पिछले ही सप्ताह जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक निकाय, इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेटिक चेंज (आइपीसीसी) ने स्विटजरलेंड में, इटरलेकेन से अपनी ताजातरीन रिपोर्ट जारी की है। यह संस्था, संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में काम करती है। यह कोई नयी रिपोर्ट नहीं है, जिसमें नये तथ्यों को पेश किया गया हो। यह तो आइपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट (आइपीसीसी/एआर6) के तीन खंडों के संश्लेषण की रिपोर्ट है। इन खंडों को, पिछले साल के दौरान अलग-अलग समय पर जारी किया गया था। जैसा कि आइपीसीसी का आम तरीका ही है, आइपीसीसी/एआर6 के ये तीन खंड क्रमश: जलवायु परिवर्तन के विज्ञान, प्रभावों तथा वेध्यताओं को, संभावित समायोजन रणनीतियों को और अंत में उपशमन की यानी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने की रणनीतियों को लेते हैं।
इन गैसों का उत्सर्जन ही जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है। इस संश्लेषण रिपोर्ट में, उक्त तीनों रिपोर्टों के मुख्य निष्कर्षों को एक साथ रखा गया है, उन पर समन्वित तरीके से विचार किया गया है और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए, एक समग्रतापूर्ण रुख तक पहुंचने के लिए, उनके अंतर्संबंधों की छानबीन की गयी है। वास्तव में हाल में जारी रिपोर्ट तो आइपीसीसी/एआर6 की पूर्ण संश्लेषण रिपोर्ट तक नहीं है। वह रिपोर्ट तो इसी साल आगे चलकर जारी की जाएगी। यह तो सिर्फ उक्त पूर्णतर रिपोर्ट का नीति निर्माताओं के लिए सारसंक्षेप (एसपीएम) भर है। फिर भी, इस रिपोर्ट में आइपीसीसी/एआर6 में आए सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्यों, निष्कर्षों तथा सिफारिशों को पेश किया गया है, ताकि अंतर्राष्ट्रीय तथा विशेष रूप से राष्ट्रीय स्तरों पर नीति निर्माताओं को, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कदमों को सूत्रबद्घ करने तथा लागू करने में, मार्गदर्शन मिल सके।
यह रिपोर्ट इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि यह मौजूदा दशक के आइपीसीसी के मोटे तौर पर सात बरस के आकलन चक्रों में से एक प्रकार से आखिरी ही है, हालांकि अब से लेकर 2030 तक और कई विशेष रिपोर्टें तथा अध्ययन हमें देखने को मिल सकते हैं। यह रिपोर्ट इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस पर सभी सरकारों ने अपने दस्तखत किए हैं। चूंकि यह इस दशक के लिए एक निश्चयात्मक वैज्ञानिक आकलन है, यह हमारा ध्यान तथा सरकारों तथा दुनिया भर के दूसरे सभी हस्तक्षेपकर्ताओं का ध्यान इस पर केंद्रित करता है कि जलवायु परिवर्तन के पहलू से दुनिया तथा विभिन्न देशों की स्थिति क्या है, कार्बनडाइआक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की वर्तमान तथा कल्पनीय भविष्य की दशा-दिशा को देखते हुए, हम पर्यावरण पर किस तरह के प्रभाव पडऩे की उम्मीद कर सकते हैं और जिस तरह के सर्वनाशी नतीजे आज सिर पर मंडरा रहे हैं, उनसे बचने के लिए या कम से कम उनके शमन के लिए, क्या करने की जरूरत है इस पर विचार कर सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन: वर्तमान दशा क्या कहती है?
