यूपी भारतीय राजनीति को दिशा देने वाला राज्य माना जाता रहा है। राजनीति के लिहाज से अहम माने जाने वाले इस राज्य में विधानसभा के चुनाव 11 फरवरी को शुरू होंगे और 8 मार्च को खत्म।
बहरहाल, राष्ट्रीय और सूबे की ताकतवर पार्टियों की जोर-आजमाइश के बीच अल्पसंख्यक (मुस्लिम) वोटरों की वर्चस्व वाली सीटों की अहमियत पर चर्चा शुरू हो गई है। पिछले छह चुनावों के विश्लेषण से इन 130 सीटों की अहमियत का पता चलता है। वहीं 2014 के आम चुनाव में जिस तरह के चौंकाने वाले नतीजे आए उसने इन सीटों के अल्पसंख्यक वोटरों की अहमियत बिल्कुल खत्म कर दी।
यूपी की 403 विधानसभा सीटों पर यह माइनरिटी फैक्टर लगभग एक चौथाई सीट पर असर डालेगा। ऐसे में उम्मीदवारों की सूची ( और फिर वोटिंग फैक्टर) बेहद अहम साबित होगी। 2014 के लोकसभा चुनावों में ‘एम’ (मोदी) फैक्टर हावी था। अफसोस कि उस दौरान दूसरा ‘एम’ (मुस्लिम) फैक्टर पूरे देश में और खास कर यूपी में सफलतापूर्वक अप्रासंगिक बना दिया गया।
इस बार बीएसपी ने मुस्लिम उम्मीदवारों को सीटें देने में सतर्कता बरती है। उसने 97 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं। जबकि समाजवादी पार्टी ने संकेत दिए हैं कि वह 63 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करेगी। बीजेपी ने अब तक एक मुस्लिम उम्मीदवार के नाम का ऐलान किया है!
यूपी की 80 संसदीय सीटों में से 15 में मुस्लिम वोटर कुल वोटरों की एक तिहाई से भी ज्यादा हैं। दूसरी 39 सीटों में से उनकी आबादी 10 से 30 फीसदी है। बीजेपी ने 80 सीटों में से 73 (दो गठबंधन वाली पार्टियों के साथ) सीटें जीती थीं। इसे सात सीटों पर हार मिली थीं और ये थीं- अमेठी, आजमगढ़, बदायूं, फिरोजाबाद, कन्नौज, रायबरेली और मैनपुरी। लेकिन इन सातों सीटों पर वह दूसरे स्थान पर भी रही थी।
2014 में बीजेपी की जीत गैर भाजपाई वोटों में विभाजन का नतीजा थी। 80 सीटों में एक तिहाई आबादी से ज्यादा वाली इन सभी 15 सीटों पर उनके पास कई विकल्प थे। पार्टियों और उम्मीदवारों की भरमार इन 15 सीटों पर कुछ ज्यादा ही दिख रही थी। इस हालत में बीजेपी छुपी हुई रुस्तम निकली। मुस्लिम वोटरों के पास बहुत ज्यादा विकल्प होने की वजह से बीजेपी चुनाव जीत गई।
रामपुर में मुस्लिम आबादी 49.1 फीसदी है। राज्य में सबसे अधिक। लेकिन यहां अपनी जीत सुनिश्चित करने के चक्कर में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, ऑल इंडिया माइनरिटी फ्रंट और आम आदमी पार्टी सभी ने कैंडिडेट खड़े कर दिए और रणनीतिक घेरेबंदी में मात खा गई। जाहिर है बीजेपी ने हिंदू उम्मीदवार को टिकट दे दिया था। इसमें आश्चर्य नहीं कि वोटरों के बीच इस बंटवारे का लाभ बीजेपी को मिलना ही था। उसका उम्मीदवार जीत गया। रामपुर से 550 किलोमीटर दूर रामपुर में उल्टा हुआ। बीजेपी ने बिहार के भागलपुर में भाजपा के एक मात्र मुस्लिम चेहरा शाहनवाज हुसैन को उतारा था। यहां 17.5 फीसदी मुस्लिम आबादी है। हुसैन शैलेश कुमार से हार गए।
