महात्मा गांधी के नाम एक किसान की पाती

Written by Mithun Prajapati | Published on: March 17, 2018
बापू,
12 मार्च निकल गया। यह तारीख भारतीय इतिहास में मायने रखता है। आप इसी तारीख को 88 साल पहले अंग्रेजों द्वारा बनाये गए नमक कानून को तोड़ने के लिए दांडी मार्च पर निकले थे। वह नमक सत्याग्रह था। अंग्रेजी सरकार हिल गयी थी। वह भी क्या दौर था।


इस 12 मार्च को नासिक से चलकर हम किसान कर्ज माफी के लिए मुम्बई पहुंचे। करीब 200 किलोमीटर की यात्रा में कहीं कोई अप्रिय घटना देखने को नहीं मिली। बापू, यह सादगी आपकी ही दी हुई तो है। वरना लोग अपनी बात मनवाने के लिए रेल पटरियां उखाड़ने लगते हैं। हम चले आ रहे थे और लोगों का समर्थन मिलता जा रहा था। कोई पानी लेकर खड़ा था तो कोई बिस्किट के पैकेट। हम चलते रहे। पैरों में छाले थे पर मन मे विश्वास की सिर पर लदा कर्ज माफ हो जाएगा। छालों का दर्द कर्ज से कम लगा सो चलते रहे। छाले फटने लगे पर पैर नहीं रुके। पैरों के  फटे हुए छाले देखकर कौन होगा जिसका मन द्रवित नहीं हुआ होगा?  

बापू, सरकार का कोई था जो यह भी कह रहा था कि आये हुए लोग किसान नहीं हैं। हमें माओवादी भी बता दिया गया। कहा गया है- जाके पैर न फटी बिवाई,वो क्या जाने पीर पराई। 

ऐसे बयान सुनकर मन व्यथित होता है। इनको कर्ज में डूबे किसान  का दर्द कैसे महसूस होगा ! बापू, वक्त बदल चुका है। आप चंपारण में किसानों के बीच गए थे। उनकी समस्या सुन, दर्द देख आप द्रवित हो उठे। आज के भी नेता किसानों के बीच जाते हैं। कभी सूखा पड़ने पर तो कभी बाढ़ आने पर। पर वे सेल्फी लेना नहीं भूलते। ये उनकी संवेदना का स्तर है। वे नहीं समझ पाते कि बैल के साथ बैल बनकर हाड़ तोड़ मेहनत करने के बावजूद भी किसान उतनी आमदनी नहीं कर पाता कि लिया हुआ कर्ज चुका दे। कभी ओले की मार तो कभी अति बारिश तो कभी सूखा, ये चीजें हमें कर्ज लेने पर मजबूर कर देती हैं। 

कई पुश्तें बीत जाती हैं पर कर्ज बना रहता है। एक व्यापारी सुबह दुकान लगाता है और शाम को हिसाब लगा लेता है कितना कमाया कितना मुनाफा हुआ। पर हम किसान मौसम के खत्म होने का इंतज़ार करते हैं। हम बैंक से कर्ज लेते हैं। खेत में लगाते हैं। कर्ज चढ़ा तो चढ़ते ही जाता है। बैंक वाले वसूली पर आते हैं। हमारे साथ दुर्व्यवहार होता है। इन सब से बचने के लिए न जाने कितने किसान फांसी लगा लेते हैं। कोई गणना में आता है  तो कितने छूट जाते जाते हैं। देश के लिए तो हम अन्न उगाते हैं पर शाम को हमारे यहां चूल्हा जलेगा की नहीं हमें ही नहीं पता होता।

बापू, बहुत बड़े-बड़े व्यापारियों का नाम निकलता है पेपर में। कोई करोड़ो में लोन लिया है तो कोई हजार करोड़ में। न चुका पाने, चुका पाने पर वे विदेश खिसक ले रहे हैं। उन्हें न कोई माओवादी कहता है न ही देशद्रोही बताता है। हमें इस बात का दुःख नहीं है। कोई कितना भी लेकर फरार हो जाये। हम तो बस ये चाहते हैं कि हमारे ऊपर पड़े कर्ज को सरकार माफ कर दे। 

बापू, अभी कुछ महीनें पहले तमिलनाडु के किसान दिल्ली में इकट्ठा हुए थे। उन्हें अपनी मांग मनवाने के लिए मूत्र तक पीना पड़ा था। आपकी कल्पनाओं में क्या यही था सपनों का भारत ! 

समस्याएं बढ़ गयी हैं। हम अपनी मांगों को लेकर शांतिपूर्ण धरने पर बैठते हैं तो जनता में से ही कोई उठकर कह देता है कि सब सरकार को घेरने और बदनाम करने के लिए है। अंधभक्ति का दौर है। कुछ लोग नासिक से मुम्बई के दौरान मिले बिस्किट और पानी के पैसे जोड़कर कह रहे थे कि सब विपक्ष की चाल है सरकार गिराने की। वरना इतने इंतज़ाम कैसे होते। उन्हें अब क्या ही कहें। कैसे बताएं कि यह बापू का देश है। संवेदनाएं मरी नहीं हैं अभी। क्या हिन्दू क्या मुस्लिम, सब तो खड़े थे हमारे लिए।

बड़ी बात ये की सरकार ने लगभग मांगे मान ली हैं। बस देखना है उसपर कितना अमल होता है।

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