1857: कहानी ग़दर की, हक़ीक़तें कुछ और भी हैं...

Written by हसन पाशा | Published on: November 26, 2022
इन दिनों मैं मिर्ज़ा ग़ालिब की चिट्ठियाँ ( ग़ालिब के खतूत ) पढ़ रहा हूँ । कुल सात जिल्दें हैं इसकी, उर्दू और फ़ारसी के काफ़ी मुश्किल शब्द इस्तेमाल हुए हैं, लेकिन मज़ा आ रहा है, इसके बावजूद कि बार-बार डिक्शनरी देखनी पड़ती है। ये खत ग़ालिब ने अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को लिखे थे जिनमें हिन्दू मुसलमान दोनों थे। ये खत उनकी शायरी की ही तरह लोकप्रिय और दिलचस्प हैं।



ग़ालिब ने इनमें अपनी निजी बातों, अपने बुरे वक़्तों और बुढ़ापे तथा बीमारियों और अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के हालात बयान किए हैं, लेकिन इनका महत्व यहीं तक सीमित नहीं है। ये खत दस्तावेज़ हैं सन 1857 के गदर और उसके बाद बदले की कारवाई के तौर पर अंग्रेज़ों ने दिल्ली के लोगों पर जो ज़ुल्म ढाये उन सारी बातों का।

57 की क्रांति के हीरो बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र क़तई नहीं थे जैसा कि कहा जाता है। उस वक़्त वो उम्र के उस दौर में पहुँच चुके थे जब इंसान में सोचने-समझने और फ़ैसला लेने की ताक़त ख़त्म होने लगती है। जो कुछ उनके आस-पास हो रहा था वो सब उनकी समझ के बाहर की चीज़ें थीं। जब उन्हें मुल्क बदर किया जा रहा था उन्होंने उस वक़्त भी कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं की थी। उन्हें यही लगा था कि वो कहीं हवा-पानी की तब्दीली के लिए ले जाए जा रहे हैं। बाहर से जो बाग़ी दिल्ली आये थे, जिनमे शामिल सारे हिन्दू और मुसलमानों को पंडित या पंडी नाम दिया गया था, उन्होंने पूरी तरह से महज़ अपनी मर्ज़ी से उनको अपना लीडर घोषित कर दिया था। विडंबना ये देखिए कि उन्होंने जिनको अपना लीडर माना था, जब उन लोगों के पास खाने को नहीं था तो उसी की दाढ़ी खींच-खींच कर उन्होंने कहा था कि ‘ बादशाह, हमें रोटी दो।‘ बादशाह का अपना बुरा हाल, वो उनकी मदद क्या करता !

सन 57 के असली हीरो थे वो लोग जिनके नाम वक़्त और सांप्रदायिक सियासत की धूल में दब चुके हैं। बहादुर शाह का बेटा मिर्ज़ा मुग़ल, जिसने अपने लाल किले को हमलावरों से बचाने के संघर्ष में जान दे दी, ‘ दिल्ली अखबार ‘ के मालिक और संपादक मोहम्मद बाकर जिन्होंने क्रांति के समर्थन में जोशीले लेख लिखे और खबरें छापीं और जब बाग़ी दिल्ली पहुंचे तो उनके स्वागत में जामा मस्जिद की मीनार पर उनका झण्डा फहराया, और फिर अंग्रेज़ों की तरफ़ से बदले की कारवाई में तोप के मुंह पर बांध कर उड़ा दिए गये। झज्झर के नवाब अब्दुल रहमान जिनको फांसी पर लटकाया गया और जिनके किले और महल को ज़मीन के बराबर कर दिया गया क्योंकि उन्होंने दिल्ली के फ़रार बाग़ियों को अपने यहाँ पनाह दी और वो जियाला बख्त खान जो अपनी छोटी सी टुकड़ी के साथ शक्तिशाली अंग्रेज़ी सत्ता की तोपों और बंदूकों से महज़ तलवार ले कर जा भिड़ा। नाम तो इनका भी वीर गाथाओं के सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना चाहिए था मगर हक़ीक़त ये है कि सड़क और पार्क तो क्या, इनके नाम की एक गली तक नहीं हैं।

57 की गदर एक सफ़ल क्रांति में बदल सकती थी और दिल्ली से जान बचा कर भागे हुए अंग्रेज़ दोबारा संगठित हो कर वापस न आते, अगर पूरी दिल्ली एक साथ होती। बदकिस्मती से ऐसा नहीं हुआ। जोश ठंडा होता गया, लोग बंटते गए। लाला और महाजन अंग्रेज़ों से अच्छा सम्बन्ध बनाए रखने में अपना कारोबारी फ़ायदा देख रहे थे। महाजनों के मोहल्ले 'कटरा नील' और दरीबा को अंग्रेज़ों ने अभय दान दे दिया। पंजाबी शुरू से अलग-अलग थे। बचे पंडित और मुसलमान। और फिर जब बाहर के कुछ कट्टरवादी मुल्लाओं ने आंदोलन को इसाइयत बनाम इस्लाम ठहरा दिया तो दिल्ली के पंडित 'हमें क्या करना' की मानसिक स्थिति में आ गए और जो बाहर से आए थे वो अपने घर लौट गए।

