दुल्हन की विदाई के वक्त, कर्ज में डूबे बाप को देखकर रोना आता है

Written by Mithun Prajapati | Published on: February 8, 2018
जब से थोड़ी उम्र बढ़ी है, मेरा शादी ब्याह में जाने का मन  नहीं  करता। विदाई के वक्त बड़ी तकलीफ होती है। माँ या बेटी की विदाई के वक्त का रोना देखकर नहीं, कर्ज में डूबे बाप का रोना देखकर। घर परिवार रोते रहता है। लड़की का बाप भी साथ में रोने लगता है,  मगर उसका दिमाग कहीं और होता है।



वह रो तो रहा होता है मगर मन में ये चल रहा होता है की टेंट वाले को इतना चुकाना है, गहने वाले को भी देना है, रिश्तेदातों की विदाई करनी है और पैसे तो सब ख़त्म हो गए। एक भाई भी होता है जिसे इस रोने धोने में यकीन नही है मगर बहन विदा हो गयी और भाई को एक आंसू भी न निकला, समाज क्या कहेगा, इस डर से वह भी रो लेता है। उसका दिमाग तो यह ढूँढने में व्यस्त रहता है की कितनी खटिया और कुर्सी अभी नहीं मिली,  कितनी रजाई फाड़ दी गयीं,  मगर बिचारा समाज क्या कहेगा इस डर से रोने बैठ जाता है।

पिछले साल एक रिश्तेदार के यहाँ शादी में जाने को बाध्य हुआ। लड़का अभी हाल ही में ग्रेजुएट हुआ था और लड़की ने बारहवीं पास किया था। शाम को शादी बड़ी धूम धाम से हुई। व्यवस्था में कोई कमी नहीं थी।सारे घराती जी जान से लगे हुए थे जी हुजूरी करने में की कही कोई कसर न रह जाये,  मगर बाराती तो राजा होते हैं। इनके नाज़ नखरे ऐसे होते हैं जैसे ये  चार सौ सियासत के अकेले वारिस हैं, इनके मरने के बाद ये विरासत इन्ही सेवा करने वाले घरातियों को ही मिलेगी।

दूल्हे से मेरी बात हुई..कहने लगे अभी ग्रेजुएट हुए हैं,  आगे बीएड कर शिक्षक बनने का विचार है। मुझे ख़ुशी हुई, ये जानकर की वे शिक्षक बनेंगे और इनके द्वारा पता नहीं कितने बच्चों का भविष्य संवरेगा।

सुबह विदाई से पहले खिचड़ी खाने की रस्म होती है जिसमें दूल्हा ससुर से नाराज होकर कुछ माँगता है और ससुर को देना ही पड़ता है। नहीं दिया तो दामाद जिंदगी भर नाराज रहता है। वह तबतक खिचड़ी को हाथ नहीं लगाता जब तक की उसकी मांग न पूरी हो जाये। भविष्य के भावी शिक्षक महोदय आधा घंटे से नाराज होकर बैठे थे। खिचड़ी नहीं खा रहे थे। कह रहे थे- गाड़ी, अंगूठी कैश के अलावा डेढ़ तोले की सोने की चैन भी देने की बात हुई थी। जबतक चैन नहीं आएगी मैं नहीं खाऊंगा।

बूढ़े बुजुर्ग काफी मान मनौवल करवाने की कोशिश कर चुके थे मगर असफल ही रहे। लड़की का बाप आया, दो हजार रुपए पत्तल पर रखते हुए डबडबाई आँख लेकर बोला- बेटा, चैन इस समय संभव नहीं हो सकी, जितनी जल्दी हो पायेगा मैं कर दूंगा, अब और न तड़पाओ, खा लो ..समाज में इज्जत रख लो हमारी।

ये दृश्य देखकर कलेजा फट गया, , खड़ा नहीं रहा गया ..रुमाल से आंसू पोछते हुए मैं वहां से खिसक लिया ।मन में तो बस यही आ रहा था की जूता निकालूँ और पानी में भिगोकर दस जूता इस गधे को मारूं  और बीस अपने सर पर मार लूँ और कसम खा लूँ की आज के बाद उसी शादी में जाना है जहाँ दहेज़ की एक पाई भी न ली दी गयी हो।

शाम की चर्चा के दौरान ये युवक जिसकी शादी थी,  बता रहा था की इसने दहेज़ प्रथा पर ग्रेजुएशन लास्ट इयर में छः पेज का निबंध लिखा था। उसने मुझे बताया की उसका राजनीति शास्त्र भी एक विषय था। उसने मुझसे लोकसभा चुनाव 2014 की चर्चाएं की थी, भारत पाक सम्बन्ध पर चर्चा की थी,  कांग्रेस का क्यों बंटाधार हो गया इस मुद्दे पर चर्चा की थी। वह हर चर्चा में मेरे से हर मामले में बीस था। एक अच्छा शिक्षक समाज की रीढ़ होता है। शिक्षक समाज का भविष्य तय करता है। मुझे ख़ुशी हुई की एक भावी शिक्षक समाज को मिलने जा रहा है। वह लड़की भी कितनी खुशनसीब है जिसका ये वर है। मगर इस गधे ने क्षण भर में क़ायनात ही पलट दिया। 

वैसे होना तो ये चाइये था- लड़की घर से निकलकर आती, शादी का जोड़ा दूल्हे के मुंह पर मारते हुए कहती-ढून्ढ लेना कोई गधी इस जोड़े के लिए,  मगर अफसोस की ऐसा हुआ नहीं। ये समाज बचपन से ही लड़कियों को संस्कार सिखाता है। बेटी पराया धन होती है। अब धन की क्या औकात की मालिक से कहे की मुझे इस लोभी व्यक्ति के साथ नहीं जाना। उसके अरमान, उसके सपने तो पराया धन कहकर बचपन में ही दफना दिया जाता है। उसे क्या अधिकार की संस्कार के बाहर जाकर बाप द्वारा चुने गधे से शादी करने से मना कर दे। ये संस्कार ही तो थे जो भरे समाज में बाप की बेईज्ज़ती सहन कर रहे थे। इस ढकोसले रुपी संस्कार के बाहर अगर बचपन में ही कदम रख दिया होता तो आज ये दिन न देखना पड़ता।

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