ग्राउंड रिपोर्टः बहराइच के महराजगंज में सांप्रदायिक हिंसा के बाद का सन्नाटा, टूटा भाईचारा, लोगों में खौफ, पुलिस पर उठे सवाल...! पार्ट---02

Written by विजय विनीत | Published on: October 26, 2024
महराजगंज इलाके में कभी गंगा-जमुनी तहजीब का जो माहौल था, वह अब टूट चुका है। यहां हर चेहरा उदास और खौफ में लिपटा नजर आता है। 13 अक्टूबर की शाम दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान रामगोपाल मिश्रा की हत्या के बाद से यहां की हर गली में एक गहरा घाव है।



उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के महराजगंज कस्बे में प्रवेश करते ही एपीजे अब्दुल कलाम स्मृति द्वार आपका स्वागत करता है, और कुछ ही दूरी पर एक इंटर कॉलेज दिखता है, जिसका नाम "राम-रहीम" है। यह दोनों चीजें यहां के भाईचारे और इंसानियत की मिसाल हुआ करती थीं। लेकिन 13 अक्टूबर की सांप्रदायिक हिंसा ने इस कस्बे में भाईचारे और विश्वास को चूर-चूर कर दिया है। अब महराजगंज की सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ है, और घरों में कैद लोग एक अनकहे डर के साए में जी रहे हैं।

महराजगंज इलाके में कभी गंगा-जमुनी तहजीब का जो माहौल था, वह अब टूट चुका है। यहां हर चेहरा उदास और खौफ में लिपटा नजर आता है। 13 अक्टूबर की शाम दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान रामगोपाल मिश्रा की हत्या के बाद से यहां की हर गली में एक गहरा घाव है। अगले दिन, 14 अक्टूबर को हिंसा का कहर और बढ़ गया—बाइक के शोरूम में आग लगी, एक अस्पताल जलाकर खाक कर दिया गया, और कई गाड़ियां जला दी गईं। खास बात यह थी कि ये सभी प्रतिष्ठान और गाड़ियां मुस्लिम समुदाय की थीं।

महराजगंज की इस हिंसा के बाद पुलिस पर कई गंभीर सवाल उठ रहे हैं। स्थानीय लोग मानते हैं कि अगर पुलिस ने समय पर सही इंतजाम किए होते, तो यह घटना इतनी भयावह नहीं होती। पुलिस की नाकामी का सबसे बड़ा उदाहरण उस समय देखने को मिला जब विसर्जन के दौरान विवाद भड़क गया। मुस्लिम समुदाय की ओर से डीजे पर बज रहे गानों पर आपत्ति जताई गई, जिसके बाद स्थिति बेकाबू हो गई। पुलिस, जो वहां मौजूद थी, मूकदर्शक बनी रही और भीड़ को रोकने की कोशिश तक नहीं की।

अधिकारियों का कहना है कि जब विवाद बढ़ने की संभावना थी, तब भी पुलिस ने पर्याप्त तैनाती नहीं की थी। "छतों पर पुलिस तैनात नहीं की गई थी, जिसके चलते पथराव हुआ और हालात बेकाबू हो गए," यह स्वीकार करते हुए एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि "हिंसा के बाद महसी के सीओ भूपेंद्र गौर को सस्पेंड कर दिया गया है।"

सन्नाटे में डूबा महराजगंज, लोग खौफजदां

इस हिंसा के बाद कस्बे के बाजार और गलियों में खौफनाक सन्नाटा पसरा हुआ है। कई घरों पर ताले लटके हुए हैं और कुछ लोग बगैर ताला लगाए ही भाग चुके हैं। पुलिस की भारी मौजूदगी है, लेकिन यह उपस्थिति लोगों को सुरक्षा का एहसास देने के बजाय डर का माहौल पैदा कर रही है। कुछ दुकानें तो खुलीं, लेकिन हर जगह सन्नाटा और डर का साया है। महराजगंज का हर शख्स इस वक्त अपने घर में कैद होकर रह गया है।

