देशव्यापी होगा कृषि कानूनों का असर, किसान ही नहीं, हर किसी को करेंगे प्रभावित

Written by Navnish Kumar | Published on: December 3, 2020
नोटबंदी की ही तरह एकतरफा बिना किसी से सलाह मशविरा के लाए गए कृषि कानूनों का असर भी नोटबंदी की ही तरह देशव्यापी और हर किसी को प्रभावित करने वाला होगा। इससे शायद ही किसी को इनकार हो। अब भले भाजपा नेता कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन को पंजाब के किसानों की समस्या बताने व जताने पर लाख तुले रहे। लेकिन कारपोरेट के हाथ खेती सौंप देने वाले इन कृषि कानूनों से हर देशवासी प्रभावित होगा, यह कटु सत्य है। यही नहीं, जानकार इनसे पूरे पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य सुरक्षा को नुकसान पहुंचने की आशंका जता रहे हैं।  



ये कानून सिर्फ न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का अधिकार छीनने या मंडियों में अनाज बेचने या नहीं बेचने से नहीं जुड़े हैं, बल्कि ये कानून किसानों को खेती से निकालकर उन्हें मजदूर बनाने की दशकों से चल रही साजिश को आगे बढ़ाने वाले हैं। एमएसपी इसका एक पहलूभर है, जो एक कानून से जुड़ा है। लेकिन कांट्रेक्ट पर खेती और आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव बड़े संकट की ओर इशारा कर रहे हैं। 

कोरोना महामारी (आपदा) को अवसर बनाते हुए बहुत सोच समझ कर मोदी सरकार ने यह कानून बनाए हैं। सबसे पहली समस्या तो वहीं से शुरू हुई, जब इन्हें अध्यादेश के रूप में लागू किया गया और बाद में बिना किसी चर्चा के लगभग जबरदस्ती से संसद से पास कराया। अगर सरकार की मंशा ठीक होती या वह खुले दिन से किसानों के मसले पर विचार करने को तैयार होती तो इतनी आपाधापी में इन कानूनों को पास नहीं कराया जाता। सरकार ने जबरदस्ती तीनों कानून पास कराए हैं, इसलिए तय मानें कि वह इसमें कोई खास बदलाव भी नहीं करने जा रही है। उसके हाथ बंधे हुए हैं और कहने की जरूरत नहीं है किसकी वजह से हाथ बंधे हुए हैं!



अगर सरकार प्रदर्शन कर रहे किसानों को संतुष्ट करना चाहे तो उसके लिए यह काम दो मिनट का है। आंदोलन कर रहे ज्यादातर किसान सिर्फ एक बात समझ रहे हैं। वे चाहते हैं कि मंडियों में एमएसपी पर अनाज बेचने की इजाजत हो। सरकार कह रही है कि उसने एमएसपी की व्यवस्था खत्म नहीं की है, बस अनाज मंडियों से बाहर भी किसानों को अनाज बेचने की इजाजत दे दी है। आंदोलन कर रहे किसानों का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ यह चाहता है कि सरकार कानून में ये जोड़ दे कि एमएसपी से कम कीमत पर कहीं भी अनाज की खरीद-बिक्री गैरकानूनी होगी।

केंद्र के बनाए कृषि कानूनों की असल समस्या कांट्रैक्ट फार्मिंग यानी संविदा पर खेती कराने वाले बिल और आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव करके कारोबारियों व उद्योगपतियों को मनचाही मात्रा में अनाज भंडारण की इजाजत देने वाले कानून से है। इस कानून के लागू होने के दो-तीन महीने के भीतर ही जरूरी चीजों की कीमतें जिस तरह से बढ़ने लगी हैं वह सबको दिख रहा है। 

सो, अगर इससे महंगाई बढ़ती है तो सवाल है कि यह समस्या सिर्फ किसान की कैसे हुई? यह तो आम आदमी की समस्या है। खाने-पीने के चीजों के भंडारण की सीमा खत्म की गई है, जिससे अनाज के दाम बढ़ने लगे हैं तो इसका असर तो व्यापक समाज पर हो रहा है! इतनी सरल सी बात आखिर लोगों को समझ में क्यों नहीं आ रही है कि सरकार ने इस कानून के जरिए देश की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है। 

