शैक्षणिक परिसर या छावनी ?

Written by Dr. Prem Singh | Published on: January 8, 2020
सत्तर के दशक के मध्य जब मैं हरियाणा के एक छोटे गांव से दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में पढ़ने आया तो कॉलेज या विश्वविद्यालय परिसर में पुलिस या प्राइवेट सुरक्षा गार्ड नहीं होते थे. कॉलेज, हॉस्टल और फैकल्टी के गेट पर विश्वविद्यालय के चौकीदार होते थे जिनसे सभी छात्र-छात्राएं परिचित हो जाते थे. पूरे उत्तरी परिसर में केवल एक खुफिया पुलिस का व्यक्ति कभी-कभी कुछ देर के लिए आता था. छात्र राजनीति, वाद-विवाद, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने वाले छात्र-छात्राएं अक्सर उस मिलनसार पुलिस अधिकारी को पहचानते थे. धरना-प्रदर्शन होते थे, छात्र और शिक्षक संगठनों के चुनाव होते थे, बड़े-बड़े मेले और उत्सव होते थे, साल दर साल नए-नए 'बदनाशों' की लहर आती-जाती रहती थी, 'आतंक' में कभी यह कॉलेज कभी वह कॉलेज बाजी मारता था, बीच-बीच में कई तरह के झगड़े होते थे, चाकू भी चलते थे, लेकिन पहले या बाद में पुलिस बुलाने की जरूरत अक्सर नहीं होती थी. कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रशासन सब संभाल लेते थे. पुलिस हस्तक्षेप कॉलेज एवं विश्वविद्यालय अधिकारियों की अनुमति और विचार-विमर्श पर ही होता था. अपनी पढ़ाई और विशेष रुची की धुन में मस्त रहने वाले छात्र-छात्राओं के जीवन पर उसका कोई असर नहीं होता था. कहने का आशय इतना है कि एक बड़ा विश्वविद्यालय, जिसका चिन्ह हाथी है, चारों तरफ से खुले परिसर के बावजूद केवल विश्वविद्यालय के अपने बंदोबस्त से चलता था. यही स्थिति कमोबेस सभी केंद्रीय और प्रांतीय विश्वविद्यालयों की थी. ज़ाहिर है, कुलपति और प्रधानाचार्य समेत शिक्षकों-कर्मचारियों और छात्र-छात्राओं के बीच आपसी समझदारी और जिम्मेदारी की भावना से यह संभव होता था.



जैसे-जैसे नवउदारवाद का प्रभाव अथवा दबाव देश की अर्थव्यवस्था के साथ राजनीति, समाज, धर्म और संस्कृति पर बढ़ता गया, शिक्षातंत्र उससे अछूता नहीं रह सकता था. भारतीय संविधान के अनुसार शिक्षा राज्य की जिम्मेदारी है. नवउदारवादी नीतियों के तहत उसे निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया. शिक्षा के निजीकरण के चलते निजी शिक्षा संस्थानों की एक बड़ी दुनिया अस्तित्व में आई है. निजीकरण का दबाव पहले से मौजूद सार्वजनिक क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों पर भी तेजी से पड़ा है. पहले प्रशासनिक व्यवस्था में चपरासी, चौकीदार, दफ्तरी, माली, सफाईकर्ता, खानसामा, प्रयोगशाला सहायक, पुस्तकालय सहायक आदि से लेकर क्लर्क तक सभी विश्वविद्यालय के स्थायी कर्मचारी होते थे. इनमें किसी के अवकाश प्राप्त करने के बाद नई भर्ती होती थी. लेकिन वह सिलसिला बीस-पच्चीस साल पहले बंद हो चुका है. सब जगह ठेके पर नियुक्तियां की जाने लगीं. एक कर्मचारी से निर्धारित से ज्यादा घंटों तक तीन-चार कर्मचारियों का काम लिया जाने लगा. शिक्षक भी इस प्रवृत्ति की चपेट से बचे नहीं रहे. दिल्ली विश्वविद्यालय में करीब पांच हज़ार शिक्षक तदर्थ या अतिथि हैं. सरकारों की तरफ से ऐसे कुलपति और प्रधानाचार्य नियुक्त किए गए जो सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों में निजीकरण की नीतियों को लागू करें.

