UP: एक दूसरे के वोट बैंक में सेंध लगा पाने में कितना सफल हो पाएंगे अखिलेश यादव और मायावती!

Written by Navnish Kumar | Published on: April 7, 2023
"मूर्ति 'मान्यवर' की, नजर मायावती के वोटरों पर। बात ओबीसी और पसमांदा की, नजर अखिलेश के वोटरों पर। जी हां, अनुसूचित जाति और अल्पसंख्यकों के कांग्रेसी आधार को अपने-अपने पाले में लाकर, UP में राजनीति का मजबूत घरौंदा तैयार करने वाली बसपा और सपा, आज एक दूसरे के वोटरों में सेंधमारी की पुरजोर कोशिश में हैं। सवाल है कि अखिलेश यादव और मायावती एक दूसरे के वोट में सेंध लगा पाने में कितना सफल हो पाएंगे?"



कांग्रेस के प्रमुख समर्थन आधारों, अनुसूचित जातियों (एससी) और अल्पसंख्यकों को अपने-अपने पाले में लाकर, बसपा और सपा ने यूपी में सबसे पुरानी पार्टी (कांग्रेस) के शासन के अंत की पटकथा लिखी थी, हालांकि दोनों ही अपने दम पर सत्ता में नहीं आ सके। क्योंकि दोनों ने ही शुरू में अपने स्वयं के सामाजिक आधारों को सीमाएं दीं। बसपा-सपा के संबंधों के इतिहास पर नजर डालें तो पता चलता है कि दोनों दलों के संस्थापकों ने अपनी पार्टियों की ताकत की इन सीमाओं को महसूस करने के बाद, एक-दूसरे से हाथ मिलाने का फैसला किया। लेकिन आज दोनों एक दूसरे को लेकर न सिर्फ असहज हैं बल्कि यूपी में सबसे बड़े दुश्मन के तौर पर सामने है। 

अखिलेश यादव 'मान्यवर' कांशीराम के सहारे मायावती के बचे हुए जनाधार में सेंध लगाने की कोशिश करते दिख रहे है। समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सोमवार को रायबरेली में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण करते हुए कहा कि उनके पिता और सपा संस्थापक दिवंगत मुलायम सिंह यादव द्वारा शुरू किया गया "समाजवादी आंदोलन" और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया द्वारा दिखाया गया रास्ता वही था जो डॉ बीआर अंबेडकर और 'मान्यवर' कांशीराम ने दिखाया था।

तीन अप्रैल को रायबरेली में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण किया और कहा कि मुलायम सिंह ने ही सबसे पहले उन्हें लोकसभा भेजा। अखिलेश ने इस दौरान बीएसपी पर भी निशाना साधा और कहा कि जो काम उन्हें करना चाहिए था, वे नही किए। सपा कर रही है तो उन्हें तकलीफ हो रही है। सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य, जो पहले बसपा और भाजपा के साथ थे, के साथ अखिलेश ने बताया कि कांशीराम ने 1991 में यादव परिवार के गृह क्षेत्र इटावा से अपना पहला लोकसभा चुनाव जीता था, जिसके बाद "एक नई राजनीति शुरू हुई"।

सपा महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ रायबरेली कॉलेज में दलित नेता कांशीराम की मूर्ति अनावरण के बाद यूपी का सियासी तापमान गरमा गया है। बसपा सुप्रीमो मायावती और उनके भतीजे आकाश आनंद ने 'मान्यवर' की प्रतिमा लगाने को लेकर सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव पर निशाना साधा है। मायावती ने तो सपा पर हमला बोलते हुए लखनऊ के गेस्ट हाउस कांड का जिक्र कर दिया है। कहा कि 1995 में लखनऊ का गेस्ट हाउस कांड नहीं हुआ होता तो देश में आज सपा और बसपा की सरकार होती। मायावती ने सपा पर दलित महापुरुषों को अपमान करने का आरोप लगाया। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की सियासत में हाशिए पर खड़ी बसपा को उसकी मुखिया मायावती ने इस बार मुसलमानों पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया है। 

