गांव से लगभग एक फर्लांग दूर, चुआड़ से इंसान और जानवर एक ही कतार में खड़े होकर अपनी प्यास बुझाते हैं। दिन में गाय-भैंसें और रात में जंगली जानवर जैसे भालू, बारहसिंघा, लंगूर, हिरन, लोमड़ी और खरगोश यहां पानी पीने आते हैं। आसपास कोई और जलस्रोत नहीं है।
"पानी की बहुत परेशानी है हमें। साफ़ पानी तो मिलता ही नहीं। हमारी लाचारी देखिए। पहाड़ के दर्रे से रिस-रिसकर निकलने वाले पानी (चुआड़) से प्यास बुझानी पड़ती है। शायद हमारे नसीब में है चुआड़ का पानी।" 65 वर्षीया कुंती देवी, जो चंदौली ज़िले के नौगढ़ ब्लॉक के दुर्गम गांव केल्हड़िया में रहती हैं, यह कहते-कहते भावुक हो जाती हैं। गांव से लगभग एक फर्लांग दूर, चुआड़ से इंसान और जानवर एक ही कतार में खड़े होकर अपनी प्यास बुझाते हैं। दिन में गाय-भैंसें और रात में जंगली जानवर जैसे भालू, बारहसिंघा, लंगूर, हिरन, लोमड़ी और खरगोश यहां पानी पीने आते हैं। आसपास कोई और जलस्रोत नहीं है।
केल्हाड़िया की कुंती जब अपना दर्द बयां करती हैं तो उनकी आवाज़ रूधने लगती हैं और उनकी आंखों में उतरने वाली नमी किसी भी संवेदनशील दिल को झकझोर सकती है। इस दुर्गम गांव की कहानी, जहां हर बूंद पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है, विकास के तमाम सरकारी दावों पर सवाल उठाती है। केल्हड़िया में पानी का एकमात्र स्रोत है पहाड़ के दर्रे से बहने वाला प्राकृतिक जल स्रोत, जिसे स्थानीय नागरिक इसे "चुआड़" कहते हैं।
कुंती देवी बताती हैं, "हम पानी के लिए रोज़ाना इस चुआड़ पर जाते हैं। वहीं पीते हैं, वहीं नहाते हैं। गर्मियों में जब चुआड़ सूख जाता है, तो हमारे पास कोई चारा नहीं बचता।" केल्हड़िया गांव चौतरफा पहाड़ियों से घिरा है। विकास के नाम पर जीओ का एक टावर और कुछ सूखी बंधियां और शो-पीश बने दो हैंडपंप हैं। लेकिन फरवरी-मार्च में जब चुआड़ सूख जाता है, तो केल्हड़िया गांव के ज्यादातर लोग महिलाओं, बच्चों और मवेशियों को लेकर मूसाखाड़ बांध अथवा कर्मनाशा नदी की तलहटी में पलायन कर जाते हैं। छप्पर डालकर बरसात का इंतजार करते हैं। बारिश होने पर जब चुआड़ फिर पानी से भर जाता है, तब वो गांव लौटते हैं। यह सिलसिला हर साल दोहराया जाता है।"
"उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ साल पहले हैंडपंप लगवाने के लिए पत्थर काटने वाली मशीन मंगवाई। बहुत सारी कोशिश के बावजूद, बोरिंग फेल हो गई। तब से कोई और प्रयास नहीं हुआ। सरकार ने "हर घर जल" योजना के तहत गांव में पानी पहुंचाने का वादा किया था, लेकिन तीन साल गुजर गए, लेकिन यहां एक बूंद पानी नहीं पहुंचा-बताती हैं कुंती देवी।
महिलाओं का संघर्ष
केल्हड़िया गांव की महिलाएं और बच्चे रोज़ाना लगभग एक फर्लांग पैदल चलकर चुआड़ का पानी लाने के लिए मजबूर हैं। इस संघर्ष के दौरान वे शारीरिक दर्द को सहते हुए अपने परिवारों के लिए पानी लाती हैं। 60 वर्षीय नौरंगी देवी कहती हैं, "मैं रोज़ 8-10 बार चुआड़ तक जाती हूं। इससे मेरे घुटने और पीठ का दर्द बढ़ गया है, लेकिन अगर मैं पानी नहीं लाऊं, तो हमारे बच्चे कैसे जिएंगे? हमारे लिए बीमारी या आराम का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि अगर हम पानी नहीं लाएंगे, तो हमारे बच्चे भूखे और प्यासे मर जाएंगे, " नौरंगी देवी की आवाज़ दर्द और बेबसी से भरी हुई थी।
नौरंगी देवी का हर दिन चुआड़ से पानी लाने में बीत जाता है। पहाड़ के दर्रे से कभी साफ पानी निकलता है तो कभी मटमैला, लेकिन प्यास बुझाने के लिए कोई और चारा नहीं। वह कहती हैं, "हम ग़रीब आदमी हैं। मजूरी करते हैं। काम मिल गया तो ठीक, नहीं तो पानी के इंतज़ाम में जुट जाते हैं। हमें क्या पता, मोदी-योगी की सरकार ने कुछ किया या नहीं? प्यास लगती है तो हम चुआड़ की ओर भागते हैं और गर्मियों में यदा-कदा टैंकर से पहुंचता है तो डिब्बों को लाइन में लगा देते हैं।"
फुलवंती देवी, जो 65 साल की विधवा हैं, अपनी कमजोर शरीर के बावजूद चुआड़ से पानी निकालकर घर तक लाती हैं। उनके बेटे संतोष और छोटेलाल मजदूरी पर चले जाते हैं, और पानी भरने की जिम्मेदारी अकेले फुलवंती पर आ जाती है। प्लास्टिक के खाली डिब्बे की ओर इशारा करते हुए शीला कहती हैं, "देख लीजिए, हमारे पास कितना पानी है? यहां तो हम तेल की तरह पानी का इस्तेमाल करते हैं। जैसे सब्ज़ी में आप लोग बचा-बचा कर तेल डालते हो हम पानी बचा-बचाकर पीते हैं। मज़दूरी से जो पैसा मिलता है उससे दो जून की रोटी नहीं, पहले पानी का इंतज़ाम करते हैं। अभी तो चुआड़ का पानी काम आ रहा है। कुछ दिनों बाद टैंकर के पानी के लिए संघर्ष करना होगा। यहां दो-तीन दिन में एक बार ही पानी का टैंकर आता है।"
फुलवंती कहती हैं, "गांव में हैंडपंप लगाने के लिए कई बार बोरिंग कराई गई, लेकिन पानी नहीं निकला। लगता है कि हमारे नसीब में पानी है ही नहीं। एक हज़ार फीट बोरिंग हो तो शायद पानी मिल जाए। लेकिन हमारे पास पैसे नहीं। सरकार अगर गहरी बोरिंग करवा दे तो हमारी यह रोज़-रोज़ की मुश्किल खत्म हो सकती है।"
केल्हड़िया की 56 वर्षीय चंद्रावती देवी का जीवन भी पानी की तलाश में बीतता है। उनका परिवार खेती और पशुपालन पर निर्भर है, लेकिन पानी के बिना ये काम मुश्किल हो जाते हैं। वह कहती हैं, "सरकारी टैंकर का इंतजार करना हमारी मजबूरी है। गर्मी के दिनों में पानी का इंतजार कभी-कभी दो से चार दिन तक करना पड़ता है। अगर हमारे गांव में पानी आ जाए, तो हमारी सारी समस्याएं हल हो जाएंगी।"
चुआड़ से रिस रहा पानी भर रही एक महिला से हमने बात करनी चाही तो उन्होंने घूंघट कर लिया। इशारे से उन्होंने हमसे बात नहीं करने की इच्छा ज़ाहिर की। तब वहां मौजूद एक नौजवान चंद्रमोहन ने कहा, "नेता लोग इलेक्शन के समय आते हैं। बोलकर जाते हैं कि पानी ज़रूर आएगा। हमारे वोट से वो चुनाव जीत जाते हैं, फिर लौटकर आते ही नहीं। कोई नेता और अफसर कभी हमारे गांव में आता है तो समूची ग्रामीण जनता एक साथ यही मांग करती है कि हमारी पानी की समस्या दूर कर दो। केल्हड़िया के लोगों की मजबूरी है, वो वोट भी देते हैं, पर सुनता कोई नहीं है।"
पीढ़ियों से चली आ रही किल्लत
केल्हड़िया में पानी की किल्लत मुसीबत का सबब बनकर रह गई है। पानी की परेशानी के चलते लोग अपनी यहां बेटियों की शादी नहीं करना चाहते। केल्हड़िया की औरतें अपना पूरा समय चूल्हा-चौका के बाद पानी ढोने में ही लगा देती हैं। दरअसल, केल्हड़िया में पीने के पानी की किल्लत पीढ़ियों से चली आ रही है। हर किसी को पानी मिल सके, इसके मद्देनज़र ग्राम प्रधान लाल साहब ने कार्ड बनवा दिया है और उसी के आधार पर लोगों को पानी मिलता है। तीन दिन के लिए हर व्यक्ति को एक साथ 45 लीटर पानी दिया जाता है, यानी रोज़ाना 15 लीटर। केल्हड़िया में टैंकर के पहुंचते ही ग्रामीण अपने-अपने डिब्बे और बाल्टी लेकर दौड़ पड़ते हैं और ज़रूरत का पानी इकट्ठा कर घरों में रख लेते हैं।
केल्हड़िया के लोगों को व्यवस्था से शिकायत है, "आज़ादी के बाद से आज तक पानी की समस्या कोई सरकार खत्म नहीं कर पाई। हर चुनाव में यहां नेता पानी पहुंचाने का वादा करते हैं, लेकिन बाद में वो हमारे गांव में झांकने तक नहीं आते। पुरखों के समय से यहां पीने के पानी की समस्या है। दरअसल, पानी के संकट से सिर्फ केल्हड़िया ही नहीं, समूचा नौगढ़ इलाका त्रस्त है। कुंती, चंद्रावती, नौरंगी, फुलवंती जैसी और भी महिलाएं हैं, जिनका जीवन पानी जुटाने के संघर्ष में बीत रहा है।
केल्हड़िया से करीब दो मील के फासले पर छानपातर गांव के पास कर्मनाशा नदी बहती है। यहां एक खूबसूरत झरना भी है। कर्मनाशा नदी, केल्हड़िया गांव के लोगों के लिए जीवनदायिनी हो सकती थी, लेकिन अब सिर्फ़ बहते हुए पानी का एक दृश्य भर है। इस नदी का पानी पीने या उपयोग करने लायक नहीं है। गांव के एक बुजुर्ग कहते हैं, "कर्मनाशा हमारे लिए बेमतलब है। ये नदी बस देखने के लिए है, इसका पानी भी हमारे नसीब में नहीं है।"
केल्हड़िया गांव की सबसे शिक्षित महिला हैं प्रीति। उन्होंने 12वीं की परीक्षा पास कर ली है और गांव की पानी की समस्याओं का समाधान सुझाती है। गांव में एक कुआं है, लेकिन उसका पानी दूषित है और वह पीने लायक नहीं है। केल्हड़िया में 350-400 फीट गहरी बोरिंग के बावजूद हैंडपंप स्थापित करने के प्रयास विफल रहे हैं। पानी कुछ महीनों के लिए आता है, फिर रुक जाता है। "यदि हम 900 से 1000 फीट तक ड्रिल करते हैं, तो हमें एक वर्ष तक पानी मिल सकता है। हम मांग करते हैं कि सरकार यहां गहरे बोर ड्रिल करे। एक बार पानी उपलब्ध हो जाने पर, हमारी आधी समस्याएं हल हो जाएंगी, और आधी आबादी पानी लाने के दैनिक संघर्ष से मुक्त हो जाएगी, " वह सुझाव देती है।
55 वर्षीय भोला कोल हमें बकरी चराते मिले। वह बताते हैं, "हम पीढ़ियों से चुआड़ का पानी पीने को मजबूर हैं। चुआंड़ से इतना कम पानी निकलता है कि एक बाल्टी भरने में घंटों लग जाते हैं। गांव की सारी औरतें सुबह, शाम और दोपहर सिर्फ पानी ढोने में ही लगा देती हैं। दिसंबर तक चुआड़ सूख जाते हैं, और उसके बाद हमें जंगली जानवरों के बीच जंगल में पानी की तलाश में जाना पड़ता है। यह संघर्ष सालों से चल रहा है। हमें अपनी सरकार और सिस्टम पर भरोसा था, लेकिन सालों से हमारे साथ जो हो रहा है, वह हमें सवाल करने पर मजबूर करता है। क्या हम इंसान नहीं हैं? क्या हमारे बच्चों का भविष्य कोई मायने नहीं रखता? हम कितनी पीढ़ियों तक ऐसे ही जीते रहेंगे?"