इस हिंसा के बाद फैली अफवाहों को देखते हुए पुलिस ने सोशल मीडिया पर कड़ी नजर रखी है। पुलिस अधीक्षक वृंदा शुक्ला ने सख्त चेतावनी जारी की है कि झूठी खबरें फैलाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि रामगोपाल मिश्रा की मौत गोली लगने से हुई है, और अन्य अफवाहों पर ध्यान न दिया जाए।

हालात को सामान्य करने के लिए पुलिस-प्रशासन ने कई प्रयास किए हैं। अधिकारियों ने दुकानदारों के साथ बैठक की, मुस्लिम धर्मगुरुओं के जरिए लोगों से शांति बनाए रखने की अपील करवाई गई, लेकिन भय का माहौल इतना गहरा है कि लोग अपनी दुकानें खोलने से कतरा रहे हैं। जुमे की नमाज के दिन भी इस इलाके की मस्जिदें सन्नाटे में डूबी रहीं।

महराजगंज के मुख्य मार्गों और गलियों में पुलिस का पहरा है। महसी तहसील के रमपुरवा चौकी, भगवानपुर, वाजपेई पुरवा, और रेहुआ मंसूरगंज के सभी रास्तों पर बैरिकेड्स लगाए गए हैं। हर आने-जाने वाले संदिग्ध व्यक्ति के दस्तावेज जांचे जा रहे हैं। पुलिस, पीएसी, एटीएस, और एसटीएफ के जवान लगातार मुस्लिम बहुल इलाकों में तैनात हैं, लेकिन इस सख्ती और निगरानी से लोगों को सुरक्षा से ज्यादा असुरक्षा का एहसास हो रहा है। 

पुलिस की लापरवाही से उपजी हिंसा?

महराजगंज बाजार के निवासी वीरेंद्र कुमार के अनुसार, ''13 अक्टूबर को हुई सांप्रदायिक हिंसा की वजह पुलिस की लापरवाही थी। यहां हर साल 30 गांवों की मूर्तियां विसर्जन के लिए आती हैं। ताजिया और मुहर्रम के जुलूस भी निकलते हैं। पहले हर बार पीएसी तैनात रहती थी, लेकिन इस बार तो पुलिस का नामोनिशान नहीं था।''

वहीं, पुलिस ने इस हिंसा के मामले में अब तक 85 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया है और 11 मुकदमे दर्ज किए हैं। इसके साथ ही करीब एक हजार अज्ञात लोगों पर भी एफआईआर दर्ज की गई है। फिर भी कुछ सवाल अब भी अनसुलझे हैं—क्या इस हिंसा को रोका जा सकता था? और क्या रामगोपाल मिश्रा की जान बचाई जा सकती थी?

इस घटना की तह तक जाने के लिए हिंसा के हमने प्रत्यक्षदर्शियों के अलावा और बहराइच पुलिस के कई अफसरों से बात की। जांच से पता चला कि दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान जुटने वाली भीड़ का सही अनुमान पुलिस को नहीं था। हिंसा के भड़कने के समय महाराजगंज बाजार में मात्र 10 से 15 पुलिसकर्मी मौजूद थे। एक हिंसक भीड़ को रोकने के लिए इतनी कम संख्या में पुलिसकर्मी पर्याप्त नहीं थे, और घायलों को बचाने के लिए कोई एंबुलेंस तक नहीं थी।

यह हिंसा उस समय भड़की जब नवरात्रि की शुरुआत के 10 दिन बाद विसर्जन का जुलूस निकल रहा था। तीन अक्टूबर को नवरात्रि शुरू होते ही महाराजगंज के आस-पास के गांवों में देवी प्रतिमाएं स्थापित की गई थीं। पुलिस ने नवरात्रि के दौरान डेटा इकट्ठा किया था कि विसर्जन में कितने लोग और ट्रैक्टर शामिल होंगे। हालांकि, जब दशहरे के अगले दिन विसर्जन का जुलूस निकला, तो पुलिस की तरफ से कोई ठोस व्यवस्था नहीं की गई थी।