रामपुर में एक साथ कई ‘सेक्यूलर’ पार्टी की मौजूदगी में मुस्लिम वोटर कन्फ्यूजन में रहा और इससे बीजेपी कैंडिडेट को जीत की सौगात मिल गई। लेकिन बिहार में पार्टी के एक मात्र मुस्लिम उम्मीदवार के खिलाफ वोट करके उसने शाहनवाज हुसैन की हार पक्की कर दी। दूसरी ओर हिंदू वोटरों ज्यादातर ऊंची जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के वोटरों ने गोलबंदी के साथ वोटिंग कर बीजेपी कैंडिडेट को जीता दिया।
मुरादाबाद में भी यही स्थिति रही। रामपुर से सटी इस सीट पर 45.5 फीसदी वोटर हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां बीजेपी के हिंदू उम्मीदवार ने कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बीएसपी और पीस पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवार को हरा दिया। वास्तव में 80 लोकसभा सीटों में लड़ रहे 55 मुस्लिम उम्मीदवारों में से किसी को भी जीत हासिल नहीं हुई। आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब यूपी किसी मुस्लिम कैंडिडेट को जीतने में कामयाब नहीं हुआ। जबकि राज्य की 20 करोड़ की आबादी में लगभग 18 फीसदी मुस्लिम आबादी है। अगर मुस्लिम वर्चस्व वाली सीटों पर एक से ज्यादा ‘सेक्यूलर’ पार्टियों का विकल्प वोटरों के साथ मौजूद रहा तो 2014 के आम चुनाव के वोटिंग पैटर्न के इस विधानसभा चुनाव नतीजों पर कुछ हद तक असर दिख सकता है। बीजेपी के लिए यह फायदे की बात होगी।
अगर यूपी में पिछले पांच विधानसभा चुनावों के नतीजों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि जिसने भी बेहद अहम अल्पसंख्यक वोट वाली सीटें हासिल करने में कामयाबी पाई उसी को लखनऊ का ताज मिला। 1991 में जब भाजपा ने लखनऊ की गद्दी हासिल की थी तो इसने सबसे ज्यादा मुस्लिम वर्चस्व वाली सीटें हासिल की थीं। बाबरी विध्वंस के बाद के दौर में मंडल और मंदिर के ध्रुवीकरण में राज्य में मंडलीकरण का वर्चस्व दिखा और इसने इन अहम सीटों पर बेजीपी को जीत से दूर रखा। वोटरों के इस ध्रुवीकरण से पहले 1991 में बीजेपी ने मुस्लिम वर्चस्व वाली 122 सीटों में से इसने 76 में कामयाबी हासिल की थी। जबकि कांग्रेस को सात सीटें मिली थीं। समाजवादी पार्टी एक सीट जीत पाई थी। निर्दलीय 38 जीत कर आए थे। उनकी संख्या दूसरी बड़ी संख्या थी। दो साल बाद 1993 एक बार फिर बीजेपी ने बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक वर्चस्व वाली सीटों पर कामयाबी हासिल की। बीजेपी ने 69 सीटें (122 अल्पसंख्यक वर्चस्व वाली सीटों पर) हासिल की। 31 समाजवादी पार्टी को मिली। बीएसपी को 5 और कांग्रेस को छह सीटें ही मिल पाईं। अन्य को इन 122 सीटों में से 16 सीटें मिलीं।1996 में एक बार फिर बीजेपी को मुस्लिम वर्चस्व वाली सीटों पर अच्छी कामयाबी मिली। हालांकि इस बार सीटों की संख्या कम थी। इसने 128 ऐसी सीटों में से 59 सीटें जीतीं। समाजवादी को 43, बीएसपी को 13 और कांग्रेस को 7 सीटें मिलीं।
2002 में समाजवादी पार्टी की स्थिति थोड़ी सुधरी और उन्होंने मुलायम सिंह के नेतृत्व में अल्पसंख्यक वर्चस्व वाली 129 सीटों में से 43 सीटों पर जीत हासिल की। बीएसपी 24 और बीजेपी 32 सीटें जीत सकी। 2007 में मायावती की लहर थी। इस साल बीएसपी को मुस्लिम बहुल सीटों में से 59 में जीत मिली। एसपी को 26, बीजेपी को 25 और कांग्रेस को 7 सीटें मिलीं।