इन सबके बावजूद, गांव वालों में उम्मीद की एक हल्की किरण बाकी है। "हमने अब तक हार नहीं मानी है। हमारी लड़ाई जारी रहेगी। हम अपनी आवाज़ को और बुलंद करेंगे," भोला कोल के ये शब्द संघर्ष और उम्मीद का प्रतीक हैं। केल्हाड़िया के इन आदिवासियों का जीवन हमें यह सिखाता है कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष की लौ बुझने नहीं दी जाती। उनका हर दिन एक नई चुनौती के साथ शुरू होता है, लेकिन हर कदम उनके हौसले और जीवटता की कहानी कहता है।
केल्हड़िया गांव की तमाम महिलाएं हर दिन चुआड़ से पानी लाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालतीं हैं। चुआड़ पर पानी भरने के लिए लंबी लाइनें लगती हैं, और पानी का इंतजार करते हुए बच्चों के रोने की आवाज़ें आम हैं। इस गांव की महिलाएं कहती हैं, "वो हर दिन सूरज उगने से पहले घर से चुआड़ पर पानी भरने के लिए निकलती हैं, ताकि कम से कम बच्चों को पानी मिल सके। जब देर हो जाती है, तो चुआड़ का पानी और गंदा हो जाता है। कई बार तो पानी की लड़ाई भी हो जाती है।"
यहां महिलाओं आवाज़ में दर्द साफ झलकता है। चुआड़ में खुले में स्नान करने पहुंची लीलावती ने अपनी व्यथा सुनाते हुए कहा, "पुरुषों के सामने पानी भरने या नहाने में शर्म आती है। पर क्या करें, पानी लाना हमारी मजबूरी है। बच्चों को नहलाना हो या खाना बनाना, सब कुछ इसी गंदे पानी पर निर्भर है।"
आजादी मिली, लेकिन प्यास नहीं बुझी
नौगढ़ प्रखंड का केल्हड़िया गांव बनारस के करीब 130 किमी दूर है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। बेहद घनी आबादी और प्रदूषण की मार झेल रहे बनारसियों को नौगढ़ इलाके के जंगल ही आक्सीजन सप्लाई करते हैं। चंदौली जिला मुख्यालय से 80 किलोमीटर दूर, विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं और सदाबहार जंगलों के बीच स्थित केल्हाड़िया गांव, आज़ादी के कई दशक गुजर जाने के बाद भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। यहां के ग्रामीण हर रोज़ प्यास और जीवन की कठोर सच्चाइयों से जूझते हैं। इस छोटे से गांव में समस्याएं पहाड़ जितनी बड़ी हैं।
बिजली, सड़क, स्कूल, आंगनबाड़ी, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं का तो नामो-निशान नहीं है, लेकिन सबसे दर्दनाक समस्या है स्वच्छ पेयजल का न मिलना। यहां के लोग पीढ़ियों से "चुआड़" के पानी पर निर्भर हैं। दरअसल केल्हड़िया गांव के पूर्वी छोर पर पहाड़ी के दर्रे से रिसने वाले पानी का पतला स्रोत निकलता हैं, जो रिस-रिसकर एक छोटे से गड्ढे में भरता है। चुआड़ का यह पानी साल के कुछ ही महीनों तक चलता है।
केल्हड़िया तक पहुंचना अपने आप में एक अनोखा अनुभव साबित होता है। चंदौली के नौगढ़ बांध की ओर जाने वाली सड़क, जो घने और मनमोहक जंगलों से होकर गुजरती है, यात्रा को किसी रोमांचक कहानी जैसा बना देती है। सर्पीले मोड़ों और ऊंचाई-ढलानों से भरी यह सड़क आपको प्रकृति के इतने करीब ले आती है कि मन हरियाली और जंगल की शांति में डूब जाता है।
जंगल के किनारे-किनारे दौड़ते लंगूरों के परिवार, छलांग लगाते हुए पेड़ों पर चढ़ते हैं और जैसे आपका स्वागत करते हैं। सड़कों पर बने छलके दूर से सीमेंट के मोटे पाइप जैसे दिखते हैं, लेकिन उनका पानी जंगल की नमी और जड़ों का जीवन संजोए होता है। नौगढ़ इलाके की सुंदरता जितनी मोहक है, उतनी ही भयावह भी। शाम होते ही भालुओं की चर्चा होने लगती है। भालू, जो अक्सर इस इलाके में दिख जाते हैं, किसी पुराने किस्से की तरह आपके दिमाग में डर और रोमांच भर देते हैं। लोगों का कहना है कि भालू अकेले होने पर शायद ही हमला करे, लेकिन जब वह अपने परिवार के साथ होता है, तो उसे खतरा महसूस होता है। यही डर उसे हिंसक बना देता है।
केल्हड़िया पहुंचने के लिए पंडी गांव से होकर जाना पड़ता है। सड़क के दोनों ओर मिट्टी के घर हैं, जो अपने सलीके से लिपे-पुते रूप में गांव की संस्कृति और मेहनत का प्रतीक लगते हैं। पंडी गांव का एकमात्र पक्का भवन प्राथमिक विद्यालय है, जो पिछले एक दशक से बंद पड़ा है। उसके बगल में रिलायंस जिओ का टावर खड़ा है-पुराने और नए समय का एक अजीब सा मेल।
बारिश के दिनों में केल्हड़िया आएंगे तो महिलाएं धान रोप रही होती हैं और पुरुष बैलों के साथ खेतों की जुताई कर रहे होते हैं। कथाकार मुंशी प्रेमचंद के दो बैलों की कहानी यहां जीवंत नजर आती है। बैलों के साथ खेत जोतने वाले किसान की छवि आज भी इस इलाके की पुरानी परंपरा और कृषि संस्कृति को जिंदा रखे हुए है। उत्तर प्रदेश के अधिकांश इलाकों में मशीनों ने बैलों की जगह ले ली है, लेकिन चंदौली के नौगढ़ इलाके में यह दृश्य एक अलग ही कहानी कहता है।
जंगल में घुसते ही उसकी भव्यता और उसकी तकलीफें दोनों साफ़ नजर आने लगीं। कहीं-कहीं गाय और भैंसों के झुंड चरते हुए दिखे, लेकिन इस बार जंगल की हरीतिमा नहीं, बल्कि सूखा ही छाया हुआ था। इस साल सारा इलाका सूखे की मार झेल रहा है। नौगढ़ बांध के बावजूद, पानी केल्हड़िया तक नहीं पहुंच पाता। सारा पानी नीचे बहकर चला जाता है। और फिर लिफ्ट इरिगेशन के अलावा सिंचाई के साधन का नामोनिशान नहीं था। जंगल के बीच अचानक सड़क खत्म हो गई और एक पथरीली पगडंडी दिखाई दी।
झाड़ियों से घिरी पगडंडी पर आधा किलोमीटर चलने के बाद एक छोटी सी बंधी दिखी जो बारिश के बाद ही सूख गई थी। फिर, सामने कच्चे घरों और झोंपड़ियों का वह गांव दिखाई दिया—केल्हड़िय़ा। एक ओर घना जंगल था, और दूसरी ओर पहाड़। यह नौगढ़ प्रखंड का लगभग अंतिम गांव है। केल्हड़िया तक पहुंचने के रास्ते का संघर्ष केवल एक भौगोलिक चुनौती नहीं थी, यह एक ऐसे समाज की तस्वीर थी, जहां विकास के नाम पर केवल वादे किए गए, पर ज़मीनी हालात ने इन वादों को मुंह चिढ़ाया।
केल्हड़िया गांव के ज्यादातर दरवाजे पर जाले लटक रहे थे, मानो समय की धारा ने यहां का हाल बेहाल कर दिया हो। गांव में पहुंचने पर एक मचान पर गहरी नींद में सोए हुए एक व्यक्ति के अलावा कोई आदमी नहीं दिखा। घरों में कुछ महिलाएं और बच्चे कामकाज में व्यस्त थीं। ऐसा लग रहा था जैसे यह इलाका समय की पकड़ से बाहर हो, जहां जीवन एक थम-सी गई कहानी हो। थोड़ा आगे बढ़ने पर 11 वर्षीया रिंकल एक लड़की फूस की मड़ई में साफ-सफाई कर रही थी। इसी मड़ई में उसकी बकरियां पलती हैं। आसपास स्कूल नहीं होने की वजह से रिंकल भी नहीं पढ़ पाई और वह दिन में बकरियां चराती है।
रिंकल को भले ही ए...बी...सी...डी...का ज्ञान नहीं था, लेकिन वो समझदार लड़की थी। पढ़ाई क्यों नहीं की, पूछने पर उसने कहा, "यहां भला कौन अध्यापक आएगा? " रिंकल की बात ने दिल को झकझोर दिया। सचमुच, करीब 20 मील दूर नौगढ़ ब्लाक मुख्यालय से चलकर केल्हड़िया आना और वापस जाना किसी सजा से कम नहीं। आमतौर पर इस जंगली इलाके में उन्हीं मुलाजिमों की पोस्टिंग होती है, जिन्हें आला अफसर पनिशमेंट देते हैं।"
आज़ादी के बाद गांवों के विकास के जो सपने देखे गए थे, वे केल्हड़िया में धुंधले हो गए हैं, और हम, उनके पास पहुंचकर, उनकी कठिनाइयों को समझने की कोशिश कर रहे थे। लीलावती, जो गांव की बुजुर्ग महिला हैं, कहती हैं, "हमने अपनी ज़िंदगी पानी के लिए संघर्ष करते हुए बिता दी। एक दशक पहले यहां बिजली पहुंची थी और कुछ साल पहले जिओ का टावर लगा था, लेकिन गांव में जिनको सबसे ज़रूरी चीज़ चाहिए थी, वह पानी और स्वास्थ्य सुविधाएं, वो आज तक नहीं पहुंची। हमारे बच्चों का भविष्य भी ऐसा ही होगा, अगर कुछ नहीं बदला।"
केल्हड़िया में करीब 85-90 लोग रहते हैं, जो कोल समुदाय के हैं, इनकी दयनीय हालत ने मन को हिला दिया। इस गांव में सिर्फ एक छोटा सा कमरा ईंट का है, बाकी सब कच्चे घर हैं, जो झोंपड़ियों की तरह दिख रहे थे। पानी की समस्या यहां इतनी विकट है कि गांववाले चुआड़ से पानी लाते हैं और गर्मी के मौसम में दो कोस दूर जानवरों को पानी पिलाने के लिए जाते हैं।
गांव के उत्तर में पीपल के विशाल पेड़ के पास एक बोरिंग हुई है जो चार सौ फुट गहरी है, लेकिन उसमें भी पानी नहीं है। संतोष से मुलाकात हुई तो वो अपनी बकरियां चला रहे थे। उनकी आंखों में एक गहरी थकान थी। वह कहते हैं, "न यहां पानी है, न स्कूल है, आवास का कोई पता नहीं। बस किसी तरह जीवन काट रहे हैं।"
संतोष कहते हैं, "हमारे पुरखे पशुओं के पेशाब और गोबर से सना पानी छानकर पीते थे। हालात ज्यादा नहीं बदले हैं। गर्मियां आते ही गांव की औरतों का दिल घबराने लगता है, लेकिन मटमैला पानी पीना पड़ता है। स्थानीय प्रशासन गर्मियों में टैंकर से पानी की सप्लाई करता है, लेकिन टैंकर में कभी मछली और तो मेढक भी आ जाते हैं। देखकर मन गिनगिना जाता है, लेकिन क्या करें, पीना पड़ता है।" उनकी आवाज़ में छिपी वेदना केवल शब्द नहीं, बल्कि एक चीख है, जो सिस्टम की नाकामी को आईना दिखा रही है।
30 वर्षीया आरती कोल निरक्षर महिला हैं, लेकिन वो पूरे दिन दूध उबालकर खोवा बनाने का काम करती हैं। इनके पति राजेश हर सुबह खोवा बेचने नौगढ़ बाजार चले जाते हैं। आरती कहती हैं, "हमारा मायका जमसोती में है, लेकिन किस्मत हमें उस गांव में खींच लाई, जहां एक-एक बूंद पानी के हर रोज संघर्ष करना पड़ता है।"
केल्हड़िया की पगडंडियों पर दिन के किसी भी वक़्त बस दो चीज़ें ही नज़र आती है। एक तो बकरी चराते वो बच्चे, जिन्हें स्कूल में होना चाहिए और दूसरे बड़े-बड़े पानी के बर्तन ढोतीं महिलाएं। पानी के इंतज़ाम में केल्हड़िया के बहुत से बच्चे और बच्चियां भी अपने सपनों का गला ख़ुद घोंट देते हैं। लड़कियों पर पानी की ज़रूरत पूरा करने का बोझ इतना हावी हो गया है कि वो आगे के बारे में सोच ही नहीं पा रही हैं। तीन साल की एक बच्ची शिवानी जो ठीक से अपना नाम भी नहीं बता पाती वो भी पानी का डिब्बा लिए चुआड़ तक पहुंच जाती है।
नौगढ़ के गांवों में बच्चे भी पानी के संकट का बड़ा खामियाजा भुगत रहे हैं। कई बार पानी लाने के लिए उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है। दो साल पहले एक्टिविस्ट बिंदू सिंह केल्हड़ियां आई तो उन्होंने बच्चों को पढ़ाने के लिए वीरेंद्र खरवार नामक आदिवासी युवक की तैनाती की। वीरेंद्र यहां एक पेड़ के नीचे कुछ बच्चों को पढ़ाते हैं। इन बच्चों में एक है उर्मिला और उसकी छोटी बहन पूनम। उर्मिला बताती है, "पढ़ाई से पहले पानी ढोना ज़रूरी है। अगर पानी नहीं होगा, तो खाना कैसे बनेगा?"
केल्हड़ियां गांव में कई घंटे गुजारने के बाद कुछ महिलाएं और बच्चे जुट गईं। सबके मन में एक ही सवाल था कि हम किसी सरकारी योजना के तहत यहां आए हैं, इसलिए सबसे पहले उन्होंने पानी की समस्या पर बात की और फिर बच्चों के भविष्य को लेकर चिंता जताई। एक औरत अपनी बकरियों के चोरी चले जाने की बात बताते-बताते रोने लगी।
राजेश कोल बताते हैं, "मेरे पूर्वज सात पीढ़ियों से यहां बसे हैं, और यह गांव किसी बाहरी ताकत से नहीं, बल्कि उनकी मेहनत और संघर्ष से अस्तित्व में आया था। लेकिन आज, हालत यह हो गई है कि बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। केल्हड़िया के लोग उम्मीद से ज्यादा कुछ नहीं मांगते, बस अपनी ज़िंदगी को थोड़ा बेहतर बनाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि किसी तरह पानी की समस्या सुलझ जाए, सड़क का निर्माण हो, और बच्चों को शिक्षा का हक मिले। लेकिन क्या यह उम्मीदें कभी पूरी होंगी? क्या कभी इन बुनियादी सुविधाओं का सपना सच होगा? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।"
"जंगल में बसी यह बस्ती अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कई बार लड़ी है, और इस गाँव की समस्याएं उसी संघर्ष की निरंतरता की तरह हैं। पानी, सड़क और शिक्षा के अभाव में, यहां के लोग अपनी जिंदगी की लड़ाई अकेले लड़ रहे हैं। कई बार सरकारी योजनाएं आईं, लेकिन उनका असर जमीन पर नहीं दिखा। शौचालय बने थे, लेकिन पानी की कमी के कारण उनका कोई उपयोग नहीं हो पा रहा था। आवास की मंजूरी भी मिली थी, लेकिन वह भी सिर्फ कागजी हद तक थी। यह सब दर्शाता है कि सरकारी योजनाएं जब तक जनता के दिल से जुड़ी नहीं जातीं, तब तक उनका कोई असर नहीं हो सकता, " कहते हैं राजेश कोल।
लड़कों की शादियों में बाधा
22 वर्षीय चंद्रमोहन कोल की शादी इस वजह से नहीं हो पा रही है कि पेयजल संकट के चलते कोई अपनी बेटी की शादी केल्हड़िया गांव में नहीं करना चाहता है। चंद्रमोहन कहते हैं, "हमने बचपन में पंडी गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला लिया था। वहां जाने के लिए जंगल से गुजरना पड़ता था। भालुओं के खौफ के चलते हमने स्कूल जाना छोड़ दिया। अब सोचते हैं कि काश हमारे गांव में भी स्कूल होता और हम पढ़-लिख लिए होते। एक दशक पहले हमारे गांव में पानी का ज्यादा संकट नहीं था। तब मूंछ पर काली रेखा उभरते ही बच्चों कि शादियां हो जाया करती थीं। हमारे गांव में तमाम नौजवान कुंवारे हैं और कोई अपनी बेटी यहां भेजने के लिए राजी नहीं है। हम अनपढ़ हैं। मजूरी कर सकते हैं। गाय-भैस चरा सकते हैं। इसके अलावा कोई दूसरी बात हमारे जेहन में नहीं आती।"
"चुनाव के मौके पर इनके वोट खरीदने के लिए लोग पैसा और बांटने के लिए साड़ी लेकर नेता आते हैं। चुनाव खत्म होने के बाद पांच साल तक हम उनका इंतजार करते रह जाते हैं। लगातार राजनीतिक छलावे के शिकार होकर हम कई बरसों से सड़क, पानी और स्कूल जैसी बुनियादी चीजों का इंतजार कर रहे हैं। हमारा संकट केवल पानी का नहीं, बल्कि उन उम्मीदों और वादों का भी है, जो सालों से केल्हड़िया के लोगों को दिए गए, लेकिन कभी पूरे नहीं हुए," कहते हैं चंद्रमोहन।
खप गईं प्यास से बेहाल कई पीढ़ियां
