21वीं सदी की नई शिक्षा नीति कोरोना महामारी के दौर में संसद व् संविधान की अवहेलना के साथ जनता के सामने लायी गयी है जिसे शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम बताया जा रहा है, शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने व् उसे और सुव्यवस्थित करने के लिए समय समय पर देश में शिक्षा नीति बनाई जाती रही है। आजादी के बाद जरुरत के हिसाब से देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए शिक्षा नीति बनायीं गयी जो स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी की शिक्षा व्यवस्था में ढांचागत बदलाव की बात करता है। नई शिक्षा नीति 2020 कुछ लाभकारी पहलु के साथ उच्च शिक्षा व् शिक्षण संस्थानों पर प्रहार के रूप में नजर आ रहा हैं।
शिक्षा नीति की जरुरत क्यूँ हुई-
मानव इतिहास के आदिकाल से शिक्षा का विविध तरीके से विकास एवं प्रसार होता रहा है। प्रत्येक देश अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता को अभिव्यक्ति देने और साथ ही समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी विशिष्ट शिक्षा प्रणाली विकसित करता है, लेकिन देश के इतिहास में कभी-कभी ऐसा समय आता है, जब मुद्दतों से चले आ रहे उस सिलसिले को एक नई दिशा देने की नितान्त जरूरत हो जाती है। शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए व् देश के अंतिम व्यक्ति को शिक्षित कर समाज विकास के कार्यों से जोड़ने के उद्देश्य से देश में शिक्षा नीति बनाए जाने की शुरुआत हुई। आजादी के बाद पहली बार शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए पहली शिक्षा नीति 1968 में बनायीं गयी जिसके बाद दूसरी शिक्षा नीति 1986 में लाए गए जिसे 1992 में संशोधित किया गया। बदलते वैश्विक परिदृश्य में शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए 29 जुलाई 2020 को 34 साल बाद नई शिक्षा नीति लायी गयी है।
स्वस्थ्य, शशक्त, श्रेष्ठ, समृद्ध भारत का सपना दिखा कर जनता के बीच लायी गयी नई शिक्षा नीति शिक्षा क्षेत्र में किए गए बदलाव के नाम पर शिक्षा के केन्द्रीकरण की कोशिश है खास कर उच्च शिक्षा को बाजार के हवाले करने की साजिस है। उच्च शिक्षा व् शिक्षण संस्थानों के लिए बताए गए बदलाव असल में शिक्षा के लिए सरकार की जिम्मेदारियों से पीछे हटने व् शिक्षा को मुनाफा के लिए वस्तु की तरह उपयोग करने पर टिकी है। अब विदेशी शिक्षा माफिया देश में निवेश करके अपने कैम्पस खड़े कर सकेंगे और पहले से ही अनुकूल शिक्षा ढाँचे को सीधे तौर पर निगल सकेंगे।
प्रो। के। कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में बनी कमेटी द्वारालायी गयी नई शिक्षा नीति 2020 उच्च शिक्षा से जुड़े लोगों के लिए जहर का काम करेगी। उच्च शिक्षा में पहले से ही लागू सेमेस्टर सिस्टम, एफवाईयूपी, सीबीडीएस, यूजीसी की जगह एचईसीआई(HECI) जैसी चेहरा विहीन संस्था बनायीं गयी है,। किसी संस्था को चलाने का मतलब है उसके पास आधारभूत संरचनाएं होनी चाहिए UGC द्वारा टीम को भेजकर संस्था की जाँच की जाती थी व् वहां शिक्षक कर्मचारियों और स्टूडेंट्स से बात कर यूनिवर्सिटी को रेगुलेट करने का काम करती थी। नीति निर्धारक तक अपनी बात पहुचाने का शिक्षक, कर्मचारी और स्टूडेंट के पास एक मात्र जरिया था जिसे ख़त्म कर दिया जाएगा।अब सारे काम कागज पर तय होगी जिसमे धांधली होने की पूरी संभावनाएं हैं। ‘जार्ज ओरवेल’ ने 1984 में ऐसी कई चेहरा विहीन संस्था की कल्पना की है। इस संस्था को यह अधिकार होगा कि यदि कोई शिक्षण संस्थान मानकों और नियमों का पालन नहीं करती है तो उसे दण्डित तक किया जा सके। एचईसीआई के तहत चार संस्थाएं बनायीं गयी हैं।
• राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामक परिषद्(NHERC)-नियमन के लिए
• सामान्य शिक्षा परिषद्(GEC)- मानक निर्धारण के लिए
• उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद्(HEGC)- वित्त पोषण के लिए
• राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद्(NAC)- मान्यता के लिए
स्वायत्ता पर हमला
यूनिवर्सिटी की कल्पना स्वायत्ता की बुनियाद पर टिकी होती है यहाँ स्वायत्ता का मतलब प्रशासनिक, अकादमिक व् वित्तीय स्वायत्ता से है। नई शिक्षा नीति 2020 में स्वायत्ता का एक मॉडल पेश किया गया है जिसे “ग्रेडेड ऑटोनोमी” नाम दिया गया है लेकिन यह शब्द जितना सुनने में कर्णप्रिय है वास्तव में यह उतना ही भयावह है। ग्रेडेड ऑटोनोमी का मतलब है शिक्षण संस्थानों को तीन केटेगरी में विभाजित किया जाएगा। अनुसंधान विश्वविद्यालय, शिक्षण विश्वविद्यालय और कॉलेज। एक विश्वविद्यालय का मतलब होगा उच्च-गुणवत्ता वाले शिक्षण, अनुसंधान और सेवाओं के साथ स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रमों की पेशकश करने वाले बहु-विषयक एचईआइ। विश्वविद्यालय एक विषयक नहीं होंगे; सभी विश्वविद्यालय, जिनमें प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भी शामिल हैं, बहु-विषयक होंगे। कॉलेज की केटेगरी में 10000 से अधिक कॉलेज हैं उसे निचले स्तर के समझे जाने की पूरी सम्भावना है। शिक्षण संस्थानों को केटेगरी में बाँटने से एक अलग तरह का संस्थानिक भेदभाव उत्पन्न होगा।
अब नयी शिक्षा नीति के तहत उच्च शिक्षा से जुड़े एम.ए, एम.फ़िल, तकनीकी कोर्सों और पीएचडी के कोर्सों को भी मनमाने ढंग से पुनर्निर्धारित किया गया है। एम.फिल के कोर्स को समाप्त ही कर दिया गया है। इससे सीधे-सीधे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ होगी। नयी शिक्षा नीति में मल्टीएन्ट्री और एग्जिट का प्रावधान किया गया है यदि कोई छात्र बीटेक किसी कारणवश पूरा नहीं कर पाया तो उसे एक साल के बाद सर्टिफिकेट, दो साल करके छोड़ने पर डिप्लोमा तो तीन साल के बाद डिग्री दी जा सकेगी। मतलब नयी शिक्षा नीति यह मानकर चल रही है कि छात्र अपना कोर्स पूरा नहीं कर पायेंगे। सरकार को ऐसे तमाम कारणों के समाधान ढूढ़ने चाहिए थे ताकि किसी छात्र को अपनी पढ़ाई बीच में ना छोड़नी पड़े। इससे तकनीकी कोर्सों की शिक्षा की गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव ही पड़ेगा। पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा में भी बदलाव किये गये हैं।
यदि किसी छात्र को शोध कार्य करना है तो उसे 4 साल की डिग्री और एक साल की एम.ए करनी होगी, उसके बाद उसे बिना एम.फ़िल किये पीएचडी में दाखिला दे दिया जायेगा। अगर किसी को नौकरी करनी है तो उसे 3 साल की डिग्री करनी होगी। एम.ए करने का समय एक साल कम कर दिया गया है और एम.फ़िल को बिल्कुल ही ख़त्म कर दिया गया है, इससे शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रैक्टिकल काम ना के बराबर होते हैं। जिसके चलते हमारे देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए नयी शिक्षा नीति में कोई कदम नहीं उठाया गया है। मानविकी विषय तो पहले ही मृत्युशैया पर पड़े हैं अब इनमें उच्च शिक्षा प्राप्त करना और भी मुश्किल हो जायेगा। उच्च शिक्षा पर पहले से जारी हमलों को उच्च शिक्षा नीति और भी द्रुत गति प्रदान करेगी। बड़ी पूँजी के निवेश के साथ ही केन्द्रीयकरण बढ़ेगा और फ़ीसों में बेतहाशा वृद्धि होगी।
दलित पिछड़े, महिलाओं व् अल्पसंख्यकों की पहुच से दूर जाती उच्च शिक्षा