इस बीच छात्र राजनीति का चरित्र भी बदल गया. छात्र राजनीति से जुडी 'गुंडागर्दी' पर अकेले नेशनल स्टूडेंट यूनियन ऑफ़ इंडिया (एनएसयूआई) का पेटेंट नहीं रहा. वह पाला बदल कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी), सामाजिक न्याय की राजनीति के चलते राज्यों में सत्ता में आए क्षत्रपों के छात्र मोर्चों और पश्चिम बंगाल और केरल में कम्युनिस्ट छात्र संगठनों तक फ़ैल गई. सादगी, स्वस्थ बहस, सामान्य छात्र-हित छात्र राजनीति के सरोकार नहीं रहे. छात्र राजनीति अपने-अपने नेताओं, प्रतीक-पुरुषों, नारों, पार्टियों, विचारधाराओं को लेकर विरोधी से भिड़ंत का एक अंतहीन सिलसिला बन गई है. संवैधानिक प्रावधानों के चलते हाशिए के समाजों से उच्च शिक्षा में आए छात्र-छात्राओं की छात्र राजनीति में अपनी गोलबंदी है. लिहाज़ा, यह भिड़ंत बहुकोणीय है, जिसे राष्ट्रीय स्यवंसेवक संघ (आरएसएस) और कम्युनिस्ट केवल अपने बीच दिखाने की रणनीति से परिचालित होते हैं. छात्र राजनीति की यह परिघटना एकतरफा या इकहरी नहीं है. नवउदारवादी दौर की छात्र राजनीति देश में प्रचलित निगम राजनीति (कार्पोरेट पॉलिटिक्स) की छाया है. शिक्षक राजनीति की भी बहुत हद तक यही सच्चाई है. शिक्षक राजनीति नवउदारवादी नीतियों के तहत ऊंचे वेतनमान और अन्य सुविधाएं हासिल करके शिक्षा के निजीकरण के विरोध की ताकत खो चुकी है. शिक्षक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि निजीकरण को निरस्त किये बिना शिक्षा के साम्प्रदायिकरण को रोका नहीं जा सकता.     

धनवान छात्र निजी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश और कैंपस प्लेसमेंट लेकर निश्चिन्त हो जाते हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के कॉलेज और विश्वविद्यालयों में प्रवेश और नौकरी के ज्यादातर उम्मीदवार निरंतर अनिश्चितता में जीते हैं. सरकारी शिक्षा अब पहले जैसी सस्ती नहीं रह गई है. ऊपर से चौतरफा उपभोक्तावादी संस्कृति का दबाव बना रहता है. उन्हें निरंतर बताया जाता है कि देश बहुत तेजी से तरक्की कर रहा है. वे उस तरक्की में अपनी जगह तलाशने की कोशिश करते हैं तो प्राय: निराशा हाथ लगती है. तब उनके सामने तरह-तरह के वाद, विमर्श और एनजीओ लहराए जाते हैं. वे उनमें शामिल होकर कुछ समय तक अपने होने की सार्थकता का अनुभव करते हैं. इस 'स्पर्श क्रांतिकारिता' से कोई समाधान निकलता नज़र नहीं आता और उम्र बढ़ती चली जाती है. वे निरंतर बेचैनी में जीते हैं. जिस तरह से पूरी शिक्षा व्यवस्था को बिना समुचित विचार और योजना के संविधान की धुरी से हटा कर एक फूहड़ किस्म के निजीकरण की धुरी पर चढ़ाया जा रहा है, उनके सामने प्रतिरोध के मुद्दों की कमी नहीं रहती. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की घटनाएं भी छात्र-समूहों को आंदोलित करती हैं. लिहाज़ा, परिसरों में आये दिन कोई न कोई प्रतिरोध होता रहता है. छात्र राजनीति को पार्टी राजनीति में जगह बनाने का जरिया बनाने वाले छात्र नेता अथवा अन्य निहित स्वार्थ इस स्थिति का फायदा उठाते हैं. बड़े-छोटे नेता, मीडिया, सिविल सोसाइटी एक्टिविस्ट उन प्रतिरोधों में अपनी भूमिका निभाने के लिए पहले से तैयार बैठे होते हैं. परिसरों में प्राइवेट सुरक्षा व्यवस्था तथा पुलिस/अर्द्धसैनिक बल की उपस्थिति और भूमिका को इस पृष्ठभूमि में देखने की जरूरत है.