चंदौली जिला मुख्यालय से करीब 50 मील दूर आदिवासी बहुल केल्हड़िया गांव में प्यास की गवाही देते दर्जनों चेहरों पर चिंता की गहरी लकीरें हैं तो वहीं सत्तापक्ष के नेताओं के प्रति जबर्दस्त गुस्सा भी है। आदिवासियों का आंकलन है कि जनवरी महीने के आखिर तक पहाड़ का पानी भी खत्म हो जाएगा। तब हर साल की तरह फिर एक बड़ी चुनौती खड़ी होगी। गर्मी के दिनों में टैंकर से पीने का पानी आता है और राशन कार्ड के ज़रिए बांटा जाता है। जिनते सदस्य उतना गैलन पानी।
केल्हड़िया के संतोष कहते हैं, "हमारी कई पीढ़ियां यहीं खप गईं, लेकिन पानी किल्लत जस की तस बनी रही। गुलामी के दौर में भी और आज़ादी के बाद भी। हम अफसरों की देहरी पर मत्था टेकते रहे, पर आश्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिला। इस गांव में आज तक न तो कोई कलेक्टर आया और न ही कोई बड़ा अफसर। केल्हड़िया के लोग फिलहाल चुआंड के पानी के सहारे ज़िंदा है। आदिवासियों की फरियाद सुनने के लिए कोई तैयार नहीं हैं।"
"हमने सुना है कि सरकार बुलेट ट्रेन चलाने जा रही है। शहर स्मार्ट हो रहे हैं। नौगढ़ के हर गांव में हर घर तक पानी पहुंचाया जाना है, लेकिन इन बातों से हमें क्या मतलब। हम तो इलाके के विधायक कैलाश खरवार से अपने ज़रूरत भर के लिए पानी मांग रहे हैं। हमारी परेशानियां दशकों पुरानी हैं। हमें इंतज़ार है ऐसे नेता की जो हमें साफ मुहैया कराए।"
संतोष के पास रहने के लिए न ठीक घर है, न शौचालय और न पीने का साफ पानी। इनका कुनबा बस किसी तरह गुजर-बसर करने के लिए मजबूर है। महुआ और मज़दूरी के सहारे ज़िंदगी की नैया खेते-खेते हार चुका इनका परिवार आज भी हाशिये पर खड़ा है। वह कहते हैं, "हमने बचपन में सुना था कि जल ही जीवन है। लेकिन ऐसे जीवन का क्या मतलब जब पानी के लिए इंसान को हर रोज़ जंग लड़नी पड़े। केल्हड़िया के लोगों का नसीब ही खराब है कि आज़ादी के दशकों गुजर जाने के बाद भी हमें पीने का साफ पानी नसीब नहीं हो पा रहा है।"
संघर्ष, विडंबना और खामोशी
केल्हड़िया गांव में छोटी जोत के किसान हैं, जिनकी जिंदगी की सच्चाई यही है कि मुश्किलों से ही उनका गुज़ारा चलता है। एक बुजुर्ग किसान राममूरत से बात करते हुए पता चला कि बीमार पड़ने पर वे नौगढ़ जाने के बिना दवा नहीं ले सकते, और राशन लेने के लिए उन्हें दस मील (15 किलो मीटर) ऊपर देवरी जाना पड़ता है। यही हाल उन योजनाओं का भी है जो लाखों की लागत से बनती हैं—लेकिन उनका कोई लाभ नहीं मिलता। विकास के नाम पर यहां केवल एक जियो कंपनी का टावर ही दिखाई देता है।
केल्हड़िया तक पहुंचने का यह संघर्ष वहां के लोगों जीवन के हर पहलू का आईना है, चाहे वह शिक्षा हो, पानी, या फिर रोज़मर्रा की ज़िंदगी। जिस घने जंगल से हम होकर केल्हड़िया आए थे, उसका सन्नाटा हमारे भीतर भी गूंजने लगा। पचीस-तीस घरों वाले केल्हड़िया गांव में सिर्फ कोल समुदाय के लोग ही रहते हैं, जो अपना हालात में जकड़े हुए नजर आते हैं। उत्तर प्रदेश में कोलों की आबादी सात लाख से ऊपर है, लेकिन इस विडंबना ने उनकी स्थिति और भी जटिल कर दी है।
चंदौली, मिर्ज़ापुर, सोनभद्र, चित्रकूट और बांदा जैसे जिलों में बसी इन आबादियों के बीच एक विचित्र भेदभाव है। मध्य प्रदेश में वे अनुसूचित जनजाति में आते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में उन्हें अनुसूचित जाति माना जाता है। यही विडंबना उनकी भागीदारी और आरक्षण के अधिकारों से उन्हें दूर कर देती है। दो सगे भाई अगर एक राज्य में रहते हैं तो एक आदिवासी माना जाता है, और दूसरे राज्य में रहने वाला दलित। यह भेदभाव सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक और मानसिक तौर पर भी उन्हें बहुत कुछ खोने पर मजबूर कर देता है।
केल्हड़िया पहुंचने पर हमारी मुलाकात 40 वर्षीय अशोक से हुई, जिन्होंने बताया कि पहाड़ों के उस पार बिहार शुरू हो जाता है। इस छोटे से गांव में दिन के उजाले में भी आने और जाने में डर लगता है, और शाम के बाद तो शायद ही कोई इस रास्ते से गुजरता हो। अशोक कहते हैं, "महिलाएं और बच्चे पेयजल संकट का सबसे बड़ा बोझ उठाती हैं। वे रोज़ सुबह चुआड़ पर जाती हैं, लाइन में लगती हैं, और अपनी बारी का इंतज़ार करती हैं। कई बार पानी कम हो जाता है, तो उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है। पीने के पानी का इंतजाम करना हमारे लिए एक बड़ा संघर्ष है।"
केल्हड़िया गांव देवरी राजस्व गांव का हिस्सा है। ग्राम प्रधान लाल साहब खरवार कहते हैं, "सुदूर बीहड़ इलाका जितना सुलझाने के लिए संघर्ष कर रहा था, उतनी ही कठिनाइयों से घिरा हुआ है। लालसाहब खरवार की बातें गहरी सोच और संवेदनशीलता को दर्शाती हैं, लेकिन गांव के बुनियादी सवालों का समाधान नहीं करतीं। जब उनसे पानी की समस्या के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब गंभीर था, लेकिन साथ ही समाधान का वादा भी था। "वो तो होइबे करी। पानी गड्ढे से तो जाता ही है," उनका यह जवाब संकेत था उस निरंतर संघर्ष का जो इस गांव के लोग सालों से झेल रहे हैं।"
नौगढ़ के खंड विकास अधिकारी अमित कुमार कहते हैं, "हमने केल्हड़िया की स्थिति देखी है, लेकिन समस्या के समाधान के लिए सार्थक प्रयास किए जा रहे हैं। वहां एक कुएं का निर्माण हो रहा है। केल्हड़िया में पाइप लाइन से पेयजल की सप्लाई आसान है। टैंकर से जलापूर्ति काफी महंगी व्यवस्था है। जल निगम के अफसरों से हम बातचीत कर रहे हैं। हम लगातार प्रयास कर रहे हैं कि पानी की लाइन केल्हड़िया तक पहुंच जाए। अभी तक केल्हड़िया तक पानी पहुंचाने की योजना मूर्तरूप नहीं ले सकी है। इस साल हम गर्मी के दिनों में केल्हड़िया और उससे सटे पंडी गांव में पेयजल संकट पैदा नहीं होने देंगे।"
बेबस हैं केल्हड़िया के नौनिहाल
केल्हड़िया में छोटे-बड़े कुल 35 बच्चे हैं। ग्रामीण राम प्रसाद बताते हैं, "पहले बच्चे सात किलोमीटर दूर पंडी के स्कूल में पढ़ने जाते थे, लेकिन एक दिन भालू दिख गया, तो फिर डर के मारे वे स्कूल नहीं गए। जंगल का रास्ता असुरक्षित होने से लड़कियां स्कूल नहीं जातीं। इस गांव में न तो आंगनबाड़ी केंद्र है और न ही कभी किसी डॉक्टर के चरण पड़े। गर्भवती महिलाओं या गंभीर रूप से बीमार मरीजों को खटिया पर लादकर ले जाना भी अत्यंत कठिन है, लेकिन बिना नौगढ़ गए कोई इलाज मिलना संभव नहीं है। यह समझ से परे है कि नुनवट से आनेवाली पिच रोड को बीच जंगल में क्यों रोक दिया गया, जबकि उसे केल्हरिया गांव तक ले जाना असंभव बिलकुल नहीं है।"
केल्हड़िया की कहानी दिल को झकझोर देने वाली है। ग्रामीणों में कुछ उम्मीद तब जगी जब पंडी गांव के वीरेंद्र कुमार ने शिक्षक के रूप में पहली बार 01 सितंबर 2022 से बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। खुले आसमान के नीचे करीब दो दर्जन बच्चों की पढ़ाई अब एक छोटे से चमत्कार की तरह लगती है। लेकिन बारिश आते ही यह चमत्कार थम जाता है, क्योंकि ओपन विद्यालय में छुट्टी कर दी जाती है। केल्हड़िया गांव के भोला, राममूरत, छोटेलाल और अशोक बताते हैं, "हमारे गांव में शायद ही कोई पढ़ा-लिखा हो। चारों ओर नज़र दौड़ाएं तो कोई स्कूल नहीं दिखता। गांव के बड़े-बुजुर्ग आज भी अंगूठा टेक हैं।"
केल्हड़िया में शिक्षा की कमी सिर्फ ज्ञान का अभाव नहीं, बल्कि उम्मीद की कमी का कारण भी बन रही है। हर मां-बाप अपनी बेटियों को पढ़ते हुए देखना चाहता है, लेकिन संसाधनों की कमी और सामाजिक बाधाओं ने उनकी इस ख्वाहिश को दबा दिया है। शिवमूरत सवाल करते हैं, "क्या इन गांवों की बेटियां कभी स्कूल की चारदीवारी के अंदर बैठकर पढ़ाई कर पाएंगी? क्या उनकी आंखों में भी बड़े सपने पलने की जगह मिलेगी? यह सवाल सिर्फ शिक्षा के नहीं, बल्कि समान अवसर और आत्मनिर्भरता के अधिकार का है। जब तक इन दूरदराज़ के गांवों में स्कूलों और शिक्षकों की संख्या नहीं बढ़ेगी, तब तक इन बेटियों के सपने ऐसे ही अधूरे रहेंगे।"
नौगढ़ के रोमिंग पत्रकार मुकेश बेवफा कहते हैं, "हमें एक बार फिर सोचने की ज़रूरत है कि देश के हर कोने तक शिक्षा की रौशनी कैसे पहुंचाई जाए। केल्हड़िया की बेटियां सिर्फ गांवों का नहीं, पूरे समाज का भविष्य हैं। उनकी पढ़ाई रुकना सिर्फ उनकी नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक असफलता है।"
"नौगढ़ के सुदूर गांवों में बेटियों की पढ़ाई एक सपने की तरह धुंधली होती जा रही है। आठवीं के बाद लड़कियों की शिक्षा जैसे ठहर जाती है, क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए बच्चों को नौगढ़, चकिया या राबर्ट्सगंज जाना पड़ता है। लेकिन नौगढ़ के आदिवासी परिवारों के पास न तो इतना पैसा है, न ही शहरों में किसी से जान-पहचान। ऊपर से शहरों का डर और असुरक्षा की भावना उनके दिलों में घर कर जाती है।"
हर घर, नल योजना फ्लाप
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जून 2020 में 'हर घर जल' योजना की शुरुआत की और वादा किया कि चंदौली के नौगढ़ इलाक़े में हर घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचा दिया जाएगा। 2020 में शुरू की गई ‘हर घर जल’ योजना ने केल्हाड़िया के ग्रामीणों को उम्मीद दी थी। इस योजना का उद्देश्य भैसौड़ा बांध से 600 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन के माध्यम से गांवों में पानी पहुंचाना था। सरकार ने इसके लिए 250 करोड़ रुपये की परियोजना भी मंजूर की, लेकिन योजना के तहत गांव में आज तक एक भी नल चालू नहीं हुआ।
'हर घर जल' योजना केंद्र सरकार के जल जीवन मिशन का हिस्सा है। इसके तहत साल 2024 तक हर घर तक पाइपलाइन से पीने का पानी पहुंचाने की योजना पूरी की जानी थी, लेकिन मियाद बीत गई। लेकिन यह योजना हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो पाई। फ़िलहाल पीने के पानी का संकट दूर होता नज़र नहीं आ रहा।
सरकार की ओर से दावा किया गया था कि 'जल जीवन मिशन' योजना के मूर्त रूप लेने पर सिर्फ केल्हड़िया ही नहीं, नौगढ़ के आदिवासियों को सर्वाधिक फायदा होगा। शंकरलाल को शिकायत है कि हम प्यासे हैं और औरवाटांड़ का पानी धानापुर चंदौली और बिहार जा रहा है? वह कहते हैं, ''अब तो हर साल सूखे के हालात बनते हैं और फिर लोग कई किलोमीटर दूर जाकर पानी लाकर गुज़ारा करते हैं। कुछ जगहों पर टैंकर से भी पानी पहुंचाया जाता है।''
जल संकट को स्वीकार करते हुए नौगढ़ के उप जिलाधिकारी कुंदन राज कपूर कहते हैं, ''सरकार द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। चंदौली के मुख्य विकास अधिकारी के साथ बैठक में उठाया गया मुद्दा। हम पानी की आपूर्ति शुरू करने के लिए एक या दो महीने के भीतर पाइपलाइन बिछाने की योजना बना रहे हैं। कोशिश की जा रही है कि जनजीवन मिशन के तहत नौगढ़ में हर घर तक पहुंच जाए। हमने नौगढ़ के कई स्कूलों में डीप बोरिंग कराई, लेकिन वो फेल हो गई।''
''फ़िलहाल यह कह पाना कठिन है कि जनजीवन मिशन के तहत पेयजल कब तक पहुंचेगा। नौगढ़ इलाक़े में हालात पहले और ख़राब थे। नौगढ़ का क्षेत्रफल बड़ा है और आबादी कम है, जिसके चलते विकास के लिए धन कम मिल पा रहा है। हम कोशिश कर रहे हैं। धीरे-धीरे बदलाव दिखेगा। दशकों से चली आ रही समस्या को एक दिन में ख़त्म नहीं किया जा सकता। थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन सरकार के प्रयास सफल होंगे। पीने का पानी हो या खेती के लिए पानी, सरकार हर संभव कोशिश कर रही है। हम गांवों में तालाब और बंधियां बनवा रहे हैं। धीरे-धीरे समस्या ख़त्म होगी।''
चंदौली जिला प्रशासन पानी की कमी को स्वीकार करता है और समस्या के समाधान के लिए योजनाएं बनाने का दावा करता है। उप जिलाधिकारी (डिप्टी कलेक्टर) कुंदन राज कपूर यह भी कहते हैं, "हमने पाइपलाइन बिछाने का प्रस्ताव रखा है, और टैंकर से पानी पहुंचाने की व्यवस्था कर रहे हैं।" लेकिन गांव वालों के लिए यह बयान सिर्फ़ एक और वादा बनकर रह गया है।
नौगढ़ की ब्लाक प्रमुख प्रेमा कोल के प्रतिनिधि सुड्डू सिंह केल्हड़िया में पेयजल संकट की समस्या का स्वीकार करते हैं, लेकिन वो इस बात को नकारते हैं, "ऐसे कैसे हो सकता है कि सरकार जिस टैंकर से पीने के पानी की आपूर्ति कर रही है उसमें मेढक और मछलियां निकलती होंगी। टैंकर में बोरविंग का पानी जाता है। लोग झूठ बोलते हैं कि यहां दूषित पानी की सप्लाई होती है। केल्हड़िया गांव में पेयजल संकट दूर करने के लिए एक नए कुएं का निर्माण कराया जा रहा है। उम्मीद है कि अबकी गर्मियों में इस गांव के लोगों को पानी के लिए जद्दोजहद नहीं करनी पड़ेगी।" यह विरोधाभास और उसकी सच्चाई, इस रिपोर्ट का हिस्सा बन जाता है।
शुद्ध पानी के लिए युद्ध
नौगढ़ और आसपास के इस गांव में आदिवासी समुदाय के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। प्रशासन की नज़रों से दूर, इस बीहड़ में कई सालों से समस्या का कोई हल नहीं निकला। करीब आठ सौ साल पहले बसे इस गांव के लोग अब भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं, और यह बात किसी से छिपी नहीं है।
नौगढ़ ब्लॉक में पूरे साल त्राहि-त्राहि मची रहती है। यहां का हर गांव, हर घर, और हर इंसान एक ही सवाल कर रहा है, "हम कब तक बूंद-बूंद के लिए तरसते रहेंगे?" देवरी कला ग्राम सभा के अंतर्गत आने वाले केल्हड़िया, पंडी, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड जैसे गांवों में पानी की स्थिति भयावह है। नौगढ़ के आदिवासी बहुल इन गांवों में खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जनजातियां रहती हैं।
किसान राजेश खरवार बताते हैं, "पंडी गांव में चार हैंडपंप हैं, लेकिन केवल एक-दो ही काम कर रहे हैं। गर्मियों में लोग सिवान में स्थित कुएं से पानी लाते हैं। यहां पानी के लिए हर कोई परेशान है। गर्मी बढ़ते ही हालात और खराब हो जाते हैं। पूरे गांव की प्यास बुझाने की ज़िम्मेदारी इसी एक हैंडपंप पर है। गांव में दो नए कुएं बनवाए जा रहे हैं। भविष्य में पता चलेगा कि गर्मियों में पानी निकलेगा अथवा नहीं?"