आत्मनिर्भर भारत की बात करके आत्मनिर्भरता के राह पर चल रहे दलित पिछड़े, महिलाओं व् अल्पसंख्यकों को उच्च शिक्षा से हमेशा के लिए दूर करने की पूरी तैयारी है। MHRD के 2016 की रिपोर्ट के अनुसार उच्च शिक्षा में 18.6 मिलियन लड़कों और 16 मिलियन लड़कियों के साथ कुल नामांकन 34.6 मिलियन होने का अनुमान लगाया गया था। भारत में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) 24.5% है, जो 18-23 वर्ष की आयु समूह के लिए गणना की गयी थी। पुरुष जनसंख्या के लिए GER 25.4% है और महिलाओं के लिए, यह 23।5% है। अनुसूचित जातियों के लिए, यह 19.9% और है अनुसूचित जनजातियों, यह 24.2% के राष्ट्रीय जीईआर की तुलना में 14.2% है। सरकारी अनुदान प्राप्त विश्वविद्यालयों की बदौलत देश के हर वर्ग, जाति और धर्म के लोग उच्च शिक्षा पाने के बड़े सपने को साकार कर सकती थी लेकिन सरकार द्वारा शिक्षा में विनिवेश को बढ़ावा देकर और संस्थानों की स्वायत्ता के नाम पर इनके सपने को कुचलने का काम किया जा रहा है। अब जिसके पास जितना पैसा होगा वो उतनी पढाई कर पाएगा।
उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिए, नई शिक्षा नीति में कुछ गगनचुंबी लक्ष्य हैं जैसे 2035 तक सकल दाखिला अनुपात 50 (25 प्रतिशत (मौजूदा प्रतिशत) करना सभी उच्च शिक्षा संस्थानों (एचईआइ) को स्वायत्तता और देश के हर जिले में एक गुणवत्ता विश्वविद्यालय खोलना। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एनईपी तक्षशिला और नालंदा के प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों का उदाहरण देती है, विश्वविद्यालयों में बहु विषयक अध्यन के लिए वातावरण तैयार करना हालाँकि यह शिक्षा अध्यन पद्धति पहले से जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में देख सकते हैं लेकिन सत्ता पक्ष द्वारा JNU जैसे संस्थान पर लगातार हमले करवाए जा रहे है और दूसरी तरफ ये वायदे सरकार की कम दूर दर्शिता को दर्शाता है।
किसी भी सरकारी नीति की घोषणा से अधिक चुनौतीपूर्ण नीति को कार्यान्वित करना है। देश में नीतिगत उद्देश्यों का समृद्ध इतिहास है। नई शिक्षा नीति में बताए गए कुछ सकारात्मक उद्देश्यों को कभी धरातल पर उतारकर महत्वपूर्ण बदलाव हुए हों यह कहना अतिश्योक्ति होगी, वैसे भी देश हित में बदलाव की इस सरकार की न मंशा है और न ही पिछले कार्यकाल में ऐसे काम करने की इनकी पृष्ठभूमि रही है।
शिक्षा नीति की जरुरत क्यूँ हुई-
मानव इतिहास के आदिकाल से शिक्षा का विविध तरीके से विकास एवं प्रसार होता रहा है। प्रत्येक देश अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता को अभिव्यक्ति देने और साथ ही समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी विशिष्ट शिक्षा प्रणाली विकसित करता है, लेकिन देश के इतिहास में कभी-कभी ऐसा समय आता है, जब मुद्दतों से चले आ रहे उस सिलसिले को एक नई दिशा देने की नितान्त जरूरत हो जाती है। शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए व् देश के अंतिम व्यक्ति को शिक्षित कर समाज विकास के कार्यों से जोड़ने के उद्देश्य से देश में शिक्षा नीति बनाए जाने की शुरुआत हुई। आजादी के बाद पहली बार शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए पहली शिक्षा नीति 1968 में बनायीं गयी जिसके बाद दूसरी शिक्षा नीति 1986 में लाए गए जिसे 1992 में संशोधित किया गया। बदलते वैश्विक परिदृश्य में शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए 29 जुलाई 2020 को 34 साल बाद नई शिक्षा नीति लायी गयी है।
स्वस्थ्य, शशक्त, श्रेष्ठ, समृद्ध भारत का सपना दिखा कर जनता के बीच लायी गयी नई शिक्षा नीति शिक्षा क्षेत्र में किए गए बदलाव के नाम पर शिक्षा के केन्द्रीकरण की कोशिश है खास कर उच्च शिक्षा को बाजार के हवाले करने की साजिस है। उच्च शिक्षा व् शिक्षण संस्थानों के लिए बताए गए बदलाव असल में शिक्षा के लिए सरकार की जिम्मेदारियों से पीछे हटने व् शिक्षा को मुनाफा के लिए वस्तु की तरह उपयोग करने पर टिकी है। अब विदेशी शिक्षा माफिया देश में निवेश करके अपने कैम्पस खड़े कर सकेंगे और पहले से ही अनुकूल शिक्षा ढाँचे को सीधे तौर पर निगल सकेंगे।
