शर्मा की कंपनी) को अगले 20 सालों तक 500 टन चूनापत्थर रोज़ाना की दर से खनन करने के समझौते पर रज़ामंदी दी. इसके अलावा 18 नवंबर 2018 को इंफ़ाल में रामुंग इंटरप्राज़ेज़ के लिए 47 एकड़ ज़मीन 400 TPD सीमेंट प्लांट के लिए तय की गई थी.
इसी तर्ज़ पर सत्यम कंपनी और मणिपुर सरकार ने कामजोंग ज़िले के मैलिलांग गांव में चूना पत्थर और उससे जुड़े सर्वे के लिए 50 किमी तक की ज़मीन घेर रखी है.
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की मुखअ बेंच ने ओम दत्त सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में 7 मई 2025 में खनन से जुड़े पर्यावरणीय पहलू का संज्ञान लिया. FCA 1980 और FRA, 2006 ने जंगल, खनन, अंडरग्राउंड खनन और केंद्र सरकार के अधिपत्य के बारे में क़ानून ज़रूर तय किए थे लेकिन 2023 के संशोधन ने केंद्र को अपार शक्तियां दे दी हैं. ये संशोधन लोकसभा में ग़ैरलोकतांत्रिक तरीक़े से पारित हुआ और अभी इसे राज्यसभा से मंजूरी मिलना बाक़ी है. इसके तहत संघ सरकार को बार्डर एरिया के 100 किमी. तक के दायरे में आने वाले क्षेत्रों की ज़मीन पर पूरा अधिकार सौंप दिया गया है. आम तौर पर आदिवासी और वन क्षेत्रों के मूल निवासियों में इन क़ानूनों को लेकर जागरूकता का अभाव है.
स्वास्थ्य पर पर्यावरणीय प्रभाव
एक माइनिंग कंपनी की प्री-फ़ैसिलिटी स्टडी रिपोर्ट में गलत दावा किया गया है कि मणिपुर के सबसे अधिक वन क्षेत्रों में से एक होने के बावजूद लुनघर में खनन पट्टा क्षेत्र वन और कृषि भूमि से रहित है.[1] इस PFR में कुकी और तांगखुल जनजातियों पर खनन के प्रभाव और वन संपदा पर निर्भरता के सवाल को भी नज़रअंदाज़ किया गया है. क़ानूनी रूप से खनन की योजना को आर्टिकल 371 C के तहत हिल एरिया कमेटी से रज़ामंदी भी लेनी थी लेकिन इस पहलू की अवहेलना की गई है.
मणिपुर में जारी खनन योजनाएं पर्यावरण के लिहाज़ से नुक़सानदेह हैं. उड़ीसा की M/s राउरकेला मिनिरल कंपनी प्राइवेट लिमिटेड, M/s सर्वेश रिफ्रैक्ट्री प्राइवेट लिमिटेड और M/s ग़ल्फ़ नेचुरल रिसोर्सेज़ सभी में पर्यावरण और जंगल को लेकर एक स्पष्ट नज़रिए का अभाव है.
सिंगचा गामनोन में RAMCO की प्री-फ़ैसिलीटी स्टडी रिपोर्ट ने भी जंगल भूमि न होने का ग़लत दावा पेश किया. क्वाथा, सिंगचा- गामनोन, मैलिलंग, हंगदुंग, फानगेई, लूनघर आदि इलाक़ों में अनेक खनन कंपनियां सक्रिय हैं जिनसे ग्रामीणों का जीवन विपरीत ढंग से प्रभावित होता है.
क्लोरियम के खनन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को भी दरकिनार किया जा रहा है. जबकि क्लोरियम युक्त हवा में सांस लेने से साइनस, नाक और फेफड़े का कैंसर होने तक का ख़तरा पैदा हो सकता है.[2]
आदिवासियों और मूल निवासियों का प्रतिरोध
कामजोंग ज़िले के सिंगचा गांव में 27 सितंबर, 2020 को क्रोमियम खनन के विरोध में एक बड़ा प्रतिरोध हुआ था. इसी तरह 3 अक्टूबर,2020 को तेंगनउपाल ज़िले में रिलराम एरिया मारिंग ऑर्गनाइज़ेशन (RAMO) ने क्रोमाइट खनन के ख़िलाफ़ क़दम उठाते हुए नो ऑब्जेक्शन सार्टिफ़िकेट (NOC) की घोषणा की थी.
