बीजेपी मंत्री विजय शाह द्वारा कर्नल सोफिया कुरैशी को “आतंकवादियों की बहन” कहने के मामले में एफआईआर दर्ज करने के एक दिन बाद मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने राज्य सरकार और पुलिस की भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने दर्ज की गई शिकायत को अस्पष्ट बताया और इसे “गंभीर धोखाधड़ी” (ग्रॉस सबटरफ्यूज) करार दिया। कोर्ट ने न्याय में बाधा डालने की किसी भी कोशिश को अस्वीकार्य माना है।

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा 15 मई 2025 को दिए गए आदेश को हालिया समय की सबसे कड़ी न्यायिक दखल में से एक माना जा सकता है, जो संस्थागत हेरफेर और राजनीतिक दंडमुक्ति (इम्प्युनिटी) के खिलाफ साफ और तीखा संदेश देता है। यह आदेश उस दिन के ठीक बाद आया जब कोर्ट ने बीजेपी मंत्री कुंवर विजय शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था। शाह ने सेना की अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ आपत्तिजनक और भड़काऊ टिप्पणी करते हुए उन्हें “आतंकवादियों की बहन” बताया था। हालांकि, कोर्ट ने पाया कि राज्य पुलिस ने एफआईआर को जानबूझकर इतना अपूर्ण और अस्पष्ट तरीके से दर्ज किया कि वह खुद रद्द होने योग्य हो गई। पीठ ने इसे “गंभीर धोखाधड़ी” (gross subterfuge) बताते हुए स्पष्ट किया कि यह न्यायिक निगरानी को निष्क्रिय करने का एक प्रयास लगता है।
न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति अनुराधा शुक्ला की खंडपीठ ने राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए टिप्पणी की कि दर्ज की गई एफआईआर अभियोजन के लिए नहीं, बल्कि संरक्षण के उद्देश्य से बनाई गई लगती है। न्यायालय ने खास तौर से इस ओर ध्यान दिलाया कि एफआईआर के पैरा 12 जहां मंत्री के कथित कृत्यों और उनके अपराध स्वरूप को स्पष्ट किया जाना था वहां केवल न्यायालय के पिछले दिन के आदेश के अंतिम पैरा को ही यथावत् दोहरा दिया गया और सभी तथ्यात्मक व कानूनी तर्कों को जानबूझकर हटा दिया गया। न्यायालय ने चेतावनी दी कि यह चूक एफआईआर को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 (जो अब धारा 482 सीआरपीसी का स्थान ले चुकी है) के अंतर्गत रद्द कराए जाने का रास्ता तैयार करती है, जिससे पूरी न्यायिक प्रक्रिया निष्प्रभावी हो सकती है।
15 मई की सुनवाई से यह साफ हो गया कि न्यायालय को राज्य पुलिस पर शक है कि वह मौजूदा कैबिनेट मंत्री के खिलाफ स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच करेगी या नहीं। कोर्ट ने बिना किसी संकोच के यह कहा कि ऐसा लगता है कि पूरा मामला पुलिस जानबूझकर प्रक्रिया को कमजोर कर रही है और कहीं न कहीं सरकार की तरफ से किसी तरह का संरक्षण भी दिया जा रहा है। हालांकि, कोर्ट ने किसी भी अधिकारी का नाम नहीं लिया जो इस "लापरवाही" के लिए जिम्मेदार था, लेकिन यह जरूर कहा कि अब आगे की कार्रवाई में यह देखा जाएगा कि एफआईआर तैयार करने में किसकी भूमिका रही।
जांच में निष्पक्षता बनाए रखने के लिए हाईकोर्ट ने एक कड़ा फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि 14 मई को जो आदेश दिया गया था उसे अब एफआईआर का हिस्सा माना जाएगा। साथ ही कोर्ट ने ये भी साफ किया कि अब वो खुद इस मामले की निगरानी करेगा ताकि यह केस फाइलों में न दबाया जाए या किसी राजनीतिक दबाव में गायब न हो जाए। कोर्ट ने साफ कहा कि ये फैसला सिर्फ प्रक्रियात्मक सुधार नहीं है। यह एक मजबूत संदेश है कि जब किसी बड़े ओहदे पर बैठा इंसान नफरत फैलाने वाली बातें करता है या सांप्रदायिक जहर घोलता है, तो अदालत ऐसे मामलों में चुप नहीं बैठेगी।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में हुई कार्यवाहियों का विवरण नीचे दिया गया है।
15 मई – मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एफआईआर में की गई 'गंभीर धोखाधड़ी' को लेकर राज्य पुलिस को फटकार लगाई।
I. सुनवाई: प्रक्रिया को कमजोर करने पर राज्य सरकार को कड़ी फटकार
15 मई 2025 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य पुलिस को कड़ी फटकार लगाई, क्योंकि उसने बीजेपी के मौजूदा मंत्री कुंवर विजय शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के पिछले आदेश का जिस तरह पालन किया, वह गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण था। मंत्री पर कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ आपत्तिजनक बयान देने का आरोप है। न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति अनुराधा शुक्ला की खंडपीठ ने स्पष्ट कर दिया कि अदालत इस मामले की जांच को बेपटरी या कमजोर पड़ने नहीं देगी।
LiveLaw की रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट ने एफआईआर के कंटेंट को लेकर भारी नाराजगी जताई। अदालत ने कहा कि एफआईआर इतनी अधूरी और अस्पष्ट तरीके से तैयार की गई है कि वह खुद-ब-खुद रद्द करने लायक बन गई है। खंडपीठ ने महाधिवक्ता से कहा, "मुझे यकीन है आपने इसे पढ़ा होगा। इसे ऐसे ढंग से लिखा गया है कि यह रद्द की जा सके। इसमें आरोप के जरूरी तत्व कहां हैं? इसे तैयार किसने किया?" अदालत ने यह सवाल भी उठाया कि जब एफआईआर में न मंत्री के कार्यों का स्पष्ट जिक्र है, न ही यह बताया गया है कि वे कार्य कैसे कानून की धारा के अंतर्गत अपराध बनते हैं तो फिर ऐसी एफआईआर को वैध कैसे माना जा सकता है?
महाधिवक्ता ने कोर्ट को बताया कि राज्य ने 14 मई के आदेश का पालन किया है और एफआईआर की एक प्रति भी सौंपी गई है। लेकिन खंडपीठ इससे संतुष्ट नहीं हुई। कोर्ट ने विशेष रूप से एफआईआर के पैरा 12 की ओर इशारा किया, जिसमें आरोपी के कृत्यों और उनके अपराध की श्रेणी में आने की जानकारी दी जानी चाहिए थी। कोर्ट ने कहा कि यह पैरा केवल पिछले आदेश की मेकेनिकली तैयार कॉपी है, न तो इसमें आरोपी के व्यवहार का स्पष्ट विवरण है, न ही यह बताया गया है कि उस पर भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152, 196(1)(b), और 197(1)(c) के तहत आरोप क्यों लगाए गए हैं।
खंडपीठ ने इस चूक को जानबूझकर की गई साजिश और "गंभीर धोखाधड़ी" करार दिया, जिसका उद्देश्य मामले को कमजोर करना और मंत्री को भविष्य में मुकदमे से बचाना था। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार कोर्ट ने कहा, "यह एफआईआर इस तरह दर्ज की गई है... ताकि अगर इसे पहले की धारा 482 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528) के तहत चुनौती दी जाती है, तो इसे रद्द किया जा सके।"
महाधिवक्ता प्रशांत सिंह द्वारा यह आश्वासन दिए जाने के बावजूद कि राज्य का मंत्री को बचाने का कोई इरादा नहीं है और वह सभी निर्देशों का पालन करेगा तो कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल इरादे से प्रक्रिया की कमजोरियों को ठीक नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि उसे इस जांच की निगरानी करनी होगी, न तो एजेंसी की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने के लिए, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि जांच पर बाहरी प्रभाव या राजनीतिक दबाव का कोई असर न हो।
II. आदेश: कड़ी आलोचना और न्यायिक सुरक्षा उपाय
उस दिन शाम में, उच्च न्यायालय का लिखित आदेश उसकी नाखुशी की पूरी गंभीरता को उजागर करता है। बिना किसी संकोच के, खंडपीठ ने एफआईआर को जानबूझकर भ्रामक बनाने का प्रयास बताया, जिसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को विफल करना था।
कोर्ट ने एफआईआर में यह टिप्पणी की कि, "इस कोर्ट ने एफआईआर के पैराग्राफ-12 की जांच की है, जिसमें आरोपी के कृत्य से अपराध के तत्वों को जोड़कर उन्हें स्पष्ट करना आवश्यक था। यह एफआईआर संक्षिप्त है। एफआईआर को पूरी तरह से पढ़ने के बाद, इसमें एक भी बार आरोपी के कृत्यों का उल्लेख नहीं किया गया है, जो उसके खिलाफ दर्ज किए गए अपराधों के तत्वों को पूरा करते हों," ।
भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152 किसी भी ऐसे भाषण या कृत्य को अपराध मानती है जो अलगाववादी विचारधारा को बढ़ावा देता है या राष्ट्रीय एकता को कमजोर करता है और यह अपराध आजीवन सजा का कारण बन सकता है। धारा 196(1)(b) और धारा 197(1)(c) सांप्रदायिक तनाव फैलाने और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ किए गए कृत्यों से संबंधित हैं। ये प्रावधान भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरे में डालने, सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने और राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने वाले कृत्यों के खिलाफ हैं। ये सभी गंभीर आरोप मंत्री शाह के उन बयानों के कारण लगे, जिसमें उन्होंने कर्नल कुरैशी को "आतंकी की बहन" बताया था।
हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि एफआईआर को इस तरह तैयार किया गया था कि वह सतही तौर पर तो आदेश का पालन करती दिखे, लेकिन उसमें वे महत्वपूर्ण तत्व गायब थे जो न्यायिक जांच को सहन कर सकें। कोर्ट ने कड़ी आलोचना करते हुए लिखा:
यह एफआईआर इस तरह दर्ज की गई है कि इसमें पर्याप्त जगह छोड़ी गई है, ताकि यदि इसे पहले की धारा 482 (अब धारा 528 BNSS) के तहत चुनौती दी जाती है, तो इसे रद्द किया जा सके, क्योंकि इसमें अपराधों के तत्वों की सामग्री की कमी है, जो प्रत्येक विशिष्ट अपराध को साबित करने के लिए जरूरी थे। यह राज्य की तरफ से एक गंभीर धोखाधड़ी है। एफआईआर इस तरह तैयार की गई है कि आरोपी विजय शाह को बाद में इसे रद्द करवाने में मदद मिल सके।
कोर्ट ने फिलहाल उन लोगों के नाम लिखने से इंकार कर दिया, जिन्हें उसने जवाबदेही को कमजोर करने के लिए "लापरवाही" के लिए जिम्मेदार ठहराया, लेकिन उसने यह साफ किया कि वह इसे आगामी कार्यवाही में आगे जांच करेगा।
"इस महत्वपूर्ण समय पर कोर्ट यह तय करने से बचता है कि राज्य पुलिस के किस अधिकारी ने इस अधूरी कोशिश के लिए जिम्मेदारी ली। लेकिन, भविष्य की कार्यवाही में कोर्ट इसका पता लगाने की कोशिश करेगा।"
मामले को बेपटरी होने से बचाने के लिए, कोर्ट ने एक अनूठा निर्देश जारी किया:
"हालांकि, यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस धोखाधड़ी को शुरुआत में ही रोका जा सके, कोर्ट निर्देश देती है कि 14.05.2025 का पूरा आदेश एफआईआर के पैराग्राफ 12 का हिस्सा माना जाए और इसके बाद सभी न्यायिक, अर्ध-न्यायिक और जांच प्रक्रिया में इसे लागू किया जाए।"
यह निर्देश यह सुनिश्चित करता है कि कोर्ट के पहले के आदेश की सामग्री जिसमें शाह के बयानों को अपराध मानने की विस्तृत व्याख्या शामिल है, उसे एफआईआर का हिस्सा मानी जाए, जिससे पुलिस की चूकों से पैदा हुई कानूनी खामियों से उसे सुरक्षा मिल सके।
आखिर में, मामले की संवेदनशीलता और गंभीरता को देखते हुए, कोर्ट ने कहा कि वह जांच की निगरानी आगे भी जारी रखेगा। हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह पुलिस की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं होगा लेकिन खंडपीठ ने यह भी साफ कर दिया कि निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए अब न्यायिक निगरानी जरूरी हो गई है।
"मामले की प्रकृति और एफआईआर दर्ज करने के तरीके को देखते हुए, यह कोर्ट उस पर भरोसा नहीं कर पा रही है। कोर्ट का मानना है कि यदि इस मामले की समुचित निगरानी नहीं की गई तो पुलिस न्याय के हित में और कानून के अनुसार निष्पक्ष जांच नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में, यह कोर्ट खुद को विवश महसूस करती है कि वह जांच की निगरानी करे, हालांकि जांच एजेंसी की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किए बिना, केवल इतना सुनिश्चित करने के लिए कि जांच निष्पक्ष रूप से, कानून के अनुसार और किसी बाहरी दबाव या निर्देश से प्रभावित हुए बिना हो।"
मामला अवकाश के तुरंत बाद सूचीबद्ध किया जाएगा, ताकि न्यायिक निगरानी में निरंतरता बनी रहे।
कोर्ट के आदेश के प्रमुख निष्कर्ष:
1. अपराध को स्पष्ट रूप से न लिखना
कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि एफआईआर, हालांकि संक्षिप्त है, लेकिन उसमें वह आवश्यक सामग्री नहीं है जो कानूनन एक वैध एफआईआर के लिए जरूरी होती है। एफआईआर का पैरा 12, जिसमें आरोपी के कृत्यों का कानूनी तत्वों के आधार पर वर्णन होना चाहिए था, केवल कोर्ट के 14 मई 2025 के आदेश के अंतिम हिस्से की प्रतिलिपि मात्र है।
2. रणनीतिक कमी और लापरवाही
कोर्ट केवल तकनीकी खामियों की पहचान तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने न्यायिक आदेश को जानबूझकर कमजोर करने का आरोप लगाया। यह सिर्फ लापरवाही नहीं, बल्कि एक मंशा को दर्शाता है। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि एफआईआर को इस तरह तैयार किया गया है जिससे आरोपी को भविष्य में इसे रद्द कराने में मदद मिल सके।
3. जिम्मेदारी तय करने को टालना
एफआईआर को तैयार करने की प्रक्रिया को कोर्ट ने "अधूरी कोशिश" बताया, लेकिन फिलहाल पुलिस सिस्टम में किसे इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाए, इस पर कोई नाम नहीं लिया। हालांकि, कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि भविष्य में वह ऐसा करने का अधिकार सुरक्षित रखता है।
4. पहले के आदेश को एफआईआर में न्यायिक रूप से शामिल करना
एफआईआर को कानूनी रूप से निष्प्रभावी होने से बचाने के लिए कोर्ट ने एक निर्णायक कदम उठाया। उसने निर्देश दिया कि 14 मई 2025 का उसका आदेश एफआईआर का हिस्सा माना जाए। यह कदम असामान्य और विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि आमतौर पर अदालतें कार्यपालिका के दस्तावेजों को नहीं लिखतीं। लेकिन इस मामले में कोर्ट ने अपनी पूर्व की कानूनी और तथ्यात्मक व्याख्या को एफआईआर में जोड़कर यह सुनिश्चित किया कि अब एफआईआर में जांच और अभियोजन के लिए आवश्यक सभी कानूनी और तथ्यात्मक तत्व मौजूद हों।
5. जांच की न्यायिक निगरानी
कोर्ट ने यह स्पष्ट करते हुए कहा कि उसे पुलिस द्वारा निष्पक्ष रूप से काम करने पर भरोसा नहीं है। उसने जांच की निगरानी करने की मंशा जाहिर की। यह दखल नहीं, बल्कि एक निगरानी व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता और विश्वसनीयता बनाए रखना है। कोर्ट की भाषा इस बात का ध्यान रखती है कि पुलिस की संस्थागत स्वतंत्रता बनी रहे, लेकिन साथ ही यह भी जोर देती है कि न्यायिक सतर्कता अब जरूरी हो गई है।
पूरा आदेश नीचे पढ़ा जा सकता है।
15 मई — सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी मंत्री विजय शाह को अंतरिम राहत देने से किया इनकार
15 मई को सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी मंत्री कुंवर विजय शाह को उस एफआईआर के मामले में अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया, जो उन्होंने कर्नल सोफिया कुरैशी को "आतंकवादियों की बहन" कहकर दिए गए भड़काऊ बयान के मामले में दर्ज की गई थी। यह एफआईआर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के स्वप्रेरित (suo motu) आदेश के बाद दर्ज की गई थी।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता विभा माखिजा द्वारा तत्काल सुनवाई की मांग के तहत उठाया गया, जो मंत्री शाह की ओर से पेश हुईं। उन्होंने हाई कोर्ट के स्वप्रेरित आदेश की वैधता पर सवाल उठाया और सर्वोच्च न्यायालय से दखल की अपील की। हालांकि, न्यायमूर्ति ए. जी. मसीह के साथ पीठ की अध्यक्षता कर रहे मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने इस पर दखल करने से इनकार कर दिया। सीजेआई गवई ने एक अहम टिप्पणी की:
"ऐसे पद पर बैठे व्यक्ति से एक निश्चित स्तर की मर्यादा की अपेक्षा की जाती है। मंत्री द्वारा कही गई हर बात एक जfम्मेदारी के साथ जुड़ी होती है।"
वरिष्ठ अधिवक्ता विभा माखिजा ने पीठ को बताया कि शाह पहले ही माफी मांग चुके हैं और उनका बयान मीडिया द्वारा तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। उन्होंने अनुरोध किया कि जब तक शाह की बात नहीं सुनी जाती, तब तक उनके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई न की जाए।
हालांकि, लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, कोर्ट को बताया गया कि संबंधित एफआईआर पहले ही दर्ज हो चुकी है। इसके जवाब में पीठ ने कोई भी अंतरिम आदेश पारित करने से इनकार कर दिया और मंत्री शाह को उचित राहत के लिए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का रुख करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने यह टिप्पणी की:
"जाइए और हाई कोर्ट में अर्जी दीजिए। हम कल इस पर सुनवाई करेंगे।"
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल न तो कार्यवाही पर रोक लगाई और न ही कोई सुरक्षा प्रदान की, लेकिन हाई कोर्ट द्वारा न्यायिक समीक्षा के लिए रास्ता खुला रखा। यह मामला संभवतः जल्द ही फिर से उठाया जाएगा।
14 मई – मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ नफरत भरे बयान के लिए एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया
I. सुनवाई: बीजेपी मंत्री के "अपमानजनक" भाषण पर कोर्ट की सख्त आलोचना