महराजगंज महसी तहसील के अंतर्गत आता है। जिला मुख्यालय संबद्ध किए गए महसी के तहसीलदार रविकांत द्विवेदी कहते हैं, "तहसील में 15 जगहों पर देवी प्रतिमाएं स्थापित की गई थीं। विसर्जन के दिन 15 ट्रैक्टर-ट्रॉलियां महाराजगंज बाजार से होकर गौरियां घाट तक जानी थीं।''

हिंसा का समय शाम के करीब था। रविवार का दिन होने के कारण बाजार में भीड़ सामान्य से ज्यादा थी, और ऊपर से दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन की वजह से लोगों का जमावड़ा और बढ़ गया था। हिंसा में मारे गए रामगोपाल मिश्रा के भाई कृष्णा मिश्रा कहते हैं, ''प्रशासन ने अगर समय रहते जरूरी कदम उठाए होते, तो हालात काबू में किए जा सकते थे। हिंसा के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार चौकी इंचार्ज हैं। अगर पुलिस फोर्स पहले से तैनात होती, तो इतनी तबाही नहीं होती। हम जब पहुंचे, उससे पहले पुलिस लाठीचार्ज कर चुकी थी। उस भगदड़ में रामगोपाल फंस गया था।''

''आरोपियों ने उसे खींचकर घर के अंदर ले लिया। हम लोग अंदर जाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन अफसरों ने हमें रोक दिया। अगर हम वहां अफसरों से बहस करके अंदर न जाते, तो शायद हमें उसकी बॉडी भी नहीं मिलती। यह पहली बार नहीं था जब विसर्जन जुलूस निकला हो। हर साल इस रास्ते से जुलूस निकलता है और हमेशा पुलिस की पर्याप्त फोर्स तैनात रहती है। लेकिन इस बार, सिर्फ कुछ ही पुलिसकर्मी मौजूद थे और वे सैकड़ों की बड़ी भीड़ और बवाल को कैसे संभाल पाते?”

तहसीलदार रविकांत द्विवेदी ने भी माना कि पुलिस की तैयारी अधूरी थी। उन्होंने बताया, "महसी चौकी से खबर मिली कि बाजार में बवाल हो गया है। मैं और एसडीएम अखिलेश सिंह तुरंत मौके पर पहुंचे। उस समय वहां केवल 10 से 15 पुलिसकर्मी मौजूद थे। हमने हालात को देखकर विसर्जन रुकवा दिया। इसी बीच रामगोपाल अब्दुल हामिद की छत पर चढ़ गया। बाद में पुलिसवालों ने उसे घायल हालत में बाहर निकाला।''

बहराइच जिले की आधिकारिक न्यूज पोर्टल के मुताबिक, ''जिले में कुल 22 थाने हैं। हिंसा वाली जगह से महसी चौकी मात्र 500 मीटर की दूरी पर है, जो हदसी थाने के अंतर्गत आती है। इस थाने में कुल मिलाकर 150 से 200 पुलिसकर्मियों का स्टाफ है। अन्य थानों में औसतन 250 पुलिसकर्मी तैनात होते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर इस दिन हरदी थाने के सिर्फ सभी पुलिसकर्मी भी घटनास्थल पर होते, तब शायद इस बवाल को रोका जा सकता था।

पुलिस की मौजूदगी के बावजूद रामगोपाल को रोकने या बचाने में क्यों असफल रही? अगर पुलिस पहले से तैयार होती, तो क्या रामगोपाल अब्दुल हामिद की छत पर चढ़ पाता? पुलिस की इतनी कम संख्या में तैनाती के कारण ही बवाल ने इतना बड़ा रूप ले लिया। इस बाबत स्थानीय लोगों का कहना था कि संभवतः पुलिस ने सही अनुमान नहीं लगाया कि इस बार की भीड़ कितनी बड़ी होगी। अगर पर्याप्त फोर्स होती, तो शायद महराजगंज में यह हिंसा न भड़कती और रामगोपाल मिश्रा की जान बचाई जा सकती थी।

