यूपी चुनाव का पोस्टमार्टम : इस तरह हारीं ‘सेक्यूलर’ पार्टियां

Written by Teesta Setalvad | Published on: March 25, 2017
बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर चुनाव पूर्व गठबंधन के जरिये यूपी चुनाव को त्रिकोणीय मुकाबले बनने से रोक लेतीं तो  बीजेपी 129 सीटों से ज्यादा नहीं जीत पाती।




दरअसल आपसी होड़, स्वार्थ और संकीर्ण राजनीति ने विपक्षी दलों को एक सधा-सुलझा गठबंधन करने से रोक दिया, जो वर्चस्ववादी और श्रेष्ठतावादी बहुसंख्यक राजनीतिक दल का सामना कर सकती थी। क्या यह देश इस तरह की ऐतिहासिक गफलतों और राजनीतिक नासमझी से कभी उबरेगा?
 
 
यूपी चुनाव से साबित कर दिया है कि आरएसएस की सांगठनिक ताकत ने ‘जो मारे सो मीर’ यानी सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाले उम्मीदवार को विजेता घोषित करने वाले भारतीय चुनावी पद्धति के समीकरणों को साधने में कामयाबी हासिल कर ली है। जीत के बाद भारतीय न्यूज चैनलों ने मोदी की शान में जिस तरह के कसीदे काढ़े वह भी देखने लायक था। इस पर कभी और चर्चा होगी लेकिन फिलहाल आइए यूपी के नतीजों की ओर लौटें और इसका तार्किक विश्लेषण करें।
 
इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है मोदी फेनोमिना पर गंभीरता से गौर करना होगा। साफ है कि इसके राजनीतिक सामना के लिए और कड़ी मेहनत की जरूरत है। अब यह कहने का कोई फायदा नहीं है कि अगर यूपी में भी नवंबर 2015 में बिहार जैसा सेक्यूलर गठजोड़ खड़ा हो जाता तो बीजेपी के भगवा रथ को रोका जा सकता था। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि केसरिया वर्चस्ववादी पार्टी के राजनीतिक विरोधियों को उसे हराने के लिए साथ आने और अपने साझा दुश्मन के खिलाफ मोर्चेबंदी के लिए किस चीज ने रोका था?
 
नरेंद्र मोदी की पार्टी ने 403 सीटों में 312 सीटें हासिल कर बेहद प्रभावी जीत दर्ज की है। उसे राज्य के वोटों के 39.7 फीसदी वोट मिले। जबकि समाजवादी पार्टी को 54 सीटें मिलीं। बहुजन समाज पार्टी को सिर्फ 19। बीजेपी के सहयोगी दल अपना दल ने 9 और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने 4 सीटें जीतीं। कांग्रेस को सात सीटें हासिल हुईं।
 
लेकिन वोट हिस्सेदारी का भी हिसाब देखें। इसमें कोई दो मत नहीं है कि राजनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में सभी सेक्यूलर पार्टियों की हार अपमानजनक है और मोदी के नेतृत्व में भाजपा की जीत निर्णायक। फिर भी वोट हिस्सेदारी में असमानता और सीटों की जीत कुछ अलग कहानी कहती है। इसके लिए भारतीय निर्वाचन आयोग की वेबसाइट को देखना जरूरी है।
 
बीजेपी ने 312 सीटें जीती हैं। उसके वोटों की हिस्सेदारी 39.7 फीसदी है। यह कोई साधारण जीत नहीं है। लेकिन सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाले को विजेता घोषित करने वाले चुनावी सिस्टम से परे जाकर इस बात का विश्लेषण जरूरी है कि वोटों में किसकी हिस्सेदारी कितनी रही। चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण से साफ है वोट हिस्सेदारी में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बहुजन समाज पार्टी रही जिसे 22.9 फीसदी वोट मिले। समाजवादी पार्टी 21.8 फीसदी वोटों के साथ तीसरे स्थान पर ही। उसे 47 सीटें मिलीं। जबकि कांग्रेस को 6.2 फीसदी वोट और सात सीटें मिलीं।  ।
 
आंकड़ों को लेकर थोड़ी और माथापच्ची करें तो पाएंगे कि बीजेपी ने जिन 183 सीटों पर जीत हासिल की है वहां इसका वोट प्रतिशत समाजवादी-कांग्रेस गठबंधन और बहुजन समाजवादी पार्टी के सम्मिलित वोट से कम रहा है। सिर्फ कोलकाता से प्रकाशित टेलीग्राफ ने इस पहलू पर विस्तार से लिखा कि अगर आरएसएस-भाजपा  के खिलाफ तीनों पार्टियां यानी बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर चुनाव पूर्व गठबंधन के जरिये इसे त्रिकोणीय मुकाबले बनने से रोक लेती  बीजेपी 129 सीटों से ज्यादा नहीं जीत पाती। बीजेपी के सहयोगियों ने जो सात सीटें जीती थीं वो भी उन्हें नहीं मिलता। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस अगर मिल कर लड़ते तो 263 सीटें ले आते और यह स्पष्ट बहुमत होता। हालांकि यह बीजेपी की जीत जैसी चमत्कारिक नहीं होती फिर भी बहुमत वाली जीत होती और इस तरह यूपी मौजूदा बहुसंख्यकवाद से बच जाता। मोदी-शाह की जोड़ी ने आदित्यनाथ को सूबे का सीएम बना कर स्थिति और गंभीर कर दी है।
 