फरवरी, 2007 में जब अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने राज्य में स्वीप किया तो उसे मुस्लिम वर्चस्व वाली 130 सीटों पर 78 में कामयाबी हासिल हुई। बीएसपी को 22, बीजेपी को 20 और कांग्रेस को 4 सीटें मिलीं। बीजेपी की मुस्लिम वोटरों की वर्चस्व वाली सीटों पर पकड़ कम हो रही थी। राज्य में भी वह कई साल तक कमजोर रही।
दलित वोट की तुलना में बीएसपी का मुस्लिम वोटरों का आधार पिछले एक दशक में बढ़ा है। 2002 में इसे 9.7 फीसदी मुस्लिम वोट मिले थे। 2007 में 17.6 फीसदी वोट मिले थे और 2012 में 20.4 फीसदी वोट। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि बहनजी को अगर यूपी में सत्ता हासिल करनी है तो उनकी पार्टी को मुस्लिम-दलित गठजोड़ का 40 से 60 फीसदी वोट हासिल करना होगा। बीएसपी ने 97 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। जबकि समाजवादी पार्टी ने 63 सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों को देने के संकेत दिए हैं। हालांकि सतर्कता बरतते हुए बीएसपी सुप्रीमो ने राजभर और पटेल जैसी पिछड़ी जातियों को भी नजरअंदाज नहीं किया है। बहनजी को इसका खासा फायदा हो सकता है।
हालांकि त्रिकोणीय संघर्ष में 2014 की तरह ही मुस्लिम वर्चस्व वाली सीटों पर बीएसपी और एसपी जैसी सेक्लूयर पार्टियों के टकराव में फायदा एक बार फिर भाजपा को होगा। इसके अलावा मुस्लिम वोट काटने के लिए और भी पार्टियां खड़ी हैं। ( यूपी में कम से कम 16 छोटी पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं)। मुस्लिम वर्चस्व वाली कई सीटों पर इनकी अच्छी-खासी उपस्थिति है और ये निर्णायक वोटों में बंटवारे की वजह बन सकते हैं।
1991 में पी वी नरसिम्हा राव (यह सरकार अल्पमत सरकार थी,जिसे बाहर से समर्थन मिल रहा था। इसे 38.2 फीसदी वोट मिले थे) के बाद मोदी सरकार दिल्ली की सबसे कम समर्थन वाली पार्टी है ( राव सरकार के बाद यह सबसे कम वोट शेयर वाली सत्ताधारी पार्टी है)।
एनडीए की सहयोगी पार्टियों के वोटों को मिला कर सरकार के पाले में 38.5 फीसदी वोटरों की भागीदारी है। यूपीए के हिस्से में 23 फीसदी और बाकियों की हिस्सेदारी भी लगभग एनडीए के बराबर यानी 38 फीसदी वोट की है।
जिस आबादी में बीजेपी को वोट नहीं दिया उसमें मुस्लिम प्रमुख हैं। चुनाव आयोग की साइट- The ECI website बताती है कि बीएसपी को 4.1, तृणमूल को 3.8 और समाजवादी पार्टी को 3.4 फीसदी (हालांकि पार्टी के पांच ही सांसद हैं), अन्नाद्रमुक को 3.3 फीसदी को वोट मिले। इसका मतलब यह है कि 2014 में भले ही किसी के पक्ष में स्पष्ट जनादेश हो लेकिन वोट बंटे हए थे।