पुलिस नींद में थी, दंगा हो गया

महाराजगंज में बवाल के दौरान, न तो मौके पर कोई एंबुलेंस थी और न ही फायर ब्रिगेड। प्रोटोकॉल के अनुसार, धार्मिक जुलूस में एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड की तैनाती अनिवार्य होती है। मगर उस दिन किसी तरह की मेडिकल या फायर इमरजेंसी सुविधा वहां मौजूद नहीं थी। रामगोपाल मिश्रा के पड़ोसी विष्णु मिश्रा, जो उसी दिन जुलूस में शामिल थे, कहते हैं, ''विसर्जन यात्रा पर चारों ओर से पत्थर फेंके जा रहे थे। लोग ट्रॉली पर बैठे खुद को बचाने में लगे थे। तभी कुछ पुलिसवाले अब्दुल हमीद के घर में गए और रामगोपाल को घायल हालत में बाहर लेकर आए।''

विष्णु बताते हैं कि, ''रामगोपाल की हालत गंभीर थी, पर एंबुलेंस न होने की वजह से उन्हें उसे ई-रिक्शा से ले जाना पड़ा। बहुत खून बह रहा था, इसलिए हमने बाइक मंगवाकर आधे घंटे में उसे अस्पताल पहुंचाया, लेकिन वहां उसकी मौत हो गई। अगर एंबुलेंस होती, तो शायद रामगोपाल की जान बच सकती थी।'' महराजगंज कस्बे में हर किसी ने इस बात को तस्दीक किया कि मौके पर एंबुलेंस नहीं थी। हिंसा वाली जगह से महज तीन किमी के फासले पर सरकारी अस्पताल था। फिर भी एंबुलेंस नहीं आ सकी।''

लखनऊ से बहराइच में सांप्रदायिक हिंसा कवर करने पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार कुमार सौवीर ने पुलिस और प्रशासन की नीयत पर सवाल उठाते कहा, ''बहराइच में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास कोई नया नहीं है। जुलूस निकालने के लिए दुर्गा प्रतिमा स्थापित करने वाली संस्थाएं पुलिस प्रशासन से अनुमति लेती हैं। अगर पुलिस ने जुलूस निकालने के लिए परमीशन दिया था तो सुरक्षा इंतजाम क्यों नहीं किया? बहराइच के मराजगंज जैसे कस्बे में तो यह और भी जरूरी था, क्योंकि यहां मुस्लिम समुदाय की आबादी 85 फीसदी है। यहां दंगों का पुराना रिकॉर्ड रहा है। ''

''मुस्लिम आबादी वाले इलाकों से गुजरने वाले जुलूस में पर्याप्त फोर्स क्यों नहीं लगाई गई? इसके लिए सिर्फ छोटे अफसरों और सिपाहियों पर एक्शन लेने के बजाय पुलिस प्रशासन के उच्चाधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए थी। जाहिर है कि उन्मादी भीड़ को संभालने के लिए कोई तय फार्मूला नहीं होता है। यह जुलूस के प्रकार और उसके मार्ग के हिसाब से तय होता है कि कितनी फोर्स की जरूरत पड़ेगी। खासकर जब जुलूस संवेदनशील इलाकों से गुजरने वाला हो, तो उसका असेसमेंट करना बहुत जरूरी होता है। अगर सही आकलन कर लिया जाता और बाहर से अतिरिक्त फोर्स मंगा ली गई होती तो हिंसा नहीं भड़कती। जिस जिले में दंगों का पुराना रिकॉर्ड रहा हो, वहां सुरक्षा के इंतजाम होना चाहिए थे, जो नहीं किया गया।''

