खामियों से भरा और दिशाहीन है मोदी का बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान

Written by Rita Banerji | Published on: August 4, 2016

सामान्य समझ तो यह कहती है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान में फोकस मध्य और उच्च वर्ग पर होना चाहिए। आंकड़े बताते हैं कि इन वर्गों में लडक़े और लड़कियों की तादाद का अनुपात (चाइल्ड सेक्स रेश्यो- सीएसआर) सबसे खराब है। इसके बावजूद इस अभियान का पूरा फोकस देश के ग्रामीण और सबसे गरीब जिलों पर है।



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पिछले साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान शुरू किया था। आजादी के बाद यह पहली दफा है, जब भारत सरकार ने किसी जन अभियान के तहत कन्या भ्रूण हत्या का मुद्दा उठाया है। अठारहवीं सदी के ब्रिटिश जनगणना आंकड़ों ने भारत में महिला-पुरुष आबादी के बढ़ते असंतुलन की तसदीक की थी। इन आंकड़ों में किसी न किसी रूप में कन्या भ्रूण हत्या से लेकर सती प्रथा के जरिये महिलाओं को मार डालने की वजह से महिलाओं की घटती संख्या के बारे में चिंता जताई गई थी। लेकिन आजादी के बाद आई सरकारें इस मुद्दे पर बेहद उदासीन रहीं, भले ही कन्या भ्रूण हत्याएं महामारी की तरह फैल गईं। 

इस मुद्दे पर मोदी की पहल बेहद चौंकाने वाली थी क्योंकि उनके मुख्यमंत्री रहने के दौरान गुजरात में लडक़ों की तुलना में लड़कियों का अनुपात (चाइल्ड सेक्स रेश्यो- सीएसआर) का रिकार्ड सबसे खराब था। इसके अलावा महिलाओं के प्रति मोदी के विचार महिला अधिकारों के लिए लडऩे वाले कार्यकर्ताओं को हमेशा नागवार गुजरे हैं। जैसे- एक बार मोदी ने पांच साल से कम उम्र की लड़कियों में कुपोषण की वजह उनकी फैशन और डाइटिंग के प्रति सजगता को करार दिया था। हालांकि  प्रधानमंत्री के तौर पर उनके बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान पर महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के विचारों की छाप साफ दिखती है। मोदी जी ने महसूस किया कि जिस तरह से अलग-अलग तरीकों से महिलाओं की हत्या की जा रही है वह एक राष्ट्रीय संकट बनता जा रहा है। इसके बावजूद बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के उनके नारे से लगता है कि वह बेटियों को बचाने की भीख मांग रहे हैं। इस मामले में वह अधिकार की भाषा बोलने के बजाय अनुनय-विनय करते नजर आ रहे हैं।

भारत में कन्या भ्रूण हत्या को गरीबी और अशिक्षा से जोड़ कर देखा जाता है। जबकि आंकड़े कुछ और कहते हैं। हाल के जनगणना आंकड़ेे (2011 के आंकड़ें) के मुताबिक चाइल्ड सेक्स रेश्यो यानी सीएसआर (यह जन्म से छह साल की उम्र तक लडक़े और लड़कियों की संख्या का अनुपात है) सबसे गरीब और कम पढ़े लिखे समुदायों के बीच सबसे अच्छा है। दुनिया भर में 1000 लडक़ों पर 950 लड़कियों का अनुपात आदर्श माना जाता है। लेकिन आर्थिक समृद्धि और शिक्षा में बढ़ोतरी के साथ ही यह अनुपात बिगडऩे लगता है। देश के सबसे धनी राज्यों में लडक़ों और लड़कियों की तादाद का अनुपात 850 और इससे कम तक पहुंच चुका है। 2011 की जनगणना में 1000 पुरुषों पर 914 महिलाओं का राष्ट्रीय अनुपात है। यानी धनी राज्यों में महिला-पुरुष अनुपात राष्ट्रीय औसत से भी कम है। 1000 पुरुषों पर 914 महिलाओं का राष्ट्रीय अनुपात आजादी के बाद से अब तक का सबसे खराब अनुपात है। आर्थिक समृद्धि में बढ़ोतरी और उसी के अनुपात में 0 से 6 साल के बीच की लड़कियों की हत्या के बीच यह जो संबंध है यह हर जगह यानी पड़ोसी इलाकों, जिलों, गांवों, शहरों और राज्यों में भी दिखता है। यानी कम समृद्ध की तुलना में अधिक समृद्ध जगहों पर महिला-पुरुष अनुपात ज्यादा खराब है। यही चीज जिलों, गांवों, शहरों और राज्यों में भी लागू होती है।