जिन क्षेत्रीय पार्टियों को बड़ी तादाद में वोट मिले उनमें दिवंगतत जयललिता की अन्नाद्रमुक, ममता बनर्जी की तृणमूल और अन्य पार्टियां शामिल थीं। चुनाव नतीजों से ऐसा लगता कि अल्पसंख्यकों ने भी बीजेपी को वोट नहीं दिया। भले ही बीजेपी, 2014 के चुनाव में पहली बार मुस्लिमों का बड़ी तादाद में सपोर्ट का दावा क्यों न करती हो। द हिंदू (The Hindu) को सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार ने बताया कि 1996 से लेकर पिछले छह चुनावों में 33 फीसदी मुस्लिम वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिए हैं। 2014 के चुनाव में 44 फीसदी मुस्लिम वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया था। इसका मतलब यह है कि कांग्रेस के पक्ष में मुस्लिम वोटरों का ध्रुवीकरण हो सकता है। द हिंदू की रिपोर्ट का कहना है मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे दो ध्रुवीय चुनावों में 70 फीसदी तक मुस्लिम वोट कांग्रेस के पाले में जा सकते हैं। 2014 के चुनाव में तो मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण 90 फीसदी तक हो गया था।
इंडियन एक्सप्रेस (report in The Indian Express ) की एक रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि यह पहली बार है जब साधारण बहुमत से केंद्र की सत्ता में आई पार्टी में लोकसभा से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है। बीजेपी के जिन 482 उम्मीदवारों से चुनाव लड़ा था उनमें से सिर्फ 7 मुस्लिम थे इनमें से कोई भी नहीं जीता। हारने वालों में लंबे समय से पार्टी सांसद रह शहनवाज हुसैन भी शामिल हैं। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में जहां बीजेपी के पहली बार तीन सांसद जीते वहां भी पार्टी का कोई मुस्लिम कैंडिडेट नहीं जीता। मौजूदा लोकसभा , दसवीं लोकसभा ( 1991-96) के बाद सबसे कम मुस्लिम प्रतिनिधित्व वाला सदन है। देश में 102 चुनाव क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम आबादी 20 से 99 फीसदी मुस्लिम आबादी है। इनमें से 47 सीटें बीजेपी (जो यह गर्व से कहती है कि मुस्लिम बीजेपी को वोट नहीं देते) ने जीती है।
ये हालात संसदीय लोकतंत्र की एक दुखद कहानी बयां करते हैं।
बहरहाल, राष्ट्रीय और सूबे की ताकतवर पार्टियों की जोर-आजमाइश के बीच अल्पसंख्यक (मुस्लिम) वोटरों की वर्चस्व वाली सीटों की अहमियत पर चर्चा शुरू हो गई है। पिछले छह चुनावों के विश्लेषण से इन 130 सीटों की अहमियत का पता चलता है। वहीं 2014 के आम चुनाव में जिस तरह के चौंकाने वाले नतीजे आए उसने इन सीटों के अल्पसंख्यक वोटरों की अहमियत बिल्कुल खत्म कर दी।
यूपी की 403 विधानसभा सीटों पर यह माइनरिटी फैक्टर लगभग एक चौथाई सीट पर असर डालेगा। ऐसे में उम्मीदवारों की सूची ( और फिर वोटिंग फैक्टर) बेहद अहम साबित होगी। 2014 के लोकसभा चुनावों में ‘एम’ (मोदी) फैक्टर हावी था। अफसोस कि उस दौरान दूसरा ‘एम’ (मुस्लिम) फैक्टर पूरे देश में और खास कर यूपी में सफलतापूर्वक अप्रासंगिक बना दिया गया।
इस बार बीएसपी ने मुस्लिम उम्मीदवारों को सीटें देने में सतर्कता बरती है। उसने 97 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए हैं। जबकि समाजवादी पार्टी ने संकेत दिए हैं कि वह 63 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करेगी। बीजेपी ने अब तक एक मुस्लिम उम्मीदवार के नाम का ऐलान किया है!