चुनावी माहौल में मुसलमानों के मुद्दों को लेकर मायावती मुखर हैं और मुस्लिम वोट बैंक को वापस पाने के लिए गंभीर दिख रही हैं। बसपा न सिर्फ बीजेपी और सपा पर निशाना साध रही है बल्कि मुसलमान नेताओं को पार्टी में शामिल करा रही हैं। खास है कि मुसलमान वोट बैंक मायावती के कोर वोट का हिस्सा उस तरह नहीं रहा है जैसा जाटव या दलित होता है। मुस्लिम सपा को अपने ज्यादा करीब मानता है। पर आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव ने इस समीकरण को बदल दिया है।

उधर, अपनी सोशल इंजीनियरिंग के हिस्से के रूप में, भाजपा ने सपा (विशेष रूप से गैर-यादव ओबीसी और ठाकुर) और बसपा (विशेष रूप से अनुसूचित जाति और ब्राह्मण) से कई नेताओं को तोड़ लिया और दोनों पार्टियों के मूल वोट आधार पर चोट की है। वहीं, कांग्रेस भी अपने मूल वोट आधार को वापस पाने को छटपटा रही है लेकिन सांगठनिक कमजोरी सभी को खल रही है। खैर बात सपा बसपा की ही।

कांशीराम की मूर्ति अनावरण पर भड़कीं बसपा सुप्रीमो?

सपा अध्यक्ष ने सोमवार को रायबरेली में कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण किया और कहा कि मुलायम सिंह ने ही पहले उन्हें लोकसभा भेजा। अखिलेश ने इस दौरान बीएसपी पर भी निशाना साधा और कहा कि जो काम उन्हें करना चाहिए था। वे नही किए। सपा कर रही है तो उन्हें तकलीफ हो रही है। अखिलेश के भाषण के बाद सपा के सोशल मीडिया हैंडल से एक ट्वीट किया गया, जिसमें लिखा था- बीएसपी चीफ बहन जी ने दलितों को बाबा साहब के द्वारा दिए गए संवैधानिक अधिकारों के बदले बीजेपी से सपा को हराने का सौदा किया है।

कांशीराम बीएसपी के संस्थापक थे और वे 2003 तक बीएसपी के अध्यक्ष पद पर रहे। इस दौरान बीएसपी दलितों की बीच काफी पैठ बनाने में सफलता हासिल की। मायावती को राजनीति में लाने का श्रेय भी कांशीराम को ही जाता है। कांशीराम पार्टी संगठन में काडर को तरजीह देते थे और इसे मिशन नाम दिया था। यही वजह है कि लगातार हार के बावजूद बीएसपी का काडर मजबूत है। मायावती को डर है कि कांशीराम के जरिए सपा काडर बेस्ड वोटरों में भी सेंध न लगा ले।

पंजाब में जन्मे कांशीराम ने 1956 में रोपड़ के गवर्मेंट कॉलेज से पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई पूरी करने के बाद कांशीराम ने डीआरडीओ में एक कर्मचारी के तौर पर नौकरी ज्वॉइन की। जातीय भेदभाव की वजह से कांशीराम ने साल 1964 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। छोटे-छोटे आंदोलन में भाग लेने के बाद कांशीराम ने अंबेडकर जयंती पर 14 अप्रैल 1973 को ऑल इंडिया बैकवर्ड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉईज फेडरेशन (बामसेफ) का गठन किया।

1981 के अंत में कांशीराम ने इस संगठन को नया किया और नाम दिया दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डीएस-फोर। उस वक्त इनका नारा था ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-फोर। कांशीराम ने 1984 में बीएसपी का गठन किया और शुरू में एमपी, यूपी और पंजाब में विस्तार करने की कोशिश की। 1991 में मुलायम सिंह के समर्थन से कांशीराम इटावा संसदीय सीट से संसद पहुंचे। 1996 में पंजाब के होशियारपुर से भी वे चुनाव जीतने में सफल रहे। यही नहीं, कांशीराम के रहते तीन बार यूपी में बसपा सरकार बनाने में सफल रही।