14 मई, 2025 को, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने बीजेपी मंत्री कुंवर विजय शाह द्वारा की गई बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी पर स्वतः संज्ञान लिया। कोर्ट ने तुरंत और सख्ती से कार्रवाई करते हुए मंत्री के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धाराओं 152, 196(1)(b), और 197(1)(c) के तहत एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया। न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति अनुराधा शुक्ला की पीठ ने मंत्री के बयान को न केवल "अपमानजनक" और "खतरनाक" बताया, बल्कि इसे "गटर की भाषा" भी कहा। कोर्ट ने यह माना कि यह बयान व्यक्तिगत अपमान से कहीं ज्यादा था और भारतीय सशस्त्र बलों को एक संस्था के रूप में गंभीर रूप से नीचा दिखाने वाला था।
कोर्ट ने सशस्त्र बलों के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि वे शायद देश का आखिरी किला है, जो ईमानदारी, अनुशासन, बलिदान, निस्वार्थता और साहस से भरे होते हैं जो गुण किसी भी देशभक्त नागरिक को प्रिय होने चाहिए। कोर्ट ने विशेष रूप से गंभीरता से यह टिप्पणी की कि कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य अभियान 'ऑपरेशन सिंदूर' के दौरान मीडिया और देश को सशस्त्र बलों के कार्यों के बारे में जानकारी देने वाले प्रमुख चेहरे थे। इसलिए, मंत्री का बयान केवल उस अधिकारी को नहीं बल्कि सशस्त्र बलों की पूरी गरिमा और सम्मान को निशाना बना रहा था। कोर्ट ने शाह की टिप्पणियों को "अक्षम्य" आरोप बताते हुए इसे कर्नल कुरैशी पर सीधे हमला कहा।
कानूनी दृष्टिकोण से, कोर्ट ने शाह के खिलाफ BNS, 2023 के तहत लगाए गए अपराधों की प्राइम फेसी (प्रारंभिक) जांच की। कोर्ट ने यह माना कि धारा 152 जो भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कार्यों को अपराध मानती है, यहां स्पष्ट रूप से लागू होती है। कोर्ट ने कहा कि एक मुस्लिम अधिकारी कर्नल कुरैशी को "आतंकवादियों की बहन" कहकर शाह ने अप्रत्यक्ष रूप से अलगाववादी भावनाओं और मुसलमानों के प्रति संदेह को बढ़ावा दिया, जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा हुआ। कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि यह बयान मुसलमानों को अलगाववादी पहचान देता है, जो एक खतरनाक संकेत है और यह देश की संप्रभुता को कमजोर कर सकता है।
इसके अलावा, कोर्ट ने पाया कि धारा 196(1)(b) जो धार्मिक, नस्लीय, भाषाई या क्षेत्रीय समूहों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के लिए हानिकारक कार्यों को सजा देती है, यहां लागू होती है। कोर्ट ने कहा कि कर्नल कुरैशी का सांप्रदायिक आधार पर मजाक उड़ाना समाज की नाजुक सामाजिक संरचना और सार्वजनिक शांति को भंग कर सकता है। उनके धार्मिक पहचान को अपमानजनक तरीके से सामने लाकर, शाह की टिप्पणी सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने का खतरा पैदा कर रही थी।
कोर्ट ने यह भी माना कि धारा 197(1)(c) यहां प्राइम फेसी (प्रारंभिक रूप से) लागू होती है। यह प्रावधान किसी भी ऐसे बयान या याचिका को अपराध मानता है, जो समुदायों के बीच दुश्मनी या द्वेष पैदा करे या ऐसा करने की संभावना हो। कोर्ट ने कहा कि मंत्री की टिप्पणियों में साफ तौर पर "नफरत" और "असहमति" को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति थी, चाहे कर्नल कुरैशी जैसे निस्वार्थ सेवा देने वाले अधिकारियों का योगदान कुछ भी हो।
इन गंभीर प्राइम फेसी (प्रारंभिक) निष्कर्ष के मद्देनजर कोर्ट ने मध्य प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को आदेश दिया कि वे मंत्री शाह के खिलाफ तुरंत एफआईआर दर्ज करें और यह काम उसी शाम तक किया जाए। कोर्ट ने चेतावनी दी कि अगर आदेश का पालन नहीं किया गया, तो पुलिस महानिदेशक के खिलाफ अदालत की अवमानना अधिनियम के तहत कार्यवाही की जाएगी। अधिवक्ता जनरल को निर्देशित किया गया कि वे कोर्ट के आदेश को तुरंत पुलिस अधिकारियों तक पहुंचाएं और इसका पालन सुनिश्चित करें।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति श्रीधरन ने अधिवक्ता जनरल से कहते हुए कोई भी देरी नहीं सहन करने की अपनी नाराजगी जाहिर की और कहा:
"एफआईआर तुरंत दर्ज करें... मुझे नहीं पता कि कल मैं जिंदा रहूं या नहीं... मैं आपको चार घंटे दे रहा हूं... या तो इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट स्थगित कर दे, या इसे कल तक लागू किया जाए।"
जब अधिवक्ता जनरल ने यह कहा कि कोर्ट के निष्कर्ष मुख्य रूप से मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित हैं और यह भी हो सकता है कि टिप्पणियों को गलत समझा गया हो या संदर्भ से बाहर लिया गया हो, तो कोर्ट ने इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि उसने स्वयं उन टिप्पणियों का वीडियो देखा था और वह यूट्यूब लिंक को आदेश में शामिल करेगी, साथ ही शाह की भाषण को "जहर" करार दिया और इस मामले को गंभीरता से लेने की बात को स्पष्ट किया।
यह स्पष्ट और कड़ा आदेश कोर्ट की उस इच्छा को दर्शाता है कि वह सशस्त्र बलों की गरिमा और कानून के शासन की रक्षा करेगा, विशेषकर तब जब नफरत भरी भाषा सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों द्वारा दी जाए। सु-ओ-मोटो कार्रवाई करते हुए और BNS (भारतीय न्याय संहिता) के संबंधित प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए कोर्ट ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि सांप्रदायिक मानहानि, विशेष रूप से राजनेताओं द्वारा, सहन नहीं की जाएगी और इसके खिलाफ त्वरित न्यायिक कार्रवाई की जाएगी।
कोर्ट के रुख ने इस संवैधानिक सिद्धांत को भी उजागर किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है विशेष रूप से उन सार्वजनिक व्यक्तियों के लिए जिनके शब्द समाज में विभाजन पैदा कर सकते हैं और राष्ट्रीय एकता को कमजोर कर सकते हैं। इस फैसले ने यह सशक्त संदेश दिया कि न्यायपालिका नफरत फैलाने वाले भाषणों और सांप्रदायिक तनाव के खिलाफ एक सतर्क प्रहरी की भूमिका निभाएगी। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि सशस्त्र बलों को उच्चतम सम्मान मिलना चाहिए और उन्हें किसी भी अपमानजनक या उकसाने वाली टिप्पणी से संरक्षण मिलना चाहिए।
II. आदेश: एक मंत्री द्वारा की गई नफरत और अपमानजनक टिप्पणी पर संविधान सम्मत फटकार
14 मई 2025 को दिए गए अपने आदेश में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने बीजेपी मंत्री कुंवर विजय शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का एक सख्त और स्पष्ट निर्देश जारी किया। मंत्री ने सार्वजनिक रूप से कर्नल सोफिया कुरैशी को "आतंकवादियों की बहन" कहा था। मीडिया रिपोर्ट्स और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध वीडियो फुटेज के आधार पर कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया और इस बयान को न सिर्फ अत्यंत आपत्तिजनक माना बल्कि इसे भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS) के तहत प्रथम दृष्टया आपराधिक कृत्य भी बताया।
इस आदेश के केंद्र में कोर्ट की सख्त टिप्पणी है कि शाह की बात सिर्फ किसी व्यक्ति का अपमान नहीं थी बल्कि यह भारतीय सशस्त्र बलों की संस्थागत गरिमा पर सीधा हमला था। पीठ ने मंत्री की भाषा को “घटिया,” “अपमानजनक,” “खतरनाक,” और “गटर की भाषा” करार दिया। कोर्ट ने यह भी माना कि यह हमला कोई अलग-थलग टिप्पणी नहीं थी, बल्कि यह सीधे एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी को निशाना बनाकर किया गया था जो उस समय राष्ट्रीय सुरक्षा अभियान ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान सार्वजनिक रूप से सशस्त्र बलों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं।
"सशस्त्र बल, संभवतः इस देश की अंतिम ऐसी संस्था हैं जो ईमानदारी, परिश्रम, अनुशासन, बलिदान, निस्वार्थता, चरित्र, सम्मान और अडिग साहस जैसे गुणों का प्रतीक हैं और जिनसे इस देश का हर वह नागरिक अपने को जोड़ सकता है जो इन मूल्यों को मानता है। इसी संस्था को विजय शाह ने निशाना बनाया है और कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ ‘गटर की भाषा’ का इस्तेमाल किया है।” (पैरा 2)