यूपी की 80 संसदीय सीटों में से 15 में मुस्लिम वोटर कुल वोटरों की एक तिहाई से भी ज्यादा हैं। दूसरी 39 सीटों में से उनकी आबादी 10 से 30 फीसदी है। बीजेपी ने 80 सीटों में से 73 (दो गठबंधन वाली पार्टियों के साथ) सीटें जीती थीं। इसे सात सीटों पर हार मिली थीं और ये थीं- अमेठी, आजमगढ़, बदायूं, फिरोजाबाद, कन्नौज, रायबरेली और मैनपुरी। लेकिन इन सातों सीटों पर वह दूसरे स्थान पर भी रही थी।
2014 में बीजेपी की जीत गैर भाजपाई वोटों में विभाजन का नतीजा थी। 80 सीटों में एक तिहाई आबादी से ज्यादा वाली इन सभी 15 सीटों पर उनके पास कई विकल्प थे। पार्टियों और उम्मीदवारों की भरमार इन 15 सीटों पर कुछ ज्यादा ही दिख रही थी। इस हालत में बीजेपी छुपी हुई रुस्तम निकली। मुस्लिम वोटरों के पास बहुत ज्यादा विकल्प होने की वजह से बीजेपी चुनाव जीत गई।
रामपुर में मुस्लिम आबादी 49.1 फीसदी है। राज्य में सबसे अधिक। लेकिन यहां अपनी जीत सुनिश्चित करने के चक्कर में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, ऑल इंडिया माइनरिटी फ्रंट और आम आदमी पार्टी सभी ने कैंडिडेट खड़े कर दिए और रणनीतिक घेरेबंदी में मात खा गई। जाहिर है बीजेपी ने हिंदू उम्मीदवार को टिकट दे दिया था। इसमें आश्चर्य नहीं कि वोटरों के बीच इस बंटवारे का लाभ बीजेपी को मिलना ही था। उसका उम्मीदवार जीत गया। रामपुर से 550 किलोमीटर दूर रामपुर में उल्टा हुआ। बीजेपी ने बिहार के भागलपुर में भाजपा के एक मात्र मुस्लिम चेहरा शाहनवाज हुसैन को उतारा था। यहां 17.5 फीसदी मुस्लिम आबादी है। हुसैन शैलेश कुमार से हार गए।
रामपुर में एक साथ कई ‘सेक्यूलर’ पार्टी की मौजूदगी में मुस्लिम वोटर कन्फ्यूजन में रहा और इससे बीजेपी कैंडिडेट को जीत की सौगात मिल गई। लेकिन बिहार में पार्टी के एक मात्र मुस्लिम उम्मीदवार के खिलाफ वोट करके उसने शाहनवाज हुसैन की हार पक्की कर दी। दूसरी ओर हिंदू वोटरों ज्यादातर ऊंची जातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के वोटरों ने गोलबंदी के साथ वोटिंग कर बीजेपी कैंडिडेट को जीता दिया।
मुरादाबाद में भी यही स्थिति रही। रामपुर से सटी इस सीट पर 45.5 फीसदी वोटर हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां बीजेपी के हिंदू उम्मीदवार ने कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बीएसपी और पीस पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवार को हरा दिया। वास्तव में 80 लोकसभा सीटों में लड़ रहे 55 मुस्लिम उम्मीदवारों में से किसी को भी जीत हासिल नहीं हुई। आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ जब यूपी किसी मुस्लिम कैंडिडेट को जीतने में कामयाब नहीं हुआ। जबकि राज्य की 20 करोड़ की आबादी में लगभग 18 फीसदी मुस्लिम आबादी है। अगर मुस्लिम वर्चस्व वाली सीटों पर एक से ज्यादा ‘सेक्यूलर’ पार्टियों का विकल्प वोटरों के साथ मौजूद रहा तो 2014 के आम चुनाव के वोटिंग पैटर्न के इस विधानसभा चुनाव नतीजों पर कुछ हद तक असर दिख सकता है। बीजेपी के लिए यह फायदे की बात होगी।