वैश्विक भूतलीय औसत ताप आज, 1850-1900 के दौरान जिस स्तर पर था, उससे 1.1 डिग्री सेल्शियस ऊपर जा चुका है। लेकिन, इसमें हैरानी कोई बात भी नहीं है कि कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों में से करीब 42 फीसद, 1900 से 2019 तक यानी पिछली एक सदी से कुछ ज्यादा के दौरान ही जोड़े गए हैं। पुन: दुनिया भर के शुद्ध उत्सर्जन यानी वनों व सागरों द्वारा सोख्तों के रूप में सोखे जाने वाले उत्सर्जनों को घटाने के बाद, कुल उत्सर्जन 2019 तक अपना बढऩा जारी रखे हुए था और 59 गीगाटन कार्बनडॉइआक्साइड तुल्यांक (1 गीगाटन ग्रीन हाउस गैस=1 अरब टन कार्बनडाईआक्साइड) के रिकार्ड स्तर पर था, जो 2010 के मुकाबले 12 फीसद ज्यादा था और 1990 के मुकाबले 49 फीसद था। याद रहे कि पिछले जलवायु परिवर्तन नियंत्रण समझौते, क्योटो प्रोटोकॉल में यह लक्ष्य तय किया गया था कि 2008-12 तक वैश्विक उत्सर्जनों को, 1990 के स्तर से, 5 फीसद नीचे ले आया जाए। बहरहाल, यह उत्सर्जन नियंत्रण के कदमों तथा उनके परिपालन की और खासतौर पर विकसित देशों द्वारा ऐसे कदमों के निर्धारण तथा उनके परिपालन की घोर अपर्याप्तता को ही उजागर करता है कि 2010-19 के दौरान उत्सर्जन, इससे पहले के किसी भी दशक के मापशुदा उत्सर्जन के स्तर से ऊपर ही था।
इस सब के बीच अगर आशा की कोई किरण नजर आती है तो यही कि आखिरकार, 2010-19 के दौरान, उत्सर्जनों की सालाना वृद्धि दर (जिसमें पेरिस समझौते के अंतर्गत नेशनल डिटरमाइन्ड कंट्रीब्यूशन्स-एनडीसी के परिपालन का प्रभाव भी शामिल है) 1.3 फीसद प्रति वर्ष के स्तर पर आ गयी, जो कि 2000-2009 के दौरान रहे 2.1 फीसद सालाना के स्तर से, घटकर है। अब यह तो आगे-आगे ही पता चलेगा कि इस पहलू से विशेष रूप से यूक्रेन युद्ध को देखते हुए तथा इस युद्ध के सिलसिले में पश्चिमी देशों द्वारा अपने फंड के प्रवाहों को सैन्य कार्रवाइयों की ओर मोड़े जाने और पश्चिम में जीवाश्म ईंधन के उपयोग में नयी जान पडऩे तथा उसमें बढ़ोतरी को देखते हुए, जिसमें कोयले तथा प्राकृतिक गैस के मामले में बढ़ोतरी भी शामिल है, वर्तमान दशक में क्या स्थिति रहने जा रही है।
वैसे इस तरह के आकस्मिक घटनाक्रमों के बिना भी, वैश्विक ताप वृद्धि में 2020-40 के दौरान तो लगातार बढ़ोतरी होना ही अपेक्षित है। ऐसा होना है मुख्यत: समेकित उत्सर्जनों के चलते तथा उत्सर्जनों के धीमे पडऩे के बावजूद, बने रहने जा रही ‘‘जलवायुगत पिछड़’’ के चलते। उत्सर्जन के अपेक्षाकृत निचले स्तर पर रहने की सूरत में भी वैश्विक ताप वृद्धि के 1.5 डिग्री सैल्शियस पर तक पहुंच जाने की ही ज्यादा संभावना है और वास्तव में, उत्सर्जन के स्तर के अपेक्षाकृत ऊंचा बने रहने के चलते, उसके 1.5 डिग्री से ऊपर निकल जाने की ही ‘ज्यादा संभावना’ है।
बढ़ते अपरिवर्तनीय प्रभाव
दुनिया के विभिन्न इलाकों में जलवायु में हो रहे बदलाव, बढ़ते पैमाने पर स्पष्ट होकर सामने आ रहे हैं और उत्सर्जनों में तथा औसत वैश्विक ताप में हरेक बढ़ोतरी के साथ ये बदलाव पहले जो अनुमान लगाए गए थे, उनसे भी ज्यादा रफ्तार से बद से बदतर रूप लेते जा रहे हैं। गर्मी की लहरों, सूखे, इसके चलते वनों में आग लगने जैसे रूपों में और दूसरी ओर अतिवृष्टि तथा अन्य जलवायु अतियों, ट्रॉपिकल साइक्लोनों आदि के रूप में, जलवायु संबंधी अतियां जल्दी-जल्दी सामने आ रही हैं। रिपोर्ट इसकी ओर इंगित करती है कि इस सबकी मार के सबसे ज्यादा खतरे में वही जनगण हैं, जिनका जलवायु परिवर्तन करने वाले कारकों में सबसे कम योगदान रहा है, सबसे ज्यादा चोट उन्हीं पर पड़ रही है। अनुमानत: 3.3 से 3.6 अरब तक आबादी ऐसे इलाकों में रही है, जिन्हें सूखे, पानी तथा खाद्यान्न की कमी और मौसमी अतियों का सामना करना पड़ रहा है। गर्मी की अति के प्रकरणों के शिकार इलाकों में रुग्णता तथा मृत्यु अनुपात में बढ़ोतरी हो रही है, रोग फैलाने वाले कीट-पतंगों आदि से फैलने वाले या खाने या पानी से फैलने वाले रोग बढ़ रहे हैं और पहले से बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है और ऐसा खासतौर पर छोटे-छोटे द्वीपों की आबादियों के मामले में और सुंदरबन जैसे पहले ही वेध्य डेल्टाई क्षेत्रों में हो रहा है।
और जलवायु पर इस तरह के दुष्प्रभाव तो तब देखने को मिल रहे हैं, जबकि वैश्विक ताप में बढ़ोतरी 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड के ही स्तर पर है। पहले, वैश्विक ताप में वृद्धि को 2 डिग्री पर रोकने का जो लक्ष्य लेकर चला जा रहा था या अब जो 1.5 डिग्री की बढ़ोतरी का लक्ष्य लेकर चला जा रहा है, उतनी ताप वृद्धि पर क्या होगा, इसका तो सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। रिपोर्ट बताती है कि 2050 तक ताप वृद्धि को अगर रोक दिया जाता है या उसे पीछे धकेल दिया जाता है, तब जलवायु संबंधी बदलावों में से कुछ को बेशक पीछे धकेलना संभव होगा, फिर भी इनमें से अनेक बदलाव तो लंबे समय तक बने रहने जा रहे हैं और स्थायी भी हो सकते हैं। रिपोर्ट में इस पर और भी जोर दिया गया है कि वैश्विक ताप में हरेक वृद्धि के साथ, ये बदलाव तथा दुष्प्रभाव बद से बदतर हो जाने वाले हैं।
रिपोर्ट एक और ज्यादा चिंताजनक रुझान को भी रेखांकित करती है। कुछ जलवायु संबंधी दुष्प्रभाव, खासतौर पर ऐसे दुष्प्रभाव जो काफी समय के बाद सामने आते हैं या तो अब तक अपरिवर्तनीय बदलावों के स्थिति में पहुंच चुके हैं या तेजी से ऐसी अवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। समुद्र के अम्लीयकरण तथा ताप में बदलावों से, थोक के हिसाब से जीव प्रजातियों के विलोप तथा जैव-विविधता के क्षय के प्रकरण भी हो सकते हैं, जिसके संकेत दिखाई भी देने लगे हैं। मछलियों के प्राकृतिक भंडारों के छीजने से, जिसे स्वाभाविक भरपाई से ज्यादा मछली पकड़े जाने ने और भी बदतर बना दिया है, दुनिया के अनेक हिस्सों में पहले ही खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे पैदा हो गए हैं। मिसाल के तौर पर समुद्र की सतह ऊपर उठ रही है और बढ़ती हुई तथा तेज से तेजतर होती रफ्तार से ऊपर उठ रही है और यह प्रक्रिया, सागरों के फैलाव तथा धु्रवीय हिम के पिघलने से सैकड़ों साल, यहां तक कि हजारों साल तक जारी रह सकती है, हालांकि उत्सर्जनों में कटौती के सतत तथा भारी प्रयासों के जरिए, इन प्रक्रियाओं की तेजी की रफ्तार को घटाया जरूर जा सकता है। इसलिए, आने वाले वर्षों में तटीय क्षेत्रों का बहुत ही वेध्य बने रहना तय है, भले ही उत्सर्जन कटौतियों में कितनी ही बड़ी कामयाबी क्यों नहीं मिल जाए। 2 डिग्री सेंटीग्रेड की अपेक्षाकृत अधिक ताप वृद्धि की सूरत में, पश्चिमी आइसलेंड तथा ग्रीनलैंड की बर्फ की परत हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त हो सकती है।
शमन के प्रयास
रिपोर्ट यह रेखांकित करती है कि हालांकि अनेक देशों ने पिछले अनेक वर्षों में उत्पादन तथा उपभोग, दोनों से ही जुड़े अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जनों को घटाया है और दूसरे देशों ने भी अपने उत्सर्जनों की बढ़ोतरी की रफ्तार को धीमा कर लिया है, फिर भी यह सब भी, उत्सर्जनों में समग्रता में बढ़ोतरी पर काबू पाने के लिए काफी नहीं है। उत्सर्जन के वर्तमान यात्रा पथ, ग्लासगो में संपन्न कोप26 में स्वीकार की गयी एनडीसी लक्ष्यों में बढ़ोतरियों को मिलाकर भी, दयनीय तरीके से अपर्याप्त हैं।
मौजूदा रफ्तार के हिसाब से तो, 2030 तक उत्सर्जनों में कटौतियों के जो लक्ष्य घोषित हैं और ताप वृद्धि को 1.5 डिग्री तक रोकने के लिए जिस स्तर की कटौतियां चाहिए, उनमें बहुत भारी अंतर है। इसके अलावा, परिपालन मे पिछड़ों को भी हिसाब में रखना चाहिए, जब विभिन्न देश अपने स्वीकार किए गए, कटौती के लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाते हैं। उत्सर्जन नियंत्रण के प्रयासों के इतिहास में तो ऐसा बार-बार देखने को मिला है। ऐसे तो ताप वृद्धि 3.2 डिग्री तक भी पहुंच सकती है! ऐसी नौबत आने को तो फौरन कदम उठाने के जरिए और 2030 तक उत्सर्जनों में भारी कटौतियों के जरिए ही रोका जा सकता है।
रिपोर्ट का यह प्रेक्षण बहुत कुछ बताता है कि अनेक देशों ने 2050 तक उत्सर्जन के मामले में ‘‘नैट जीरो’’ का लक्ष्य हासिल कर लेने का ऐलान तो कर दिया है, लेकिन इस वादे के पीछे ठोस लक्ष्य नहीं बताए गए हैं और न ही इस रास्ते पर प्रगति के लिए वर्तमान या कल्पित नीतियों को ही रखा गया है। दूसरे शब्दों में यह सुनने में तो प्रभावशाली लगने वाले, लेकिन खोखले वादों का ही मामला है। यही बात विकसित देशों से विकासशील देशों की ओर वित्तीय प्रवाहों के मामले में भी सच है। ये प्रवाह, 100 अरब डालर सालाना का जो वादा किया गया है, उससे बहुत ही कम हैं। वास्तव में रिपोर्ट यह ध्यान दिलाती है कि जीवाश्म ईंधन उद्योग की ओर वित्त के प्रवाह अब भी, उपशमन या सामंजस्यकरण के लिए, वित्त के प्रवाहों से ज्यादा बने हुए हैं!
आगे का रास्ता
इस रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि दुनिया, जलवायु परिवर्तन की वास्तविक और नाजुक समस्याओं से पर्याप्त रूप से नहीं निपट रही है। एक के बाद एक, आइपीसीसी की रिपोर्टों तथा अन्य रिपोर्टों ने बार-बार तथा बढ़ती निश्चयात्मकता के साथ यह रेखांकित किया है कि मानवता को और उसमें भी खासतौर पर सामर्थ्यहीन जनगणों को, जलवायु परिवर्तन के कैसे गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है और उन खतरों से उबरने के लिए क्या करने की जरूरत है। इसके बावजूद, उत्सर्जनों में जिस तरह की भारी कटौतियों की जरूरत है और खासतौर पर विकसित देशों की ओर से ऐसी कटौतियों की जरूरत है, उनका तो कहीं अता-पता ही नहीं है। कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे आग की चेतावनी की घंटी बजती रहे, पर उसे बुझाने के लिए कोई आगे आए ही नहीं। जीवाष्म ईंधन उद्योगों के निहित स्वार्थ और आम तौर पर विश्व पूंजीवाद के निहित स्वार्थ, विकसित दुनिया के अधिकांश देशों की ओर से सार्थक कदमों की राह रोक रहे हैं। उधर, ऐसा लगता है कि भू-राजनीति के तकाजे और महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के तकाजे, चीन की राह रोक रहे हैं।
जब तक कोप26 और उसके भी आगे के कुछ कोप सम्मेलनों द्वारा खासतौर पर विकसित देशों द्वारा लेकिन बाकी सभी देशों द्वारा भी, जिनमें आर्थिक व प्रौद्योगिकीय रूप से समर्थ बड़े विकासशील देश भी शामिल हैं, उत्सर्जनों में भारी कटौतियों का रास्ता नहीं निकाला जाता है, जलवायु परिवर्तन के विनाश रथ को कोई नहीं रोक पाएगा।
इसी बीच जलवायु परिवर्तन खुद ही और गहरे परिवर्तनों को गति दे रहा है। जलवायु परिवर्तनों के धु्रवीय क्षेत्रों, बर्फ की चादर तथा ग्लेशियरों पर और सागरों पर जो प्रभाव पड़ रहे हैं, वे समुद्री धाराओं में, वाष्पन की दरों व बारिश के पैटर्नों और साइक्लोनों व तूफानों में, बदलाव और भी परिवर्तनों को गति दे सकते हैं। रिपोर्ट यह भी इंगित करती है कि विश्व ताप में बढ़ोतरी के साथ, वनों तथा सागरों की कार्बनडाईआक्साइड को सोखने की क्षमता घट रही है और इसलिए, बढ़ते उत्सर्जनों के दुष्प्रभार और भी तेजी से बद से बदतर हो रहे हैं। जलवायुगत दुष्प्रभाव ऐसे स्तर पर पहुंच रहे हैं, जहां से आगे पर्यावरणों की बदलावों के हिसाब से खुद को ढालने की सामर्थ्य ही, अनेक पहलुओं से अपने छोर पर पहुंच सकती है। यह प्रपाती दुष्प्रभावों की ओर ले जाएगा, जहां किसी एक क्षेत्र पर पडऩे वाले दुष्प्रभार, किसी दूसरे क्षेत्र पर दुष्प्रभावों को और भी तेज कर देंगे और इस तरह आबादी के कमजोर हिस्सों की पहले से मौजूद वेध्यताओं को और भी बढ़ा देगे।
इसलिए, इस संश्लेषण रिपोर्ट की महत्वपूर्ण सिफारिश यह है कि उपशमन तथा अनुकूलन या मिटीगेशन एंड एडॉप्टेशन की नीतियों की संकल्पना अगल-अलग हिस्सों में बांटकर नहीं की जानी चाहिए बल्कि एक समन्वित, बहु-क्षेत्रीय, जलवायु-सह विकास प्रयास के तौर की जानी चाहिए। जाहिर है कि इस लक्ष्य से दुनिया, अलग-अलग क्षेत्रों के हिसाब से तय किए गए उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों की तुलना में, और भी ज्यादा दूर है। भारत ने कुछ क्षेत्रों में उपशमन को हाथ में लेने की कम से कम शुरूआत तो कर दी है। लेकिन, उसने समायोजन की ओर तो ध्यान देना तक शुरू नहीं किया है, जबकि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव देश में भारी तबाही कर रहे हैं।
(लेखक दिल्ली साइंस फोरम और आल इंडिया पीपल्स साइंस नेटवर्क से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
स्त्रोत: न्यूज क्लिक
इन गैसों का उत्सर्जन ही जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है। इस संश्लेषण रिपोर्ट में, उक्त तीनों रिपोर्टों के मुख्य निष्कर्षों को एक साथ रखा गया है, उन पर समन्वित तरीके से विचार किया गया है और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए, एक समग्रतापूर्ण रुख तक पहुंचने के लिए, उनके अंतर्संबंधों की छानबीन की गयी है। वास्तव में हाल में जारी रिपोर्ट तो आइपीसीसी/एआर6 की पूर्ण संश्लेषण रिपोर्ट तक नहीं है। वह रिपोर्ट तो इसी साल आगे चलकर जारी की जाएगी। यह तो सिर्फ उक्त पूर्णतर रिपोर्ट का नीति निर्माताओं के लिए सारसंक्षेप (एसपीएम) भर है। फिर भी, इस रिपोर्ट में आइपीसीसी/एआर6 में आए सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्यों, निष्कर्षों तथा सिफारिशों को पेश किया गया है, ताकि अंतर्राष्ट्रीय तथा विशेष रूप से राष्ट्रीय स्तरों पर नीति निर्माताओं को, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कदमों को सूत्रबद्घ करने तथा लागू करने में, मार्गदर्शन मिल सके।
यह रिपोर्ट इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि यह मौजूदा दशक के आइपीसीसी के मोटे तौर पर सात बरस के आकलन चक्रों में से एक प्रकार से आखिरी ही है, हालांकि अब से लेकर 2030 तक और कई विशेष रिपोर्टें तथा अध्ययन हमें देखने को मिल सकते हैं। यह रिपोर्ट इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस पर सभी सरकारों ने अपने दस्तखत किए हैं। चूंकि यह इस दशक के लिए एक निश्चयात्मक वैज्ञानिक आकलन है, यह हमारा ध्यान तथा सरकारों तथा दुनिया भर के दूसरे सभी हस्तक्षेपकर्ताओं का ध्यान इस पर केंद्रित करता है कि जलवायु परिवर्तन के पहलू से दुनिया तथा विभिन्न देशों की स्थिति क्या है, कार्बनडाइआक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की वर्तमान तथा कल्पनीय भविष्य की दशा-दिशा को देखते हुए, हम पर्यावरण पर किस तरह के प्रभाव पडऩे की उम्मीद कर सकते हैं और जिस तरह के सर्वनाशी नतीजे आज सिर पर मंडरा रहे हैं, उनसे बचने के लिए या कम से कम उनके शमन के लिए, क्या करने की जरूरत है इस पर विचार कर सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन: वर्तमान दशा क्या कहती है?
वैश्विक भूतलीय औसत ताप आज, 1850-1900 के दौरान जिस स्तर पर था, उससे 1.1 डिग्री सेल्शियस ऊपर जा चुका है। लेकिन, इसमें हैरानी कोई बात भी नहीं है कि कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जनों में से करीब 42 फीसद, 1900 से 2019 तक यानी पिछली एक सदी से कुछ ज्यादा के दौरान ही जोड़े गए हैं। पुन: दुनिया भर के शुद्ध उत्सर्जन यानी वनों व सागरों द्वारा सोख्तों के रूप में सोखे जाने वाले उत्सर्जनों को घटाने के बाद, कुल उत्सर्जन 2019 तक अपना बढऩा जारी रखे हुए था और 59 गीगाटन कार्बनडॉइआक्साइड तुल्यांक (1 गीगाटन ग्रीन हाउस गैस=1 अरब टन कार्बनडाईआक्साइड) के रिकार्ड स्तर पर था, जो 2010 के मुकाबले 12 फीसद ज्यादा था और 1990 के मुकाबले 49 फीसद था। याद रहे कि पिछले जलवायु परिवर्तन नियंत्रण समझौते, क्योटो प्रोटोकॉल में यह लक्ष्य तय किया गया था कि 2008-12 तक वैश्विक उत्सर्जनों को, 1990 के स्तर से, 5 फीसद नीचे ले आया जाए। बहरहाल, यह उत्सर्जन नियंत्रण के कदमों तथा उनके परिपालन की और खासतौर पर विकसित देशों द्वारा ऐसे कदमों के निर्धारण तथा उनके परिपालन की घोर अपर्याप्तता को ही उजागर करता है कि 2010-19 के दौरान उत्सर्जन, इससे पहले के किसी भी दशक के मापशुदा उत्सर्जन के स्तर से ऊपर ही था।
इस सब के बीच अगर आशा की कोई किरण नजर आती है तो यही कि आखिरकार, 2010-19 के दौरान, उत्सर्जनों की सालाना वृद्धि दर (जिसमें पेरिस समझौते के अंतर्गत नेशनल डिटरमाइन्ड कंट्रीब्यूशन्स-एनडीसी के परिपालन का प्रभाव भी शामिल है) 1.3 फीसद प्रति वर्ष के स्तर पर आ गयी, जो कि 2000-2009 के दौरान रहे 2.1 फीसद सालाना के स्तर से, घटकर है। अब यह तो आगे-आगे ही पता चलेगा कि इस पहलू से विशेष रूप से यूक्रेन युद्ध को देखते हुए तथा इस युद्ध के सिलसिले में पश्चिमी देशों द्वारा अपने फंड के प्रवाहों को सैन्य कार्रवाइयों की ओर मोड़े जाने और पश्चिम में जीवाश्म ईंधन के उपयोग में नयी जान पडऩे तथा उसमें बढ़ोतरी को देखते हुए, जिसमें कोयले तथा प्राकृतिक गैस के मामले में बढ़ोतरी भी शामिल है, वर्तमान दशक में क्या स्थिति रहने जा रही है।
वैसे इस तरह के आकस्मिक घटनाक्रमों के बिना भी, वैश्विक ताप वृद्धि में 2020-40 के दौरान तो लगातार बढ़ोतरी होना ही अपेक्षित है। ऐसा होना है मुख्यत: समेकित उत्सर्जनों के चलते तथा उत्सर्जनों के धीमे पडऩे के बावजूद, बने रहने जा रही ‘‘जलवायुगत पिछड़’’ के चलते। उत्सर्जन के अपेक्षाकृत निचले स्तर पर रहने की सूरत में भी वैश्विक ताप वृद्धि के 1.5 डिग्री सैल्शियस पर तक पहुंच जाने की ही ज्यादा संभावना है और वास्तव में, उत्सर्जन के स्तर के अपेक्षाकृत ऊंचा बने रहने के चलते, उसके 1.5 डिग्री से ऊपर निकल जाने की ही ‘ज्यादा संभावना’ है।
बढ़ते अपरिवर्तनीय प्रभाव
दुनिया के विभिन्न इलाकों में जलवायु में हो रहे बदलाव, बढ़ते पैमाने पर स्पष्ट होकर सामने आ रहे हैं और उत्सर्जनों में तथा औसत वैश्विक ताप में हरेक बढ़ोतरी के साथ ये बदलाव पहले जो अनुमान लगाए गए थे, उनसे भी ज्यादा रफ्तार से बद से बदतर रूप लेते जा रहे हैं। गर्मी की लहरों, सूखे, इसके चलते वनों में आग लगने जैसे रूपों में और दूसरी ओर अतिवृष्टि तथा अन्य जलवायु अतियों, ट्रॉपिकल साइक्लोनों आदि के रूप में, जलवायु संबंधी अतियां जल्दी-जल्दी सामने आ रही हैं। रिपोर्ट इसकी ओर इंगित करती है कि इस सबकी मार के सबसे ज्यादा खतरे में वही जनगण हैं, जिनका जलवायु परिवर्तन करने वाले कारकों में सबसे कम योगदान रहा है, सबसे ज्यादा चोट उन्हीं पर पड़ रही है। अनुमानत: 3.3 से 3.6 अरब तक आबादी ऐसे इलाकों में रही है, जिन्हें सूखे, पानी तथा खाद्यान्न की कमी और मौसमी अतियों का सामना करना पड़ रहा है। गर्मी की अति के प्रकरणों के शिकार इलाकों में रुग्णता तथा मृत्यु अनुपात में बढ़ोतरी हो रही है, रोग फैलाने वाले कीट-पतंगों आदि से फैलने वाले या खाने या पानी से फैलने वाले रोग बढ़ रहे हैं और पहले से बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित होना पड़ रहा है और ऐसा खासतौर पर छोटे-छोटे द्वीपों की आबादियों के मामले में और सुंदरबन जैसे पहले ही वेध्य डेल्टाई क्षेत्रों में हो रहा है।
और जलवायु पर इस तरह के दुष्प्रभाव तो तब देखने को मिल रहे हैं, जबकि वैश्विक ताप में बढ़ोतरी 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड के ही स्तर पर है। पहले, वैश्विक ताप में वृद्धि को 2 डिग्री पर रोकने का जो लक्ष्य लेकर चला जा रहा था या अब जो 1.5 डिग्री की बढ़ोतरी का लक्ष्य लेकर चला जा रहा है, उतनी ताप वृद्धि पर क्या होगा, इसका तो सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। रिपोर्ट बताती है कि 2050 तक ताप वृद्धि को अगर रोक दिया जाता है या उसे पीछे धकेल दिया जाता है, तब जलवायु संबंधी बदलावों में से कुछ को बेशक पीछे धकेलना संभव होगा, फिर भी इनमें से अनेक बदलाव तो लंबे समय तक बने रहने जा रहे हैं और स्थायी भी हो सकते हैं। रिपोर्ट में इस पर और भी जोर दिया गया है कि वैश्विक ताप में हरेक वृद्धि के साथ, ये बदलाव तथा दुष्प्रभाव बद से बदतर हो जाने वाले हैं।