केल्हड़िया के समीपवर्ती गांव सपहर गांव में पहले ज़हरीले सांपों की कॉलोनी थी, लेकिन अब यहां सिर्फ़ पेयजल संकट की कहानी बची है। 30-35 लोगों की आबादी वाले इस गांव के कई परिवार पानी की समस्या के कारण पलायन कर चुके हैं। गनपत, रामसूरत और छोटेलाल का कुनबा सपहर से बिहार के हरसोती गांव में बस गया है। आसपास के आदिवासी बताते हैं हैं कि गांव छोड़ने वालों के जाने के बाद देवरी के लोग सपहर के इकलौते हैंडपंप को भी उखाड़कर ले गए।
दशकों पहले पंडी गांव में पानी की समस्या के चलते मुसहर जाति के लोग करमठचुआं गांव में बस गए थे। करमठचुआं के लालू, शंकर, रामलाल और पन्ना जैसे कई परिवार पानी की तलाश में जंगलों की ओर भागने को मजबूर हो गए। वन विभाग के कारिंदे उन्हें बार-बार जंगल से खदेड़ देते हैं, लेकिन उनके पास वापस लौटने का कोई विकल्प नहीं। कन्हैया कहते हैं, "हमारे पास कोई चारा नहीं है। जहां भी जाते हैं, वन विभाग के लोग हमें खदेड़ देते हैं। कभी पानी के लिए तरसते हैं, तो कभी जंगलों में डंडे खाते हैं। पता नहीं, हमारी ये बदहाली कब खत्म होगी।"
केल्हड़िया के आदिवासी अशोक कोल कहते हैं कि उनके पिता सरजू इस गांव में अपने परिवार की चौथी पीढ़ी के थे। तब लोग प्रकृति के नज़दीक गुजर-बसर करते थे और खेती और वनोपजों पर निर्भर रहते थे। उन दिनों आज के मुकाबले जंगल अधिक चीजें मुहैया कराते थे लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। जीने की ज़रूरतें और शर्तें बदल चुकी हैं। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी ज़रूरी मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति आसान नहीं रही जबकि रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं। मेहनत-मशक्कत के काम भी नियमित रूप से नहीं मिलते जबकि महंगाई और पूंजी का दबाव लगातार बढ़ रहा है।
नौगढ़ को रास नहीं आ रही तरक़्क़ी
नौगढ़ चंदौली ज़िले का वह इलाक़ा है जिसे पूर्वांचल का दूसरा कालाहांडी कहा जाता था। इसी क्षेत्र के कुबराडीह और शाहपुर जमसोत में दो दशक पहले भूख से कई मौतें हुई थीं। यह इलाक़ा तब ज़्यादा चर्चा में आया जब नीरजा गुलेरी के टीवी सीरियल चंद्रकांता ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरी। नौगढ़ इलाक़े में दशकों तक सरकार के समानांतर डकैतों का साम्राज्य रहा। डकैत ख़त्म हुए तो नक्सलियों की आमद-रफ़्त बढ़ती चली गई। इस इलाक़े में कभी मोहन बिंद, घमड़ी खरवार, रामबचन, धर्मदेव, मिश्री आदि डकैतों का सिक्का चला करता था तो कभी यह इलाक़ा ही कामेश्वर बैठा सरीखे कुख्यात नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था। फ़िलहाल दोनों समस्याएं काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई हैं, लेकिन आदिवासियों की मुश्किलें कम नहीं हो सकी हैं।
पूर्वांचल का नौगढ़ इलाका आज भी विकास की रोशनी से वंचित है। यह वही इलाका है जिसे कभी कालाहांडी कहा जाता था, जहां भूख और गरीबी ने न जाने कितने मासूमों की जान ले ली। यह वही इलाका है जहां के जंगल कभी डकैतों और नक्सलियों का गढ़ हुआ करते थे। समय बदला, नक्सली दब गए, डकैतों के नाम केवल किस्सों में बचे, लेकिन आदिवासियों की जिंदगी आज भी बदहाल है।
चंद्रप्रभा के हरे-भरे जंगलों और खूबसूरत झरनों के बीच बसा नौगढ़, जहां कर्मनाशा और चंद्रप्रभा नदियां बहती हैं, प्राकृतिक रूप से समृद्ध है। लेकिन इस समृद्धि का कोई फायदा यहां के लोगों को नहीं मिल सका। विकास योजनाएं कागजों पर बनती हैं, पर उन तक कभी पहुंचती नहीं। बरसात के मौसम में, जब झरने बहते हैं, तो गांववाले उनमें से पानी लाने को मजबूर हैं। लेकिन यह पानी कितना शुद्ध है, इसका अंदाज़ा केवल वही लोग लगा सकते हैं, जिनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं। नौगढ़ के लोगों की आम शिकायत है कि कभी-कभार पानी का टैंकर आता है, पर उसमें भी इंसानियत का दर्द छलक पड़ता है-मछलियां और मेंढ़क पानी में तैरते हैं। लोग उस पानी को छानते हैं, अपने गले से नीचे उतारते हैं और अपनी प्यास बुझाते हैं, जैसे यह उनके जीवन की नियति हो।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार चंदौली ज़िले की आबादी 19, 52,756 थी, जिसमें 10,17,905 पुरुष और 9,34,851 महिलाएं शामिल थीं। 2001 में चंदौली ज़िले की जनसंख्या 16 लाख से अधिक थी। चंदौली में शहरी आबादी सिर्फ़ 12.42 फ़ीसदी है। 2541 वर्ग किलोमीटर है फैले चंदौली ज़िले में अनुसूचित वर्ग की आबादी 22.88 फ़ीसदी और जन-जाति की 2.14 फ़ीसदी है। जिले की शहरी आबादी सिर्फ 12.42% है। अनुसूचित जाति की जनसंख्या 22.88% है, और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 2.14% है। खेती के अलावा कोई दूसरा रोज़गार नहीं है।
चंद्रप्रभा वन्य जीव अभयारण्य का एक बड़ा हिस्सा नौगढ़ में है, जहां उत्तर प्रदेश के सबसे खूबसूरत झरने राजदरी और देवदरी चंद्रप्रभा के जंगलों में हैं। इन झरनों को देखने के लिए बारिश के दिनों में पर्यटकों की भारी भीड़ जुटती है। कर्मनाशा और चंद्रप्रभा नदियां इसी अभयारण्य से होकर बहती हैं।
नौगढ़ इलाक़े में ग़रीबी और तंगहाली जस की तस है। सरकारी राशन के लिए आदिवासी समुदाय वैसे ही दौड़ लगा रहा है, जैसे दशकों पहले लगाया करता था। देवरी कला ग्राम पंचायत में छह गांवों का राशन कोटेदार जिलाजीत यादव के यहां से बांटा जाता है। यहीं से केल्हड़िया और पंडी के लोगों को भी राशन मिलता है, जिन्हें 20 से 25 किमी जंगली रास्ते पार कर आना-जाना पड़ता है।
जंगल और पहाड़ों की वजह से अक्सर नेटवर्क नहीं पकड़ता, तब उन्हें बैरंग लौटना पड़ता है। मशीन पर अंगूठा लगाने और राशन के लिए अगली सुबह फिर दौड़ लगानी पड़ती है। इलाक़े के लोग चाहते हैं कि नोनवट अथवा देवरी कला में मोबाइल टावर लगाया जाए ताकि आदिवासियों की दिक्कत दूर हो सके।
पेयजल संकट सिर्फ़ देवरी कला ग्राम पंचायत में ही नहीं है। औरवाटांड के पूरब तरफ़ सेमर साधो ग्राम सभा के सेमर, होरिला, धोबही, पथरौर, जमसोत से लगायत शाहपुर तक सूखे की मार के साथ पेयजल की समस्या है। देवरी के दक्षिण में मंगरई ग्राम सभा के गहिला, सुखदेवपुर, हथिनी, मगरही की स्थिति भी ऐसी ही है। उत्तर में पहाड़ और जंगल है। 40 से 45 किमी तक कहीं हैंडपंप अथवा कुआं नहीं है।
पश्चिम में लौआरी ग्राम सभा का गांव है जमसोती, गोड़टुटवा, लेड़हा, लौआरी, लौआरी कला। इन गांवों में औरतों और बच्चों को पीने के पानी के लिए जद्दोजहद करते कभी भी देखा जा सकता है। नौगढ़ के विकास के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, जिनमें से ज्यादातर पानी की समस्या हल करने के लिए लगाए गए। लेकिन इन पहाड़ी इलाकों में पानी का स्थायी समाधान अब तक नहीं हुआ। आदिवासी बहुल इस क्षेत्र में पानी के लिए रोज़ाना संघर्ष जारी है।"
आदिवासियों की जिंदगी दोधारी तलवार
नौगढ़ के आदिवासियों की ज़िंदगी आज दोधारी तलवार की तरह हो गई है। एक ओर पेयजल का जबर्दस्त संकट, ग़रीबी, भुखमरी और तंगहाली, तो दूसरी ओर वन और सिंचाई विभाग के फ़र्ज़ी मुक़दमों का बोझ। मज़दूर किसान मंच के ज़िला प्रभारी अजय राय की बातें इस सच्चाई को और गहराई से उजागर करती हैं। उनका कहना है, " नौगढ़ इलाके के आदिवासियों के पास अब कुछ नहीं बचा है। बस, जीने का नाम भर बचा है। नमक-रोटी खाकर किसी तरह पेट भरते हैं और चुआड़ का प्रदूषित पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं। काम-धंधे का नामो-निशान नहीं है। उनके घर अब घर नहीं, झोपड़ियां हैं। बारिश में टपकती, सर्दी में ठिठुरती, और गर्मी में झुलसती झोपड़ियां। इनमें रहने वाले लोग हर दिन संघर्ष की नई कहानी लिख रहे हैं।"
"केल्हड़िया और उसके समीपवर्ती गांव पंडी के लोग शहरों में जाने से डरते हैं। उन्हें लगता है कि वहां उनकी औरतें और बच्चे मानव तस्करी के शिकार हो सकते हैं। इस डर ने उन्हें गांवों में जड़ से बांध दिया है, लेकिन इन गांवों में भी जीवन आसान नहीं। सूखे ने उनकी ज़मीनों को बंजर बना दिया है। खेत वीरान हैं, तालाब सूखे पड़े हैं, और ज़िंदगी बस किसी तरह सांसें ले रही है। सूखे की मार झेल रहे गांवों में नौगढ़ की हालत सबसे भयावह है। यहां आदिवासी न सिर्फ भूख से लड़ रहे हैं, बल्कि अपने अधिकारों और ज़मीन के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। हर दिन उनके लिए एक नई परीक्षा बन गया है," कहते हैं अजय राय।
अजय राय का यह सवाल हमें सोचने पर मजबूर करता है—क्या हम वाकई उस विकास की ओर बढ़ रहे हैं, जहां हर गांव के लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हों? या फिर यह विकास केवल कुछ ऊंचे मीनारों और चमचमाती सड़कों तक सीमित रह गया है? यह समय है, जब हमें अपनी आँखें खोलनी होंगी। केल्हडिहा और इसके जैसे अनगिनत गांवों की पीड़ा को समझना होगा। यह सिर्फ एक गांव का नहीं, बल्कि हमारे सिस्टम का सच है। नौगढ़ के केल्हड़िया की यह कहानी केवल पानी की नहीं, बल्कि उन टूटे वादों और अनदेखे अधिकारों की भी है, जो दशकों से इस इलाके के लोगों से छीने गए हैं। पानी की समस्या ने यहां की पीढ़ियों को गरीबी, पलायन और शोषण के दलदल में धकेल दिया है।"
अजय राय यह भी कहते हैं, " केल्हाड़िया गांव का संघर्ष सिर्फ़ पानी के लिए नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व और गरिमा के लिए है। यह कहानी उन करोड़ों ग्रामीण भारतीयों की भी है, जो आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हैं। सवाल यह है कि क्या इन लोगों को कभी स्वच्छ और सुरक्षित पानी मिलेगा? क्या सरकार और प्रशासन अपने वादों को निभा पाएंगे? क्या सरकार और प्रशासन इन टूटे दिलों और थके हाथों की मदद करेंगे? क्या नौगढ़ के आदिवासी समुदाय को भी साफ़ पानी पीने का अधिकार मिलेगा, या उनका यह संघर्ष यूं ही चलता रहेगा? कब तक बूंद-बूंद पानी के लिए नौगढ़ के लोग जूझते रहेंगे? "
"आदिवासियों की यह कहानी सिर्फ उनकी नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज की है जिसने अपने सबसे वंचित और बेसहारा वर्ग को अपने हाल पर छोड़ दिया है। क्या इनकी आवाज़ कोई सुनेगा? लेबरपेन शुरू होने पर यहां की महिलाएं अस्पताल कैसे पहुंचती होंगी? और जब रात के अंधेरे में किसी की तबियत बिगड़ती होगी, तो क्या होता होगा? केल्हड़िया में बसनेवाले लोग न जाने किस लाचारी में बुरी तरह फंसे हुए हैं, और कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आता? क्या ये कभी अपने हक़ और सम्मान के साथ जी पाएंगे? या फिर उनकी ज़िंदगी यूं ही संघर्ष और बेबसी में सिमट कर रह जाएगी? "
विकास के सपने, हकीकत की जमीन
योगी सरकार ने नक्सल प्रभावित इस क्षेत्र के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं कीं। योजनाओं के नाम पर यहां करोड़ों रुपये आवंटित हुए, लेकिन ज़मीनी हकीकत अब भी वहीं है। पानी के लिए यहां की महिलाएं रोज़ 10 से 15 किलोमीटर का सफर तय करती हैं। झरनों और चुआड़ से पानी लाना उनकी दिनचर्या बन चुकी है। गहरी बोरिंग कराने की मांग पर कोई सुनवाई नहीं होती। फुलवंती देवी और चंद्रावती देवी जैसे लोग पानी के इंतजार में अपनी पूरी उम्र बिता देते हैं।
गर्मी के दिनों में सरकारी टैंकर से आने वाले पानी का बेसब्री से इंतजार किया जाता है। लेकिन यह इंतजार हमेशा अधूरा ही रह जाता है। तत्कालीन जिलाधिकारी संजीव सिंह ने दो साल पहले यहां की समस्याओं के समाधान के लिए "जन-चौपाल" लगाई। आदिवासी बड़ी उम्मीदों के साथ वहां पहुंचे, लेकिन आज भी उनके पास पीने का पानी नहीं है। आवास की योजनाएं अधूरी पड़ी हैं। उनके ऊपर दर्ज झूठे मुकदमों का निस्तारण नहीं हो सका।
पंडी गांव के एक शिक्षक वीरेंद्र खरवार हर दिन पथरीले, जंगली रास्तों से साइकिल चलाकर केल्हाडिया पहुंचते हैं। वह गांव में 25 बच्चों को पढ़ाते हैं, जिनमें 11 लड़कियां और 14 लड़के शामिल हैं। उनका मानना है कि पांच पड़ोसी राज्यों में किसी भी अन्य गांव को उस तरह की कठिनाइयों और उपेक्षा का सामना नहीं करना पड़ता है जैसा कि केल्हाडिया करते हैं। पानी की कमी नई पीढ़ी के भविष्य को बुरी तरह प्रभावित कर रही है।
"केल्हाडिया सहित नौगढ़ तहसील के अधिकांश गांव स्वच्छ पानी तक पहुंचने के लिए संघर्ष करते हैं। फिर भी, भारत के तेजी से विकास और प्रगति के दावे केल्हड़िया जैसे गांवों में वास्तविकता से बहुत दूर हैं, जहां नागरिकों के पास अभी भी पीने का साफ पानी नहीं है। वह बताते हैं कि सरकार की नीतियां इन ग्रामीणों को विफल कर रही हैं, जो पूरी तरह से अभाव में रहते हैं।"
केल्हाड़िया के ग्रामीण ज्यादातर पशुपालक, किसान और मजदूर हैं। जब आस-पास के जल स्रोत सूख जाते हैं, तो उन्हें अपने मवेशियों और फसलों के लिए पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। मानसून के दौरान चुआड़ का पानी को पीने से ग्रामीणों को उल्टी, दस्त, पेट दर्द और टाइफाइड हो जाता है। यह क्षेत्र कई वर्षों से सूखे का सामना कर रहा है। ग्रामीणों’ का दिन चुआड़ से पानी भरने के साथ शुरू और समाप्त होता है।