नवंबर, 2015 में राजनीतिक रूप से एक और महत्वपूर्ण राज्य बिहार ने बीजेपी की हार सुनिश्चित कर दी थी। दिल्ली में हार के बाद ‘करिश्माई प्रधानमंत्री’ की बिहार में हार दूसरी हार थी। इस चुनाव में भी बीजेपी ने राज्य की हर पार्टी से ज्यादा यानी 24.4 फीसदी वोट हासिल किए थे। लेकिन जनता दल यूनाइटेड ( 16.85 फीसदी), आरजेडी ( 18.5 फीसदी) और कांग्रेस ( 6.66 फीसदी) के महागठबंधन ने 243 में से 178 सीटें हासिल कर लीं। गठबंधन को बीजेपी के 24.4 फीसदी की तुलना में 41.86 फीसदी वोट मिले। बीजेपी को 53 सीटें मिलीं।
बहरहाल, यूपी में 2019 की लोकसभा जीत के लिए भाजपा और भगवा सहयोगियों ने रणनीति बनानी शुरू कर दी है। लेकिन मोदी और बीजेपी के सामने अड़चनें कम नहीं हैं।  
 
एक बार उन 183 सीटों पर नजर डालें जहां, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बीएसपी के सम्मिलित वोट बीजेपी के जीतने वाले उम्मीदवार से ज्यादा रहे।

(सबरंगइंडिया की टीम ने ऐसी सीटों की एक लिस्ट तैयार की है और वह जल्द ही वेबसाइट पर अपलोड कर दी जाएगी)।

मसलन अजगरा ग्रामीण सीट को लीजिए। यह मोदी की संसदीय सीट वाराणसी के तहत आती है। यहां समाजवादी पार्टी के लालजी सोनकर दूसरे नंबर पर रहे और उन्हें 62,429 वोट मिले। बीएसपी का उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहा और इसे 52,480 सीट मिले। कुल मिला कर इनके वोटों की संख्या 1,14909 रही। निश्चित तौर पर यह सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (बीजेपी का सहयोगी दल) के उम्मीदवार कैलाशनाथ सोनकर को मिले 83,778 वोट से अधिक हैं। इस तरह पिंड्रा में बीएसपी और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों के सम्मिलित वोटोंकी संख्या बीजेपी के उम्मीदवारों को मिले 90,614 वोटों से अधिक है।
 
अगर विपक्ष एकजुट होता तो वाराणसी की आठ विधानसभा सीटों में से दो अपने पाले में कर सकता और तीन अन्य सीटों वाराणसी उत्तर, शिवपुर और सेवापुरी में लड़ाई और ज्यादा निर्णायक होती। यही हाल ओरई सीट की थी, जहां जीतने वाले बीजेपी उम्मीदवार को 83,325 वोट मिले थे। समाजवादी पार्टी का कैंडिडेट दूसरे नंबर पर था और उसे 63,546 वोट मिले थे। बीएसपी उम्मीदवार ने 49,059 वोट हासिल किए थे। दोनों के सम्मिलित वोट 1,12,605 होते। अवनिया सीट पर भी एसपी, बीएसपी दूसरे, तीसरे नंबर पर थे। यहां दोनों के सम्मिलित वोट11,3811 थे। जबकि बीजेपी उम्मीदवार को सिर्फ 63,165 वोट मिले और वह जीत गया।
 
 इलाहाबाद उत्तर सीट पर बीजेपी उम्मीदवार 85,518 वोट पाकर जीत गया। यहां तेज-तर्रार छात्र नेता और सपा उम्मीदवार ऋचा सिंह ने 60,182 वोट हासिल किए। तीसरे नंबर पर बीएसपी का उम्मीदवार था जिसने 40,999 वोट हासिल किए। दोनों ने मिल कर 100,681 हासिल किए। लेकिन अलग-अलग लड़ने की वजह से हार गए। यह लिस्ट काफी लंबी है। अलीगंज, अलीगढ़ और अलापुर में भी यही कहानी दोहराई गई। इन सभी सीटों पर एसपी और बीएसपी उम्मीदवारों के सम्मिलित वोट ज्यादा रहे। लेकिन बीजेपी उम्मीदवार को सबसे अधिक वोट मिलने से बाजी उसके हाथ रही।
 