बसपा में सेंध की कोशिश में अखिलेश, वजह-20 फीसदी वोट

खास है कि बसपा को यूपी में तीन बड़े दल-बदल का सामना करना पड़ा है- 1995, 1997 और 2003 में। उनमें से दो (1995 और 2003) कथित तौर पर सपा द्वारा और एक (1997) कथित तौर पर भाजपा द्वारा चलाए गए थे। हालिया स्थिति देंखे तो अखिलेश यादव 2019 के बाद से ही बसपा में सेंध लगाने की कोशिशों में जुटे हैं। 2019 में अखिलेश यादव और मायावती मिलकर चुनाव लड़े थे। इसका फायदा भले सपा को नहीं हुआ, लेकिन अखिलेश को संजीवनी का एक फॉर्मूला मिल गया। 2014 के बाद बीएसपी को 4 चुनाव में भले हार मिली, लेकिन पार्टी का वोट परसेंट लगभग 15-20 फीसदी के बीच बना रहा। 2019 में सपा के वोट जिन जगहों पर ट्रांसफर हुए, वहां बीएसपी को जीत मिली। यही कारण है कि 2014 में जीरो सीट जीतने वाली बसपा 2019 में 10 सीटों पर जीत गई जिनमे 4 पूर्वांचल की थी। सपा को 5 सीटें ही मिली। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार अखिलेश की कोशिश है कि बीएसपी के वोटर्स को सपा के साथ लाया जाए, जिससे लोकसभा की डेढ़ दर्जन सीटों पर इसका असर हो।

अखिलेश ने इसके लिए अब तक कई प्रयास किए हैं।

1. बीएसपी नेताओं को अपने पाले में लाए- अखिलेश ने अब तक स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज, मिठाई लाल भारती, राकेश पांडेय, कमलाकांत राजभर और विनय शंकर तिवारी जैसे बसपा के दिग्गज नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करा चुके हैं।

इनमें स्वामी प्रसाद मौर्य, रामअचल राजभर, लालजी वर्मा और इंद्रजीत सरोज को पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव जैसे बड़ी जिम्मेदारी भी सौंपी गई है। विनय शंकर तिवारी को राष्ट्रीय सचिव बनाया गया है। हाल ही में अखिलेश ने इन नेताओं को संगठन मजबूत करने की जिम्मेदारी सौंपी है। बसपा से सपा में आए नेता एक वक्त मायावती के काफी करीबी थे और 2007 में सत्ता में वापसी कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राजभर और स्वामी प्रसाद यूपी बीएसपी के चीफ भी रहे हैं।

2. चंद्रशेखर आजाद से नजदीकी- 2022 के बाद भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद और अखिलेश यादव के बीच नजदीकी बढ़ी है। चंद्रशेखर आजाद ने हाल ही में खतौली उपचुनाव में सपा गठबंधन के लिए चुनाव प्रचार किया था और वहां बीजेपी हार गई। चंद्रशेखर दलित युवाओं में काफी लोकप्रिय है और उनका संगठन पश्चिमी यूपी में खासे सक्रिय है। चंद्रशेखर दलितों के मुद्दे को लेकर कई बार जेल जा चुके हैं। मायावती भी चंद्रशेखर पर निशाना साध चुकी है। पश्चिमी यूपी में करीब 10 सीटों पर बीएसपी का दबदबा है।

3. सपा में बनाई अंबेडकर वाहिनी- अखिलेश यादव ने साल 2021 में पहली बार सपा के भीतर अंबेडकर वाहिनी नामक एक फंट्रल संगठन का गठन किया था। इस संगठन की कमान बीएसपी से आए मिठाई लाल भारती को सौंपी गई थी। सपा अंबेडकर वाहिनी के जरिए दलित वोटरो में पैठ बनाने की कोशिश में है। यह फ्रंट दलितों के बीच जाकर अखिलेश यादव की नई रणनीति और कामकाज बताने का काम कर रही है। साथ ही मायावती के एक्शन से कैसे बीजेपी को फायदा हो रहा है, इसे भी अंबेडकर वाहिनी दलितों को बता रही है।

बसपा में सेंध लगाने में अखिलेश होंगे सफल?