न्यूज रिपोर्टों और वीडियो कंटेंट के आधार पर कोर्ट ने पाया कि शाह द्वारा कर्नल कुरैशी को “पहालगाम में 26 भारतीयों की हत्या करने वाले आतंकवादियों की बहन” कहकर जो टिप्पणी की गई, वह न तो अस्पष्ट थी और न ही सामान्य बल्कि यह सीधा संकेत था, जो विशेष रूप से उन्हीं की ओर इशारा करता था क्योंकि भाषण में दिए गए विवरण से वही एक व्यक्ति मेल खा रही थीं। कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि शाह ने दरअसल यह मैसेज दिया कि “प्रधानमंत्री ने आतंकवादियों से निपटने के लिए आतंकवादियों की बहन को भेजा,” जो न सिर्फ उकसाने वाला था बल्कि सशस्त्र बलों पर जनता के भरोसे को गहरा नुकसान पहुंचाने वाला भी।
“उस सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने कर्नल सोफिया कुरैशी को उन आतंकवादियों की बहन कहा जिन्होंने पहलगाम में 26 निर्दोष भारतीयों की हत्या की। इसके अलावा, अखबारों की रिपोर्ट्स और इंटरनेट पर उपलब्ध बड़ी मात्रा में डिजिटल कंटेंट से यह साफ होता है कि मंत्री का भाषण बिल्कुल साफ और स्पष्ट था, जिसमें उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जिक्र करते हुए कहा कि 'आतंकवादियों की बहन' को उनसे निपटने के लिए भेजा गया। उनके ये बयान न केवल उस अधिकारी के लिए, बल्कि पूरी सशस्त्र सेनाओं के लिए भी अपमानजनक और खतरनाक हैं।” (पैरा 3)
अपने कानूनी विश्लेषण में कोर्ट ने भारतीय न्याय संहिता (BNS) की तीन धाराओं का हवाला दिया और माना कि ये तीनों प्रावधान प्रथम दृष्टया (prima facie) इस मामले में लागू होते हैं।
सबसे पहले, कोर्ट ने धारा 152 BNS का उल्लेख किया, जो भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों से संबंधित है। कोर्ट ने पाया कि एक मुस्लिम सेना अधिकारी को आतंकवादियों से जोड़ने का संकेत देकर मंत्री ने अलगाववादी भावना को बढ़ावा दिया और राष्ट्रीय एकता को कमजोर किया। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि सशस्त्र बलों में सेवा देने वाले मुस्लिम अधिकारियों पर अलगाववादी सोच थोपना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि राष्ट्र विरोधी भी है।
“प्रथम दृष्टया, मंत्री का यह बयान कि कर्नल सोफिया कुरैशी उस आतंकवादी की बहन हैं जिसने पहलगाम में हमला किया था, मुस्लिम होने के आधार पर किसी व्यक्ति में अलगाववादी सोच होने का संकेत देता है। यह अलगाववादी गतिविधियों को बढ़ावा देता है, जिससे भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरा पैदा होता है।” (पैरा 6)
भारतीय न्याय संहिता की धारा 196(1)(b) जो धर्म और समुदायों के बीच सौहार्द बिगाड़ने वाले कार्यों को अपराध मानती है, कोर्ट द्वारा उद्धृत दूसरा प्रावधान था। कोर्ट ने कहा कि मंत्री की टिप्पणी से यह धारणा बन सकती है कि मुसलमान, चाहे वे देश के प्रति कितने भी वफादार या सेवाभावी क्यों न हों, उन पर हमेशा शक किया जाएगा। कोर्ट ने माना कि ऐसी बातों से सामाजिक शांति बिगड़ सकती है और धार्मिक तनाव बढ़ सकता है।
" प्रथम दृष्टया यह धारा लागू होगी क्योंकि कर्नल सोफिया क़ुरैशी मुसलमान हैं और उन्हें आतंकवादियों की बहन कहकर अपमानित करना विभिन्न धर्मों के बीच सौहार्द को बनाए रखने में बाधक हो सकता है। यह इस बात को बढ़ावा दे सकता है कि किसी व्यक्ति की भारत के प्रति निस्वार्थ सेवा के बावजूद, उसे सिर्फ इस कारण से ताना मारा जाए कि वह मुस्लिम है। इसलिए, प्रथम दृष्टया यह कोर्ट संतुष्ट है कि धारा 196(1)(b) के तहत अपराध भी किया गया है।" (पैरा 8)
धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी बढ़ाने वाली दावों को अपराध मानने वाली बीएनएस की धारा 197(1)(c) को भी लागू पाया गया। कोर्ट ने कहा कि मंत्री की टिप्पणियों में धार्मिक विभाजन को गहरा करने और समुदायों के बीच शत्रुता को उकसाने की क्षमता थी, खासकर जब सार्वजनिक और भड़काऊ संदर्भ में सामुदायिक धारणाओं को बढ़ावा दिया गया।
“मंत्री विजय शाह द्वारा की गई टिप्पणी में प्रधम दृष्टया मुस्लिम समुदाय और अन्य धर्मों से संबंधित व्यक्तियों के बीच दुश्मनी, नफरत या शत्रुता की भावना को बढ़ाने की संभावना है।” (पैरा 10)
इन निष्कर्षों के आधार पर, न्यायालय ने पुलिस महानिदेशक को आदेश दिया कि वे विजय शाह के खिलाफ बीएनएस की धारा 152, 196(1)(b), और 197(1)(c) के तहत तत्काल, 14 मई की शाम तक एफआईआर दर्ज करें। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि यदि आदेश का पालन नहीं किया जाता है, तो इसके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जाएगी।
“यहां ऊपर जो भी पाया गया है, उसके आधार पर यह अदालत मध्य प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को निर्देश देती है कि वे मंत्री विजय शाह के खिलाफ बीएनएस की धाराओं 152, 196(1)(b) और 197(1)(c) के तहत तुरंत एफआईआर दर्ज करें। यह कार्य आज शाम तक किया जाना चाहिए, अन्यथा कल जब मामला सूचीबद्ध होगा, तो अदालत राज्य के पुलिस महानिदेशक के खिलाफ इस आदेश की अवमानना की कार्रवाई करने पर विचार कर सकती है।” (पैरा 11)
इसके अलावा, अदालत ने राज्य के महाधिवक्ता कार्यालय को आदेश दिया कि वह तुरंत इस आदेश को पुलिस महानिदेशक को भेजे और रजिस्ट्रार (आईटी) से कहा कि वे शाह के भाषण के वीडियो लिंक इकट्ठा कर उन्हें अगले दिन की कार्यवाही के लिए रिकॉर्ड में रखें।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेश के मुख्य निष्कर्ष:
संविधानिक अखंडता बनाए रखने के लिए suo-motu का इस्तेमाल: अदालत ने अपनी suo-motu पर काम करते हुए यह माना कि यह मामला इतना गंभीर है कि इसके लिए औपचारिक शिकायत का इंतजार नहीं किया जा सकता। यह उन व्यक्तियों द्वारा नफरत भरे भाषणों को लेकर न्यायपालिका की भूमिका को मजबूत करता है, जो सार्वजनिक पदों पर रहते हुए इस तरह के बयान देते हैं।
सशस्त्र बलों को एक संवैधानिक संस्था के रूप में हमले का वर्णन: अदालत ने सशस्त्र बलों को राष्ट्रीय मूल्यों का प्रतीक माना और कहा कि इनका अपमान करना, खासकर अगर इसमें सांप्रदायिक तत्व हो तो यह एक गंभीर संवैधानिक अपराध है।
सांप्रदायिक इरादे की पहचान और बीएनएस प्रावधानों की कानूनी उपयुक्तता: अदालत ने शाह के बयान को सांप्रदायिक रूप से अपमानजनक और असंवैधानिक पाया। इसके अलावा, अदालत ने नए दंड संहिता के तहत प्रावधानों को लागू करते हुए यह माना कि शाह का बयान राष्ट्रीय अखंडता और सांप्रदायिक सौहार्द के लिए खतरा पैदा करता है।
तत्कालिता और न्यायिक जवाबदेही: अदालत ने राज्य पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के लिए उसी दिन की समयसीमा दी और स्पष्ट किया कि यदि आदेश का पालन नहीं किया गया, तो इसे अदालत की अवमानना माना जाएगा। यह राज्य संस्थाओं से तात्कालिक जवाबदेही की मांग को दर्शाता है।
राजनीतिक नफरती बयान की निंदा: यह आदेश एक सशक्त संदेश देता है कि चुनावी प्रतिनिधियों द्वारा की गई नफरती और सांप्रदायिक भाषण विशेष रूप से जब यह सेना के अधिकारियों को निशाना बनाकर कर किया गया हो उसको राजनीतिक अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं माना जाएगा, बल्कि यह दंडनीय अपराध होगा।
यह आदेश एक महत्वपूर्ण संविधानिक क्षण के रूप में है: एक अदालत द्वारा यह रेखा खींची जाती है कि राजनीतिक भाषण कब आपराधिक प्रचार में बदल जाता है और यह पुष्टि की जाती है कि उच्चतम पदों पर आसीन व्यक्तियों को भी कानून के सामने जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
पूरा आदेश यहां पढ़ा जा सकता है
पृष्ठभूमि
14 मई, 2025 को, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने मीडिया और डिजिटल प्लेटफार्मों पर प्रकाशित चिंताजनक रिपोर्टों के आधार पर स्वयं इस मामले की सुनवाई की। उसी दिन पत्रिका, दैनिक भास्कर (जबलपुर संस्करण) और नई दुनिया में प्रकाशित खबरों के साथ-साथ ऑनलाइन प्रसारित वीडियो फुटेज जिसे अदालत ने एक यूट्यूब लिंक के माध्यम से उद्धृत किया उससे पता चला कि मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह ने म्हो के अम्बेडकर नगर में रैयकुंडा गांव में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान आपत्तिजनक और सांप्रदायिक टिप्पणी की थी।
यह टिप्पणी भारतीय सेना की एक वरिष्ठ अधिकारी कर्नल सोफिया कुरेशी के खिलाफ की गई थी। मंत्री शाह ने अप्रत्यक्ष रूप से लेकिन साफ तौर पर उन्हें “आतंकी की बहन” कहा और यह टिप्पणी ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सेना की प्रवक्ता के रूप में उनकी भूमिका का संदर्भ प्रतीत होती है। अदालत ने यह माना कि भाषा न केवल अपमानजनक और घटिया थी, बल्कि इसमें सांप्रदायिक उकसावे का भी खतरनाक संकेत था। अदालत ने कहा कि यह भाषण केवल एक अधिकारी को निशाना नहीं बना रहा था, बल्कि यह सेना पर एक व्यापक हमला था। एक ऐसी संस्था जिसे अदालत ने कहा कि वह आज भी अनुशासन, बलिदान और ईमानदारी जैसे मूल्यों का प्रतीक है।