अंग्रेज़ों को भी बदलते हालात मन-मुताबिक लगे। उन्होंने भी इसे इसाइयत बनाम इस्लाम ठहराया, बहादुर शाह को ईसाइयों के खिलाफ़ साज़िश रचने वाला तुर्क खलीफ़ा का एजेंट कहा और मुसलमानों को चुन-चुन कर मारना और उनके घरों को ढहाना शुरू कर दिया। जो भाग सके वो भागे, बाकी मारे गए। जामा मस्जिद सिख रेजीमेंट का बैरेक और उनके घोड़ों का अस्तबल बनाया गया, फ़तह पूरी और एक शीरी मस्जिद नीलाम पर चढ़ी, फ़तह पूरी मस्जिद को एक महाजन ने खरीद ली और शीरीन मस्जिद एक अंग्रेज़ बेकर की मिल्कियत हो गई। ज़ुल्म का ये पहिया तीन साल चला। उसके बाद अंग्रेज़ों की समझ में बात आई कि मुसलमानों से ज्यादा लंबी दुश्मनी उनके हित के खिलाफ़ जा सकती है। मुसलमानों को तब जाकर घर लौटने की अनुमति मिली. उन्होंने जामा मस्जिद लौटाई तो महाजन ने भी ये कह कर फ़तह पूरी मस्जिद मुसलमानों के हवाले कर दी कि इसके ईंट-पत्थर मेरे किस काम के। शीरीन मस्जिद नहीं बची। कहा जाता है कि आज जहां दिल्ली का टाउन हाल है वहीं शीरीन मस्जिद थी।

ग़ालिब ने अपने कई खतों में उस डरावने वक़्त का ज़िक्र किया है। लिखते हैं कि उनके बहुत सारे रिश्तेदार और दोस्त अंग्रेज़ों के कहर का शिकार हुए। उनका क़त्ल हुआ और उनके नन्हें-नन्हे बच्चों से उनके घर का साया छीन लिया गया। जहां अंग्रेज़ बाज़ आये तो वहां सड़ती लाशों से फैले हैज़े ने मौत का रक्स किया। “कहाँ जाऊं, किसे अपना दर्द सुनाऊँ, कोई तो नहीं बचा है,” वो लिखते हैं।

अंग्रेज़ जब एक एक मुसलमान को बुला कर पूछताछ कर रहे थे तो ग़ालिब को भी बुलाया। अंग्रेज़ अफ़सर ने उनसे सवाल किया, “तुम मुसलमान हो ?”
“जनाब, आधा मुसलमान हूँ,” जवाब मिला।
“क्या मतलब ?” 
“सुवर नहीं खाता मगर शराब पीता हूँ।”

अफ़सर को उनकी हाज़िर जवाबी पसंद आई और उनको घर जाने दिया गया।

बहादुर शाह के जाने के बाद शाही खानदान का जो हाल हुआ एक खत में उसकी तरफ़ इशारा करते हुए ग़ालिब ने शहजादियों का ज़िक्र किया है : “चाँद जैसा चेहरा, जिस्म पर झूलता चिथड़े जैसा मैला चीकट लिबास और पैरों में फटी हुई जूतियाँ।” अंग्रेज़ी सरकार ने शाही खानदान के गुजारे के लिए हर मेम्बर के लिए 5 रुपए पेंशन तय की। उनसे बेहतर हाल ग़ालिब का अपना था जिन्हें 100 रुपया महीना रामपुर के नवाब से और साढ़े बासठ रुपए की पेन्शन अंग्रेज़ सरकार से मिलती थी।

इसके बावजूद वो आर्थिक परेशानियों में रहे। शराब की लत ने उनकी हालत बिगाड़ रक्खी थी। अपना आखिरी वक़्त उन्होंने बल्ली मारान की जिस हवेली में गुज़ारा और अब जहां उनका मेमोरियल है उसका महीने का किराया तीन रुपया था मगर उसे भी चुकाना मुश्किल होता था। आमदनी का एक बड़ा हिस्सा शराब में निकल जाता था। मगर ये एक कलाकार की ईमानदारी और स्पष्टवादिता ही कही जाएगी कि अपनी हर दुर्बलता को उन्होंने खुल कर स्वीकार किया। कभी उन्होंने सफाई देने की कोशिश नहीं की।

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