लोगों को यह क्यों नहीं दिख रहा है कि देश के दो सबसे बड़े कारोबारी किस तेजी से खाने-पीने की चीजों के उत्पादन और उनकी बिक्री के बाजार में घुस रहे हैं, किस पैमाने पर भंडारण की व्यवस्था कर रहे हैं और कैसे विलय व अधिग्रहण के जरिए खुदरा कारोबार पर कब्जा कर रहे हैं? आखिर इस काम में उनकी इतनी दिलचस्पी कैसे पैदा हुई है?

यही हाल तीसरे कानून कॉन्ट्रेक्ट खेती का है। यह कानून देश के किसानों को खेती से निकाल कर उनको मजदूर बना देने वाला है। देश में करीब 90 फीसदी किसान डेढ़-दो एकड़ की जोत वाले हैं, जिनके लिए पहले से ही खेती करना मुश्किल काम हो गया है। कृषि की लागत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि वे खुद ब खुद खेती से बाहर हो रहे हैं। सरकारें स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट लागू करने की बातें करती हैं पर किसी ने इसकी पहल नहीं की है। सो, किसान पहले से परेशान है। उसे अब एक आसान विकल्प दिया जा रहा है कि वह कारोबारियों उद्यमियों के साथ करार करे।

किसान को रेट न मिलना, खेती का छीनना और महंगाई भी पूरी समस्या नहीं हैं बल्कि समस्या के पहलू मात्र हैं। असल समस्या कहीं बड़ी है। सिंघु बॉर्डर पर डटे भिवानी के किसान व भाकियू नेता मंगत सिंह खरैटा कहते हैं कि कृषि कानून देश की सुरक्षा (आर्थिक व खाद्य) को खतरे में डालने वाले साबित होंगे। मसलन, वह कहते हैं कि एक पैन कार्ड वाला कोई भी व्यक्ति सस्ते में लाखों टन अनाज खरीद कर रख लेगा और बाद में महंगे ब्लैक करेगा। वहीं, अनुबंध खेती का हश्र किसान गन्ने में सालों से देखता आ ही रहा है। 

यही नहीं, पारंपरिक किसान का इस तरह से खेती के काम से बाहर होना कई तरह के संकटों को न्योता देने वाला है। सबसे पहले तो गांवों की पूरी सामाजिक संरचना प्रभावित होगी। कॉरपोरेट फार्मिंग में ज्यादा खेत मजदूर की जरूरत नहीं रह जाएगी। इससे गांवों से पलायन तेज होगा। देश की मौजूदा आर्थिक हालत को देखते हुए यह समझना मुश्किल नहीं है कि किसी भी सेक्टर में इतनी क्षमता नहीं है कि वह खेती-किसानी से हटे लोगों को रोजगार दे सके। सो, बेतहाशा बेरोजगारी बढ़ेगी। 

पारंपरिक किसान के खेती से बाहर होने का एक बड़ा खतरा यह है कि कॉरपोरेट फार्मिंग में कंपनियों का ध्यान सिर्फ मुनाफा कमाने पर केंद्रित होगा। वे पारंपरिक फसलों की बजाय नकदी और कमाई करने वाली फसलों की खेती पर फोकस करेंगी। इससे जमीन की गुणवत्ता खराब होगी और ग्रीन हाउस गैसेज का उत्पादन बढ़ेगा, जिससे अंततः पूरी पारिस्थितिकी प्रभावित होगी। यानी सरल शब्दों में कहें तो केंद्र के बनाए तीन कृषि कानून प्रदर्शन कर रहे किसानों से ज्यादा देश के 130 करोड़ लोगों के जीवन, समाज और पारिस्थितिकी के लिए संकट पैदा करने वाले साबित होंगे।

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