वरिष्ठ पत्रकार कुमार सौवीर यह भी कहते हैं, ''महराजगंज कस्बे में इस बार बड़े पैमाने पर भगवा झंडे और झंडियां टांगी गई थी। समूचे बाजार ने गेरुए रंग से नहा गया था। इससे पहले नवरात्रि से पहले गणेश पूजा के समय इस कस्बे में डीजे बजाने पर झड़प हुई थी। मुस्लिम समुदाय के कुछ लड़कों ने जबरिया डीजे बंद करा दिया था। जाहिर है कि सांप्रदायिक दंगे की पटकथा पहले से ही लिखी जा चुकी थी। सब कुछ पुलिस के समाने और उनकी जानकारी में था। इसके बावजूद पुलिस के कम जवानों की तैनाती घोर लापरवाही को इंगित करती है।''

“सुनियोजित थी सांप्रदायिक हिंसा”

कुमार सौवीर का मानना है कि यह पूरी तरह से ब्राह्मणों की ओर से भड़काई गई हिंसा थी, और इस बार बीजेपी की भूमिका भी इस कृत्य में कहीं न कहीं जुड़ी नजर आई। उन्होंने कहा, ''इस हिंसा में एक और गंभीर पहलू यह है कि ब्राह्मण समुदाय के लोग एकजुट होकर हिंसा में शामिल हो गए थे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रशासन ने इस हिंसा को भड़काने वालों को रोकने की जगह जैसे उपद्रव करने की छूट दे दी। युवक रामगोपाल मिश्रा की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट बताती है कि गोली मारने से पहले उसे बेरहमी से पीटा गया था। साथ ही शरीर पर नुकीले हथियार से हमला किया गया था। उसके चेहरे, गले, और सीने में 25 से 30 छर्रों के निशान मिले हैं, जो उसकी दर्दनाक मौत की कहानी बयां करते हैं। रामगोपाल के शरीर पर काले निशान मिले हैं। बॉडी से काफी खून बह गया थ। संभवतः खून की कमी के चलते उसकी मौत हुई होगी।''

कुमार सौवीर के मुताबिक, ''जब राम गोपाल मिश्रा सरफराज के घर की छत पर चढ़े थे और उनकी मौत हुई, उस वक्त पुलिस मौके पर मौजूद थी। तो फिर सवाल यह उठता है कि पुलिस उस समय क्या कर रही थी? क्या उन्हें स्थिति का आकलन करने में देरी हुई या फिर उन्होंने इसे नजरअंदाज किया? अगर पुलिस सतर्क रहती और समय पर हस्तक्षेप करती, तो शायद राम गोपाल की जान बचाई जा सकती थी।''

''जिस समय हिंसा को रोकने की सबसे अधिक जरूरत थी, उस वक्त पुलिस का बल नदारद था। अब जबकि इलाके में भारी फोर्स तैनात है और मीडिया तक पर अंकुश लगाया जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि इतनी सतर्कता पहले क्यों नहीं बरती गई? दंगाइयों को महाराजगंज बाजार में प्रवेश करने से रोकने में इतनी सुस्ती क्यों दिखाई गई? प्रशासन ने मीडिया कवरेज पर अंकुश लगाने की कोशिश की, जिसका नतीजा यह हुआ कि सही जानकारी जनता तक नहीं पहुंच सकी और अफवाहें फैलने लगीं।''

दरोगा दोषी या अफसर?

दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान भड़की हिंसा में प्रशासनिक लापरवाही का मामला सामने आया है। घटना को रोकने में असफल रहे हरदी के थाना इंचार्ज एसके वर्मा और महसी चौकी इंचार्ज शिवकुमार को सस्पेंड कर दिया गया है। सरकार ने इस मामले में लापरवाही के आरोप में महसी के सीओ भूपेंद्र गौड़ को भी सस्पेंड कर दिया है। इन कड़ी कार्रवाइयों के बावजूद इलाके में दहशत और खामोशी बरकरार है, और लोग किसी अनहोनी के डर से अपने घरों में दुबके हुए हैं।