तेंगनउपाल ज़िले में मोलनोई में 8 अक्टूबर, 2020 को महिला और विद्यार्थी संगठनों ने मणिपुर में बिना जनमत के जारी खनन का विरोध किया था. 27 नवंबर, 2020 को तेंगनउपाल नागा लॉंग (TNL) ने उखरूल और कामजोंग ज़िले में खनन पर सामाजिक, पर्यावरणीय और स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताएं ज़ाहिर कीं. जेजो थामसन कहते हैं – ‘इसकी मुख्य वजह खनन प्रक्रिया में शामिल धांधली है जिसमें प्रकृतिक संसाधनों से असल मालिक (हक़दर) के अधिकार और स्पष्टीकरण को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया जाता है. इसके अलवा ग्रामीणों और मूल निवासियों को खनन की योजना के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है और इसमें उनकी सहमति भी नहीं ली जाती है. ’
भारत में सुकींडा, ओड़िशा में क्रोमियम खनन से पैदा प्रदूषण को देखते हुए मणिपुर में खनन के परिणाम का आकलन किया जा सकता है. सुकींडा में खनन से फैले प्रदूषण ने कैंसर पैदा करने वाले ज़हरीले उत्सर्जन पैदा किए हैं.[3] सुकींडा खनन में शामिल कंपनियों जैसे बालासोर एलोसय लिमिटेड आदि ने मणिपुर में खनन के लिए MoUs पर हस्ताक्षर किया है. 2015 में ‘खनन और खनिज संशोधन अधिनयम’ (विकास और विनियमन) ने खनन से जुड़ी कंपनियों को विशेषाधिकार सौंप दिए हैं जिसके तहत किसी समुदाय की सहमति के बिना भी अगले 50 सालों तक खनन अनुबंधों को बढ़ाया जा सकता है. जबकि 2020 का ‘ड्राफ़्ट इनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट’ खनन से पहले खनन गतिविधियों की नाप-जोख के कटघरे से आज़ाद रखता है. 2020 का खनन नोटिफ़िकेशन खनन कंपनियों को आदिवासी समुदाय की सुरक्षा, परंपरागत क़ानूनों और पर्यावरणीय मानकों के ऊपर वारीयता देता है.
देश और विश्व भर में खनन कंपनियों की गतिविधियों का नकारात्मक नतीजा देखा जा सकता है. उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और झारखंड इसकी सबसे बड़ी मिसाल हैं. वेदांता जैसी कंपनियां जहां अमीरों के लिए समृद्धि का सबब बनी हैं वहीं इन्होंनें ग़रीब समुदायों का नुक़सान भी किया है. सामाता बॉक्साइट केस 1997 में ज़मीन पर अदिवासियों के अधिकारों की पैरवी करते हुए कहा गया था कि उनकी ज़मीनें ग़ैर आदिवासी समूहों को खनन के लिए नहीं सौंपी जा सकती हैं.
केरल बनाम जेनिन्स 7SCR 863 में कहा गया कि ज़मीन से हासिल संसाधनों पर ज़मीन के मालिक का हक़ होगा जिसमें राज्य दख़ल नहीं कर सकता है. इसी तरह नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने ओम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में खनन के पर्यावरणीय प्रभावों की तरफ़ ध्यान खींचा. कॉमन काज़ बनाम भारतीय संघ मामले (याचिका नं. 114, 2014) में न्यायमूर्ति एस. ए. बोबेज ने कहा कि ये अनुंबंध ख़त्म होने के बाद खनन कंपनियों की ज़िम्मेदारी है कि वो संबंधित ज़मीन को फिर से हरा-भरा बनाएँ. इसी तरह 18 अप्रैल, 2013 में उड़ीसा माइनिंग कोर्पोरेशन लिमिटेड बनाम पर्यावरण और जंगल (याचिका नं 180, 2011) मामले में भी कहा गया कि खनन प्रोजेक्टस में ग्राम सभा की अनुमति ज़रूरी है. वैदांता जैसी कंपनी के शामिल होने के कारण इस फैसले पर क़रीब एक दशक तक लंबा आंदोलन चला. 2009 में ‘अवतार’ फ़िल्म के साथ भी खनन के ख़िलाफ़ आंदोलनों में तेज़ी आई थी.
ये साफ़ ज़ाहिर है कि खनन कंपनियां किसी समुदाय के अधिकारों और आदिवासी अधिकारों की अवहेलना करती हैं और पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाती हैं. ज़मीन पर क़ब्ज़ा, सस्ता श्रम, संसाधनों पर अधिकार करके वो आदिवासियों और मूल निवासियों को मुख्यधारा से और भी दूर कर देती हैं.
खनन की गतिविधियां अनेक बार मानवाधिकारों का भी हनन करती हैं. संयुक्त राष्ट्र की मूल निवासियों के अधिकारों की घोषणा में आर्टिकल 26 में कहा गया है कि ऐतिहासिक तौर पर जिस ज़मीन पर मूल निवासियों का अधिकार है उससे जुड़े संसाधनों पर भी उनका ही हक़ है.
मणिपुर में प्राकृतिक संसाधनों के खनन की सरकरी योजना जहां निजी कंपनियों को वारीयता देती है वहीं दूसरी तरफ़ खनन के प्रभावों के आकलन और मूल निवासियों की सहमति को भी दरकिनार करती है. लेकिन ज़मीन, तेल, खनिज के दोहन या संबंधित किसी योजना के लिए इसके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को आंकना और मूल निवासियों की सहमति हासिल करना बेहद ज़रूरी है. सरकार को मणिपुर के मूल निवासियों के अधिकारों और विकास की उम्मीदों का संज्ञान लेने तक इन खनन योजनाओं को रोक देना चाहिए.
[1] An article, Mining and fraudulent clearances in Manipur Jajo Themson;
http://e-pao.net/epSubPageExtractor.asp?src=news_section.opinions.Mining_and_fraudulent_clearances_in_Manipur_By_Jajo_Themson
[2] A paper by Alok Prasad Dad and Shikha Singh, Occupational health assessment of chromite toxicity among Indian miners, on the website of the National Library of Medicine (of the National Center for Biotechnology Information) details this deleterious impact.
Related: