मूर्धन्य पत्रकार और अपनी अनूठी शैली के साहित्यकार राजकिशोर नहीं रहे। उन्होंने सोमवार सुबह 9 बजे एम्स में अंतिम सांस ली। बताया जा रहा है कि अभी हाल ही में उनके बेटे का देहांत हुआ था जिसके चलते वे सदमे में थे। धारदार लेखनी और मजबूत शैली के पुरोद्धा राजकिशोर रविवार डाइजेस्ट से जुड़े थे। उनकी टिप्पणियां विभिन्न अखबार, पत्रिकाओं और वेबसाइट्स पर प्रकाशित होती थीं। सोशल मीडिया पर उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लगा हुआ है.....
पश्चिम बंगाल के कोलकाता में 2 जनवरी 1947 को जन्मे राजकिशोर अपने वैचारिक लेखन के लिए जाने जाते हैं. 'तुम्हारा सुख' और 'सुनंदा की डायरी' जैसे उनके उपन्यास के अलावा 'पाप के दिन' शीर्षक से उनकी कविता संग्रह काफी प्रसिद्ध रही हैं. पत्रकारिता और साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें लोहिया पुरस्कार के अलावा हिंदी अकादमी की तरफ से साहित्यकार सम्मान से भी नवाजा जा चुका है.
अविनाश दास लिख रहे हैं...
राजकिशोर जी हमारे बनते हुए युवा दिनों के आइकॉन थे। वाणी प्रकाशन ने आज के प्रश्न नाम से एक शृंखला छापी थी, जिसके संपादक राजकिशोर जी थे। रविवार के उनके दिनों का किस्सा पटना के हमारे मित्र सुबोध जी सुनाते थे। वे लंबे समय तक नवभारत टाइम्स में थे, लेकिन विनीत जैन के हाथों में टाइम्स ग्रुप की कमान आयी, तो एक बार वह हिंदी एडिटोरियल रूम में गये। किस्सा है कि राजकिशोर जी को देख कर उन्होंने कहा कि यह काला आदमी यहां क्या कर रहा है? और अगले दिन से राजकिशोर जी नवभारत टाइम्स का हिस्सा नहीं रह गये।
दिल्ली में राजकिशोर जी से मित्रता हुई और बहुत अच्छी घनिष्टता रही। साम्यवाद को लेकर उनके विचार बहुत उदार नहीं थे और हमारे बीच जमकर कहासुनी भी होती रही। लेकिन जब भी मिले, बराबरी महसूस कराने वाले उनके बर्ताव ने मुझ पर हमेशा जादुई असर किया। दिल्ली में मैं एक वेबसाइट मॉडरेट किया करता था, मोहल्ला लाइव। थोड़े दिनों तक उसका दफ्तर मातासुंदरी रोड में था। हम एक दिन वाणी प्रकाशन में मिले और वहां से चल कर मोहल्ला लाइव के दफ़्तर तक आये। उस दिन उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे मैंने उनकी भावुकता से भरा हुआ प्रस्ताव माना। उस दिन मैंने उन्हें घर तक छोड़ा था, जहां दिलीप मंडल के साथ एक बार मैं जा चुका था।
बाद में एक दिन उन्होंने फ़ोन किया और बेटी के विवाह को लेकर चिंता प्रकट की। फिर उन्हीं के आग्रह पर मैंने मोहल्ला लाइव में एक विज्ञापन भी प्रकाशित किया था। दिल्ली के प्रेस क्लब में एक दिन उनके बेटे से भी मुलाक़ात हुई लेकिन राजकिशोर जी के ज़िक्र पर वह बहुत उत्साहित नहीं दिखा। थोड़े दिनों पहले उसी बेटे की मृत्यु के बाद वह शायद टूट गये और आज उनके निधन की ख़बर ने मुझे अंदर से हिला कर रख दिया। अभी उनके जाने की उम्र नहीं थी। उनसे लगभग दस साल बड़े मेरे पिता अभी भी स्वस्थ और सानंद हैं।
आप बहुत याद आएंगे राजकिशोर जी।
योगेश कुमार शीतल लिख रहे हैं...
कतरनों में राजकिशोर!
राजकिशोर के निधन की खबर तेज भागती ट्रेन में अचानक किसी के जंजीर खींचकर उतर जाने जैसा है।
तब सहारा समय साप्ताहिक अखबार हुआ करता था, जो बाद में दैनिक “राष्ट्रीय सहारा” हुआ और फिर धीरे-धीरे उसकी दशा भी “आज” की तरह हो गई। बेगूसराय में हिंदुस्तान और दैनिक जागरण का तब साझा वर्चस्व था और प्रभात खबर में हरिवंश के कलम का जादू और मार्केटिंग स्ट्रेटजी बदलने तक इन दो अखबारों का ही बर्चस्व वहां कायम रहा।
साप्ताहिक सहारा समय अखबार के प्रकाशन बंद होने के बाद समकालीन लेख, टिप्पणियां और वाद-विवाद जैसी सामग्रियों का अभाव महसूस होना शुरू हुआ। हिंदुस्तान और दैनिक जागरण क्रमश: कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से प्रेरित थे, इसलिए उनसे उस व्यापक सामग्री की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी, जिसकी तलाश तब थी!
पुस्तकालयों का चक्कर काटते हुए जनसत्ता का नाम कई बार कान से टकराया था।
2008 के जाड़े की दोपहर थी। सामने डॉ भगवान प्रसाद सिन्हा चेहरे पर भव्य तेज समेटे इंडियन एक्सप्रेस के किसी लेख का अनुवाद कर रहे थे। डॉ सिन्हा मेरे लिए क्या हैं, यह फिर कभी! उनसे बातचीत के क्रम में मुझे मालूम चला कि वह बेगूसराय के उन चुनिंदा पाठकों में से हैं जिनके यहां जनसत्ता आता है।
कुछ दिन उनके विश्वनाथ नगर स्थित आवास पर ही बैठकर मैंने जनसत्ता पढ़ना शुरू किया और फिर उस अखबार में छपने वाले लेखों ने कम समय में ही अपनी आदत दिलवा दी। जिन लेखकों ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया था उनमें से राजकिशोर एक थे। उनके अलावा जवाहरलाल कौल, सत्येंद्र रंजन, आनंद प्रधान, तरूण विजय, अपूर्वानंद सहित तमाम पत्रकारों के लेख जनसत्ता में रहते थे, जो एक तरह की संतुष्टि का एहसास दिलाते थे। इस अखबार में विचारधारा का प्रसारण नहीं बल्कि मुठभेड़ होती थी, जो इसे अन्य अखबारों से अलग बनाती थी। मेरे अनुभव में जनसत्ता जितना अपने लेखकों को स्पेस देता था, उतना कोई अखबार नहीं देता था। प्रभाष जोशी यूं ही महान नहीं कहलाए। खैर!
कई बार ऐसा हुआ कि कोई लेख इतना तथ्यपरक और तार्किक मिला कि उसे कैंची से काटकर फाईल में संग्रह करने की नौबत आ गई।
आज मैं मुंबई में हूं लेकिन वे फाईलें अब भी बेगूसराय में सुरक्षित हैं। उन फाईलों में राजकिशोर तब भी जिंदा थे और अब भी जिंदा हैं। राजकिशोर उन कतरनों में हमेशा जिंदा रहेंगे और मेरी फाईल इसकी गवाही देगी।
हिंदी के इस मूर्धन्य पत्रकार को मेरी श्रद्धांजलि!
पश्चिम बंगाल के कोलकाता में 2 जनवरी 1947 को जन्मे राजकिशोर अपने वैचारिक लेखन के लिए जाने जाते हैं. 'तुम्हारा सुख' और 'सुनंदा की डायरी' जैसे उनके उपन्यास के अलावा 'पाप के दिन' शीर्षक से उनकी कविता संग्रह काफी प्रसिद्ध रही हैं. पत्रकारिता और साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें लोहिया पुरस्कार के अलावा हिंदी अकादमी की तरफ से साहित्यकार सम्मान से भी नवाजा जा चुका है.
अविनाश दास लिख रहे हैं...
राजकिशोर जी हमारे बनते हुए युवा दिनों के आइकॉन थे। वाणी प्रकाशन ने आज के प्रश्न नाम से एक शृंखला छापी थी, जिसके संपादक राजकिशोर जी थे। रविवार के उनके दिनों का किस्सा पटना के हमारे मित्र सुबोध जी सुनाते थे। वे लंबे समय तक नवभारत टाइम्स में थे, लेकिन विनीत जैन के हाथों में टाइम्स ग्रुप की कमान आयी, तो एक बार वह हिंदी एडिटोरियल रूम में गये। किस्सा है कि राजकिशोर जी को देख कर उन्होंने कहा कि यह काला आदमी यहां क्या कर रहा है? और अगले दिन से राजकिशोर जी नवभारत टाइम्स का हिस्सा नहीं रह गये।
दिल्ली में राजकिशोर जी से मित्रता हुई और बहुत अच्छी घनिष्टता रही। साम्यवाद को लेकर उनके विचार बहुत उदार नहीं थे और हमारे बीच जमकर कहासुनी भी होती रही। लेकिन जब भी मिले, बराबरी महसूस कराने वाले उनके बर्ताव ने मुझ पर हमेशा जादुई असर किया। दिल्ली में मैं एक वेबसाइट मॉडरेट किया करता था, मोहल्ला लाइव। थोड़े दिनों तक उसका दफ्तर मातासुंदरी रोड में था। हम एक दिन वाणी प्रकाशन में मिले और वहां से चल कर मोहल्ला लाइव के दफ़्तर तक आये। उस दिन उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे मैंने उनकी भावुकता से भरा हुआ प्रस्ताव माना। उस दिन मैंने उन्हें घर तक छोड़ा था, जहां दिलीप मंडल के साथ एक बार मैं जा चुका था।
बाद में एक दिन उन्होंने फ़ोन किया और बेटी के विवाह को लेकर चिंता प्रकट की। फिर उन्हीं के आग्रह पर मैंने मोहल्ला लाइव में एक विज्ञापन भी प्रकाशित किया था। दिल्ली के प्रेस क्लब में एक दिन उनके बेटे से भी मुलाक़ात हुई लेकिन राजकिशोर जी के ज़िक्र पर वह बहुत उत्साहित नहीं दिखा। थोड़े दिनों पहले उसी बेटे की मृत्यु के बाद वह शायद टूट गये और आज उनके निधन की ख़बर ने मुझे अंदर से हिला कर रख दिया। अभी उनके जाने की उम्र नहीं थी। उनसे लगभग दस साल बड़े मेरे पिता अभी भी स्वस्थ और सानंद हैं।
आप बहुत याद आएंगे राजकिशोर जी।
योगेश कुमार शीतल लिख रहे हैं...
