क्या कश्मीर का कुछ नहीं हो सकता?

Written by अनुराधा भसीन | Published on: May 19, 2018
नई दिल्ली की कड़ाई की वजह से बातचीत के सारे विकल्प खत्म हो रहे हैं

जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती द्वारा 9 मई को बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में केंद्र सरकार से यह मांग की गई कि रमजान के महीने को देखते हुए संघर्ष विराम किया जाए. इससे उम्मीद की जगह और संदेह पैदा होता है. अगर यह संघर्ष विराम घोषित होता है तो कश्मीर में इसकी प्रतिक्रिया क्या होगी, यह देखा जाना है. अब सवाल सिर्फ गुस्सा और वंचित रहने का नहीं रहा. सड़कों पर जो आक्रोश दिख रहा है उसमें न तो सुरक्षा बलों की गोलियों का भय है और न ही लोग थकते दिख रहे हैं. 

यह करो या मरो का संघर्ष बन गया है. इसमें लोग या तो भारतीय सुरक्षा बलों को थका देने की रणनीति के साथ काम कर रहे हैं या फिर लगातर हुए शोषण से तंग होकर इस मूड में आ गए हैं. कश्मीर और नई दिल्ली के बीच विश्वास के अभाव में शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन की कोई जगह नहीं बची. हालिया मामला कश्मीर विश्वविद्यालय के एक शिक्षक का है. जो शांतिपूर्ण प्रदर्शन की अहमियत की पाठ पढ़ा रहा था लेकिन दो दिनों के अंदर ही उसने अलगाववादियों के साथ काम शुरू किया और वह मारा गया. इससे पता चलता है कि शांतिपूर्ण तरीकों में लोगों का विश्वास नहीं बचा.

अब बड़ा सवाल यह है कि सभी राजनीतिक दलों की सामूहिक मांग से केंद्र सरकार कश्मीर को लेकर अलग तरह से सोचने की शुरुआत करेगी. अब तक केंद्र सरकार ने मुफ्ती द्वारा बातचीत शुरू करने के प्रस्तावों को खारिज किया है. पिछली सरकारों की तरह भारतीय जनता पार्टी सरकार बल प्रयोग के साथ वार्ता में यकीन करती नहीं दिखती और न ही ऐसा कोई दिखावा करती है. इसकी विचारधारा में न सिर्फ कश्मीर में दमन है बल्कि भारत के लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाना भी है. 

लंबे समय से यह पार्टी कश्मीर की आबादी में अपने हिसाब से बदलाव करना है. यहां की मुस्लिम आबादी को यह दबाना चाहती है और हिंदू राष्ट्र का अपना बड़ा लक्ष्य हासिल करना चाहती है. कश्मीर में फैली अशांति, हिंसा और अलगाववाद से यह लक्ष्य हासिल होता दिखता है.

अगर कश्मीरियों की जान की कीमत नहीं है तो सैनिकों की जान चिंता का विषय होना चाहिए. लेकिन यह भी नहीं है. 2018 में 40 आतंकवादी मारे गए और 24 सैनिकों की जान गई. 2ः1 का अनुपात केंद्र की कश्मीर नीति को सवालों के घेरे में लाता है. एक पर्यटक समेत 37 नागरिकों की जान अब तक इस साल गई है. इससे आतंक शांत होता नहीं दिख रहा है. कश्मीर के नौजवानों के लिए आतंकियों और आम लोगों की मौत उन्हें आतंक के रास्ते पर आगे बढ़ाने में खाद का काम करती है.

ऐसे में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का कोई खास असर केंद्र सरकार पर नहीं होने वाला. ऐसे में महबूबा मुफ्ती को कुछ कदम उठाने होंगे. एक काम उनके अधिकार क्षेत्र में यह है कि वे पत्थरबाजों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की नीति को वापस लें. गिरफ्तारी और तरह-तरह से प्रताड़ित किए जाने की वजह से कई पत्थरबाज बंदूक उठा ले रहे हैं. लेकिन यह कदम भी सिर्फ दिखावटी ही होगा. मसरत आलम का मामला एक उदाहरण है. आलम को मुफ्ती मोहम्मद सईद के मुख्यमंत्री बनने के बाद रिहा किया गया था लेकिन बाद में केंद्र के दबाव में वापस गिरफ्तारी हुई थी.

पारंपरिक तौर पर शक्ति का जो तंत्र है उसमें कश्मीर में केंद्र की भूमिका अधिक है और राज्य सरकार की शक्तियां सीमित हैं. बीच-बचाव की पीडीपी की हर कोशिश को केंद्र सरकार खारिज कर रही है. कठुआ बलात्कार और हत्या के मामले में भाजपा के दबाव के बावजूद मुफ्ती का कड़ा रुख अपनाना एक अपवाद है. ऐसा संभवतः इसलिए हो पाया क्योंकि भाजपा न्याय प्रक्रिया को बाधित करने के बजाए जम्मू को सांप्रदायिक आधार पर बांटना चाह रही थी. इसमें वह कामयाब भी रही.

बातचीत की पीडीपी की कोशिश नाकाम हो सकती है. लेकिन फिर भी वह युवाओं को रचनात्मक काम में लगाने की कोशिश कर सकती है. कुछ भी होने पर स्कूलों और काॅलेजों को बंद करने के बजाए इन्हें स्वतंत्र विचारों के केंद्र के तौर पर चलाने की कोशिश करनी चाहिए. नई पीढ़ी की दिमाग में यह गहरे बैठ गया है. सिर्फ एक चीज राज्य सरकार कर सकती है कि लोगों को शांतिपूर्ण ढंग से और सार्थक विरोध-प्रदर्शन के लिए जगह दे ताकि आगे चलकर बातचीत का रास्ता खुल सके.

(अनुराधा भसीन जामवाल कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक हैं)

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