चंदौली और सोनभद्र के जंगलों में, आठ आदिवासी समुदाय निवास करते हैं, जिनमें कोल, खरवार, भुइया, गोंड, उरांव, पन्निका, धारकर, घसिया और बैगा जनजातियां शामिल हैं। 1996 में, वाराणसी से अलग होने के बाद चंदौली एक अलग जिला बन गया और इनमें से कई जनजातियों को अनुसूचित जाति की सूची में जोड़ा गया।
केल्हाड़िया के ग्राम प्रधान लाल साहब खरवार कहते हैं, "केल्हाडिया, पंडी और औरवाटांड के लोगों को पेजयल संकट से निजात पाने का कोई हल नज़र नहीं आ रहा है। नौगढ़ के आदिवासी अपनी बेटियों को शहर भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, क्योंकि पास में न तो पैसा है, न शहर में किसी से जान-पहचान। सरकारें आती-जाती रहती हैं, और योजनाएं सिर्फ कागजों तक सीमित रहती हैं। हमें वही गंदा पानी पीने को मजबूर किया जाता है।"
चंदौली ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार आनंद सिंह कहते हैं, "नौगढ़ में अगर पानी की समस्या हल हो जाए, तो यहां की आधी समस्याएं खत्म हो सकती हैं। लेकिन ऐसा होना इतना आसान नहीं दिखता। यहां के आदिवासियों के लिए विकास सिर्फ़ एक सपना बनकर रह गया है। यह सवाल सिर्फ़ सरकार से नहीं है, बल्कि हम सब से है। क्या नौगढ़ और वहां के आदिवासियों को भी देश के बाकी हिस्सों की तरह जीने का हक नहीं? क्या वे हमेशा इसी तरह अपनी मूलभूत ज़रूरतों के लिए संघर्ष करते रहेंगे? जब तक इन सवालों का जवाब नहीं मिलता, तब तक नौगढ़ विकास की तस्वीर में एक बदनुमा दाग़ बना रहेगा।"
"आदिवासी बहुल नौगढ़ की ज़मीन पर पानी का हर बूंद मानो सोने के बराबर है। यहां हर दिन पानी जुटाने के लिए जो संघर्ष होता है, वह किसी युद्ध से कम नहीं है। महिलाएं और बच्चे अपने सिर पर मटके और बाल्टियां लिए पहाड़ों और जंगलों का रास्ता तय करते हैं, ताकि चुआड़ या किसी अन्य जलस्रोत से पानी ला सकें। कई बार यह सफर खतरनाक भी साबित होता है, क्योंकि जंगली जानवरों का डर हमेशा बना रहता है। चुआंड का पानी पीने वाले अक्सर बीमार हो जाते हैं, क्योंकि वो भी प्रदूषित होता है और स्थानीय प्रशासन कभी भी उस पानी की जांच नहीं कराता।"
पत्रकार आनंद सिंह बताते हैं, "नौगढ़ के लोगों को पिछले कई दशकों से आश्वासन दिए जा रहे हैं। सरकारें आती हैं, घोषणाएं होती हैं, योजनाएं बनती हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत नहीं बदलती। पानी के नाम पर बनी योजनाओं में भ्रष्टाचार इतना गहरा है कि इनका लाभ लोगों तक पहुंच ही नहीं पाता। पानी की कमी से नौगढ़ के गांवों में न सिर्फ़ स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ी हैं, बल्कि रोजगार और शिक्षा पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ा है। गर्मियों के महीनों में जब चुआड़ सूख जाता है, तो कई परिवार गांव छोड़कर पलायन करने पर मजबूर हो जाते हैं।"
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद खरवार, जो नौगढ़ से निकलकर दिल्ली में अपनी पहचान बना चुके हैं, बड़ी पीड़ा के साथ कहते हैं, "चंदौली ज़िले के दुर्गम इलाक़े नौगढ़ में विकास के नाम पर सालों-साल करोड़ों रुपये ख़र्च किए गए। सबसे अधिक पैसा पानी की समस्या सुलझाने में बहाया गया। लेकिन इस बहाए गए पैसे का नतीजा क्या हुआ? यहां पैसा तो पानी की तरह बहा, लेकिन लोगों की प्यास अब भी नहीं बुझ पाई।"
अरविंद कहते हैं, "नौगढ़ के लोग इस आस में हैं कि आखिर कब दूर होगा यह संकट और कब खत्म होगी पीने के पानी के लिए उनकी जंग? यह केवल नौगढ़ का मसला नहीं है, बल्कि यह सवाल उस व्यवस्था पर भी है, जो लोगों के मूलभूत अधिकार—पानी तक की व्यवस्था नहीं कर पाती। सरकार और प्रशासन को इस समस्या को प्राथमिकता पर लेते हुए स्थायी समाधान की दिशा में काम करना होगा। यह केवल चुआड़ या टैंकर से पानी पहुंचाने की बात नहीं है, बल्कि यह उन सपनों को पूरा करने की बात है, जो पानी की एक बूंद के इंतजार में धुंधले होते जा रहे हैं। केल्हड़िया के लोगों की पुकार सुनने वाला कोई नहीं है।"
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। चंदौली के सुदूरवर्ती गांव केल्हड़िया से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)
"पानी की बहुत परेशानी है हमें। साफ़ पानी तो मिलता ही नहीं। हमारी लाचारी देखिए। पहाड़ के दर्रे से रिस-रिसकर निकलने वाले पानी (चुआड़) से प्यास बुझानी पड़ती है। शायद हमारे नसीब में है चुआड़ का पानी।" 65 वर्षीया कुंती देवी, जो चंदौली ज़िले के नौगढ़ ब्लॉक के दुर्गम गांव केल्हड़िया में रहती हैं, यह कहते-कहते भावुक हो जाती हैं। गांव से लगभग एक फर्लांग दूर, चुआड़ से इंसान और जानवर एक ही कतार में खड़े होकर अपनी प्यास बुझाते हैं। दिन में गाय-भैंसें और रात में जंगली जानवर जैसे भालू, बारहसिंघा, लंगूर, हिरन, लोमड़ी और खरगोश यहां पानी पीने आते हैं। आसपास कोई और जलस्रोत नहीं है।
केल्हाड़िया की कुंती जब अपना दर्द बयां करती हैं तो उनकी आवाज़ रूधने लगती हैं और उनकी आंखों में उतरने वाली नमी किसी भी संवेदनशील दिल को झकझोर सकती है। इस दुर्गम गांव की कहानी, जहां हर बूंद पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है, विकास के तमाम सरकारी दावों पर सवाल उठाती है। केल्हड़िया में पानी का एकमात्र स्रोत है पहाड़ के दर्रे से बहने वाला प्राकृतिक जल स्रोत, जिसे स्थानीय नागरिक इसे "चुआड़" कहते हैं।
कुंती देवी बताती हैं, "हम पानी के लिए रोज़ाना इस चुआड़ पर जाते हैं। वहीं पीते हैं, वहीं नहाते हैं। गर्मियों में जब चुआड़ सूख जाता है, तो हमारे पास कोई चारा नहीं बचता।" केल्हड़िया गांव चौतरफा पहाड़ियों से घिरा है। विकास के नाम पर जीओ का एक टावर और कुछ सूखी बंधियां और शो-पीश बने दो हैंडपंप हैं। लेकिन फरवरी-मार्च में जब चुआड़ सूख जाता है, तो केल्हड़िया गांव के ज्यादातर लोग महिलाओं, बच्चों और मवेशियों को लेकर मूसाखाड़ बांध अथवा कर्मनाशा नदी की तलहटी में पलायन कर जाते हैं। छप्पर डालकर बरसात का इंतजार करते हैं। बारिश होने पर जब चुआड़ फिर पानी से भर जाता है, तब वो गांव लौटते हैं। यह सिलसिला हर साल दोहराया जाता है।"
"उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ साल पहले हैंडपंप लगवाने के लिए पत्थर काटने वाली मशीन मंगवाई। बहुत सारी कोशिश के बावजूद, बोरिंग फेल हो गई। तब से कोई और प्रयास नहीं हुआ। सरकार ने "हर घर जल" योजना के तहत गांव में पानी पहुंचाने का वादा किया था, लेकिन तीन साल गुजर गए, लेकिन यहां एक बूंद पानी नहीं पहुंचा-बताती हैं कुंती देवी।
महिलाओं का संघर्ष
केल्हड़िया गांव की महिलाएं और बच्चे रोज़ाना लगभग एक फर्लांग पैदल चलकर चुआड़ का पानी लाने के लिए मजबूर हैं। इस संघर्ष के दौरान वे शारीरिक दर्द को सहते हुए अपने परिवारों के लिए पानी लाती हैं। 60 वर्षीय नौरंगी देवी कहती हैं, "मैं रोज़ 8-10 बार चुआड़ तक जाती हूं। इससे मेरे घुटने और पीठ का दर्द बढ़ गया है, लेकिन अगर मैं पानी नहीं लाऊं, तो हमारे बच्चे कैसे जिएंगे? हमारे लिए बीमारी या आराम का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि अगर हम पानी नहीं लाएंगे, तो हमारे बच्चे भूखे और प्यासे मर जाएंगे, " नौरंगी देवी की आवाज़ दर्द और बेबसी से भरी हुई थी।
नौरंगी देवी का हर दिन चुआड़ से पानी लाने में बीत जाता है। पहाड़ के दर्रे से कभी साफ पानी निकलता है तो कभी मटमैला, लेकिन प्यास बुझाने के लिए कोई और चारा नहीं। वह कहती हैं, "हम ग़रीब आदमी हैं। मजूरी करते हैं। काम मिल गया तो ठीक, नहीं तो पानी के इंतज़ाम में जुट जाते हैं। हमें क्या पता, मोदी-योगी की सरकार ने कुछ किया या नहीं? प्यास लगती है तो हम चुआड़ की ओर भागते हैं और गर्मियों में यदा-कदा टैंकर से पहुंचता है तो डिब्बों को लाइन में लगा देते हैं।"
फुलवंती देवी, जो 65 साल की विधवा हैं, अपनी कमजोर शरीर के बावजूद चुआड़ से पानी निकालकर घर तक लाती हैं। उनके बेटे संतोष और छोटेलाल मजदूरी पर चले जाते हैं, और पानी भरने की जिम्मेदारी अकेले फुलवंती पर आ जाती है। प्लास्टिक के खाली डिब्बे की ओर इशारा करते हुए शीला कहती हैं, "देख लीजिए, हमारे पास कितना पानी है? यहां तो हम तेल की तरह पानी का इस्तेमाल करते हैं। जैसे सब्ज़ी में आप लोग बचा-बचा कर तेल डालते हो हम पानी बचा-बचाकर पीते हैं। मज़दूरी से जो पैसा मिलता है उससे दो जून की रोटी नहीं, पहले पानी का इंतज़ाम करते हैं। अभी तो चुआड़ का पानी काम आ रहा है। कुछ दिनों बाद टैंकर के पानी के लिए संघर्ष करना होगा। यहां दो-तीन दिन में एक बार ही पानी का टैंकर आता है।"
फुलवंती कहती हैं, "गांव में हैंडपंप लगाने के लिए कई बार बोरिंग कराई गई, लेकिन पानी नहीं निकला। लगता है कि हमारे नसीब में पानी है ही नहीं। एक हज़ार फीट बोरिंग हो तो शायद पानी मिल जाए। लेकिन हमारे पास पैसे नहीं। सरकार अगर गहरी बोरिंग करवा दे तो हमारी यह रोज़-रोज़ की मुश्किल खत्म हो सकती है।"
केल्हड़िया की 56 वर्षीय चंद्रावती देवी का जीवन भी पानी की तलाश में बीतता है। उनका परिवार खेती और पशुपालन पर निर्भर है, लेकिन पानी के बिना ये काम मुश्किल हो जाते हैं। वह कहती हैं, "सरकारी टैंकर का इंतजार करना हमारी मजबूरी है। गर्मी के दिनों में पानी का इंतजार कभी-कभी दो से चार दिन तक करना पड़ता है। अगर हमारे गांव में पानी आ जाए, तो हमारी सारी समस्याएं हल हो जाएंगी।"
चुआड़ से रिस रहा पानी भर रही एक महिला से हमने बात करनी चाही तो उन्होंने घूंघट कर लिया। इशारे से उन्होंने हमसे बात नहीं करने की इच्छा ज़ाहिर की। तब वहां मौजूद एक नौजवान चंद्रमोहन ने कहा, "नेता लोग इलेक्शन के समय आते हैं। बोलकर जाते हैं कि पानी ज़रूर आएगा। हमारे वोट से वो चुनाव जीत जाते हैं, फिर लौटकर आते ही नहीं। कोई नेता और अफसर कभी हमारे गांव में आता है तो समूची ग्रामीण जनता एक साथ यही मांग करती है कि हमारी पानी की समस्या दूर कर दो। केल्हड़िया के लोगों की मजबूरी है, वो वोट भी देते हैं, पर सुनता कोई नहीं है।"
पीढ़ियों से चली आ रही किल्लत
केल्हड़िया में पानी की किल्लत मुसीबत का सबब बनकर रह गई है। पानी की परेशानी के चलते लोग अपनी यहां बेटियों की शादी नहीं करना चाहते। केल्हड़िया की औरतें अपना पूरा समय चूल्हा-चौका के बाद पानी ढोने में ही लगा देती हैं। दरअसल, केल्हड़िया में पीने के पानी की किल्लत पीढ़ियों से चली आ रही है। हर किसी को पानी मिल सके, इसके मद्देनज़र ग्राम प्रधान लाल साहब ने कार्ड बनवा दिया है और उसी के आधार पर लोगों को पानी मिलता है। तीन दिन के लिए हर व्यक्ति को एक साथ 45 लीटर पानी दिया जाता है, यानी रोज़ाना 15 लीटर। केल्हड़िया में टैंकर के पहुंचते ही ग्रामीण अपने-अपने डिब्बे और बाल्टी लेकर दौड़ पड़ते हैं और ज़रूरत का पानी इकट्ठा कर घरों में रख लेते हैं।
केल्हड़िया के लोगों को व्यवस्था से शिकायत है, "आज़ादी के बाद से आज तक पानी की समस्या कोई सरकार खत्म नहीं कर पाई। हर चुनाव में यहां नेता पानी पहुंचाने का वादा करते हैं, लेकिन बाद में वो हमारे गांव में झांकने तक नहीं आते। पुरखों के समय से यहां पीने के पानी की समस्या है। दरअसल, पानी के संकट से सिर्फ केल्हड़िया ही नहीं, समूचा नौगढ़ इलाका त्रस्त है। कुंती, चंद्रावती, नौरंगी, फुलवंती जैसी और भी महिलाएं हैं, जिनका जीवन पानी जुटाने के संघर्ष में बीत रहा है।
केल्हड़िया से करीब दो मील के फासले पर छानपातर गांव के पास कर्मनाशा नदी बहती है। यहां एक खूबसूरत झरना भी है। कर्मनाशा नदी, केल्हड़िया गांव के लोगों के लिए जीवनदायिनी हो सकती थी, लेकिन अब सिर्फ़ बहते हुए पानी का एक दृश्य भर है। इस नदी का पानी पीने या उपयोग करने लायक नहीं है। गांव के एक बुजुर्ग कहते हैं, "कर्मनाशा हमारे लिए बेमतलब है। ये नदी बस देखने के लिए है, इसका पानी भी हमारे नसीब में नहीं है।"
केल्हड़िया गांव की सबसे शिक्षित महिला हैं प्रीति। उन्होंने 12वीं की परीक्षा पास कर ली है और गांव की पानी की समस्याओं का समाधान सुझाती है। गांव में एक कुआं है, लेकिन उसका पानी दूषित है और वह पीने लायक नहीं है। केल्हड़िया में 350-400 फीट गहरी बोरिंग के बावजूद हैंडपंप स्थापित करने के प्रयास विफल रहे हैं। पानी कुछ महीनों के लिए आता है, फिर रुक जाता है। "यदि हम 900 से 1000 फीट तक ड्रिल करते हैं, तो हमें एक वर्ष तक पानी मिल सकता है। हम मांग करते हैं कि सरकार यहां गहरे बोर ड्रिल करे। एक बार पानी उपलब्ध हो जाने पर, हमारी आधी समस्याएं हल हो जाएंगी, और आधी आबादी पानी लाने के दैनिक संघर्ष से मुक्त हो जाएगी, " वह सुझाव देती है।
55 वर्षीय भोला कोल हमें बकरी चराते मिले। वह बताते हैं, "हम पीढ़ियों से चुआड़ का पानी पीने को मजबूर हैं। चुआंड़ से इतना कम पानी निकलता है कि एक बाल्टी भरने में घंटों लग जाते हैं। गांव की सारी औरतें सुबह, शाम और दोपहर सिर्फ पानी ढोने में ही लगा देती हैं। दिसंबर तक चुआड़ सूख जाते हैं, और उसके बाद हमें जंगली जानवरों के बीच जंगल में पानी की तलाश में जाना पड़ता है। यह संघर्ष सालों से चल रहा है। हमें अपनी सरकार और सिस्टम पर भरोसा था, लेकिन सालों से हमारे साथ जो हो रहा है, वह हमें सवाल करने पर मजबूर करता है। क्या हम इंसान नहीं हैं? क्या हमारे बच्चों का भविष्य कोई मायने नहीं रखता? हम कितनी पीढ़ियों तक ऐसे ही जीते रहेंगे?"