अगर यूपी में पिछले पांच विधानसभा चुनावों के नतीजों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि जिसने भी बेहद अहम अल्पसंख्यक वोट वाली सीटें हासिल करने में कामयाबी पाई उसी को लखनऊ का ताज मिला। 1991 में जब भाजपा ने लखनऊ की गद्दी हासिल की थी तो इसने सबसे ज्यादा मुस्लिम वर्चस्व वाली सीटें हासिल की थीं। बाबरी विध्वंस के बाद के दौर में मंडल और मंदिर के ध्रुवीकरण में राज्य में मंडलीकरण का वर्चस्व दिखा और इसने इन अहम सीटों पर बेजीपी को जीत से दूर रखा। वोटरों के इस ध्रुवीकरण से पहले 1991 में बीजेपी ने मुस्लिम वर्चस्व वाली 122 सीटों में से इसने 76 में कामयाबी हासिल की थी। जबकि कांग्रेस को सात सीटें मिली थीं। समाजवादी पार्टी एक सीट जीत पाई थी। निर्दलीय 38 जीत कर आए थे। उनकी संख्या दूसरी बड़ी संख्या थी। दो साल बाद 1993 एक बार फिर बीजेपी ने बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक वर्चस्व वाली सीटों पर कामयाबी हासिल की। बीजेपी ने 69 सीटें (122 अल्पसंख्यक वर्चस्व वाली सीटों पर) हासिल की। 31 समाजवादी पार्टी को मिली। बीएसपी को 5 और कांग्रेस को छह सीटें ही मिल पाईं। अन्य को इन 122 सीटों में से 16 सीटें मिलीं।1996 में एक बार फिर बीजेपी को मुस्लिम वर्चस्व वाली सीटों पर अच्छी कामयाबी मिली। हालांकि इस बार सीटों की संख्या कम थी। इसने 128 ऐसी सीटों में से 59 सीटें जीतीं। समाजवादी को 43, बीएसपी को 13 और कांग्रेस को 7 सीटें मिलीं।
2002 में समाजवादी पार्टी की स्थिति थोड़ी सुधरी और उन्होंने मुलायम सिंह के नेतृत्व में अल्पसंख्यक वर्चस्व वाली 129 सीटों में से 43 सीटों पर जीत हासिल की। बीएसपी 24 और बीजेपी 32 सीटें जीत सकी। 2007 में मायावती की लहर थी। इस साल बीएसपी को मुस्लिम बहुल सीटों में से 59 में जीत मिली। एसपी को 26, बीजेपी को 25 और कांग्रेस को 7 सीटें मिलीं।
फरवरी, 2007 में जब अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने राज्य में स्वीप किया तो उसे मुस्लिम वर्चस्व वाली 130 सीटों पर 78 में कामयाबी हासिल हुई। बीएसपी को 22, बीजेपी को 20 और कांग्रेस को 4 सीटें मिलीं। बीजेपी की मुस्लिम वोटरों की वर्चस्व वाली सीटों पर पकड़ कम हो रही थी। राज्य में भी वह कई साल तक कमजोर रही।
दलित वोट की तुलना में बीएसपी का मुस्लिम वोटरों का आधार पिछले एक दशक में बढ़ा है। 2002 में इसे 9.7 फीसदी मुस्लिम वोट मिले थे। 2007 में 17.6 फीसदी वोट मिले थे और 2012 में 20.4 फीसदी वोट। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि बहनजी को अगर यूपी में सत्ता हासिल करनी है तो उनकी पार्टी को मुस्लिम-दलित गठजोड़ का 40 से 60 फीसदी वोट हासिल करना होगा। बीएसपी ने 97 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। जबकि समाजवादी पार्टी ने 63 सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों को देने के संकेत दिए हैं। हालांकि सतर्कता बरतते हुए बीएसपी सुप्रीमो ने राजभर और पटेल जैसी पिछड़ी जातियों को भी नजरअंदाज नहीं किया है। बहनजी को इसका खासा फायदा हो सकता है।
हालांकि त्रिकोणीय संघर्ष में 2014 की तरह ही मुस्लिम वर्चस्व वाली सीटों पर बीएसपी और एसपी जैसी सेक्लूयर पार्टियों के टकराव में फायदा एक बार फिर भाजपा को होगा। इसके अलावा मुस्लिम वोट काटने के लिए और भी पार्टियां खड़ी हैं। ( यूपी में कम से कम 16 छोटी पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं)। मुस्लिम वर्चस्व वाली कई सीटों पर इनकी अच्छी-खासी उपस्थिति है और ये निर्णायक वोटों में बंटवारे की वजह बन सकते हैं।