पुलिस के एक सीनियर अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, '' हरदी थानाध्यक्ष का ज्यादा गुनाह नहीं था। उन्होंने अफसरों को पत्र लिखने के साथ ही मौखिक तौर पर फोर्स तैनात करने के लिए आग्रह किया था। इसके बावजूद जुलूस के लिए पर्याप्त पुलिस फोर्स नहीं दी गई। धार्मिक जुलूसों में ‘बॉक्स टाइप सिक्योरिटी’ लगाई जाती है, जिसमें जुलूस के सामने-पीछे और दाएं-बाएं पुलिसवाले चलते हैं। अगर हिंदुओं का जुलूस मुस्लिम बहुल इलाके से गुजरता है, तो मकानों की छतों पर भी पुलिस तैनात की जाती है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो पाया। इस वजह से भीड़ बेकाबू हो गई और लोग दंगे फसाद करने लगे।''

प्रतिमा रेहुवा मंसूर निवासी तीरथराम शुक्ला ने बताया कि गांव के लड़कों ने पुरा कालोनी दलित बस्ती में दुर्गा प्रतिमा स्थापित की थी। वहां पिछले 12 सालों से प्रतिमाएं स्थापित की जाती रही हैं। जिस समय दुर्गा पंडाल बनता है उसी समय रेहुवा मंसूर के शिवालय में भागवत कथा होती है। महराजगंज की घटना मर्माहत करने वाली है। रामगोपाल की हत्या के बाद समूचा गांव महाराजगंज बाजार में पहुंच गया था। करीब 20 किलोमीटर के दायरे में कई स्थानों पर हंगामा होता रहा। ऐसे में अगले दिन पुलिस ने ठोस इंतजाम क्यों नहीं किया? ''

महसी क्षेत्र के आंचलिक पत्रकार लवकुश वर्मा कहते हैं, दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के दौरान हम मौके पर थे। पुलिस की चूक से वारदात हुई। पुलिस के जवान छतों पर तैनात नहीं थे। विवाद के बाद पथराव हुआ और मामला बढ़ गया। प्रशासन की लापरवाही और पुलिस की सुस्ती ने हालात को और बिगाड़ दिया। शासन से मदद लेकर स्थिति को नियंत्रित करने की बजाय पुलिस के उच्चाधिकारी इस घटना को छुपाने और दबाने की कोशिश में जुटे थे। मेरे सामने ही एडीजी लॉ एंड ऑर्डर अमिताभ एस ने घटनास्थल पर नंगी रिवॉल्वर लेकर फायरिंग की। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या यह एक जरूरी कदम था अथवा महज एक दिखावा था?

पुलिस के मुखिया खुद इस तरह की हरकतें करेंगे, तो आम जनता कैसे विश्वास करेगी कि स्थिति नियंत्रण में है? ऐसे समय में पुलिस से उम्मीद की जाती है कि वह संयम से काम ले और स्थिति को संवेदनशीलता से संभाले। अगर अमिताभ एस की इस तरह की “नौटंकी” की बजाय पुलिस अपनी वास्तविक जिम्मेदारी निभाती, तो शायद हालात पहले ही काबू में आ जाते। यह सवाल गंभीर है कि जब एक युवक की जान चली गई, तो प्रशासन ने अगले दिन तक भारी पुलिस बल क्यों नहीं तैनात किया?

महाराजगंज में जो सन्नाटा पसरा है, वह सिर्फ आगजनी और हिंसा का परिणाम नहीं है, बल्कि यह प्रशासन की नाकामी का प्रमाण है। जब तक प्रशासन और पुलिस अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं लेंगे, ऐसी घटनाएं दोहराई जाएंगी और इसकी कीमत जनता को चुकानी पड़ेगी।

आंचलिक पत्रकार लवकुश यह भी कहते हैं, पुलिस और प्रशासन को इस तरह की घटना से पहले सतर्कता बरतनी चाहिए थी। आज महाराजगंज में जो सन्नाटा पसरा है, वह सिर्फ आगजनी और हिंसा का परिणाम नहीं है, बल्कि यह प्रशासन की नाकामी का प्रमाण है। जब तक प्रशासन और पुलिस अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं लेंगे, ऐसी घटनाएं दोहराई जाएंगी और इसकी कीमत जनता को चुकानी पड़ेगी।''

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं और उन्होंने जीरो ग्राउंड से रिपोर्ट की है।)

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