अगर धार्मिक समुदायों की भी तुलना करें तो यहां भी यह गैप आपको नजर आएगा। देश के सबसे समृद्ध सिख और जैन समुदायों में लडक़ों की तुलना में लड़कियों की तादाद काफी कम है। लेकिन इसके उलट आदिवासियों और कथित निचली जातियों में लड़कियों और लडक़ों का अनुपात सबसे अच्छा है। जबकि ये समुदाय सबसे कम शिक्षित और निर्धनतम माने जाते हैं। जिन आदिवासियों के बीच शिक्षा और नौकरियों से समृद्धि आ रही है, वहां लड़कियों और लडक़ों का अनुपात बिगड़ रहा रहा है।

 केरल का इतिहास मातृसत्तात्मक रहा है। वहां कन्या भ्रूण हत्या का इतिहास नहीं रहा है। यहां लड़कियों और लडक़ों का अनुपात सबसे अच्छा था। उच्च साक्षरता दर (92 फीसदी) इसकी वजह मानी जाती रही है। लेकिन 2011 के जनगणना आंकड़ों में सीएसआर में 8.44 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। राज्य में कन्या भ्रूण हत्या और छोटी बच्चियों की हत्या की बेतहाशा बढ़ती दरों की वजह से ऐसा होना स्वाभाविक है। इसका संबंध भी आर्थिक समृद्धि में बढ़ोतरी से है। केरल में बाहर से (प्रवासी केरलवासियों की ओर से धन भेजने की वजह से) खूब पैसा आया है। हर साल यहां विदेश से 20 अरब डॉलर आते हैं।  राज्य में लंबे समय तक कम्यूनिस्ट शासन रहा है। फिर आखिर लड़कियों से छुटकारा पाने की वजह क्या है? खास कर जब आप समृद्धि की ओर बढ़ते जा रहे हैं तो ऐसी क्या मजबूरी है कि लड़कियों को मारा जाए? दरअसल इसकी वजह है दहेज- धन के स्वामित्व और वितरण पर कब्जा जमाने के लिए एक घातक, महिला विरोधी और पितृसत्तात्मक  राजनीति। जैसे-जैसे परिवार आर्थिक तौर पर समृद्ध होता जाता है वैसे-वैसे धन पर पितृसत्तात्मक पकड़ के उसके माध्यमों पर भी निवेश बढ़ता जाता है और यह बेटियों को अपने इस लक्ष्य में बाधक के तौर पर देखने लगते हैं। दरअसल, लडक़ी जितनी शिक्षित होगी और उसका परिवार जितना समृद्ध होगा, उससे उतना ही ज्यादा दहेज लाने की अपेक्षा होगी। दहेज को लड़कियों से छुटकारा पाने के रास्ते के तौर पर देखा जाता है ताकि वह परिवार की आर्थिक विरासत पर अपने हक की आवाज न उठाए। लेकिन अब बढ़ती शिक्षा की वजह से लड़कियां अपने मां-बाप की संपत्ति में अपने हक की लड़ाई लडऩे लगी हैं। 