1991 में पी वी नरसिम्हा राव (यह सरकार अल्पमत सरकार थी,जिसे बाहर से समर्थन मिल रहा था। इसे 38.2 फीसदी वोट मिले थे) के बाद मोदी सरकार दिल्ली की सबसे कम समर्थन वाली पार्टी है ( राव सरकार के बाद यह सबसे कम वोट शेयर वाली सत्ताधारी पार्टी है)।
एनडीए की सहयोगी पार्टियों के वोटों को मिला कर सरकार के पाले में 38.5 फीसदी वोटरों की भागीदारी है। यूपीए के हिस्से में 23 फीसदी और बाकियों की हिस्सेदारी भी लगभग एनडीए के बराबर यानी 38 फीसदी वोट की है।
जिस आबादी में बीजेपी को वोट नहीं दिया उसमें मुस्लिम प्रमुख हैं। चुनाव आयोग की साइट- The ECI website बताती है कि बीएसपी को 4.1, तृणमूल को 3.8 और समाजवादी पार्टी को 3.4 फीसदी (हालांकि पार्टी के पांच ही सांसद हैं), अन्नाद्रमुक को 3.3 फीसदी को वोट मिले। इसका मतलब यह है कि 2014 में भले ही किसी के पक्ष में स्पष्ट जनादेश हो लेकिन वोट बंटे हए थे।
जिन क्षेत्रीय पार्टियों को बड़ी तादाद में वोट मिले उनमें दिवंगतत जयललिता की अन्नाद्रमुक, ममता बनर्जी की तृणमूल और अन्य पार्टियां शामिल थीं। चुनाव नतीजों से ऐसा लगता कि अल्पसंख्यकों ने भी बीजेपी को वोट नहीं दिया। भले ही बीजेपी, 2014 के चुनाव में पहली बार मुस्लिमों का बड़ी तादाद में सपोर्ट का दावा क्यों न करती हो। द हिंदू (The Hindu) को सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार ने बताया कि 1996 से लेकर पिछले छह चुनावों में 33 फीसदी मुस्लिम वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिए हैं। 2014 के चुनाव में 44 फीसदी मुस्लिम वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया था। इसका मतलब यह है कि कांग्रेस के पक्ष में मुस्लिम वोटरों का ध्रुवीकरण हो सकता है। द हिंदू की रिपोर्ट का कहना है मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे दो ध्रुवीय चुनावों में 70 फीसदी तक मुस्लिम वोट कांग्रेस के पाले में जा सकते हैं। 2014 के चुनाव में तो मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण 90 फीसदी तक हो गया था।
इंडियन एक्सप्रेस (report in The Indian Express ) की एक रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि यह पहली बार है जब साधारण बहुमत से केंद्र की सत्ता में आई पार्टी में लोकसभा से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है। बीजेपी के जिन 482 उम्मीदवारों से चुनाव लड़ा था उनमें से सिर्फ 7 मुस्लिम थे इनमें से कोई भी नहीं जीता। हारने वालों में लंबे समय से पार्टी सांसद रह शहनवाज हुसैन भी शामिल हैं। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में जहां बीजेपी के पहली बार तीन सांसद जीते वहां भी पार्टी का कोई मुस्लिम कैंडिडेट नहीं जीता। मौजूदा लोकसभा , दसवीं लोकसभा ( 1991-96) के बाद सबसे कम मुस्लिम प्रतिनिधित्व वाला सदन है। देश में 102 चुनाव क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम आबादी 20 से 99 फीसदी मुस्लिम आबादी है। इनमें से 47 सीटें बीजेपी (जो यह गर्व से कहती है कि मुस्लिम बीजेपी को वोट नहीं देते) ने जीती है।
ये हालात संसदीय लोकतंत्र की एक दुखद कहानी बयां करते हैं।