रिपोर्ट एक और ज्यादा चिंताजनक रुझान को भी रेखांकित करती है। कुछ जलवायु संबंधी दुष्प्रभाव, खासतौर पर ऐसे दुष्प्रभाव जो काफी समय के बाद सामने आते हैं या तो अब तक अपरिवर्तनीय बदलावों के स्थिति में पहुंच चुके हैं या तेजी से ऐसी अवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। समुद्र के अम्लीयकरण तथा ताप में बदलावों से, थोक के हिसाब से जीव प्रजातियों के विलोप तथा जैव-विविधता के क्षय के प्रकरण भी हो सकते हैं, जिसके संकेत दिखाई भी देने लगे हैं। मछलियों के प्राकृतिक भंडारों के छीजने से, जिसे स्वाभाविक भरपाई से ज्यादा मछली पकड़े जाने ने और भी बदतर बना दिया है, दुनिया के अनेक हिस्सों में पहले ही खाद्य सुरक्षा के लिए खतरे पैदा हो गए हैं। मिसाल के तौर पर समुद्र की सतह ऊपर उठ रही है और बढ़ती हुई तथा तेज से तेजतर होती रफ्तार से ऊपर उठ रही है और यह प्रक्रिया, सागरों के फैलाव तथा धु्रवीय हिम के पिघलने से सैकड़ों साल, यहां तक कि हजारों साल तक जारी रह सकती है, हालांकि उत्सर्जनों में कटौती के सतत तथा भारी प्रयासों के जरिए, इन प्रक्रियाओं की तेजी की रफ्तार को घटाया जरूर जा सकता है। इसलिए, आने वाले वर्षों में तटीय क्षेत्रों का बहुत ही वेध्य बने रहना तय है, भले ही उत्सर्जन कटौतियों में कितनी ही बड़ी कामयाबी क्यों नहीं मिल जाए। 2 डिग्री सेंटीग्रेड की अपेक्षाकृत अधिक ताप वृद्धि की सूरत में, पश्चिमी आइसलेंड तथा ग्रीनलैंड की बर्फ की परत हमेशा-हमेशा के लिए विलुप्त हो सकती है।
शमन के प्रयास
रिपोर्ट यह रेखांकित करती है कि हालांकि अनेक देशों ने पिछले अनेक वर्षों में उत्पादन तथा उपभोग, दोनों से ही जुड़े अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जनों को घटाया है और दूसरे देशों ने भी अपने उत्सर्जनों की बढ़ोतरी की रफ्तार को धीमा कर लिया है, फिर भी यह सब भी, उत्सर्जनों में समग्रता में बढ़ोतरी पर काबू पाने के लिए काफी नहीं है। उत्सर्जन के वर्तमान यात्रा पथ, ग्लासगो में संपन्न कोप26 में स्वीकार की गयी एनडीसी लक्ष्यों में बढ़ोतरियों को मिलाकर भी, दयनीय तरीके से अपर्याप्त हैं।
मौजूदा रफ्तार के हिसाब से तो, 2030 तक उत्सर्जनों में कटौतियों के जो लक्ष्य घोषित हैं और ताप वृद्धि को 1.5 डिग्री तक रोकने के लिए जिस स्तर की कटौतियां चाहिए, उनमें बहुत भारी अंतर है। इसके अलावा, परिपालन मे पिछड़ों को भी हिसाब में रखना चाहिए, जब विभिन्न देश अपने स्वीकार किए गए, कटौती के लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाते हैं। उत्सर्जन नियंत्रण के प्रयासों के इतिहास में तो ऐसा बार-बार देखने को मिला है। ऐसे तो ताप वृद्धि 3.2 डिग्री तक भी पहुंच सकती है! ऐसी नौबत आने को तो फौरन कदम उठाने के जरिए और 2030 तक उत्सर्जनों में भारी कटौतियों के जरिए ही रोका जा सकता है।
रिपोर्ट का यह प्रेक्षण बहुत कुछ बताता है कि अनेक देशों ने 2050 तक उत्सर्जन के मामले में ‘‘नैट जीरो’’ का लक्ष्य हासिल कर लेने का ऐलान तो कर दिया है, लेकिन इस वादे के पीछे ठोस लक्ष्य नहीं बताए गए हैं और न ही इस रास्ते पर प्रगति के लिए वर्तमान या कल्पित नीतियों को ही रखा गया है। दूसरे शब्दों में यह सुनने में तो प्रभावशाली लगने वाले, लेकिन खोखले वादों का ही मामला है। यही बात विकसित देशों से विकासशील देशों की ओर वित्तीय प्रवाहों के मामले में भी सच है। ये प्रवाह, 100 अरब डालर सालाना का जो वादा किया गया है, उससे बहुत ही कम हैं। वास्तव में रिपोर्ट यह ध्यान दिलाती है कि जीवाश्म ईंधन उद्योग की ओर वित्त के प्रवाह अब भी, उपशमन या सामंजस्यकरण के लिए, वित्त के प्रवाहों से ज्यादा बने हुए हैं!