इस टिप्पणी की गंभीरता और इसके सांप्रदायिक सौहार्द और संस्थागत गरिमा पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए, अदालत ने किसी औपचारिक शिकायत का इंतजार किए बिना ही प्रक्रिया शुरू की।
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मध्य प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा 15 मई 2025 को दिए गए आदेश को हालिया समय की सबसे कड़ी न्यायिक दखल में से एक माना जा सकता है, जो संस्थागत हेरफेर और राजनीतिक दंडमुक्ति (इम्प्युनिटी) के खिलाफ साफ और तीखा संदेश देता है। यह आदेश उस दिन के ठीक बाद आया जब कोर्ट ने बीजेपी मंत्री कुंवर विजय शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था। शाह ने सेना की अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ आपत्तिजनक और भड़काऊ टिप्पणी करते हुए उन्हें “आतंकवादियों की बहन” बताया था। हालांकि, कोर्ट ने पाया कि राज्य पुलिस ने एफआईआर को जानबूझकर इतना अपूर्ण और अस्पष्ट तरीके से दर्ज किया कि वह खुद रद्द होने योग्य हो गई। पीठ ने इसे “गंभीर धोखाधड़ी” (gross subterfuge) बताते हुए स्पष्ट किया कि यह न्यायिक निगरानी को निष्क्रिय करने का एक प्रयास लगता है।
न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति अनुराधा शुक्ला की खंडपीठ ने राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए टिप्पणी की कि दर्ज की गई एफआईआर अभियोजन के लिए नहीं, बल्कि संरक्षण के उद्देश्य से बनाई गई लगती है। न्यायालय ने खास तौर से इस ओर ध्यान दिलाया कि एफआईआर के पैरा 12 जहां मंत्री के कथित कृत्यों और उनके अपराध स्वरूप को स्पष्ट किया जाना था वहां केवल न्यायालय के पिछले दिन के आदेश के अंतिम पैरा को ही यथावत् दोहरा दिया गया और सभी तथ्यात्मक व कानूनी तर्कों को जानबूझकर हटा दिया गया। न्यायालय ने चेतावनी दी कि यह चूक एफआईआर को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 (जो अब धारा 482 सीआरपीसी का स्थान ले चुकी है) के अंतर्गत रद्द कराए जाने का रास्ता तैयार करती है, जिससे पूरी न्यायिक प्रक्रिया निष्प्रभावी हो सकती है।
15 मई की सुनवाई से यह साफ हो गया कि न्यायालय को राज्य पुलिस पर शक है कि वह मौजूदा कैबिनेट मंत्री के खिलाफ स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच करेगी या नहीं। कोर्ट ने बिना किसी संकोच के यह कहा कि ऐसा लगता है कि पूरा मामला पुलिस जानबूझकर प्रक्रिया को कमजोर कर रही है और कहीं न कहीं सरकार की तरफ से किसी तरह का संरक्षण भी दिया जा रहा है। हालांकि, कोर्ट ने किसी भी अधिकारी का नाम नहीं लिया जो इस "लापरवाही" के लिए जिम्मेदार था, लेकिन यह जरूर कहा कि अब आगे की कार्रवाई में यह देखा जाएगा कि एफआईआर तैयार करने में किसकी भूमिका रही।
जांच में निष्पक्षता बनाए रखने के लिए हाईकोर्ट ने एक कड़ा फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि 14 मई को जो आदेश दिया गया था उसे अब एफआईआर का हिस्सा माना जाएगा। साथ ही कोर्ट ने ये भी साफ किया कि अब वो खुद इस मामले की निगरानी करेगा ताकि यह केस फाइलों में न दबाया जाए या किसी राजनीतिक दबाव में गायब न हो जाए। कोर्ट ने साफ कहा कि ये फैसला सिर्फ प्रक्रियात्मक सुधार नहीं है। यह एक मजबूत संदेश है कि जब किसी बड़े ओहदे पर बैठा इंसान नफरत फैलाने वाली बातें करता है या सांप्रदायिक जहर घोलता है, तो अदालत ऐसे मामलों में चुप नहीं बैठेगी।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में हुई कार्यवाहियों का विवरण नीचे दिया गया है।
15 मई – मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एफआईआर में की गई 'गंभीर धोखाधड़ी' को लेकर राज्य पुलिस को फटकार लगाई।
I. सुनवाई: प्रक्रिया को कमजोर करने पर राज्य सरकार को कड़ी फटकार
15 मई 2025 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य पुलिस को कड़ी फटकार लगाई, क्योंकि उसने बीजेपी के मौजूदा मंत्री कुंवर विजय शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के पिछले आदेश का जिस तरह पालन किया, वह गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण था। मंत्री पर कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ आपत्तिजनक बयान देने का आरोप है। न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति अनुराधा शुक्ला की खंडपीठ ने स्पष्ट कर दिया कि अदालत इस मामले की जांच को बेपटरी या कमजोर पड़ने नहीं देगी।
LiveLaw की रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट ने एफआईआर के कंटेंट को लेकर भारी नाराजगी जताई। अदालत ने कहा कि एफआईआर इतनी अधूरी और अस्पष्ट तरीके से तैयार की गई है कि वह खुद-ब-खुद रद्द करने लायक बन गई है। खंडपीठ ने महाधिवक्ता से कहा, "मुझे यकीन है आपने इसे पढ़ा होगा। इसे ऐसे ढंग से लिखा गया है कि यह रद्द की जा सके। इसमें आरोप के जरूरी तत्व कहां हैं? इसे तैयार किसने किया?" अदालत ने यह सवाल भी उठाया कि जब एफआईआर में न मंत्री के कार्यों का स्पष्ट जिक्र है, न ही यह बताया गया है कि वे कार्य कैसे कानून की धारा के अंतर्गत अपराध बनते हैं तो फिर ऐसी एफआईआर को वैध कैसे माना जा सकता है?
महाधिवक्ता ने कोर्ट को बताया कि राज्य ने 14 मई के आदेश का पालन किया है और एफआईआर की एक प्रति भी सौंपी गई है। लेकिन खंडपीठ इससे संतुष्ट नहीं हुई। कोर्ट ने विशेष रूप से एफआईआर के पैरा 12 की ओर इशारा किया, जिसमें आरोपी के कृत्यों और उनके अपराध की श्रेणी में आने की जानकारी दी जानी चाहिए थी। कोर्ट ने कहा कि यह पैरा केवल पिछले आदेश की मेकेनिकली तैयार कॉपी है, न तो इसमें आरोपी के व्यवहार का स्पष्ट विवरण है, न ही यह बताया गया है कि उस पर भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152, 196(1)(b), और 197(1)(c) के तहत आरोप क्यों लगाए गए हैं।
खंडपीठ ने इस चूक को जानबूझकर की गई साजिश और "गंभीर धोखाधड़ी" करार दिया, जिसका उद्देश्य मामले को कमजोर करना और मंत्री को भविष्य में मुकदमे से बचाना था। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार कोर्ट ने कहा, "यह एफआईआर इस तरह दर्ज की गई है... ताकि अगर इसे पहले की धारा 482 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528) के तहत चुनौती दी जाती है, तो इसे रद्द किया जा सके।"
महाधिवक्ता प्रशांत सिंह द्वारा यह आश्वासन दिए जाने के बावजूद कि राज्य का मंत्री को बचाने का कोई इरादा नहीं है और वह सभी निर्देशों का पालन करेगा तो कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल इरादे से प्रक्रिया की कमजोरियों को ठीक नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि उसे इस जांच की निगरानी करनी होगी, न तो एजेंसी की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने के लिए, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि जांच पर बाहरी प्रभाव या राजनीतिक दबाव का कोई असर न हो।
II. आदेश: कड़ी आलोचना और न्यायिक सुरक्षा उपाय
उस दिन शाम में, उच्च न्यायालय का लिखित आदेश उसकी नाखुशी की पूरी गंभीरता को उजागर करता है। बिना किसी संकोच के, खंडपीठ ने एफआईआर को जानबूझकर भ्रामक बनाने का प्रयास बताया, जिसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को विफल करना था।
कोर्ट ने एफआईआर में यह टिप्पणी की कि, "इस कोर्ट ने एफआईआर के पैराग्राफ-12 की जांच की है, जिसमें आरोपी के कृत्य से अपराध के तत्वों को जोड़कर उन्हें स्पष्ट करना आवश्यक था। यह एफआईआर संक्षिप्त है। एफआईआर को पूरी तरह से पढ़ने के बाद, इसमें एक भी बार आरोपी के कृत्यों का उल्लेख नहीं किया गया है, जो उसके खिलाफ दर्ज किए गए अपराधों के तत्वों को पूरा करते हों," ।
भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152 किसी भी ऐसे भाषण या कृत्य को अपराध मानती है जो अलगाववादी विचारधारा को बढ़ावा देता है या राष्ट्रीय एकता को कमजोर करता है और यह अपराध आजीवन सजा का कारण बन सकता है। धारा 196(1)(b) और धारा 197(1)(c) सांप्रदायिक तनाव फैलाने और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ किए गए कृत्यों से संबंधित हैं। ये प्रावधान भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरे में डालने, सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने और राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने वाले कृत्यों के खिलाफ हैं। ये सभी गंभीर आरोप मंत्री शाह के उन बयानों के कारण लगे, जिसमें उन्होंने कर्नल कुरैशी को "आतंकी की बहन" बताया था।
हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि एफआईआर को इस तरह तैयार किया गया था कि वह सतही तौर पर तो आदेश का पालन करती दिखे, लेकिन उसमें वे महत्वपूर्ण तत्व गायब थे जो न्यायिक जांच को सहन कर सकें। कोर्ट ने कड़ी आलोचना करते हुए लिखा:
यह एफआईआर इस तरह दर्ज की गई है कि इसमें पर्याप्त जगह छोड़ी गई है, ताकि यदि इसे पहले की धारा 482 (अब धारा 528 BNSS) के तहत चुनौती दी जाती है, तो इसे रद्द किया जा सके, क्योंकि इसमें अपराधों के तत्वों की सामग्री की कमी है, जो प्रत्येक विशिष्ट अपराध को साबित करने के लिए जरूरी थे। यह राज्य की तरफ से एक गंभीर धोखाधड़ी है। एफआईआर इस तरह तैयार की गई है कि आरोपी विजय शाह को बाद में इसे रद्द करवाने में मदद मिल सके।
कोर्ट ने फिलहाल उन लोगों के नाम लिखने से इंकार कर दिया, जिन्हें उसने जवाबदेही को कमजोर करने के लिए "लापरवाही" के लिए जिम्मेदार ठहराया, लेकिन उसने यह साफ किया कि वह इसे आगामी कार्यवाही में आगे जांच करेगा।
"इस महत्वपूर्ण समय पर कोर्ट यह तय करने से बचता है कि राज्य पुलिस के किस अधिकारी ने इस अधूरी कोशिश के लिए जिम्मेदारी ली। लेकिन, भविष्य की कार्यवाही में कोर्ट इसका पता लगाने की कोशिश करेगा।"
मामले को बेपटरी होने से बचाने के लिए, कोर्ट ने एक अनूठा निर्देश जारी किया:
"हालांकि, यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस धोखाधड़ी को शुरुआत में ही रोका जा सके, कोर्ट निर्देश देती है कि 14.05.2025 का पूरा आदेश एफआईआर के पैराग्राफ 12 का हिस्सा माना जाए और इसके बाद सभी न्यायिक, अर्ध-न्यायिक और जांच प्रक्रिया में इसे लागू किया जाए।"
यह निर्देश यह सुनिश्चित करता है कि कोर्ट के पहले के आदेश की सामग्री जिसमें शाह के बयानों को अपराध मानने की विस्तृत व्याख्या शामिल है, उसे एफआईआर का हिस्सा मानी जाए, जिससे पुलिस की चूकों से पैदा हुई कानूनी खामियों से उसे सुरक्षा मिल सके।
आखिर में, मामले की संवेदनशीलता और गंभीरता को देखते हुए, कोर्ट ने कहा कि वह जांच की निगरानी आगे भी जारी रखेगा। हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह पुलिस की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं होगा लेकिन खंडपीठ ने यह भी साफ कर दिया कि निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए अब न्यायिक निगरानी जरूरी हो गई है।
"मामले की प्रकृति और एफआईआर दर्ज करने के तरीके को देखते हुए, यह कोर्ट उस पर भरोसा नहीं कर पा रही है। कोर्ट का मानना है कि यदि इस मामले की समुचित निगरानी नहीं की गई तो पुलिस न्याय के हित में और कानून के अनुसार निष्पक्ष जांच नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में, यह कोर्ट खुद को विवश महसूस करती है कि वह जांच की निगरानी करे, हालांकि जांच एजेंसी की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किए बिना, केवल इतना सुनिश्चित करने के लिए कि जांच निष्पक्ष रूप से, कानून के अनुसार और किसी बाहरी दबाव या निर्देश से प्रभावित हुए बिना हो।"
मामला अवकाश के तुरंत बाद सूचीबद्ध किया जाएगा, ताकि न्यायिक निगरानी में निरंतरता बनी रहे।
कोर्ट के आदेश के प्रमुख निष्कर्ष:
1. अपराध को स्पष्ट रूप से न लिखना
कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि एफआईआर, हालांकि संक्षिप्त है, लेकिन उसमें वह आवश्यक सामग्री नहीं है जो कानूनन एक वैध एफआईआर के लिए जरूरी होती है। एफआईआर का पैरा 12, जिसमें आरोपी के कृत्यों का कानूनी तत्वों के आधार पर वर्णन होना चाहिए था, केवल कोर्ट के 14 मई 2025 के आदेश के अंतिम हिस्से की प्रतिलिपि मात्र है।
2. रणनीतिक कमी और लापरवाही
कोर्ट केवल तकनीकी खामियों की पहचान तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उसने न्यायिक आदेश को जानबूझकर कमजोर करने का आरोप लगाया। यह सिर्फ लापरवाही नहीं, बल्कि एक मंशा को दर्शाता है। कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि एफआईआर को इस तरह तैयार किया गया है जिससे आरोपी को भविष्य में इसे रद्द कराने में मदद मिल सके।
3. जिम्मेदारी तय करने को टालना
एफआईआर को तैयार करने की प्रक्रिया को कोर्ट ने "अधूरी कोशिश" बताया, लेकिन फिलहाल पुलिस सिस्टम में किसे इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाए, इस पर कोई नाम नहीं लिया। हालांकि, कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि भविष्य में वह ऐसा करने का अधिकार सुरक्षित रखता है।
4. पहले के आदेश को एफआईआर में न्यायिक रूप से शामिल करना
एफआईआर को कानूनी रूप से निष्प्रभावी होने से बचाने के लिए कोर्ट ने एक निर्णायक कदम उठाया। उसने निर्देश दिया कि 14 मई 2025 का उसका आदेश एफआईआर का हिस्सा माना जाए। यह कदम असामान्य और विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि आमतौर पर अदालतें कार्यपालिका के दस्तावेजों को नहीं लिखतीं। लेकिन इस मामले में कोर्ट ने अपनी पूर्व की कानूनी और तथ्यात्मक व्याख्या को एफआईआर में जोड़कर यह सुनिश्चित किया कि अब एफआईआर में जांच और अभियोजन के लिए आवश्यक सभी कानूनी और तथ्यात्मक तत्व मौजूद हों।
5. जांच की न्यायिक निगरानी
कोर्ट ने यह स्पष्ट करते हुए कहा कि उसे पुलिस द्वारा निष्पक्ष रूप से काम करने पर भरोसा नहीं है। उसने जांच की निगरानी करने की मंशा जाहिर की। यह दखल नहीं, बल्कि एक निगरानी व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता और विश्वसनीयता बनाए रखना है। कोर्ट की भाषा इस बात का ध्यान रखती है कि पुलिस की संस्थागत स्वतंत्रता बनी रहे, लेकिन साथ ही यह भी जोर देती है कि न्यायिक सतर्कता अब जरूरी हो गई है।
पूरा आदेश नीचे पढ़ा जा सकता है।
15 मई — सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी मंत्री विजय शाह को अंतरिम राहत देने से किया इनकार
15 मई को सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी मंत्री कुंवर विजय शाह को उस एफआईआर के मामले में अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया, जो उन्होंने कर्नल सोफिया कुरैशी को "आतंकवादियों की बहन" कहकर दिए गए भड़काऊ बयान के मामले में दर्ज की गई थी। यह एफआईआर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के स्वप्रेरित (suo motu) आदेश के बाद दर्ज की गई थी।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता विभा माखिजा द्वारा तत्काल सुनवाई की मांग के तहत उठाया गया, जो मंत्री शाह की ओर से पेश हुईं। उन्होंने हाई कोर्ट के स्वप्रेरित आदेश की वैधता पर सवाल उठाया और सर्वोच्च न्यायालय से दखल की अपील की। हालांकि, न्यायमूर्ति ए. जी. मसीह के साथ पीठ की अध्यक्षता कर रहे मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने इस पर दखल करने से इनकार कर दिया। सीजेआई गवई ने एक अहम टिप्पणी की:
"ऐसे पद पर बैठे व्यक्ति से एक निश्चित स्तर की मर्यादा की अपेक्षा की जाती है। मंत्री द्वारा कही गई हर बात एक जfम्मेदारी के साथ जुड़ी होती है।"
वरिष्ठ अधिवक्ता विभा माखिजा ने पीठ को बताया कि शाह पहले ही माफी मांग चुके हैं और उनका बयान मीडिया द्वारा तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। उन्होंने अनुरोध किया कि जब तक शाह की बात नहीं सुनी जाती, तब तक उनके खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई न की जाए।
हालांकि, लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, कोर्ट को बताया गया कि संबंधित एफआईआर पहले ही दर्ज हो चुकी है। इसके जवाब में पीठ ने कोई भी अंतरिम आदेश पारित करने से इनकार कर दिया और मंत्री शाह को उचित राहत के लिए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का रुख करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने यह टिप्पणी की:
"जाइए और हाई कोर्ट में अर्जी दीजिए। हम कल इस पर सुनवाई करेंगे।"
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल न तो कार्यवाही पर रोक लगाई और न ही कोई सुरक्षा प्रदान की, लेकिन हाई कोर्ट द्वारा न्यायिक समीक्षा के लिए रास्ता खुला रखा। यह मामला संभवतः जल्द ही फिर से उठाया जाएगा।
14 मई – मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ नफरत भरे बयान के लिए एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया
I. सुनवाई: बीजेपी मंत्री के "अपमानजनक" भाषण पर कोर्ट की सख्त आलोचना