इन सबके बावजूद, गांव वालों में उम्मीद की एक हल्की किरण बाकी है। "हमने अब तक हार नहीं मानी है। हमारी लड़ाई जारी रहेगी। हम अपनी आवाज़ को और बुलंद करेंगे," भोला कोल के ये शब्द संघर्ष और उम्मीद का प्रतीक हैं। केल्हाड़िया के इन आदिवासियों का जीवन हमें यह सिखाता है कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी संघर्ष की लौ बुझने नहीं दी जाती। उनका हर दिन एक नई चुनौती के साथ शुरू होता है, लेकिन हर कदम उनके हौसले और जीवटता की कहानी कहता है।
केल्हड़िया गांव की तमाम महिलाएं हर दिन चुआड़ से पानी लाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालतीं हैं। चुआड़ पर पानी भरने के लिए लंबी लाइनें लगती हैं, और पानी का इंतजार करते हुए बच्चों के रोने की आवाज़ें आम हैं। इस गांव की महिलाएं कहती हैं, "वो हर दिन सूरज उगने से पहले घर से चुआड़ पर पानी भरने के लिए निकलती हैं, ताकि कम से कम बच्चों को पानी मिल सके। जब देर हो जाती है, तो चुआड़ का पानी और गंदा हो जाता है। कई बार तो पानी की लड़ाई भी हो जाती है।"
यहां महिलाओं आवाज़ में दर्द साफ झलकता है। चुआड़ में खुले में स्नान करने पहुंची लीलावती ने अपनी व्यथा सुनाते हुए कहा, "पुरुषों के सामने पानी भरने या नहाने में शर्म आती है। पर क्या करें, पानी लाना हमारी मजबूरी है। बच्चों को नहलाना हो या खाना बनाना, सब कुछ इसी गंदे पानी पर निर्भर है।"
आजादी मिली, लेकिन प्यास नहीं बुझी
नौगढ़ प्रखंड का केल्हड़िया गांव बनारस के करीब 130 किमी दूर है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। बेहद घनी आबादी और प्रदूषण की मार झेल रहे बनारसियों को नौगढ़ इलाके के जंगल ही आक्सीजन सप्लाई करते हैं। चंदौली जिला मुख्यालय से 80 किलोमीटर दूर, विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं और सदाबहार जंगलों के बीच स्थित केल्हाड़िया गांव, आज़ादी के कई दशक गुजर जाने के बाद भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। यहां के ग्रामीण हर रोज़ प्यास और जीवन की कठोर सच्चाइयों से जूझते हैं। इस छोटे से गांव में समस्याएं पहाड़ जितनी बड़ी हैं।
बिजली, सड़क, स्कूल, आंगनबाड़ी, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं का तो नामो-निशान नहीं है, लेकिन सबसे दर्दनाक समस्या है स्वच्छ पेयजल का न मिलना। यहां के लोग पीढ़ियों से "चुआड़" के पानी पर निर्भर हैं। दरअसल केल्हड़िया गांव के पूर्वी छोर पर पहाड़ी के दर्रे से रिसने वाले पानी का पतला स्रोत निकलता हैं, जो रिस-रिसकर एक छोटे से गड्ढे में भरता है। चुआड़ का यह पानी साल के कुछ ही महीनों तक चलता है।
केल्हड़िया तक पहुंचना अपने आप में एक अनोखा अनुभव साबित होता है। चंदौली के नौगढ़ बांध की ओर जाने वाली सड़क, जो घने और मनमोहक जंगलों से होकर गुजरती है, यात्रा को किसी रोमांचक कहानी जैसा बना देती है। सर्पीले मोड़ों और ऊंचाई-ढलानों से भरी यह सड़क आपको प्रकृति के इतने करीब ले आती है कि मन हरियाली और जंगल की शांति में डूब जाता है।
जंगल के किनारे-किनारे दौड़ते लंगूरों के परिवार, छलांग लगाते हुए पेड़ों पर चढ़ते हैं और जैसे आपका स्वागत करते हैं। सड़कों पर बने छलके दूर से सीमेंट के मोटे पाइप जैसे दिखते हैं, लेकिन उनका पानी जंगल की नमी और जड़ों का जीवन संजोए होता है। नौगढ़ इलाके की सुंदरता जितनी मोहक है, उतनी ही भयावह भी। शाम होते ही भालुओं की चर्चा होने लगती है। भालू, जो अक्सर इस इलाके में दिख जाते हैं, किसी पुराने किस्से की तरह आपके दिमाग में डर और रोमांच भर देते हैं। लोगों का कहना है कि भालू अकेले होने पर शायद ही हमला करे, लेकिन जब वह अपने परिवार के साथ होता है, तो उसे खतरा महसूस होता है। यही डर उसे हिंसक बना देता है।
केल्हड़िया पहुंचने के लिए पंडी गांव से होकर जाना पड़ता है। सड़क के दोनों ओर मिट्टी के घर हैं, जो अपने सलीके से लिपे-पुते रूप में गांव की संस्कृति और मेहनत का प्रतीक लगते हैं। पंडी गांव का एकमात्र पक्का भवन प्राथमिक विद्यालय है, जो पिछले एक दशक से बंद पड़ा है। उसके बगल में रिलायंस जिओ का टावर खड़ा है-पुराने और नए समय का एक अजीब सा मेल।
बारिश के दिनों में केल्हड़िया आएंगे तो महिलाएं धान रोप रही होती हैं और पुरुष बैलों के साथ खेतों की जुताई कर रहे होते हैं। कथाकार मुंशी प्रेमचंद के दो बैलों की कहानी यहां जीवंत नजर आती है। बैलों के साथ खेत जोतने वाले किसान की छवि आज भी इस इलाके की पुरानी परंपरा और कृषि संस्कृति को जिंदा रखे हुए है। उत्तर प्रदेश के अधिकांश इलाकों में मशीनों ने बैलों की जगह ले ली है, लेकिन चंदौली के नौगढ़ इलाके में यह दृश्य एक अलग ही कहानी कहता है।
जंगल में घुसते ही उसकी भव्यता और उसकी तकलीफें दोनों साफ़ नजर आने लगीं। कहीं-कहीं गाय और भैंसों के झुंड चरते हुए दिखे, लेकिन इस बार जंगल की हरीतिमा नहीं, बल्कि सूखा ही छाया हुआ था। इस साल सारा इलाका सूखे की मार झेल रहा है। नौगढ़ बांध के बावजूद, पानी केल्हड़िया तक नहीं पहुंच पाता। सारा पानी नीचे बहकर चला जाता है। और फिर लिफ्ट इरिगेशन के अलावा सिंचाई के साधन का नामोनिशान नहीं था। जंगल के बीच अचानक सड़क खत्म हो गई और एक पथरीली पगडंडी दिखाई दी।
झाड़ियों से घिरी पगडंडी पर आधा किलोमीटर चलने के बाद एक छोटी सी बंधी दिखी जो बारिश के बाद ही सूख गई थी। फिर, सामने कच्चे घरों और झोंपड़ियों का वह गांव दिखाई दिया—केल्हड़िय़ा। एक ओर घना जंगल था, और दूसरी ओर पहाड़। यह नौगढ़ प्रखंड का लगभग अंतिम गांव है। केल्हड़िया तक पहुंचने के रास्ते का संघर्ष केवल एक भौगोलिक चुनौती नहीं थी, यह एक ऐसे समाज की तस्वीर थी, जहां विकास के नाम पर केवल वादे किए गए, पर ज़मीनी हालात ने इन वादों को मुंह चिढ़ाया।
केल्हड़िया गांव के ज्यादातर दरवाजे पर जाले लटक रहे थे, मानो समय की धारा ने यहां का हाल बेहाल कर दिया हो। गांव में पहुंचने पर एक मचान पर गहरी नींद में सोए हुए एक व्यक्ति के अलावा कोई आदमी नहीं दिखा। घरों में कुछ महिलाएं और बच्चे कामकाज में व्यस्त थीं। ऐसा लग रहा था जैसे यह इलाका समय की पकड़ से बाहर हो, जहां जीवन एक थम-सी गई कहानी हो। थोड़ा आगे बढ़ने पर 11 वर्षीया रिंकल एक लड़की फूस की मड़ई में साफ-सफाई कर रही थी। इसी मड़ई में उसकी बकरियां पलती हैं। आसपास स्कूल नहीं होने की वजह से रिंकल भी नहीं पढ़ पाई और वह दिन में बकरियां चराती है।
रिंकल को भले ही ए...बी...सी...डी...का ज्ञान नहीं था, लेकिन वो समझदार लड़की थी। पढ़ाई क्यों नहीं की, पूछने पर उसने कहा, "यहां भला कौन अध्यापक आएगा? " रिंकल की बात ने दिल को झकझोर दिया। सचमुच, करीब 20 मील दूर नौगढ़ ब्लाक मुख्यालय से चलकर केल्हड़िया आना और वापस जाना किसी सजा से कम नहीं। आमतौर पर इस जंगली इलाके में उन्हीं मुलाजिमों की पोस्टिंग होती है, जिन्हें आला अफसर पनिशमेंट देते हैं।"
आज़ादी के बाद गांवों के विकास के जो सपने देखे गए थे, वे केल्हड़िया में धुंधले हो गए हैं, और हम, उनके पास पहुंचकर, उनकी कठिनाइयों को समझने की कोशिश कर रहे थे। लीलावती, जो गांव की बुजुर्ग महिला हैं, कहती हैं, "हमने अपनी ज़िंदगी पानी के लिए संघर्ष करते हुए बिता दी। एक दशक पहले यहां बिजली पहुंची थी और कुछ साल पहले जिओ का टावर लगा था, लेकिन गांव में जिनको सबसे ज़रूरी चीज़ चाहिए थी, वह पानी और स्वास्थ्य सुविधाएं, वो आज तक नहीं पहुंची। हमारे बच्चों का भविष्य भी ऐसा ही होगा, अगर कुछ नहीं बदला।"
केल्हड़िया में करीब 85-90 लोग रहते हैं, जो कोल समुदाय के हैं, इनकी दयनीय हालत ने मन को हिला दिया। इस गांव में सिर्फ एक छोटा सा कमरा ईंट का है, बाकी सब कच्चे घर हैं, जो झोंपड़ियों की तरह दिख रहे थे। पानी की समस्या यहां इतनी विकट है कि गांववाले चुआड़ से पानी लाते हैं और गर्मी के मौसम में दो कोस दूर जानवरों को पानी पिलाने के लिए जाते हैं।
गांव के उत्तर में पीपल के विशाल पेड़ के पास एक बोरिंग हुई है जो चार सौ फुट गहरी है, लेकिन उसमें भी पानी नहीं है। संतोष से मुलाकात हुई तो वो अपनी बकरियां चला रहे थे। उनकी आंखों में एक गहरी थकान थी। वह कहते हैं, "न यहां पानी है, न स्कूल है, आवास का कोई पता नहीं। बस किसी तरह जीवन काट रहे हैं।"
संतोष कहते हैं, "हमारे पुरखे पशुओं के पेशाब और गोबर से सना पानी छानकर पीते थे। हालात ज्यादा नहीं बदले हैं। गर्मियां आते ही गांव की औरतों का दिल घबराने लगता है, लेकिन मटमैला पानी पीना पड़ता है। स्थानीय प्रशासन गर्मियों में टैंकर से पानी की सप्लाई करता है, लेकिन टैंकर में कभी मछली और तो मेढक भी आ जाते हैं। देखकर मन गिनगिना जाता है, लेकिन क्या करें, पीना पड़ता है।" उनकी आवाज़ में छिपी वेदना केवल शब्द नहीं, बल्कि एक चीख है, जो सिस्टम की नाकामी को आईना दिखा रही है।
30 वर्षीया आरती कोल निरक्षर महिला हैं, लेकिन वो पूरे दिन दूध उबालकर खोवा बनाने का काम करती हैं। इनके पति राजेश हर सुबह खोवा बेचने नौगढ़ बाजार चले जाते हैं। आरती कहती हैं, "हमारा मायका जमसोती में है, लेकिन किस्मत हमें उस गांव में खींच लाई, जहां एक-एक बूंद पानी के हर रोज संघर्ष करना पड़ता है।"
केल्हड़िया की पगडंडियों पर दिन के किसी भी वक़्त बस दो चीज़ें ही नज़र आती है। एक तो बकरी चराते वो बच्चे, जिन्हें स्कूल में होना चाहिए और दूसरे बड़े-बड़े पानी के बर्तन ढोतीं महिलाएं। पानी के इंतज़ाम में केल्हड़िया के बहुत से बच्चे और बच्चियां भी अपने सपनों का गला ख़ुद घोंट देते हैं। लड़कियों पर पानी की ज़रूरत पूरा करने का बोझ इतना हावी हो गया है कि वो आगे के बारे में सोच ही नहीं पा रही हैं। तीन साल की एक बच्ची शिवानी जो ठीक से अपना नाम भी नहीं बता पाती वो भी पानी का डिब्बा लिए चुआड़ तक पहुंच जाती है।
नौगढ़ के गांवों में बच्चे भी पानी के संकट का बड़ा खामियाजा भुगत रहे हैं। कई बार पानी लाने के लिए उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है। दो साल पहले एक्टिविस्ट बिंदू सिंह केल्हड़ियां आई तो उन्होंने बच्चों को पढ़ाने के लिए वीरेंद्र खरवार नामक आदिवासी युवक की तैनाती की। वीरेंद्र यहां एक पेड़ के नीचे कुछ बच्चों को पढ़ाते हैं। इन बच्चों में एक है उर्मिला और उसकी छोटी बहन पूनम। उर्मिला बताती है, "पढ़ाई से पहले पानी ढोना ज़रूरी है। अगर पानी नहीं होगा, तो खाना कैसे बनेगा?"
केल्हड़ियां गांव में कई घंटे गुजारने के बाद कुछ महिलाएं और बच्चे जुट गईं। सबके मन में एक ही सवाल था कि हम किसी सरकारी योजना के तहत यहां आए हैं, इसलिए सबसे पहले उन्होंने पानी की समस्या पर बात की और फिर बच्चों के भविष्य को लेकर चिंता जताई। एक औरत अपनी बकरियों के चोरी चले जाने की बात बताते-बताते रोने लगी।
राजेश कोल बताते हैं, "मेरे पूर्वज सात पीढ़ियों से यहां बसे हैं, और यह गांव किसी बाहरी ताकत से नहीं, बल्कि उनकी मेहनत और संघर्ष से अस्तित्व में आया था। लेकिन आज, हालत यह हो गई है कि बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। केल्हड़िया के लोग उम्मीद से ज्यादा कुछ नहीं मांगते, बस अपनी ज़िंदगी को थोड़ा बेहतर बनाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि किसी तरह पानी की समस्या सुलझ जाए, सड़क का निर्माण हो, और बच्चों को शिक्षा का हक मिले। लेकिन क्या यह उम्मीदें कभी पूरी होंगी? क्या कभी इन बुनियादी सुविधाओं का सपना सच होगा? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।"
"जंगल में बसी यह बस्ती अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए कई बार लड़ी है, और इस गाँव की समस्याएं उसी संघर्ष की निरंतरता की तरह हैं। पानी, सड़क और शिक्षा के अभाव में, यहां के लोग अपनी जिंदगी की लड़ाई अकेले लड़ रहे हैं। कई बार सरकारी योजनाएं आईं, लेकिन उनका असर जमीन पर नहीं दिखा। शौचालय बने थे, लेकिन पानी की कमी के कारण उनका कोई उपयोग नहीं हो पा रहा था। आवास की मंजूरी भी मिली थी, लेकिन वह भी सिर्फ कागजी हद तक थी। यह सब दर्शाता है कि सरकारी योजनाएं जब तक जनता के दिल से जुड़ी नहीं जातीं, तब तक उनका कोई असर नहीं हो सकता, " कहते हैं राजेश कोल।
लड़कों की शादियों में बाधा
22 वर्षीय चंद्रमोहन कोल की शादी इस वजह से नहीं हो पा रही है कि पेयजल संकट के चलते कोई अपनी बेटी की शादी केल्हड़िया गांव में नहीं करना चाहता है। चंद्रमोहन कहते हैं, "हमने बचपन में पंडी गांव के प्राइमरी स्कूल में दाखिला लिया था। वहां जाने के लिए जंगल से गुजरना पड़ता था। भालुओं के खौफ के चलते हमने स्कूल जाना छोड़ दिया। अब सोचते हैं कि काश हमारे गांव में भी स्कूल होता और हम पढ़-लिख लिए होते। एक दशक पहले हमारे गांव में पानी का ज्यादा संकट नहीं था। तब मूंछ पर काली रेखा उभरते ही बच्चों कि शादियां हो जाया करती थीं। हमारे गांव में तमाम नौजवान कुंवारे हैं और कोई अपनी बेटी यहां भेजने के लिए राजी नहीं है। हम अनपढ़ हैं। मजूरी कर सकते हैं। गाय-भैस चरा सकते हैं। इसके अलावा कोई दूसरी बात हमारे जेहन में नहीं आती।"
"चुनाव के मौके पर इनके वोट खरीदने के लिए लोग पैसा और बांटने के लिए साड़ी लेकर नेता आते हैं। चुनाव खत्म होने के बाद पांच साल तक हम उनका इंतजार करते रह जाते हैं। लगातार राजनीतिक छलावे के शिकार होकर हम कई बरसों से सड़क, पानी और स्कूल जैसी बुनियादी चीजों का इंतजार कर रहे हैं। हमारा संकट केवल पानी का नहीं, बल्कि उन उम्मीदों और वादों का भी है, जो सालों से केल्हड़िया के लोगों को दिए गए, लेकिन कभी पूरे नहीं हुए," कहते हैं चंद्रमोहन।
खप गईं प्यास से बेहाल कई पीढ़ियां