आगे का रास्ता
इस रिपोर्ट से यह स्पष्ट है कि दुनिया, जलवायु परिवर्तन की वास्तविक और नाजुक समस्याओं से पर्याप्त रूप से नहीं निपट रही है। एक के बाद एक, आइपीसीसी की रिपोर्टों तथा अन्य रिपोर्टों ने बार-बार तथा बढ़ती निश्चयात्मकता के साथ यह रेखांकित किया है कि मानवता को और उसमें भी खासतौर पर सामर्थ्यहीन जनगणों को, जलवायु परिवर्तन के कैसे गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है और उन खतरों से उबरने के लिए क्या करने की जरूरत है। इसके बावजूद, उत्सर्जनों में जिस तरह की भारी कटौतियों की जरूरत है और खासतौर पर विकसित देशों की ओर से ऐसी कटौतियों की जरूरत है, उनका तो कहीं अता-पता ही नहीं है। कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे आग की चेतावनी की घंटी बजती रहे, पर उसे बुझाने के लिए कोई आगे आए ही नहीं। जीवाष्म ईंधन उद्योगों के निहित स्वार्थ और आम तौर पर विश्व पूंजीवाद के निहित स्वार्थ, विकसित दुनिया के अधिकांश देशों की ओर से सार्थक कदमों की राह रोक रहे हैं। उधर, ऐसा लगता है कि भू-राजनीति के तकाजे और महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के तकाजे, चीन की राह रोक रहे हैं।
जब तक कोप26 और उसके भी आगे के कुछ कोप सम्मेलनों द्वारा खासतौर पर विकसित देशों द्वारा लेकिन बाकी सभी देशों द्वारा भी, जिनमें आर्थिक व प्रौद्योगिकीय रूप से समर्थ बड़े विकासशील देश भी शामिल हैं, उत्सर्जनों में भारी कटौतियों का रास्ता नहीं निकाला जाता है, जलवायु परिवर्तन के विनाश रथ को कोई नहीं रोक पाएगा।
इसी बीच जलवायु परिवर्तन खुद ही और गहरे परिवर्तनों को गति दे रहा है। जलवायु परिवर्तनों के धु्रवीय क्षेत्रों, बर्फ की चादर तथा ग्लेशियरों पर और सागरों पर जो प्रभाव पड़ रहे हैं, वे समुद्री धाराओं में, वाष्पन की दरों व बारिश के पैटर्नों और साइक्लोनों व तूफानों में, बदलाव और भी परिवर्तनों को गति दे सकते हैं। रिपोर्ट यह भी इंगित करती है कि विश्व ताप में बढ़ोतरी के साथ, वनों तथा सागरों की कार्बनडाईआक्साइड को सोखने की क्षमता घट रही है और इसलिए, बढ़ते उत्सर्जनों के दुष्प्रभार और भी तेजी से बद से बदतर हो रहे हैं। जलवायुगत दुष्प्रभाव ऐसे स्तर पर पहुंच रहे हैं, जहां से आगे पर्यावरणों की बदलावों के हिसाब से खुद को ढालने की सामर्थ्य ही, अनेक पहलुओं से अपने छोर पर पहुंच सकती है। यह प्रपाती दुष्प्रभावों की ओर ले जाएगा, जहां किसी एक क्षेत्र पर पडऩे वाले दुष्प्रभार, किसी दूसरे क्षेत्र पर दुष्प्रभावों को और भी तेज कर देंगे और इस तरह आबादी के कमजोर हिस्सों की पहले से मौजूद वेध्यताओं को और भी बढ़ा देगे।
इसलिए, इस संश्लेषण रिपोर्ट की महत्वपूर्ण सिफारिश यह है कि उपशमन तथा अनुकूलन या मिटीगेशन एंड एडॉप्टेशन की नीतियों की संकल्पना अगल-अलग हिस्सों में बांटकर नहीं की जानी चाहिए बल्कि एक समन्वित, बहु-क्षेत्रीय, जलवायु-सह विकास प्रयास के तौर की जानी चाहिए। जाहिर है कि इस लक्ष्य से दुनिया, अलग-अलग क्षेत्रों के हिसाब से तय किए गए उत्सर्जन कटौती के लक्ष्यों की तुलना में, और भी ज्यादा दूर है। भारत ने कुछ क्षेत्रों में उपशमन को हाथ में लेने की कम से कम शुरूआत तो कर दी है। लेकिन, उसने समायोजन की ओर तो ध्यान देना तक शुरू नहीं किया है, जबकि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव देश में भारी तबाही कर रहे हैं।
(लेखक दिल्ली साइंस फोरम और आल इंडिया पीपल्स साइंस नेटवर्क से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
स्त्रोत: न्यूज क्लिक