2024 लोकसभा चुनाव अखिलेश की बड़ी परीक्षा है। नगर निकाय का चुनाव भी सामने है। हालांकि, अखिलेश की पूरी नजर 2024 ही है। सपा पहले ही साफ कर चुकी है कि किसी बड़े दल से गठबंधन नहीं किया जाएगा। यानी सपा अधिकांश सीटों पर खुद चुनाव लड़ेगी। अखिलेश 2022 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के दबदबे वाली कौंशाबी, गाजीपुर, घोसी और अंबेडकरनगर में बढ़िया परफॉर्मेंस की थी। हालांकि, पश्चिमी यूपी में मायावती के वोटर्स बीजेपी में शिफ्ट हो गए थे। यूपी में दलित वोटर्स करीब 21 फीसदी है, जिसमें 13 फीसदी जाटव हैं। मायावती को पश्चिमी यूपी में जाटव के वोट भरपूर मिले थे। 2024 में अगर बीएसपी और मायावती मजबूती से चुनाव नहीं लड़ती है तो इन वोटरों में सेंध लग सकता है। घोसी, अंबेडकरनगर, श्रावस्ती, गाजीपुर और लालगंज की लोकसभा सीटों पर बीएसपी के अभी सांसद हैं, लेकिन अखिलेश के इस दांव से यहां के समीकरण बदल सकते हैं। इन जिलों में बीजेपी को भी 2022 में झटका लगा था।

कांशीराम के सहारे सपा सीधे बसपा काडर में सेंध भले न लगा पाए, लेकिन उसके बाकी बचे नेताओं को जरूर इस दांव से तोड़ सकती है। अंबेडकरनगर मायावती का गढ़ माना जाता रहा है, लेकिन इस बार अखिलेश ने यहां मजबूत मोर्चेबंदी कर दी है। अखिलेश की नजर पश्चिमी के सहारनपुर, अमरोहा और बिजनौर सीट पर भी है। यहां पर बीएसपी ने जीत दर्ज की थी। अखिलेश यादव ने रायबरेली में कहा कि बीएसपी हमारे साथ आकर 10 सीट जीत गई, लेकिन अब उनके नंबर वन नेता आ गए हैं और अब उन्हें फिर जीरो मिलेगा।

कहानी गेस्ट हाउस कांड की...

बाबरी विध्वंस के बाद मुलायम सिंह और कांशीराम ने गठबंधन बनाया और बीजेपी को पटखनी दी। सरकार बनाने के बाद ढ़ाई-ढ़ाई साल के लिए सरकार बनाने का समझौता हुआ। पहली बार मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। बीएसपी का कहना है कि उसकी बारी जब आई तो मुलायम मुकर गए। इसके बाद मायावती ने लखनऊ के गेस्ट हाउस में विधायक दल की मीटिंग बुलाई। मीटिंग चल ही रही थी कि सपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने बीएसपी विधायकों पर हमला बोल दिया। मायावती पर भी अटैक करने की कोशिश की गई, लेकिन बीजेपी के विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी के बीच में आने की वजह से वे बच गईं। इसी बीच मीडिया और भारी पुलिस बल गेस्ट हाउस पहुंच गया, जिसके बाद मुलायम सरकार बैकफुट पर आ गई। राज्यपाल मोतिलाल बोरा ने पूरे मामले में हस्तक्षेप किया।

मायावती ने इसके बाद मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया। बीजेपी के समर्थन से बसपा की सरकार बनी और गेस्ट हाउस कांड में मुलायम सिंह और शिवपाल यादव समेत कई लोगों को आरोपी बनाया गया। 2019 में जब बसपा और सपा के बीच गठबंधन हुआ तो मायावती ने गेस्ट हाउस कांड केस वापस ले लिया। हालांकि, अब फिर से 4 साल बाद मायावती ने जिस तरह गेस्ट हाउस का जिक्र किया है, उससे सियासी तपिश बढ़ गई है।