 छात्रों में बैचेनी और अनिश्चितता रहेगी तो प्रतिरोध होते रहेंगे. छात्रों और शिक्षकों के प्रति विश्वास के अभाव में विश्वविद्यालय अधिकारी बार-बार पुलिस का सहारा लेते रहेंगे. 'जिसकी सत्ता उसकी पुलिस' - यह रीति भारत में औपनिवेशिक काल से चली आ रही है. पुलिस सरकारी पक्ष के छात्र संगठन और नेताओं का बचाव और विरोधियों का दमन करेगी ही. वह सत्ता पक्ष के असामाजिक व हिंसक तत्वों का भी बचाव करेगी. जब देश के शीर्षस्थ नेता साम्प्रदायिक वैमनस्य को मूल आधार बना कर राजनीति करते हों तो पुलिस साम्प्रदायिक व्यवहार भी करेगी. पिछले कुछ दशकों में परिसरों में पुलिस की उपस्थिति और हस्तक्षेप की घटनाएं काफी मात्रा में और तेजी से बढ़ी हैं. बल्कि इधर कुलपतियों की तरफ से परिसर में अर्द्धसैनिक बलों की स्थायी तैनाती की मांग बढ़ने लगी है. पिछले साल विश्वभारती (शांति निकेतन) के कुलपति की मांग पर केंद्र सरकार ने परिसर में स्थायी रूप से केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) तैनात करने का फैसला किया है. विश्वविद्यालय प्रणाली में ऐसा पहली बार हुआ है. इसके पहले 2017 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के कुलपति ने परिसर में अर्धसैनिक बल की स्थायी तैनाती की मांग सरकार से की थी. उस समय सरकार ने अनुमति नहीं दी थी, क्योंकि कुलपति को गंभीर आरोपों के चलते लंबी छुट्टी पर जाना पड़ा था. पिछले साल नवम्बर में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुलपति ने छात्रों के आंदोलन से निपटने के लिए केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) को परिसर में बुलाया था. 

विश्वविद्यालय अधिकारियों की छोटी-छोटी घटनाओं के बहाने पुलिस पर निर्भरता परिसरों को छावनियों में परिवर्तित कर रही है. वह दिन दूर नहीं जब पुलिस उनके आदेश के बिना भी परिसरों में घुस जाएगी. हाल में जामिया मिल्लिया इस्लामिया में यह हो चुका है. पुलिस की अनुपस्थिति में बड़ी संख्या में प्राइवेट गार्ड और नाके परिसर को छावनी का रूप दिए रहते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय का दक्षिण परिसर छोटा और बंधा हुआ है. इसमें पुस्तकालय समेत महज छह इमारतें हैं. मुख्य द्वार पर पुलिस चौकी है. इसके बावजूद प्राइवेट गार्डों की भरमार है. किसी शिक्षक से मिलने आने वाला व्यक्ति आसानी से उस तक नहीं पहुंच सकता. अगर वह मीडिया से जुड़ा है तो कतई नहीं.   

दरअसल यह सब इस लिए किया जा रहा है ताकि युवा दिमाग समर्पण करके व्यवस्था के दास बन जाएं. परिसर छावनी न बनें, इसकी जिम्मेदारी विश्वविद्यालय अधिकारियों, शिक्षकों, छात्रों और प्रशासनिक कर्मचारियों की है. इसमें माता-पिता और अभिभावकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. उन्हें जोर देकर कहना चाहिए कि विश्वविद्यालय अधिकारियों की प्राथमिक जिम्मेदारी परिसर में सुरक्षित, भय-मुक्त और रचनात्मक वातावरण बनाना है, न कि इस या उस सरकार का आदेश पालन करना.   

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं.

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