प्रो। के। कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में बनी कमेटी द्वारालायी गयी नई शिक्षा नीति 2020 उच्च शिक्षा से जुड़े लोगों के लिए जहर का काम करेगी। उच्च शिक्षा में पहले से ही लागू सेमेस्टर सिस्टम, एफवाईयूपी, सीबीडीएस, यूजीसी की जगह एचईसीआई(HECI) जैसी चेहरा विहीन संस्था बनायीं गयी है,। किसी संस्था को चलाने का मतलब है उसके पास आधारभूत संरचनाएं होनी चाहिए UGC द्वारा टीम को भेजकर संस्था की जाँच की जाती थी व् वहां शिक्षक कर्मचारियों और स्टूडेंट्स से बात कर यूनिवर्सिटी को रेगुलेट करने का काम करती थी। नीति निर्धारक तक अपनी बात पहुचाने का शिक्षक, कर्मचारी और स्टूडेंट के पास एक मात्र जरिया था जिसे ख़त्म कर दिया जाएगा।अब सारे काम कागज पर तय होगी जिसमे धांधली होने की पूरी संभावनाएं हैं। ‘जार्ज ओरवेल’ ने 1984 में ऐसी कई चेहरा विहीन संस्था की कल्पना की है। इस संस्था को यह अधिकार होगा कि यदि कोई शिक्षण संस्थान मानकों और नियमों का पालन नहीं करती है तो उसे दण्डित तक किया जा सके। एचईसीआई के तहत चार संस्थाएं बनायीं गयी हैं।
• राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामक परिषद्(NHERC)-नियमन के लिए
• सामान्य शिक्षा परिषद्(GEC)- मानक निर्धारण के लिए
• उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद्(HEGC)- वित्त पोषण के लिए
• राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद्(NAC)- मान्यता के लिए
स्वायत्ता पर हमला
यूनिवर्सिटी की कल्पना स्वायत्ता की बुनियाद पर टिकी होती है यहाँ स्वायत्ता का मतलब प्रशासनिक, अकादमिक व् वित्तीय स्वायत्ता से है। नई शिक्षा नीति 2020 में स्वायत्ता का एक मॉडल पेश किया गया है जिसे “ग्रेडेड ऑटोनोमी” नाम दिया गया है लेकिन यह शब्द जितना सुनने में कर्णप्रिय है वास्तव में यह उतना ही भयावह है। ग्रेडेड ऑटोनोमी का मतलब है शिक्षण संस्थानों को तीन केटेगरी में विभाजित किया जाएगा। अनुसंधान विश्वविद्यालय, शिक्षण विश्वविद्यालय और कॉलेज। एक विश्वविद्यालय का मतलब होगा उच्च-गुणवत्ता वाले शिक्षण, अनुसंधान और सेवाओं के साथ स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रमों की पेशकश करने वाले बहु-विषयक एचईआइ। विश्वविद्यालय एक विषयक नहीं होंगे; सभी विश्वविद्यालय, जिनमें प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भी शामिल हैं, बहु-विषयक होंगे। कॉलेज की केटेगरी में 10000 से अधिक कॉलेज हैं उसे निचले स्तर के समझे जाने की पूरी सम्भावना है। शिक्षण संस्थानों को केटेगरी में बाँटने से एक अलग तरह का संस्थानिक भेदभाव उत्पन्न होगा।
अब नयी शिक्षा नीति के तहत उच्च शिक्षा से जुड़े एम.ए, एम.फ़िल, तकनीकी कोर्सों और पीएचडी के कोर्सों को भी मनमाने ढंग से पुनर्निर्धारित किया गया है। एम.फिल के कोर्स को समाप्त ही कर दिया गया है। इससे सीधे-सीधे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के साथ खिलवाड़ होगी। नयी शिक्षा नीति में मल्टीएन्ट्री और एग्जिट का प्रावधान किया गया है यदि कोई छात्र बीटेक किसी कारणवश पूरा नहीं कर पाया तो उसे एक साल के बाद सर्टिफिकेट, दो साल करके छोड़ने पर डिप्लोमा तो तीन साल के बाद डिग्री दी जा सकेगी। मतलब नयी शिक्षा नीति यह मानकर चल रही है कि छात्र अपना कोर्स पूरा नहीं कर पायेंगे। सरकार को ऐसे तमाम कारणों के समाधान ढूढ़ने चाहिए थे ताकि किसी छात्र को अपनी पढ़ाई बीच में ना छोड़नी पड़े। इससे तकनीकी कोर्सों की शिक्षा की गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव ही पड़ेगा। पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा में भी बदलाव किये गये हैं।