14 मई, 2025 को, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने बीजेपी मंत्री कुंवर विजय शाह द्वारा की गई बेहद आपत्तिजनक टिप्पणी पर स्वतः संज्ञान लिया। कोर्ट ने तुरंत और सख्ती से कार्रवाई करते हुए मंत्री के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) की धाराओं 152, 196(1)(b), और 197(1)(c) के तहत एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया। न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और न्यायमूर्ति अनुराधा शुक्ला की पीठ ने मंत्री के बयान को न केवल "अपमानजनक" और "खतरनाक" बताया, बल्कि इसे "गटर की भाषा" भी कहा। कोर्ट ने यह माना कि यह बयान व्यक्तिगत अपमान से कहीं ज्यादा था और भारतीय सशस्त्र बलों को एक संस्था के रूप में गंभीर रूप से नीचा दिखाने वाला था।
कोर्ट ने सशस्त्र बलों के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि वे शायद देश का आखिरी किला है, जो ईमानदारी, अनुशासन, बलिदान, निस्वार्थता और साहस से भरे होते हैं जो गुण किसी भी देशभक्त नागरिक को प्रिय होने चाहिए। कोर्ट ने विशेष रूप से गंभीरता से यह टिप्पणी की कि कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य अभियान 'ऑपरेशन सिंदूर' के दौरान मीडिया और देश को सशस्त्र बलों के कार्यों के बारे में जानकारी देने वाले प्रमुख चेहरे थे। इसलिए, मंत्री का बयान केवल उस अधिकारी को नहीं बल्कि सशस्त्र बलों की पूरी गरिमा और सम्मान को निशाना बना रहा था। कोर्ट ने शाह की टिप्पणियों को "अक्षम्य" आरोप बताते हुए इसे कर्नल कुरैशी पर सीधे हमला कहा।
कानूनी दृष्टिकोण से, कोर्ट ने शाह के खिलाफ BNS, 2023 के तहत लगाए गए अपराधों की प्राइम फेसी (प्रारंभिक) जांच की। कोर्ट ने यह माना कि धारा 152 जो भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कार्यों को अपराध मानती है, यहां स्पष्ट रूप से लागू होती है। कोर्ट ने कहा कि एक मुस्लिम अधिकारी कर्नल कुरैशी को "आतंकवादियों की बहन" कहकर शाह ने अप्रत्यक्ष रूप से अलगाववादी भावनाओं और मुसलमानों के प्रति संदेह को बढ़ावा दिया, जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा हुआ। कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि यह बयान मुसलमानों को अलगाववादी पहचान देता है, जो एक खतरनाक संकेत है और यह देश की संप्रभुता को कमजोर कर सकता है।
इसके अलावा, कोर्ट ने पाया कि धारा 196(1)(b) जो धार्मिक, नस्लीय, भाषाई या क्षेत्रीय समूहों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के लिए हानिकारक कार्यों को सजा देती है, यहां लागू होती है। कोर्ट ने कहा कि कर्नल कुरैशी का सांप्रदायिक आधार पर मजाक उड़ाना समाज की नाजुक सामाजिक संरचना और सार्वजनिक शांति को भंग कर सकता है। उनके धार्मिक पहचान को अपमानजनक तरीके से सामने लाकर, शाह की टिप्पणी सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने का खतरा पैदा कर रही थी।
कोर्ट ने यह भी माना कि धारा 197(1)(c) यहां प्राइम फेसी (प्रारंभिक रूप से) लागू होती है। यह प्रावधान किसी भी ऐसे बयान या याचिका को अपराध मानता है, जो समुदायों के बीच दुश्मनी या द्वेष पैदा करे या ऐसा करने की संभावना हो। कोर्ट ने कहा कि मंत्री की टिप्पणियों में साफ तौर पर "नफरत" और "असहमति" को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति थी, चाहे कर्नल कुरैशी जैसे निस्वार्थ सेवा देने वाले अधिकारियों का योगदान कुछ भी हो।
इन गंभीर प्राइम फेसी (प्रारंभिक) निष्कर्ष के मद्देनजर कोर्ट ने मध्य प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को आदेश दिया कि वे मंत्री शाह के खिलाफ तुरंत एफआईआर दर्ज करें और यह काम उसी शाम तक किया जाए। कोर्ट ने चेतावनी दी कि अगर आदेश का पालन नहीं किया गया, तो पुलिस महानिदेशक के खिलाफ अदालत की अवमानना अधिनियम के तहत कार्यवाही की जाएगी। अधिवक्ता जनरल को निर्देशित किया गया कि वे कोर्ट के आदेश को तुरंत पुलिस अधिकारियों तक पहुंचाएं और इसका पालन सुनिश्चित करें।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति श्रीधरन ने अधिवक्ता जनरल से कहते हुए कोई भी देरी नहीं सहन करने की अपनी नाराजगी जाहिर की और कहा:
"एफआईआर तुरंत दर्ज करें... मुझे नहीं पता कि कल मैं जिंदा रहूं या नहीं... मैं आपको चार घंटे दे रहा हूं... या तो इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट स्थगित कर दे, या इसे कल तक लागू किया जाए।"
जब अधिवक्ता जनरल ने यह कहा कि कोर्ट के निष्कर्ष मुख्य रूप से मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित हैं और यह भी हो सकता है कि टिप्पणियों को गलत समझा गया हो या संदर्भ से बाहर लिया गया हो, तो कोर्ट ने इसे पूरी तरह से खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि उसने स्वयं उन टिप्पणियों का वीडियो देखा था और वह यूट्यूब लिंक को आदेश में शामिल करेगी, साथ ही शाह की भाषण को "जहर" करार दिया और इस मामले को गंभीरता से लेने की बात को स्पष्ट किया।
यह स्पष्ट और कड़ा आदेश कोर्ट की उस इच्छा को दर्शाता है कि वह सशस्त्र बलों की गरिमा और कानून के शासन की रक्षा करेगा, विशेषकर तब जब नफरत भरी भाषा सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों द्वारा दी जाए। सु-ओ-मोटो कार्रवाई करते हुए और BNS (भारतीय न्याय संहिता) के संबंधित प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए कोर्ट ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि सांप्रदायिक मानहानि, विशेष रूप से राजनेताओं द्वारा, सहन नहीं की जाएगी और इसके खिलाफ त्वरित न्यायिक कार्रवाई की जाएगी।
कोर्ट के रुख ने इस संवैधानिक सिद्धांत को भी उजागर किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी भी जुड़ी होती है विशेष रूप से उन सार्वजनिक व्यक्तियों के लिए जिनके शब्द समाज में विभाजन पैदा कर सकते हैं और राष्ट्रीय एकता को कमजोर कर सकते हैं। इस फैसले ने यह सशक्त संदेश दिया कि न्यायपालिका नफरत फैलाने वाले भाषणों और सांप्रदायिक तनाव के खिलाफ एक सतर्क प्रहरी की भूमिका निभाएगी। साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि सशस्त्र बलों को उच्चतम सम्मान मिलना चाहिए और उन्हें किसी भी अपमानजनक या उकसाने वाली टिप्पणी से संरक्षण मिलना चाहिए।
II. आदेश: एक मंत्री द्वारा की गई नफरत और अपमानजनक टिप्पणी पर संविधान सम्मत फटकार
14 मई 2025 को दिए गए अपने आदेश में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने बीजेपी मंत्री कुंवर विजय शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का एक सख्त और स्पष्ट निर्देश जारी किया। मंत्री ने सार्वजनिक रूप से कर्नल सोफिया कुरैशी को "आतंकवादियों की बहन" कहा था। मीडिया रिपोर्ट्स और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध वीडियो फुटेज के आधार पर कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया और इस बयान को न सिर्फ अत्यंत आपत्तिजनक माना बल्कि इसे भारतीय न्याय संहिता 2023 (BNS) के तहत प्रथम दृष्टया आपराधिक कृत्य भी बताया।
इस आदेश के केंद्र में कोर्ट की सख्त टिप्पणी है कि शाह की बात सिर्फ किसी व्यक्ति का अपमान नहीं थी बल्कि यह भारतीय सशस्त्र बलों की संस्थागत गरिमा पर सीधा हमला था। पीठ ने मंत्री की भाषा को “घटिया,” “अपमानजनक,” “खतरनाक,” और “गटर की भाषा” करार दिया। कोर्ट ने यह भी माना कि यह हमला कोई अलग-थलग टिप्पणी नहीं थी, बल्कि यह सीधे एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी को निशाना बनाकर किया गया था जो उस समय राष्ट्रीय सुरक्षा अभियान ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान सार्वजनिक रूप से सशस्त्र बलों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं।
"सशस्त्र बल, संभवतः इस देश की अंतिम ऐसी संस्था हैं जो ईमानदारी, परिश्रम, अनुशासन, बलिदान, निस्वार्थता, चरित्र, सम्मान और अडिग साहस जैसे गुणों का प्रतीक हैं और जिनसे इस देश का हर वह नागरिक अपने को जोड़ सकता है जो इन मूल्यों को मानता है। इसी संस्था को विजय शाह ने निशाना बनाया है और कर्नल सोफिया कुरैशी के खिलाफ ‘गटर की भाषा’ का इस्तेमाल किया है।” (पैरा 2)
न्यूज रिपोर्टों और वीडियो कंटेंट के आधार पर कोर्ट ने पाया कि शाह द्वारा कर्नल कुरैशी को “पहालगाम में 26 भारतीयों की हत्या करने वाले आतंकवादियों की बहन” कहकर जो टिप्पणी की गई, वह न तो अस्पष्ट थी और न ही सामान्य बल्कि यह सीधा संकेत था, जो विशेष रूप से उन्हीं की ओर इशारा करता था क्योंकि भाषण में दिए गए विवरण से वही एक व्यक्ति मेल खा रही थीं। कोर्ट ने यह टिप्पणी की कि शाह ने दरअसल यह मैसेज दिया कि “प्रधानमंत्री ने आतंकवादियों से निपटने के लिए आतंकवादियों की बहन को भेजा,” जो न सिर्फ उकसाने वाला था बल्कि सशस्त्र बलों पर जनता के भरोसे को गहरा नुकसान पहुंचाने वाला भी।