दूसरी ओर, एक पुरुष को न केवल अपने मां-बा की संपत्ति का हक मिलता है बल्कि उसकी पत्नी के मां-बाप की संपत्ति का भी हिस्सा मिल जाता है। बेटा धन हासिल करने का आसान माध्यम होता है। वह जितना शिक्षित होगा, उसका परिवार उतना ही ज्यादा दहेज मांगने का हकदार माना जाएगा। असल में शादियों की बातचीत के दौरान खुलेआम दहेज का रेट चार्ट बांटा जाता है। इसमें नकद, लग्जरी कार, प्रॉपर्टी, सोने और हीरे के गहनों की किलो के हिसाब से मांग की जाती है। वास्तव में जिन इलाकों में दहेज के रेट ज्यादा हैं वहां से इससे जुड़ी हिंसा, हत्या और आत्महत्याओं की रिपोर्ट भी ज्यादा आती है।


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गरीब और निरक्षर समुदायों में जो चीज लड़कियों को बचाती है वह है पितृसत्तात्मक की विपरीत सामाजिक व्यवस्था का विस्तार। यह  व्यवस्था उस पितृसत्तात्मक समाज के बिल्कुल उलट है, जिसमें महिला को इंसान न मानकर एक खरीद-बिक्री की वस्तु माना जाता है। ऐसी चीज जिसे इस्तेमाल कर फेंक दिया जा सकता है। गरीब घरों में बेेटियां इसलिए बची रह जाती हैं कि क्योंकि  बच्चे के तौर पर उनसे आर्थिक गुलामी करवाई जा सकती है। गरीब घरों में बेटियां सफाई, रसोई के साथ, पानी और ईंधन इकट्ठा करने जैसा काम करती हैं। वे परिवार के लिए काम करके पैसा भी कमा सकती हैं। लाखों लड़कियों को उनके परिवार वाले शहरी इलाके में घरेलू नौकरानियों के तौर पर काम करने के लिए भेज देते हैं। श्रमिकों को तौर पर ये लड़कियां खेतों से लेकर फैक्टरियों और सेक्स इंडस्ट्री में काम करने लगती हैं।

इन लड़कियों के दम पर एक और धंधा फलता-फूलता है और यह है गरीब लड़कियों को धनी राज्यों में दुल्हन बना कर बेच देना। इन इलाकों में इन गरीब लड़कियों को गुलाम की तरह रखा जाता है और उनके साथ यौन दुव्र्यवहार होता है। इन लड़कियों को बच्चे पैदा करने के लिए लाया जाता है और फिर किसी दूसरे परिवार में दुल्हन के तौर पर बेच दिए जाने से पहले परिवार का हर पुरुष उनके साथ दुव्र्यवहार करता है और शोषण करता है। हैदराबाद में तो यह कारोबार खूब चलता है। खाड़ी देशों के कामुक अमीर यहां की मुस्लिम नाबालिग लड़कियों के मां-बाप को अच्छी खासी रकम देकर ले जाते हैं। इन लड़कियों से एक तरह की अस्थायी शादी की जाती है और फिर इनके साथ गुलामों की तरह बर्ताव किया जाता है। उन्हें प्रताडि़त किया जाता है और फिर स्वदेश लौटने से पहले उन्हें तलाक दे दिया जाता है।  देश में बच्चों की खरीद-फरोख्त का नेटवर्क भी खूब फला-फूला हुआ है। यह नेटवर्क अक्सर सरकारी अनाथालयों से ऑपरेट होते हैं। यहां से गरीब आदिवासी समुदायों की नवजात बच्चियों को 5000 रुपये में खरीदा जा सकता है। हालांकि  बेडिय़ा, बांछड़ा, कंजर,सांसी और नट जैसे कई ऐसे जनजातीय समुदाय हैं जहां बेटियों और बहनों को वेश्यावृति के धंधे में डाल कर उन्हें आय का ोत बनाने की परंपरा रही है। इसे परिवार का धंधा माना जाता है। इन समुदायों में लड़कियों की वर्जिनिटी को नीलाम करने की परंपरा रही है। दस साल तक की छोटी बच्चियों की वर्जिनिटी की बोली लगती है। जो जितना ज्यादा पैसा देता है उसे लडक़ी सौंप दी जाती है। 2011 की जनगणना में चौंकाने वाले आंकड़े दिखे हैं। आदिवासी समुदाय में प्रति एक हजार पुरुषों में महिलाओं की संख्या 950 है। लेकिन बेडिय़ा समुदाय में 1000 पुरुषों में महिलाओं की संख्या 1276  है। यह असामान्य रूप से ज्यादा है।

 बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान पर काफी पैसा खर्च किया जा रहा है। लेकिन इसमें बेहतरीन रणनीति और सूझबूझ भरी परियोजनाओं के बजाय नारेबाजी पर जोर है। इससे इसके लक्ष्यों के प्रति संदेह पैदा होता है।

सामान्य समझ तो यह कहती है कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान में फोकस मध्य और उच्च वर्ग पर होना चाहिए। आंकड़े बताते हैं कि इन वर्गों में लडक़े और लड़कियों का अनुपात (सीएसआर) सबसे खराब है। इसके बावजूद इस अभियान का पूरा फोकस ग्रामीण देश के ग्रामीण और सबसे गरीब जिलों पर है। राजनीतिक नुकसान होने के डर से अभियान का पूरा फोकस गरीबों और कम समृद्ध इलाकों पर है। जबकि फोकस मध्य और उच्च वर्ग पर होना चाहिए।

गांवों में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान के तहत जिस एक पॉपुलर प्रोग्राम को खासा फंड दिया जा रहा है- वह है बेटी के जन्म पर एक पेड़ रोपना। इसके पीछे तर्क है कि जब बेटी को दहेज देना हो तो पिता इस पेड़ को काट कर इसकी लकड़ी बेचेगा और कुछ पैसे जुटाएगा। इस तरह से यह उसी दहेज की कुरीति को बढ़ावा देना है, जिसकी वजह से कन्या भ्रूण हत्या बढ़ रही है।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान शुरू करने के वक्त जो दो अहम और प्रभावी परियोजनाएं सुझाई गई थीं वे अब तक शुरू नहीं हो पाई हैं। इनमें से एक सुझाव में कहा गया था कि हर इलाके मेंं एक सार्वजनिक बोर्ड लगाया जाए जिस पर पर हर महीने वहां और आसपास के इलाकों के सीएसआर आंकड़ें दर्ज किए जाएं। इससे लोगों को लडक़ों और लड़कियों के अनुपात के बारे में पता चलेगा। यह अभियान शहरी, मध्य और उच्च वर्ग वाले इलाकों में चलाया जाना चाहिए। इसे प्रभावी तौर पर लागू करने कि लिए पुलिस और लीगल सेल की भी मदद ली जा सकती है।

दूसरा सुझाव यह था कि सभी बच्चियों की जन्म और मृत्यु का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन हो। इसके साथ ही 15 साल की उम्र तक हर लडक़ी की निगरानी की अनिवार्य मॉनिटरिंग हो। इस उम्र तक बड़ी संख्या में लड़कियां मार दी जाती हैं या गायब हो जाती हैं। वास्तव में कई बार निम्न सीएसआर अनुपात की वजह कन्या भ्रूण हत्या को माना जाता है। लेकिन जनगणना आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि 84 फीसदी से अधिक लड़कियां एक से छह साल के भीतर मार दी जाती हैं। दरअसल भ्रूण जांच और जन्म लेने के बाद से एक साल के भीतर दस लाख से कम बच्चियों को मारा गया है। लेकिन एक साल से छह साल की उम्र तक पहुंचते ही 70 लाख बच्चियां खत्म कर दी गईं।

इस डरावनी स्थिति को देखते ही बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान में इन दो परियोजनाओं को लागू करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

( रीता बनर्जी लेखिका, फोटोग्राफर और जेंडर एक्टिविस्ट हैं। इनकी किताब - सेक्स एंड पावर : डिफाइनिंग हिस्ट्री, शेपिंग सोसाइटीज,  जेंडर, सेक्सुलिटी और भारत मेंं सत्ता के संबंधों पर ऐतिहासिक अध्ययन है। वह 50 मिलियन मिसिंग कैंपेन की संस्थापक और डायरेक्टर हैं। )

यह लेख सबसे पहले ओपन डेमोक्रेसी में प्रकाशित हुआ था।      

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