कतरनों में राजकिशोर!
राजकिशोर के निधन की खबर तेज भागती ट्रेन में अचानक किसी के जंजीर खींचकर उतर जाने जैसा है।
तब सहारा समय साप्ताहिक अखबार हुआ करता था, जो बाद में दैनिक “राष्ट्रीय सहारा” हुआ और फिर धीरे-धीरे उसकी दशा भी “आज” की तरह हो गई। बेगूसराय में हिंदुस्तान और दैनिक जागरण का तब साझा वर्चस्व था और प्रभात खबर में हरिवंश के कलम का जादू और मार्केटिंग स्ट्रेटजी बदलने तक इन दो अखबारों का ही बर्चस्व वहां कायम रहा।
साप्ताहिक सहारा समय अखबार के प्रकाशन बंद होने के बाद समकालीन लेख, टिप्पणियां और वाद-विवाद जैसी सामग्रियों का अभाव महसूस होना शुरू हुआ। हिंदुस्तान और दैनिक जागरण क्रमश: कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से प्रेरित थे, इसलिए उनसे उस व्यापक सामग्री की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी, जिसकी तलाश तब थी!
पुस्तकालयों का चक्कर काटते हुए जनसत्ता का नाम कई बार कान से टकराया था।
2008 के जाड़े की दोपहर थी। सामने डॉ भगवान प्रसाद सिन्हा चेहरे पर भव्य तेज समेटे इंडियन एक्सप्रेस के किसी लेख का अनुवाद कर रहे थे। डॉ सिन्हा मेरे लिए क्या हैं, यह फिर कभी! उनसे बातचीत के क्रम में मुझे मालूम चला कि वह बेगूसराय के उन चुनिंदा पाठकों में से हैं जिनके यहां जनसत्ता आता है।
कुछ दिन उनके विश्वनाथ नगर स्थित आवास पर ही बैठकर मैंने जनसत्ता पढ़ना शुरू किया और फिर उस अखबार में छपने वाले लेखों ने कम समय में ही अपनी आदत दिलवा दी। जिन लेखकों ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया था उनमें से राजकिशोर एक थे। उनके अलावा जवाहरलाल कौल, सत्येंद्र रंजन, आनंद प्रधान, तरूण विजय, अपूर्वानंद सहित तमाम पत्रकारों के लेख जनसत्ता में रहते थे, जो एक तरह की संतुष्टि का एहसास दिलाते थे। इस अखबार में विचारधारा का प्रसारण नहीं बल्कि मुठभेड़ होती थी, जो इसे अन्य अखबारों से अलग बनाती थी। मेरे अनुभव में जनसत्ता जितना अपने लेखकों को स्पेस देता था, उतना कोई अखबार नहीं देता था। प्रभाष जोशी यूं ही महान नहीं कहलाए। खैर!
कई बार ऐसा हुआ कि कोई लेख इतना तथ्यपरक और तार्किक मिला कि उसे कैंची से काटकर फाईल में संग्रह करने की नौबत आ गई।
आज मैं मुंबई में हूं लेकिन वे फाईलें अब भी बेगूसराय में सुरक्षित हैं। उन फाईलों में राजकिशोर तब भी जिंदा थे और अब भी जिंदा हैं। राजकिशोर उन कतरनों में हमेशा जिंदा रहेंगे और मेरी फाईल इसकी गवाही देगी।
हिंदी के इस मूर्धन्य पत्रकार को मेरी श्रद्धांजलि!