“उस सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने कर्नल सोफिया कुरैशी को उन आतंकवादियों की बहन कहा जिन्होंने पहलगाम में 26 निर्दोष भारतीयों की हत्या की। इसके अलावा, अखबारों की रिपोर्ट्स और इंटरनेट पर उपलब्ध बड़ी मात्रा में डिजिटल कंटेंट से यह साफ होता है कि मंत्री का भाषण बिल्कुल साफ और स्पष्ट था, जिसमें उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का जिक्र करते हुए कहा कि 'आतंकवादियों की बहन' को उनसे निपटने के लिए भेजा गया। उनके ये बयान न केवल उस अधिकारी के लिए, बल्कि पूरी सशस्त्र सेनाओं के लिए भी अपमानजनक और खतरनाक हैं।” (पैरा 3)
अपने कानूनी विश्लेषण में कोर्ट ने भारतीय न्याय संहिता (BNS) की तीन धाराओं का हवाला दिया और माना कि ये तीनों प्रावधान प्रथम दृष्टया (prima facie) इस मामले में लागू होते हैं।
सबसे पहले, कोर्ट ने धारा 152 BNS का उल्लेख किया, जो भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों से संबंधित है। कोर्ट ने पाया कि एक मुस्लिम सेना अधिकारी को आतंकवादियों से जोड़ने का संकेत देकर मंत्री ने अलगाववादी भावना को बढ़ावा दिया और राष्ट्रीय एकता को कमजोर किया। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि सशस्त्र बलों में सेवा देने वाले मुस्लिम अधिकारियों पर अलगाववादी सोच थोपना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि राष्ट्र विरोधी भी है।
“प्रथम दृष्टया, मंत्री का यह बयान कि कर्नल सोफिया कुरैशी उस आतंकवादी की बहन हैं जिसने पहलगाम में हमला किया था, मुस्लिम होने के आधार पर किसी व्यक्ति में अलगाववादी सोच होने का संकेत देता है। यह अलगाववादी गतिविधियों को बढ़ावा देता है, जिससे भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरा पैदा होता है।” (पैरा 6)
भारतीय न्याय संहिता की धारा 196(1)(b) जो धर्म और समुदायों के बीच सौहार्द बिगाड़ने वाले कार्यों को अपराध मानती है, कोर्ट द्वारा उद्धृत दूसरा प्रावधान था। कोर्ट ने कहा कि मंत्री की टिप्पणी से यह धारणा बन सकती है कि मुसलमान, चाहे वे देश के प्रति कितने भी वफादार या सेवाभावी क्यों न हों, उन पर हमेशा शक किया जाएगा। कोर्ट ने माना कि ऐसी बातों से सामाजिक शांति बिगड़ सकती है और धार्मिक तनाव बढ़ सकता है।
" प्रथम दृष्टया यह धारा लागू होगी क्योंकि कर्नल सोफिया क़ुरैशी मुसलमान हैं और उन्हें आतंकवादियों की बहन कहकर अपमानित करना विभिन्न धर्मों के बीच सौहार्द को बनाए रखने में बाधक हो सकता है। यह इस बात को बढ़ावा दे सकता है कि किसी व्यक्ति की भारत के प्रति निस्वार्थ सेवा के बावजूद, उसे सिर्फ इस कारण से ताना मारा जाए कि वह मुस्लिम है। इसलिए, प्रथम दृष्टया यह कोर्ट संतुष्ट है कि धारा 196(1)(b) के तहत अपराध भी किया गया है।" (पैरा 8)
धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी बढ़ाने वाली दावों को अपराध मानने वाली बीएनएस की धारा 197(1)(c) को भी लागू पाया गया। कोर्ट ने कहा कि मंत्री की टिप्पणियों में धार्मिक विभाजन को गहरा करने और समुदायों के बीच शत्रुता को उकसाने की क्षमता थी, खासकर जब सार्वजनिक और भड़काऊ संदर्भ में सामुदायिक धारणाओं को बढ़ावा दिया गया।
“मंत्री विजय शाह द्वारा की गई टिप्पणी में प्रधम दृष्टया मुस्लिम समुदाय और अन्य धर्मों से संबंधित व्यक्तियों के बीच दुश्मनी, नफरत या शत्रुता की भावना को बढ़ाने की संभावना है।” (पैरा 10)
इन निष्कर्षों के आधार पर, न्यायालय ने पुलिस महानिदेशक को आदेश दिया कि वे विजय शाह के खिलाफ बीएनएस की धारा 152, 196(1)(b), और 197(1)(c) के तहत तत्काल, 14 मई की शाम तक एफआईआर दर्ज करें। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि यदि आदेश का पालन नहीं किया जाता है, तो इसके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जाएगी।
“यहां ऊपर जो भी पाया गया है, उसके आधार पर यह अदालत मध्य प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को निर्देश देती है कि वे मंत्री विजय शाह के खिलाफ बीएनएस की धाराओं 152, 196(1)(b) और 197(1)(c) के तहत तुरंत एफआईआर दर्ज करें। यह कार्य आज शाम तक किया जाना चाहिए, अन्यथा कल जब मामला सूचीबद्ध होगा, तो अदालत राज्य के पुलिस महानिदेशक के खिलाफ इस आदेश की अवमानना की कार्रवाई करने पर विचार कर सकती है।” (पैरा 11)
इसके अलावा, अदालत ने राज्य के महाधिवक्ता कार्यालय को आदेश दिया कि वह तुरंत इस आदेश को पुलिस महानिदेशक को भेजे और रजिस्ट्रार (आईटी) से कहा कि वे शाह के भाषण के वीडियो लिंक इकट्ठा कर उन्हें अगले दिन की कार्यवाही के लिए रिकॉर्ड में रखें।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेश के मुख्य निष्कर्ष:
संविधानिक अखंडता बनाए रखने के लिए suo-motu का इस्तेमाल: अदालत ने अपनी suo-motu पर काम करते हुए यह माना कि यह मामला इतना गंभीर है कि इसके लिए औपचारिक शिकायत का इंतजार नहीं किया जा सकता। यह उन व्यक्तियों द्वारा नफरत भरे भाषणों को लेकर न्यायपालिका की भूमिका को मजबूत करता है, जो सार्वजनिक पदों पर रहते हुए इस तरह के बयान देते हैं।
सशस्त्र बलों को एक संवैधानिक संस्था के रूप में हमले का वर्णन: अदालत ने सशस्त्र बलों को राष्ट्रीय मूल्यों का प्रतीक माना और कहा कि इनका अपमान करना, खासकर अगर इसमें सांप्रदायिक तत्व हो तो यह एक गंभीर संवैधानिक अपराध है।
सांप्रदायिक इरादे की पहचान और बीएनएस प्रावधानों की कानूनी उपयुक्तता: अदालत ने शाह के बयान को सांप्रदायिक रूप से अपमानजनक और असंवैधानिक पाया। इसके अलावा, अदालत ने नए दंड संहिता के तहत प्रावधानों को लागू करते हुए यह माना कि शाह का बयान राष्ट्रीय अखंडता और सांप्रदायिक सौहार्द के लिए खतरा पैदा करता है।
तत्कालिता और न्यायिक जवाबदेही: अदालत ने राज्य पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के लिए उसी दिन की समयसीमा दी और स्पष्ट किया कि यदि आदेश का पालन नहीं किया गया, तो इसे अदालत की अवमानना माना जाएगा। यह राज्य संस्थाओं से तात्कालिक जवाबदेही की मांग को दर्शाता है।
राजनीतिक नफरती बयान की निंदा: यह आदेश एक सशक्त संदेश देता है कि चुनावी प्रतिनिधियों द्वारा की गई नफरती और सांप्रदायिक भाषण विशेष रूप से जब यह सेना के अधिकारियों को निशाना बनाकर कर किया गया हो उसको राजनीतिक अभिव्यक्ति का अधिकार नहीं माना जाएगा, बल्कि यह दंडनीय अपराध होगा।
यह आदेश एक महत्वपूर्ण संविधानिक क्षण के रूप में है: एक अदालत द्वारा यह रेखा खींची जाती है कि राजनीतिक भाषण कब आपराधिक प्रचार में बदल जाता है और यह पुष्टि की जाती है कि उच्चतम पदों पर आसीन व्यक्तियों को भी कानून के सामने जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
पूरा आदेश यहां पढ़ा जा सकता है
पृष्ठभूमि
14 मई, 2025 को, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने मीडिया और डिजिटल प्लेटफार्मों पर प्रकाशित चिंताजनक रिपोर्टों के आधार पर स्वयं इस मामले की सुनवाई की। उसी दिन पत्रिका, दैनिक भास्कर (जबलपुर संस्करण) और नई दुनिया में प्रकाशित खबरों के साथ-साथ ऑनलाइन प्रसारित वीडियो फुटेज जिसे अदालत ने एक यूट्यूब लिंक के माध्यम से उद्धृत किया उससे पता चला कि मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह ने म्हो के अम्बेडकर नगर में रैयकुंडा गांव में एक सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान आपत्तिजनक और सांप्रदायिक टिप्पणी की थी।
यह टिप्पणी भारतीय सेना की एक वरिष्ठ अधिकारी कर्नल सोफिया कुरेशी के खिलाफ की गई थी। मंत्री शाह ने अप्रत्यक्ष रूप से लेकिन साफ तौर पर उन्हें “आतंकी की बहन” कहा और यह टिप्पणी ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सेना की प्रवक्ता के रूप में उनकी भूमिका का संदर्भ प्रतीत होती है। अदालत ने यह माना कि भाषा न केवल अपमानजनक और घटिया थी, बल्कि इसमें सांप्रदायिक उकसावे का भी खतरनाक संकेत था। अदालत ने कहा कि यह भाषण केवल एक अधिकारी को निशाना नहीं बना रहा था, बल्कि यह सेना पर एक व्यापक हमला था। एक ऐसी संस्था जिसे अदालत ने कहा कि वह आज भी अनुशासन, बलिदान और ईमानदारी जैसे मूल्यों का प्रतीक है।
इस टिप्पणी की गंभीरता और इसके सांप्रदायिक सौहार्द और संस्थागत गरिमा पर पड़ने वाले प्रभाव को देखते हुए, अदालत ने किसी औपचारिक शिकायत का इंतजार किए बिना ही प्रक्रिया शुरू की।
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