दरअसल आपसी होड़, संकीर्ण राजनीति ने विपक्षी दलों को एक सधा-सुलझा गठबंधन करने से रोक दिया, जो वर्चस्ववादी और श्रेष्ठतावादी बहुसंख्यक राजनीतिक दल का सामना कर सकती थी।
 
क्या यह देश इस तरह के ऐतिहासिक गफलतों और राजनीतिक नासमझी से कभी उबरेगा। अमेठी का ही उदाहरण लीजिये। यूपी में यह क्षेत्र कांग्रेस के लिए बेहद अहम है और यहां राहुल गांधी जीतते  रहे हैं। लेकिन इस संसदीय क्षेत्र की विधानसभा सीटों के मामले में भी विपक्ष के नेता अपने मतभेदों को दरकिनार नहीं कर पाए और इस वजह से यहां लड़ाई त्रिकोणीय के बजाय चतुष्कोणीय हो गई। यानी, बेजीपी, समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बीएसपी के बीच। जबकि पूरे राज्य में एसपी और कांग्रेस मिल कर चुनाव लड़ रहे थे।
 
मुस्लिम वोट
 
इस लेखिका ने इस रुझान के बारे में लगातार लिखा है कि पिछले दो चुनावों से बीजेपी यूपी में सफलतापूर्वक मुस्लिम वोटों को हाशिये पर धकेल रही है। जबकि मुस्लिम वोट पूरे वोटों का 19 फीसदी है। यहां तक कि घनी मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में बीजेपी की जीत के बाद ये अटकलें लगाई जा रही हैं कि समाजवादी पार्टी और बीएसपी के अलग-लग लड़ने से बीजेपी के उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे हैं या फिर मुसलमान मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिए हैं। दोनों की थ्योरी गलत मालूम होती हैं।
 
समाजवादी पार्टी ( 29 फीसदी) और बीएसपी ( 19 फीसदी) ने मिलकर उन 59 चुनाव क्षेत्रों में 47 वोट हासिल किए, जहां एक चौथाई मुस्लिम वोटर हैं। 2012 से इन क्षेत्रों में यह रुझान जारी है। सिर्फ 2014 के लोकसभा चुनाव को छोड़ कर जब दोनों की वोट हिस्सेदारी 43 फीसदी रही थी। साफ है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को  मुसलमानों का समर्थन बरकरार है। इन सीटों पर समाजवादी पार्टी के 29 फीसदी वोटों से जाहिर है इसे मुसलमानों का समर्थन बरकरार है। दलित वोटों के लिए बीजेपी और बीएसपी की लड़ाई को लेकर ज्यादा चर्चा हुई है। खास कर गैर जाटव वोटों को लेकर। यूपी में 21 फीसदी दलित हैं। चूंकि बीएसपी को सिर्फ 19 सीटें मिली हैं इसलिए ऐसा कहा जा रहा है कि दलितों ने बड़ी संख्या में बीजेपी को वोट दिए।
 
लेकिन इस विधानसभा चुनाव में बीएसपी को 24 फीसदी वोट मिले। यह 2012 की 27 फीसदी सीटों से कम है लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव में मिले 23 फीसदी वोटों से अधिक है। राज्य में आरक्षित 85 सीटों में बीजेपी ने 40 फीसदी वोट हासिल कर सबको पीछे छोड़ दिया। बीएसपी उससे काफी कम 24 फीसदी सीटें पाकर दूसरे स्थान पर रही। इन सीटों पर बीजेपी के पैंतरों ने हर जाति को लुभाया था और हो सकता है कि कुछ दलित वोट पार्टी में जुड़ गए हों। भले ही बीजेपी वोटों के प्रतिशत में आगे रही हो लेकिन बीएसपी की वोट हिस्सेदारी से पता चलता है कि उसने वोटिंग आधार बरकरार रखा है।
 
यूपी चुनाव के बाद मोदी की सोशल मीडया इंजीनियरिंग, बीजेपी की ट्रोल विशेषज्ञता और  मतदाताओं के बीच मोदी के जादू को टक्कर देने को लेकर काफी कुछ लिखा और कहा जा रहा है। इसकी अहमियत समझी जा सकती है। वरिष्ठ विश्लेषक और पूर्व नौकरशाह एसपी शुक्ला ने छोटे किसानों और युवाओं को आकर्षित करने लिए राजनीतिक पार्टी को नए एजेंडे अपनाने की सलाह दी है, जो पहचान की राजनीति के साधारण गणित से ऊपर हो। आने वाले दिनों में इस लामबंदी के मुहावरे और भाषा बेहद अहम होगी। क्या समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिल कर इस एजेंडे को आगे बढ़ा पाएंगी।

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