मायावती के कड़क प्रशासन का राज, अखिलेश इसे क्‍यों नहीं दोहरा पाए?

Written by दिलीप सी मंडल | Published on: February 17, 2017


अप्रैल, 2011 में मेरठ के काजीपुर में एक मस्जिद के इमाम के साथ मारपीट की घटना हुई. अगले दिन मेरठ शहर में तोड़फोड़ शुरू हो गई. प्रशासन ने फौरन सख्ती बरती और शहर तीन दिन में सामान्य रफ्तार से चलने लगा.

इसके बाद मुख्यमंत्री मायावती के शासन का डंडा चला. एक थानेदार, एक डीआईजी को सस्पेंड कर दिया और मेरठ के जिलाधिकारी का तबादला कर दिया गया. उसके बाद जब तक मायावती का शासन चला, पश्चिम यूपी में सांप्रदायिक हिंसा की कोई घटना नहीं हुई.

मायावती को यूपी में इन दिनों फिर से याद किया जा रहा है. चुनाव का समय है और प्रदेश के लगभग 20 फीसदी मुस्लिम वोट पर सपा-कांग्रेस गठबंधन अपना दावा पेश कर रहा है. ऐसे में जब लोग अखिलेश यादव के कार्यकाल को पलटकर देखते हैं, तो पाते हैं कि वह दौर सांप्रदायिक हिंसा के छींटों से दागदार रहा.

लगभग 600 छोटे-बड़े दंगे इन पांच साल में हुए. उनमें मुजफ्फरनगर कांड शामिल हैं, जिसमें सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 68 लोग मारे गए. हालांकि मुजफ्फरनगर की हिंसा को दंगा कहना गलत होगा, क्योंकि जैसा कि मशहूर शायर मुनव्वर राणा कहते हैं, ‘’वह मुसलमान विरोधी एकतरफा कत्लेआम था.’’

इसके मुकाबले, मायावती का शासनकाल इस मोर्चे पर शांति से गुजर गया. सांप्रदायिक हिंसा में उन पांच साल में कुल मिलाकर चार लोग मारे गए. पांच साल में ऐसे मौके सिर्फ छह बार आए, जब तीन दिन से ज्यादा समय के लिए कर्फ्यू लगाने की नौबत आई. कुल मिलाकर, सांप्रदायिक हिंसा की दृष्टि से वह अमन-चैन का दौर था.

मायावती वह काम कैसे कर पाई, जिसे अखिलेश चाहकर भी नहीं कर पाए?

यह कोई रहस्य नहीं है. मायावती ने दंगे रोकने की कोई कोशिश नहीं की. इसके लिए अलग से कुछ करने की जरूरत ही नहीं थी. उन्होंने सिर्फ कानून का राज स्थापित किया. इतना काफी था.

मायावती के शासन काल में जब भी वे लखनऊ में होती थीं, हर दिन राज्य के डीजीपी, गृह सचिव ओर उनके करीबी नौकरशाह शशांक शेखर सिंह की सचिवालय में बैठक होती थी. इसमें राज्य के हालात पर चर्चा होती थी और प्रशासनिक फैसले लिए जाते थे. इन फैसलों को पलटने का अधिकार किसी को पास नहीं था. अगर कोई फैसला बदला जाता, तो मुख्यमंत्री की मर्जी से ही.

इसके मुकाबले अखिलेश यादव को प्रशासन में वह सर्वोच्चता कभी हासिल नहीं हुई. समाजवादी पार्टी में पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव ज्यादातर समय अखिलेश से ज्यादा प्रभावशाली रहे. ऐसे में अखिलेश यादव के फैसलों में वह दम कभी नहीं आया, जो मुख्यमंत्री के फैसलों में होना चाहिए.

कोई भी शासन दरअसल इकबाल से चलता है. वह इकबाल अखिलेश को कभी हासिल नहीं हुआ.

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