यदि किसी छात्र को शोध कार्य करना है तो उसे 4 साल की डिग्री और एक साल की एम.ए करनी होगी, उसके बाद उसे बिना एम.फ़िल किये पीएचडी में दाखिला दे दिया जायेगा। अगर किसी को नौकरी करनी है तो उसे 3 साल की डिग्री करनी होगी। एम.ए करने का समय एक साल कम कर दिया गया है और एम.फ़िल को बिल्कुल ही ख़त्म कर दिया गया है, इससे शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रैक्टिकल काम ना के बराबर होते हैं। जिसके चलते हमारे देश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। इस कमी को दूर करने के लिए नयी शिक्षा नीति में कोई कदम नहीं उठाया गया है। मानविकी विषय तो पहले ही मृत्युशैया पर पड़े हैं अब इनमें उच्च शिक्षा प्राप्त करना और भी मुश्किल हो जायेगा। उच्च शिक्षा पर पहले से जारी हमलों को उच्च शिक्षा नीति और भी द्रुत गति प्रदान करेगी। बड़ी पूँजी के निवेश के साथ ही केन्द्रीयकरण बढ़ेगा और फ़ीसों में बेतहाशा वृद्धि होगी।
दलित पिछड़े, महिलाओं व् अल्पसंख्यकों की पहुच से दूर जाती उच्च शिक्षा
आत्मनिर्भर भारत की बात करके आत्मनिर्भरता के राह पर चल रहे दलित पिछड़े, महिलाओं व् अल्पसंख्यकों को उच्च शिक्षा से हमेशा के लिए दूर करने की पूरी तैयारी है। MHRD के 2016 की रिपोर्ट के अनुसार उच्च शिक्षा में 18.6 मिलियन लड़कों और 16 मिलियन लड़कियों के साथ कुल नामांकन 34.6 मिलियन होने का अनुमान लगाया गया था। भारत में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) 24.5% है, जो 18-23 वर्ष की आयु समूह के लिए गणना की गयी थी। पुरुष जनसंख्या के लिए GER 25.4% है और महिलाओं के लिए, यह 23।5% है। अनुसूचित जातियों के लिए, यह 19.9% और है अनुसूचित जनजातियों, यह 24.2% के राष्ट्रीय जीईआर की तुलना में 14.2% है। सरकारी अनुदान प्राप्त विश्वविद्यालयों की बदौलत देश के हर वर्ग, जाति और धर्म के लोग उच्च शिक्षा पाने के बड़े सपने को साकार कर सकती थी लेकिन सरकार द्वारा शिक्षा में विनिवेश को बढ़ावा देकर और संस्थानों की स्वायत्ता के नाम पर इनके सपने को कुचलने का काम किया जा रहा है। अब जिसके पास जितना पैसा होगा वो उतनी पढाई कर पाएगा।
उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिए, नई शिक्षा नीति में कुछ गगनचुंबी लक्ष्य हैं जैसे 2035 तक सकल दाखिला अनुपात 50 (25 प्रतिशत (मौजूदा प्रतिशत) करना सभी उच्च शिक्षा संस्थानों (एचईआइ) को स्वायत्तता और देश के हर जिले में एक गुणवत्ता विश्वविद्यालय खोलना। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एनईपी तक्षशिला और नालंदा के प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों का उदाहरण देती है, विश्वविद्यालयों में बहु विषयक अध्यन के लिए वातावरण तैयार करना हालाँकि यह शिक्षा अध्यन पद्धति पहले से जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी में देख सकते हैं लेकिन सत्ता पक्ष द्वारा JNU जैसे संस्थान पर लगातार हमले करवाए जा रहे है और दूसरी तरफ ये वायदे सरकार की कम दूर दर्शिता को दर्शाता है।
किसी भी सरकारी नीति की घोषणा से अधिक चुनौतीपूर्ण नीति को कार्यान्वित करना है। देश में नीतिगत उद्देश्यों का समृद्ध इतिहास है। नई शिक्षा नीति में बताए गए कुछ सकारात्मक उद्देश्यों को कभी धरातल पर उतारकर महत्वपूर्ण बदलाव हुए हों यह कहना अतिश्योक्ति होगी, वैसे भी देश हित में बदलाव की इस सरकार की न मंशा है और न ही पिछले कार्यकाल में ऐसे काम करने की इनकी पृष्ठभूमि रही है।