दूसरी ओर, मायावती ने भी मुस्लिमों और पिछड़ों में अपनी सक्रियता तेज कर दी है। देखना होगा कि यूपी में मुस्लिम और ओबीसी के बीच बसपा की ताजी सक्रियता कितनी असरदार होगी। मायावती ने 31 दिसंबर 2022 को जिला स्तर के पदाधिकारियों को लखनऊ बुलाकर समीक्षा की थी। बैठक में उन्होंने कहा था कि निकाय चुनाव जल्द होता नजर नहीं आ रहा है। ऐसे में सभी कार्यकर्ता लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारियों में जुट जाएं और इसी आधार पर पार्टी की बूथ कमेटियों को भी दुरुस्त करने की योजना बनाई गई थी और साथ ही "गांव चलो अभियान" के तहत दलितों, अतिपिछड़ों और मुसलमानों के मोहल्लों में कैडर कैंप लगाने की बात भी हुई थी। मायावती इन कामों की सप्ताहवार रिपोर्ट बसपा मंडल संयोजकों से लेंगी। सभी संयोजकों से कहा गया है कि वे पूरे सप्ताह भर की योजनाओं का खाका तैयार करें और उस पर काम करें, यानी वे बताएं कि एक सप्ताह में उन्होंने कितने सदस्य बनाए, मंडल में कितनी बैठकें कीं और खासतौर पर कितने युवाओं को जोड़ा।

एक तरफ बसपा ज्यादा से ज्यादा युवाओं को पार्टी से जोड़ने और सदस्य बनाने पर जोर दे रही है, वही वह ओबीसी और पासमांदा मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए काम कर रही है। बीजेपी द्वारा पासमांदा सम्मेलन शुरू करने से बसपा एक हद तक परेशान है और इसलिए उसने अपनी टीमों को इस वर्ग के बीच उतारा है। उत्तर प्रदेश की सियासत में हाशिए पर खड़ी बसपा को उसकी मुखिया मायावती ने इस बार मुसलमानों पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया है। चुनावी माहौल में मुसलमानों के मुद्दों को लेकर मायावती मुखर हैं और मुस्लिम वोट बैंक को वापस पाने के लिए गंभीर दिख रही हैं। बसपा न सिर्फ बीजेपी और सपा पर निशाना साध रही है बल्कि मुसलमान नेताओं को पार्टी में शामिल करा रही हैं।

मुसलमान वोट बैंक मायावती के कोर वोट का हिस्सा उस तरह नहीं रहा है जैसा जाटव या दलित होता है। मुस्लिम सपा को अपने ज्यादा करीब मानता है। पर आजमगढ़ लोक सभा उपचुनाव ने इस समीकरण को बदल दिया है। 2017 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने 99 सीटों पर मुस्लिम कैंडिडेट उतारे थे, जबकि 2022 में 60 सीटों पर मुसलमानों को टिकट दिए थे। उस वक्त भी मुस्लिम वोट बैंक का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी में चला गया। और अब भी मुसलमानों का झुकाव समाजवादी पार्टी की तरफ ज्यादा है।

मायावती ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समाज के बड़े चेहरे इमरान मसूद को समाजवादी पार्टी से बसपा में शामिल कराया है। AIMIM के गोरखपुर अध्यक्ष इरफान मलिक भी बसपाई हो चुके हैं। हाल ही में मलिहाबाद नगर पंचायत की चेयरपर्सन अस्तम आरा खां ने सपा का दामन छोड़ कर बसपा का हाथ थामा है। अस्तम आरा समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक मरहूम अजीज हसन खां की पत्नी हैं। इसके बाद माफिया अतीक अहमद की पत्नी शाइस्ता भी AIMIM छोड़ बसपा में शामिल हो गई थीं और पार्टी ने उनको प्रयागराज से मेयर प्रत्याशी भी बनाया था।

मायावती आज राजनीति के ऐसे मुकाम पर हैं जहां उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है लेकिन अगर यूपी के करीब 20 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी करने में कामयाब हो जाती हैं तो खुद को राजनीतिक सौदा करने वाली स्थिति में ला सकती हैं. 2024 के लिए जिस तरह से बीजेपी को हटाने के लिए संयुक्त विपक्ष का ताना-बाना तैयार हो रहा है, मायावती न सिर्फ उसमें शामिल होने बल्कि सीट शेयरिंग के लिए खुद को तैयार कर रही हैं। दरअसल, मुस्लिम वोट बैंक का सीट शेयरिंग से सीधा संबंध है। मायावती का प्रयास है कि कुछ सीटों पर प्रभावी दिख सके जिससे 2024 के चुनाव में लाभ मिल सके। यही वजह है मायावती ने बीजेपी के पसमांदा सम्मेलन को लेकर बीजेपी और आरएसएस पर हमला किया। उन्होंने ट्वीट करके कहा कि यह "बीजेपी और आरएसएस का नया शिगूफा है। मुस्लिम समाज के प्रति इनकी सोच, नियत, नीति क्या है, यह किसी से छिपी नहीं है।"