चंदौली जिला मुख्यालय से करीब 50 मील दूर आदिवासी बहुल केल्हड़िया गांव में प्यास की गवाही देते दर्जनों चेहरों पर चिंता की गहरी लकीरें हैं तो वहीं सत्तापक्ष के नेताओं के प्रति जबर्दस्त गुस्सा भी है। आदिवासियों का आंकलन है कि जनवरी महीने के आखिर तक पहाड़ का पानी भी खत्म हो जाएगा। तब हर साल की तरह फिर एक बड़ी चुनौती खड़ी होगी। गर्मी के दिनों में टैंकर से पीने का पानी आता है और राशन कार्ड के ज़रिए बांटा जाता है। जिनते सदस्य उतना गैलन पानी।
केल्हड़िया के संतोष कहते हैं, "हमारी कई पीढ़ियां यहीं खप गईं, लेकिन पानी किल्लत जस की तस बनी रही। गुलामी के दौर में भी और आज़ादी के बाद भी। हम अफसरों की देहरी पर मत्था टेकते रहे, पर आश्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिला। इस गांव में आज तक न तो कोई कलेक्टर आया और न ही कोई बड़ा अफसर। केल्हड़िया के लोग फिलहाल चुआंड के पानी के सहारे ज़िंदा है। आदिवासियों की फरियाद सुनने के लिए कोई तैयार नहीं हैं।"
"हमने सुना है कि सरकार बुलेट ट्रेन चलाने जा रही है। शहर स्मार्ट हो रहे हैं। नौगढ़ के हर गांव में हर घर तक पानी पहुंचाया जाना है, लेकिन इन बातों से हमें क्या मतलब। हम तो इलाके के विधायक कैलाश खरवार से अपने ज़रूरत भर के लिए पानी मांग रहे हैं। हमारी परेशानियां दशकों पुरानी हैं। हमें इंतज़ार है ऐसे नेता की जो हमें साफ मुहैया कराए।"
संतोष के पास रहने के लिए न ठीक घर है, न शौचालय और न पीने का साफ पानी। इनका कुनबा बस किसी तरह गुजर-बसर करने के लिए मजबूर है। महुआ और मज़दूरी के सहारे ज़िंदगी की नैया खेते-खेते हार चुका इनका परिवार आज भी हाशिये पर खड़ा है। वह कहते हैं, "हमने बचपन में सुना था कि जल ही जीवन है। लेकिन ऐसे जीवन का क्या मतलब जब पानी के लिए इंसान को हर रोज़ जंग लड़नी पड़े। केल्हड़िया के लोगों का नसीब ही खराब है कि आज़ादी के दशकों गुजर जाने के बाद भी हमें पीने का साफ पानी नसीब नहीं हो पा रहा है।"
संघर्ष, विडंबना और खामोशी
केल्हड़िया गांव में छोटी जोत के किसान हैं, जिनकी जिंदगी की सच्चाई यही है कि मुश्किलों से ही उनका गुज़ारा चलता है। एक बुजुर्ग किसान राममूरत से बात करते हुए पता चला कि बीमार पड़ने पर वे नौगढ़ जाने के बिना दवा नहीं ले सकते, और राशन लेने के लिए उन्हें दस मील (15 किलो मीटर) ऊपर देवरी जाना पड़ता है। यही हाल उन योजनाओं का भी है जो लाखों की लागत से बनती हैं—लेकिन उनका कोई लाभ नहीं मिलता। विकास के नाम पर यहां केवल एक जियो कंपनी का टावर ही दिखाई देता है।
केल्हड़िया तक पहुंचने का यह संघर्ष वहां के लोगों जीवन के हर पहलू का आईना है, चाहे वह शिक्षा हो, पानी, या फिर रोज़मर्रा की ज़िंदगी। जिस घने जंगल से हम होकर केल्हड़िया आए थे, उसका सन्नाटा हमारे भीतर भी गूंजने लगा। पचीस-तीस घरों वाले केल्हड़िया गांव में सिर्फ कोल समुदाय के लोग ही रहते हैं, जो अपना हालात में जकड़े हुए नजर आते हैं। उत्तर प्रदेश में कोलों की आबादी सात लाख से ऊपर है, लेकिन इस विडंबना ने उनकी स्थिति और भी जटिल कर दी है।
चंदौली, मिर्ज़ापुर, सोनभद्र, चित्रकूट और बांदा जैसे जिलों में बसी इन आबादियों के बीच एक विचित्र भेदभाव है। मध्य प्रदेश में वे अनुसूचित जनजाति में आते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में उन्हें अनुसूचित जाति माना जाता है। यही विडंबना उनकी भागीदारी और आरक्षण के अधिकारों से उन्हें दूर कर देती है। दो सगे भाई अगर एक राज्य में रहते हैं तो एक आदिवासी माना जाता है, और दूसरे राज्य में रहने वाला दलित। यह भेदभाव सिर्फ कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक और मानसिक तौर पर भी उन्हें बहुत कुछ खोने पर मजबूर कर देता है।
केल्हड़िया पहुंचने पर हमारी मुलाकात 40 वर्षीय अशोक से हुई, जिन्होंने बताया कि पहाड़ों के उस पार बिहार शुरू हो जाता है। इस छोटे से गांव में दिन के उजाले में भी आने और जाने में डर लगता है, और शाम के बाद तो शायद ही कोई इस रास्ते से गुजरता हो। अशोक कहते हैं, "महिलाएं और बच्चे पेयजल संकट का सबसे बड़ा बोझ उठाती हैं। वे रोज़ सुबह चुआड़ पर जाती हैं, लाइन में लगती हैं, और अपनी बारी का इंतज़ार करती हैं। कई बार पानी कम हो जाता है, तो उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है। पीने के पानी का इंतजाम करना हमारे लिए एक बड़ा संघर्ष है।"
केल्हड़िया गांव देवरी राजस्व गांव का हिस्सा है। ग्राम प्रधान लाल साहब खरवार कहते हैं, "सुदूर बीहड़ इलाका जितना सुलझाने के लिए संघर्ष कर रहा था, उतनी ही कठिनाइयों से घिरा हुआ है। लालसाहब खरवार की बातें गहरी सोच और संवेदनशीलता को दर्शाती हैं, लेकिन गांव के बुनियादी सवालों का समाधान नहीं करतीं। जब उनसे पानी की समस्या के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब गंभीर था, लेकिन साथ ही समाधान का वादा भी था। "वो तो होइबे करी। पानी गड्ढे से तो जाता ही है," उनका यह जवाब संकेत था उस निरंतर संघर्ष का जो इस गांव के लोग सालों से झेल रहे हैं।"
नौगढ़ के खंड विकास अधिकारी अमित कुमार कहते हैं, "हमने केल्हड़िया की स्थिति देखी है, लेकिन समस्या के समाधान के लिए सार्थक प्रयास किए जा रहे हैं। वहां एक कुएं का निर्माण हो रहा है। केल्हड़िया में पाइप लाइन से पेयजल की सप्लाई आसान है। टैंकर से जलापूर्ति काफी महंगी व्यवस्था है। जल निगम के अफसरों से हम बातचीत कर रहे हैं। हम लगातार प्रयास कर रहे हैं कि पानी की लाइन केल्हड़िया तक पहुंच जाए। अभी तक केल्हड़िया तक पानी पहुंचाने की योजना मूर्तरूप नहीं ले सकी है। इस साल हम गर्मी के दिनों में केल्हड़िया और उससे सटे पंडी गांव में पेयजल संकट पैदा नहीं होने देंगे।"
बेबस हैं केल्हड़िया के नौनिहाल
केल्हड़िया में छोटे-बड़े कुल 35 बच्चे हैं। ग्रामीण राम प्रसाद बताते हैं, "पहले बच्चे सात किलोमीटर दूर पंडी के स्कूल में पढ़ने जाते थे, लेकिन एक दिन भालू दिख गया, तो फिर डर के मारे वे स्कूल नहीं गए। जंगल का रास्ता असुरक्षित होने से लड़कियां स्कूल नहीं जातीं। इस गांव में न तो आंगनबाड़ी केंद्र है और न ही कभी किसी डॉक्टर के चरण पड़े। गर्भवती महिलाओं या गंभीर रूप से बीमार मरीजों को खटिया पर लादकर ले जाना भी अत्यंत कठिन है, लेकिन बिना नौगढ़ गए कोई इलाज मिलना संभव नहीं है। यह समझ से परे है कि नुनवट से आनेवाली पिच रोड को बीच जंगल में क्यों रोक दिया गया, जबकि उसे केल्हरिया गांव तक ले जाना असंभव बिलकुल नहीं है।"
केल्हड़िया की कहानी दिल को झकझोर देने वाली है। ग्रामीणों में कुछ उम्मीद तब जगी जब पंडी गांव के वीरेंद्र कुमार ने शिक्षक के रूप में पहली बार 01 सितंबर 2022 से बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। खुले आसमान के नीचे करीब दो दर्जन बच्चों की पढ़ाई अब एक छोटे से चमत्कार की तरह लगती है। लेकिन बारिश आते ही यह चमत्कार थम जाता है, क्योंकि ओपन विद्यालय में छुट्टी कर दी जाती है। केल्हड़िया गांव के भोला, राममूरत, छोटेलाल और अशोक बताते हैं, "हमारे गांव में शायद ही कोई पढ़ा-लिखा हो। चारों ओर नज़र दौड़ाएं तो कोई स्कूल नहीं दिखता। गांव के बड़े-बुजुर्ग आज भी अंगूठा टेक हैं।"
केल्हड़िया में शिक्षा की कमी सिर्फ ज्ञान का अभाव नहीं, बल्कि उम्मीद की कमी का कारण भी बन रही है। हर मां-बाप अपनी बेटियों को पढ़ते हुए देखना चाहता है, लेकिन संसाधनों की कमी और सामाजिक बाधाओं ने उनकी इस ख्वाहिश को दबा दिया है। शिवमूरत सवाल करते हैं, "क्या इन गांवों की बेटियां कभी स्कूल की चारदीवारी के अंदर बैठकर पढ़ाई कर पाएंगी? क्या उनकी आंखों में भी बड़े सपने पलने की जगह मिलेगी? यह सवाल सिर्फ शिक्षा के नहीं, बल्कि समान अवसर और आत्मनिर्भरता के अधिकार का है। जब तक इन दूरदराज़ के गांवों में स्कूलों और शिक्षकों की संख्या नहीं बढ़ेगी, तब तक इन बेटियों के सपने ऐसे ही अधूरे रहेंगे।"
नौगढ़ के रोमिंग पत्रकार मुकेश बेवफा कहते हैं, "हमें एक बार फिर सोचने की ज़रूरत है कि देश के हर कोने तक शिक्षा की रौशनी कैसे पहुंचाई जाए। केल्हड़िया की बेटियां सिर्फ गांवों का नहीं, पूरे समाज का भविष्य हैं। उनकी पढ़ाई रुकना सिर्फ उनकी नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक असफलता है।"
"नौगढ़ के सुदूर गांवों में बेटियों की पढ़ाई एक सपने की तरह धुंधली होती जा रही है। आठवीं के बाद लड़कियों की शिक्षा जैसे ठहर जाती है, क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए बच्चों को नौगढ़, चकिया या राबर्ट्सगंज जाना पड़ता है। लेकिन नौगढ़ के आदिवासी परिवारों के पास न तो इतना पैसा है, न ही शहरों में किसी से जान-पहचान। ऊपर से शहरों का डर और असुरक्षा की भावना उनके दिलों में घर कर जाती है।"
हर घर, नल योजना फ्लाप
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जून 2020 में 'हर घर जल' योजना की शुरुआत की और वादा किया कि चंदौली के नौगढ़ इलाक़े में हर घर तक पाइपलाइन से पानी पहुंचा दिया जाएगा। 2020 में शुरू की गई ‘हर घर जल’ योजना ने केल्हाड़िया के ग्रामीणों को उम्मीद दी थी। इस योजना का उद्देश्य भैसौड़ा बांध से 600 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन के माध्यम से गांवों में पानी पहुंचाना था। सरकार ने इसके लिए 250 करोड़ रुपये की परियोजना भी मंजूर की, लेकिन योजना के तहत गांव में आज तक एक भी नल चालू नहीं हुआ।
'हर घर जल' योजना केंद्र सरकार के जल जीवन मिशन का हिस्सा है। इसके तहत साल 2024 तक हर घर तक पाइपलाइन से पीने का पानी पहुंचाने की योजना पूरी की जानी थी, लेकिन मियाद बीत गई। लेकिन यह योजना हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो पाई। फ़िलहाल पीने के पानी का संकट दूर होता नज़र नहीं आ रहा।
सरकार की ओर से दावा किया गया था कि 'जल जीवन मिशन' योजना के मूर्त रूप लेने पर सिर्फ केल्हड़िया ही नहीं, नौगढ़ के आदिवासियों को सर्वाधिक फायदा होगा। शंकरलाल को शिकायत है कि हम प्यासे हैं और औरवाटांड़ का पानी धानापुर चंदौली और बिहार जा रहा है? वह कहते हैं, ''अब तो हर साल सूखे के हालात बनते हैं और फिर लोग कई किलोमीटर दूर जाकर पानी लाकर गुज़ारा करते हैं। कुछ जगहों पर टैंकर से भी पानी पहुंचाया जाता है।''
जल संकट को स्वीकार करते हुए नौगढ़ के उप जिलाधिकारी कुंदन राज कपूर कहते हैं, ''सरकार द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं। चंदौली के मुख्य विकास अधिकारी के साथ बैठक में उठाया गया मुद्दा। हम पानी की आपूर्ति शुरू करने के लिए एक या दो महीने के भीतर पाइपलाइन बिछाने की योजना बना रहे हैं। कोशिश की जा रही है कि जनजीवन मिशन के तहत नौगढ़ में हर घर तक पहुंच जाए। हमने नौगढ़ के कई स्कूलों में डीप बोरिंग कराई, लेकिन वो फेल हो गई।''
''फ़िलहाल यह कह पाना कठिन है कि जनजीवन मिशन के तहत पेयजल कब तक पहुंचेगा। नौगढ़ इलाक़े में हालात पहले और ख़राब थे। नौगढ़ का क्षेत्रफल बड़ा है और आबादी कम है, जिसके चलते विकास के लिए धन कम मिल पा रहा है। हम कोशिश कर रहे हैं। धीरे-धीरे बदलाव दिखेगा। दशकों से चली आ रही समस्या को एक दिन में ख़त्म नहीं किया जा सकता। थोड़ा वक़्त लगेगा, लेकिन सरकार के प्रयास सफल होंगे। पीने का पानी हो या खेती के लिए पानी, सरकार हर संभव कोशिश कर रही है। हम गांवों में तालाब और बंधियां बनवा रहे हैं। धीरे-धीरे समस्या ख़त्म होगी।''
चंदौली जिला प्रशासन पानी की कमी को स्वीकार करता है और समस्या के समाधान के लिए योजनाएं बनाने का दावा करता है। उप जिलाधिकारी (डिप्टी कलेक्टर) कुंदन राज कपूर यह भी कहते हैं, "हमने पाइपलाइन बिछाने का प्रस्ताव रखा है, और टैंकर से पानी पहुंचाने की व्यवस्था कर रहे हैं।" लेकिन गांव वालों के लिए यह बयान सिर्फ़ एक और वादा बनकर रह गया है।
नौगढ़ की ब्लाक प्रमुख प्रेमा कोल के प्रतिनिधि सुड्डू सिंह केल्हड़िया में पेयजल संकट की समस्या का स्वीकार करते हैं, लेकिन वो इस बात को नकारते हैं, "ऐसे कैसे हो सकता है कि सरकार जिस टैंकर से पीने के पानी की आपूर्ति कर रही है उसमें मेढक और मछलियां निकलती होंगी। टैंकर में बोरविंग का पानी जाता है। लोग झूठ बोलते हैं कि यहां दूषित पानी की सप्लाई होती है। केल्हड़िया गांव में पेयजल संकट दूर करने के लिए एक नए कुएं का निर्माण कराया जा रहा है। उम्मीद है कि अबकी गर्मियों में इस गांव के लोगों को पानी के लिए जद्दोजहद नहीं करनी पड़ेगी।" यह विरोधाभास और उसकी सच्चाई, इस रिपोर्ट का हिस्सा बन जाता है।
शुद्ध पानी के लिए युद्ध
नौगढ़ और आसपास के इस गांव में आदिवासी समुदाय के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। प्रशासन की नज़रों से दूर, इस बीहड़ में कई सालों से समस्या का कोई हल नहीं निकला। करीब आठ सौ साल पहले बसे इस गांव के लोग अब भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं, और यह बात किसी से छिपी नहीं है।
नौगढ़ ब्लॉक में पूरे साल त्राहि-त्राहि मची रहती है। यहां का हर गांव, हर घर, और हर इंसान एक ही सवाल कर रहा है, "हम कब तक बूंद-बूंद के लिए तरसते रहेंगे?" देवरी कला ग्राम सभा के अंतर्गत आने वाले केल्हड़िया, पंडी, सपहर, नोनवट, करमठचुआं और औरवाटांड जैसे गांवों में पानी की स्थिति भयावह है। नौगढ़ के आदिवासी बहुल इन गांवों में खरवार, कोल, मुसहर और बैगा जनजातियां रहती हैं।
किसान राजेश खरवार बताते हैं, "पंडी गांव में चार हैंडपंप हैं, लेकिन केवल एक-दो ही काम कर रहे हैं। गर्मियों में लोग सिवान में स्थित कुएं से पानी लाते हैं। यहां पानी के लिए हर कोई परेशान है। गर्मी बढ़ते ही हालात और खराब हो जाते हैं। पूरे गांव की प्यास बुझाने की ज़िम्मेदारी इसी एक हैंडपंप पर है। गांव में दो नए कुएं बनवाए जा रहे हैं। भविष्य में पता चलेगा कि गर्मियों में पानी निकलेगा अथवा नहीं?"