कारवां के सुनील कश्यप की रिपोर्ट के अनुसार बसपा प्रवक्ता धर्मवीर चौधरी ने बताया, "हाईकोर्ट ने नगर निगम चुनाव में ओबीसी आरक्षण पर रोक लगा दी थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के दिए निर्देश का पालन उस चुनाव में नहीं किया। दलित पिछडों को संविधान द्वारा दिए अधिकार पूरे नहीं किए जा रहे हैं और इसके लिए बसपा अब आंदोलन के मूड में है। ओबीसी की ऐसी बहुत सी जातियां हैं जिसको राजनीति में लोग नहीं जानते थे। उनको पहचान और सम्मान बसपा ने दिया तो वह उनकी लड़ाई कैसे छोड़ सकती है।" चौधरी का कहना है कि बसपा हमेशा मांग करती रही है कि जातिगत जनगणना हो ताकि "पता लगे कि आखिर हमारी संख्या क्या है।" चौधरी ने बताया कि आजमगढ़ लोकसभा चुनाव बसपा के लिए एक बड़ी सीख बना। वह कहते हैं, "हमारे प्रत्याशी गुड्डू भाई जमाली को जितना वोट पड़ा उससे यह दलित-मुस्लिम समीकरण सफल साबित हुआ जो इस बीजेपी सरकार को हिला सकते हैं। उस लोकसभा के उपचुनाव में मुस्लिम समाज को एक संदेश गया है।" चौधरी ने दावा किया कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर कोई गठबंधन होगा तो उसका निर्माण मायावती करेंगी।

वहीं इमरान मसूद ने दावा किया कि बसपा सब की पार्टी है। वह कहते हैं, "बसपा सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय पर विश्वास करती है। हम चाहते हैं जैसे दलित उसका कोर वोटर है वैसे ही मुस्लिम भी उसका कोर वोटर बने और साथ ही पिछड़े और अगड़ों को भी साथ लाया जाए।" वही जेएनयू से बसपा पर शोध कर रहे रूपेश का कहना है कि 2022 कि चुनाव की परिस्थिति बिल्कुल अलग थी। वह बसपा के हक में किसी भी रूप में दिख नहीं रही थी। पर उस अलग स्थिति में भी बसपा 12 प्रतिशत वोट लाई जो उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में महत्वपूर्ण है। अब मायावती फिर से सक्रिय दिख रही हैं। यह सक्रियता अगर बरकरार रही तो नगर निगम और 2024 में इसका खासा प्रभाव देखने को मिलेगा। बसपा सबको अचंभित कर देगी। मायावती यह भी समझती हैं कि उनको किस वोट बैंक की जरूरत है। मुस्लिम, दलित, अतिपिछड़ा पर अब वह पूरी तरह फोकस कर रही हैं। वह सपा और बीजेपी दोनो के वोट बैंक में धीरे धीरे सेंधमारी कर रही हैं, खास कर मुसलमानों से वह बार-बार इस बात की अपील कर रही हैं कि बीजेपी को हराने के लिए वे उनके साथ आए।"

अति पिछड़ों को भी जोड़ने के लिए पार्टी नए सिरे से काम कर रही है। विश्वनाथ पाल को इसी क्रम में प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। बसपा के पास आज भी एक काडर कार्यकर्ता जमीन पर मौजूद है। अब जैसे पार्टी सक्रिय हो रही है, वह सामने दिखने लगेगा।

कांशीराम ने दलितों के साथ अति पिछड़ों पर ज्यादा काम किया था और उनको बड़ी संख्या में लेकर आए। साथ ही उनको प्रतिनिधित्व भी दिया। पर सतीश चंद्र मिश्रा के प्रभाव के बाद वे सब अलग थलग पड़ गए ज्यादातर ने पार्टी ही छोड़ दी। कांशीराम ने छोटी या बड़ी संख्या वाली ओबीसी जातियों को हर सदन में मौका दिया। जो ओबीसी जीत नहीं सकता था उसको राज्यसभा या एमएलसी या किसी बोर्ड का चेयरमैन बनाया। जैसे हीरा ठाकुर नाई समाज से आते थे वह दो बार एमएलसी बने। इस तरह इन्होंने अपने साथ ओबीसी को जोड़ा और यह वोट बैंक भी उनके साथ आया।

प्रदेश के मुसलमानों के अंदर भी एक हलचल है। समाजवादी पार्टी से उनको सुरक्षा की जैसी उम्मीद थी, वह नहीं मिली है। उन पर हो रहे प्रशासनिक अत्याचारों पर सपा की खमोशी चिंतित करने वाली है। पिछले विधानसभा चुनावों में वे सपा को वोट इसलिए कर गए क्योंकि वह लड़ती दिखाई दे रही थी। बसपा नगर निगम में उपरोक्त प्रयोगों के साथ उतर रही है। हाजी नेसार अहमद जो पसमांदा मुस्लिम महाज के उपाध्यक्ष है, कहते हैं, "बसपा को इस समीकरण की सोच आजमगढ़ उपचुनाव से ही मिली। पर हम चाहते हैं वह पसमांदा मुसलमानों को लेकर भी कोई कार्यक्रम बनाए। हालांकि दलित और मुस्लिम का गठजोड़ बन सकता है लेकिन बात सवर्ण मुसलमान तक ही सीमित न हो। जैसे वह अतिपिछड़ों को लेकर काम कर रही है वैसे पिछड़े मुसलमानों को भी लेकर चले और उनकी भागीदारी सुनिश्चित करे।"

हालांकि मुस्लिम व पिछड़ा वोटरों को आकर्षित करने के बसपा के प्रयोगों को जानकार संशय की दृष्टि से देख रहे हैं। कारवां के अनुसार इतिहासकार सुभाष कुशवाहा का मानना है कि बीजेपी पिछड़ों और अतिपिछड़ों को बांटने का अभियान मायावती के कंधों पर रख कर करना चाहती है। वह बताते हैं, "इस वक्त मायावती जो भी कर रही हैं वह बसपा को सत्ता में लाने के लिए नहीं कर रही हैं बल्कि बीजेपी को फायदा पहुंचाने के लिए ऐसा किया जा रहा है।" उन्होंने कहा, "अगर मायावती वास्तव में पिछड़ों और अतिपिछड़ों की चिंता करती हैं तो उन्हें खुल कर मैदान में उतरना चाहिए था। उत्तर प्रदेश में रोज अतिपिछड़ों, पिछड़ों, दलितों पर हमले हो रहे हैं। आरक्षण को लेकर समस्या है। इतने मुद्दों पर उनकी कोई आवाज नहीं आ रही है।" कुशवाहा कहते हैं कि मायावती ने पूर्व में ओबीसी नेताओं को पार्टी से निकाला है। "वे सब वैसे नेता थे जिन्होंने पार्टी को खड़ा किया था जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य, बरखुराम वर्मा, लालजी वर्मा, रामअचल राजभर, फागु चौहान, जंगबहादुर पटेल, सोनेलाल पटेल, धर्मसिंह सैनी और अन्य। ऐसे में ओबीसी कैसे विश्वास कर लें बसपा पर?"

राजनीतिक जानकार भी यही कहते हैं कि पसमांदा समाज अब बसपा पर उस तरह भरोसा नहीं करता है। दरअसल "पार्टी ने पसमांदा समाज की अनदेखी करते हुए, पैसे वाले मुस्लिमों को तवज्जो दी। बसपा ज्यादातर ठेकेदार की तरह के नेता खोजती है, जमीनी कार्यकर्ताओं को कोई इज्जत नहीं मिल पाती हैं।" ताजा पहल के पीछे भी यही है। "इससे पसमांदा समाज के अंदर फूट डलने का काम जरूर हो सकता हैं जिससे बीजेपी को ही बढ़त मिलेगी और वह जीत जाएगी।"

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