केल्हड़िया के समीपवर्ती गांव सपहर गांव में पहले ज़हरीले सांपों की कॉलोनी थी, लेकिन अब यहां सिर्फ़ पेयजल संकट की कहानी बची है। 30-35 लोगों की आबादी वाले इस गांव के कई परिवार पानी की समस्या के कारण पलायन कर चुके हैं। गनपत, रामसूरत और छोटेलाल का कुनबा सपहर से बिहार के हरसोती गांव में बस गया है। आसपास के आदिवासी बताते हैं हैं कि गांव छोड़ने वालों के जाने के बाद देवरी के लोग सपहर के इकलौते हैंडपंप को भी उखाड़कर ले गए।
दशकों पहले पंडी गांव में पानी की समस्या के चलते मुसहर जाति के लोग करमठचुआं गांव में बस गए थे। करमठचुआं के लालू, शंकर, रामलाल और पन्ना जैसे कई परिवार पानी की तलाश में जंगलों की ओर भागने को मजबूर हो गए। वन विभाग के कारिंदे उन्हें बार-बार जंगल से खदेड़ देते हैं, लेकिन उनके पास वापस लौटने का कोई विकल्प नहीं। कन्हैया कहते हैं, "हमारे पास कोई चारा नहीं है। जहां भी जाते हैं, वन विभाग के लोग हमें खदेड़ देते हैं। कभी पानी के लिए तरसते हैं, तो कभी जंगलों में डंडे खाते हैं। पता नहीं, हमारी ये बदहाली कब खत्म होगी।"
केल्हड़िया के आदिवासी अशोक कोल कहते हैं कि उनके पिता सरजू इस गांव में अपने परिवार की चौथी पीढ़ी के थे। तब लोग प्रकृति के नज़दीक गुजर-बसर करते थे और खेती और वनोपजों पर निर्भर रहते थे। उन दिनों आज के मुकाबले जंगल अधिक चीजें मुहैया कराते थे लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। जीने की ज़रूरतें और शर्तें बदल चुकी हैं। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी ज़रूरी मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति आसान नहीं रही जबकि रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं। मेहनत-मशक्कत के काम भी नियमित रूप से नहीं मिलते जबकि महंगाई और पूंजी का दबाव लगातार बढ़ रहा है।
नौगढ़ को रास नहीं आ रही तरक़्क़ी
नौगढ़ चंदौली ज़िले का वह इलाक़ा है जिसे पूर्वांचल का दूसरा कालाहांडी कहा जाता था। इसी क्षेत्र के कुबराडीह और शाहपुर जमसोत में दो दशक पहले भूख से कई मौतें हुई थीं। यह इलाक़ा तब ज़्यादा चर्चा में आया जब नीरजा गुलेरी के टीवी सीरियल चंद्रकांता ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरी। नौगढ़ इलाक़े में दशकों तक सरकार के समानांतर डकैतों का साम्राज्य रहा। डकैत ख़त्म हुए तो नक्सलियों की आमद-रफ़्त बढ़ती चली गई। इस इलाक़े में कभी मोहन बिंद, घमड़ी खरवार, रामबचन, धर्मदेव, मिश्री आदि डकैतों का सिक्का चला करता था तो कभी यह इलाक़ा ही कामेश्वर बैठा सरीखे कुख्यात नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ हुआ करता था। फ़िलहाल दोनों समस्याएं काफ़ी हद तक ख़त्म हो गई हैं, लेकिन आदिवासियों की मुश्किलें कम नहीं हो सकी हैं।
पूर्वांचल का नौगढ़ इलाका आज भी विकास की रोशनी से वंचित है। यह वही इलाका है जिसे कभी कालाहांडी कहा जाता था, जहां भूख और गरीबी ने न जाने कितने मासूमों की जान ले ली। यह वही इलाका है जहां के जंगल कभी डकैतों और नक्सलियों का गढ़ हुआ करते थे। समय बदला, नक्सली दब गए, डकैतों के नाम केवल किस्सों में बचे, लेकिन आदिवासियों की जिंदगी आज भी बदहाल है।
चंद्रप्रभा के हरे-भरे जंगलों और खूबसूरत झरनों के बीच बसा नौगढ़, जहां कर्मनाशा और चंद्रप्रभा नदियां बहती हैं, प्राकृतिक रूप से समृद्ध है। लेकिन इस समृद्धि का कोई फायदा यहां के लोगों को नहीं मिल सका। विकास योजनाएं कागजों पर बनती हैं, पर उन तक कभी पहुंचती नहीं। बरसात के मौसम में, जब झरने बहते हैं, तो गांववाले उनमें से पानी लाने को मजबूर हैं। लेकिन यह पानी कितना शुद्ध है, इसका अंदाज़ा केवल वही लोग लगा सकते हैं, जिनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं। नौगढ़ के लोगों की आम शिकायत है कि कभी-कभार पानी का टैंकर आता है, पर उसमें भी इंसानियत का दर्द छलक पड़ता है-मछलियां और मेंढ़क पानी में तैरते हैं। लोग उस पानी को छानते हैं, अपने गले से नीचे उतारते हैं और अपनी प्यास बुझाते हैं, जैसे यह उनके जीवन की नियति हो।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार चंदौली ज़िले की आबादी 19, 52,756 थी, जिसमें 10,17,905 पुरुष और 9,34,851 महिलाएं शामिल थीं। 2001 में चंदौली ज़िले की जनसंख्या 16 लाख से अधिक थी। चंदौली में शहरी आबादी सिर्फ़ 12.42 फ़ीसदी है। 2541 वर्ग किलोमीटर है फैले चंदौली ज़िले में अनुसूचित वर्ग की आबादी 22.88 फ़ीसदी और जन-जाति की 2.14 फ़ीसदी है। जिले की शहरी आबादी सिर्फ 12.42% है। अनुसूचित जाति की जनसंख्या 22.88% है, और अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 2.14% है। खेती के अलावा कोई दूसरा रोज़गार नहीं है।
चंद्रप्रभा वन्य जीव अभयारण्य का एक बड़ा हिस्सा नौगढ़ में है, जहां उत्तर प्रदेश के सबसे खूबसूरत झरने राजदरी और देवदरी चंद्रप्रभा के जंगलों में हैं। इन झरनों को देखने के लिए बारिश के दिनों में पर्यटकों की भारी भीड़ जुटती है। कर्मनाशा और चंद्रप्रभा नदियां इसी अभयारण्य से होकर बहती हैं।
नौगढ़ इलाक़े में ग़रीबी और तंगहाली जस की तस है। सरकारी राशन के लिए आदिवासी समुदाय वैसे ही दौड़ लगा रहा है, जैसे दशकों पहले लगाया करता था। देवरी कला ग्राम पंचायत में छह गांवों का राशन कोटेदार जिलाजीत यादव के यहां से बांटा जाता है। यहीं से केल्हड़िया और पंडी के लोगों को भी राशन मिलता है, जिन्हें 20 से 25 किमी जंगली रास्ते पार कर आना-जाना पड़ता है।
जंगल और पहाड़ों की वजह से अक्सर नेटवर्क नहीं पकड़ता, तब उन्हें बैरंग लौटना पड़ता है। मशीन पर अंगूठा लगाने और राशन के लिए अगली सुबह फिर दौड़ लगानी पड़ती है। इलाक़े के लोग चाहते हैं कि नोनवट अथवा देवरी कला में मोबाइल टावर लगाया जाए ताकि आदिवासियों की दिक्कत दूर हो सके।
पेयजल संकट सिर्फ़ देवरी कला ग्राम पंचायत में ही नहीं है। औरवाटांड के पूरब तरफ़ सेमर साधो ग्राम सभा के सेमर, होरिला, धोबही, पथरौर, जमसोत से लगायत शाहपुर तक सूखे की मार के साथ पेयजल की समस्या है। देवरी के दक्षिण में मंगरई ग्राम सभा के गहिला, सुखदेवपुर, हथिनी, मगरही की स्थिति भी ऐसी ही है। उत्तर में पहाड़ और जंगल है। 40 से 45 किमी तक कहीं हैंडपंप अथवा कुआं नहीं है।
पश्चिम में लौआरी ग्राम सभा का गांव है जमसोती, गोड़टुटवा, लेड़हा, लौआरी, लौआरी कला। इन गांवों में औरतों और बच्चों को पीने के पानी के लिए जद्दोजहद करते कभी भी देखा जा सकता है। नौगढ़ के विकास के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, जिनमें से ज्यादातर पानी की समस्या हल करने के लिए लगाए गए। लेकिन इन पहाड़ी इलाकों में पानी का स्थायी समाधान अब तक नहीं हुआ। आदिवासी बहुल इस क्षेत्र में पानी के लिए रोज़ाना संघर्ष जारी है।"
आदिवासियों की जिंदगी दोधारी तलवार
नौगढ़ के आदिवासियों की ज़िंदगी आज दोधारी तलवार की तरह हो गई है। एक ओर पेयजल का जबर्दस्त संकट, ग़रीबी, भुखमरी और तंगहाली, तो दूसरी ओर वन और सिंचाई विभाग के फ़र्ज़ी मुक़दमों का बोझ। मज़दूर किसान मंच के ज़िला प्रभारी अजय राय की बातें इस सच्चाई को और गहराई से उजागर करती हैं। उनका कहना है, " नौगढ़ इलाके के आदिवासियों के पास अब कुछ नहीं बचा है। बस, जीने का नाम भर बचा है। नमक-रोटी खाकर किसी तरह पेट भरते हैं और चुआड़ का प्रदूषित पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं। काम-धंधे का नामो-निशान नहीं है। उनके घर अब घर नहीं, झोपड़ियां हैं। बारिश में टपकती, सर्दी में ठिठुरती, और गर्मी में झुलसती झोपड़ियां। इनमें रहने वाले लोग हर दिन संघर्ष की नई कहानी लिख रहे हैं।"
"केल्हड़िया और उसके समीपवर्ती गांव पंडी के लोग शहरों में जाने से डरते हैं। उन्हें लगता है कि वहां उनकी औरतें और बच्चे मानव तस्करी के शिकार हो सकते हैं। इस डर ने उन्हें गांवों में जड़ से बांध दिया है, लेकिन इन गांवों में भी जीवन आसान नहीं। सूखे ने उनकी ज़मीनों को बंजर बना दिया है। खेत वीरान हैं, तालाब सूखे पड़े हैं, और ज़िंदगी बस किसी तरह सांसें ले रही है। सूखे की मार झेल रहे गांवों में नौगढ़ की हालत सबसे भयावह है। यहां आदिवासी न सिर्फ भूख से लड़ रहे हैं, बल्कि अपने अधिकारों और ज़मीन के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। हर दिन उनके लिए एक नई परीक्षा बन गया है," कहते हैं अजय राय।
अजय राय का यह सवाल हमें सोचने पर मजबूर करता है—क्या हम वाकई उस विकास की ओर बढ़ रहे हैं, जहां हर गांव के लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी हों? या फिर यह विकास केवल कुछ ऊंचे मीनारों और चमचमाती सड़कों तक सीमित रह गया है? यह समय है, जब हमें अपनी आँखें खोलनी होंगी। केल्हडिहा और इसके जैसे अनगिनत गांवों की पीड़ा को समझना होगा। यह सिर्फ एक गांव का नहीं, बल्कि हमारे सिस्टम का सच है। नौगढ़ के केल्हड़िया की यह कहानी केवल पानी की नहीं, बल्कि उन टूटे वादों और अनदेखे अधिकारों की भी है, जो दशकों से इस इलाके के लोगों से छीने गए हैं। पानी की समस्या ने यहां की पीढ़ियों को गरीबी, पलायन और शोषण के दलदल में धकेल दिया है।"
अजय राय यह भी कहते हैं, " केल्हाड़िया गांव का संघर्ष सिर्फ़ पानी के लिए नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व और गरिमा के लिए है। यह कहानी उन करोड़ों ग्रामीण भारतीयों की भी है, जो आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हैं। सवाल यह है कि क्या इन लोगों को कभी स्वच्छ और सुरक्षित पानी मिलेगा? क्या सरकार और प्रशासन अपने वादों को निभा पाएंगे? क्या सरकार और प्रशासन इन टूटे दिलों और थके हाथों की मदद करेंगे? क्या नौगढ़ के आदिवासी समुदाय को भी साफ़ पानी पीने का अधिकार मिलेगा, या उनका यह संघर्ष यूं ही चलता रहेगा? कब तक बूंद-बूंद पानी के लिए नौगढ़ के लोग जूझते रहेंगे? "
"आदिवासियों की यह कहानी सिर्फ उनकी नहीं, बल्कि एक ऐसे समाज की है जिसने अपने सबसे वंचित और बेसहारा वर्ग को अपने हाल पर छोड़ दिया है। क्या इनकी आवाज़ कोई सुनेगा? लेबरपेन शुरू होने पर यहां की महिलाएं अस्पताल कैसे पहुंचती होंगी? और जब रात के अंधेरे में किसी की तबियत बिगड़ती होगी, तो क्या होता होगा? केल्हड़िया में बसनेवाले लोग न जाने किस लाचारी में बुरी तरह फंसे हुए हैं, और कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आता? क्या ये कभी अपने हक़ और सम्मान के साथ जी पाएंगे? या फिर उनकी ज़िंदगी यूं ही संघर्ष और बेबसी में सिमट कर रह जाएगी? "
विकास के सपने, हकीकत की जमीन
योगी सरकार ने नक्सल प्रभावित इस क्षेत्र के लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं कीं। योजनाओं के नाम पर यहां करोड़ों रुपये आवंटित हुए, लेकिन ज़मीनी हकीकत अब भी वहीं है। पानी के लिए यहां की महिलाएं रोज़ 10 से 15 किलोमीटर का सफर तय करती हैं। झरनों और चुआड़ से पानी लाना उनकी दिनचर्या बन चुकी है। गहरी बोरिंग कराने की मांग पर कोई सुनवाई नहीं होती। फुलवंती देवी और चंद्रावती देवी जैसे लोग पानी के इंतजार में अपनी पूरी उम्र बिता देते हैं।
गर्मी के दिनों में सरकारी टैंकर से आने वाले पानी का बेसब्री से इंतजार किया जाता है। लेकिन यह इंतजार हमेशा अधूरा ही रह जाता है। तत्कालीन जिलाधिकारी संजीव सिंह ने दो साल पहले यहां की समस्याओं के समाधान के लिए "जन-चौपाल" लगाई। आदिवासी बड़ी उम्मीदों के साथ वहां पहुंचे, लेकिन आज भी उनके पास पीने का पानी नहीं है। आवास की योजनाएं अधूरी पड़ी हैं। उनके ऊपर दर्ज झूठे मुकदमों का निस्तारण नहीं हो सका।
पंडी गांव के एक शिक्षक वीरेंद्र खरवार हर दिन पथरीले, जंगली रास्तों से साइकिल चलाकर केल्हाडिया पहुंचते हैं। वह गांव में 25 बच्चों को पढ़ाते हैं, जिनमें 11 लड़कियां और 14 लड़के शामिल हैं। उनका मानना है कि पांच पड़ोसी राज्यों में किसी भी अन्य गांव को उस तरह की कठिनाइयों और उपेक्षा का सामना नहीं करना पड़ता है जैसा कि केल्हाडिया करते हैं। पानी की कमी नई पीढ़ी के भविष्य को बुरी तरह प्रभावित कर रही है।
"केल्हाडिया सहित नौगढ़ तहसील के अधिकांश गांव स्वच्छ पानी तक पहुंचने के लिए संघर्ष करते हैं। फिर भी, भारत के तेजी से विकास और प्रगति के दावे केल्हड़िया जैसे गांवों में वास्तविकता से बहुत दूर हैं, जहां नागरिकों के पास अभी भी पीने का साफ पानी नहीं है। वह बताते हैं कि सरकार की नीतियां इन ग्रामीणों को विफल कर रही हैं, जो पूरी तरह से अभाव में रहते हैं।"
केल्हाड़िया के ग्रामीण ज्यादातर पशुपालक, किसान और मजदूर हैं। जब आस-पास के जल स्रोत सूख जाते हैं, तो उन्हें अपने मवेशियों और फसलों के लिए पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। मानसून के दौरान चुआड़ का पानी को पीने से ग्रामीणों को उल्टी, दस्त, पेट दर्द और टाइफाइड हो जाता है। यह क्षेत्र कई वर्षों से सूखे का सामना कर रहा है। ग्रामीणों’ का दिन चुआड़ से पानी भरने के साथ शुरू और समाप्त होता है।
चंदौली और सोनभद्र के जंगलों में, आठ आदिवासी समुदाय निवास करते हैं, जिनमें कोल, खरवार, भुइया, गोंड, उरांव, पन्निका, धारकर, घसिया और बैगा जनजातियां शामिल हैं। 1996 में, वाराणसी से अलग होने के बाद चंदौली एक अलग जिला बन गया और इनमें से कई जनजातियों को अनुसूचित जाति की सूची में जोड़ा गया।
केल्हाड़िया के ग्राम प्रधान लाल साहब खरवार कहते हैं, "केल्हाडिया, पंडी और औरवाटांड के लोगों को पेजयल संकट से निजात पाने का कोई हल नज़र नहीं आ रहा है। नौगढ़ के आदिवासी अपनी बेटियों को शहर भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं, क्योंकि पास में न तो पैसा है, न शहर में किसी से जान-पहचान। सरकारें आती-जाती रहती हैं, और योजनाएं सिर्फ कागजों तक सीमित रहती हैं। हमें वही गंदा पानी पीने को मजबूर किया जाता है।"
चंदौली ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार आनंद सिंह कहते हैं, "नौगढ़ में अगर पानी की समस्या हल हो जाए, तो यहां की आधी समस्याएं खत्म हो सकती हैं। लेकिन ऐसा होना इतना आसान नहीं दिखता। यहां के आदिवासियों के लिए विकास सिर्फ़ एक सपना बनकर रह गया है। यह सवाल सिर्फ़ सरकार से नहीं है, बल्कि हम सब से है। क्या नौगढ़ और वहां के आदिवासियों को भी देश के बाकी हिस्सों की तरह जीने का हक नहीं? क्या वे हमेशा इसी तरह अपनी मूलभूत ज़रूरतों के लिए संघर्ष करते रहेंगे? जब तक इन सवालों का जवाब नहीं मिलता, तब तक नौगढ़ विकास की तस्वीर में एक बदनुमा दाग़ बना रहेगा।"
"आदिवासी बहुल नौगढ़ की ज़मीन पर पानी का हर बूंद मानो सोने के बराबर है। यहां हर दिन पानी जुटाने के लिए जो संघर्ष होता है, वह किसी युद्ध से कम नहीं है। महिलाएं और बच्चे अपने सिर पर मटके और बाल्टियां लिए पहाड़ों और जंगलों का रास्ता तय करते हैं, ताकि चुआड़ या किसी अन्य जलस्रोत से पानी ला सकें। कई बार यह सफर खतरनाक भी साबित होता है, क्योंकि जंगली जानवरों का डर हमेशा बना रहता है। चुआंड का पानी पीने वाले अक्सर बीमार हो जाते हैं, क्योंकि वो भी प्रदूषित होता है और स्थानीय प्रशासन कभी भी उस पानी की जांच नहीं कराता।"
पत्रकार आनंद सिंह बताते हैं, "नौगढ़ के लोगों को पिछले कई दशकों से आश्वासन दिए जा रहे हैं। सरकारें आती हैं, घोषणाएं होती हैं, योजनाएं बनती हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत नहीं बदलती। पानी के नाम पर बनी योजनाओं में भ्रष्टाचार इतना गहरा है कि इनका लाभ लोगों तक पहुंच ही नहीं पाता। पानी की कमी से नौगढ़ के गांवों में न सिर्फ़ स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ी हैं, बल्कि रोजगार और शिक्षा पर भी इसका नकारात्मक असर पड़ा है। गर्मियों के महीनों में जब चुआड़ सूख जाता है, तो कई परिवार गांव छोड़कर पलायन करने पर मजबूर हो जाते हैं।"
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद खरवार, जो नौगढ़ से निकलकर दिल्ली में अपनी पहचान बना चुके हैं, बड़ी पीड़ा के साथ कहते हैं, "चंदौली ज़िले के दुर्गम इलाक़े नौगढ़ में विकास के नाम पर सालों-साल करोड़ों रुपये ख़र्च किए गए। सबसे अधिक पैसा पानी की समस्या सुलझाने में बहाया गया। लेकिन इस बहाए गए पैसे का नतीजा क्या हुआ? यहां पैसा तो पानी की तरह बहा, लेकिन लोगों की प्यास अब भी नहीं बुझ पाई।"
अरविंद कहते हैं, "नौगढ़ के लोग इस आस में हैं कि आखिर कब दूर होगा यह संकट और कब खत्म होगी पीने के पानी के लिए उनकी जंग? यह केवल नौगढ़ का मसला नहीं है, बल्कि यह सवाल उस व्यवस्था पर भी है, जो लोगों के मूलभूत अधिकार—पानी तक की व्यवस्था नहीं कर पाती। सरकार और प्रशासन को इस समस्या को प्राथमिकता पर लेते हुए स्थायी समाधान की दिशा में काम करना होगा। यह केवल चुआड़ या टैंकर से पानी पहुंचाने की बात नहीं है, बल्कि यह उन सपनों को पूरा करने की बात है, जो पानी की एक बूंद के इंतजार में धुंधले होते जा रहे हैं। केल्हड़िया के लोगों की पुकार सुनने वाला कोई नहीं है।"
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। चंदौली के सुदूरवर्ती गांव केल्हड़िया से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)