यूपी में बुरी तरह मात खाने के बाद मायावती बीएसपी को नए सिरे संगठित करने में लगी हैं। अमूमन मीडिया से ज्यादा मुखातिब न होने वाली मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दिकी के खिलाफ जवाबी प्रेस क्रांफेंस की और बताया कि उन्होंने सिद्दीकी को क्यों निकाला। इसी तरह भीम आर्मी से बीएसपी से संबंधों की खबर फैलते ही उन्होंने तुरंत इसका खंडन किया और कहा। सहारनपुर हिंसा के बाद बीएसपी चीफ ने माहौल सामान्य होने तक अपने दो प्रवक्ताओं को भी हटा दिया। उन्हें आशंका थी कहीं जातिवादी तत्व इन प्रवक्ताओं के बयानों को तोड़-मरोड़ कर पार्टी के खिलाफ दुष्प्रचार न करें।
दरअसल यूपी चुनाव में सिर्फ 19 सीटें हासिल करने के बाद बीएसपी के में एक तरह की खलबली है। भाजपा और अन्य विरोधी दल लगातार इस तर्क को हवा दे रहे हैं कि मायावती पिछड़ों और मुस्लिमों को तवज्जो नहीं दे रही हैं। पिछले एक साल में पार्टी से गैर यादव पिछड़ों के बड़े नेताओं के निकलने के बाद मायावती के बारे में यह धारणा और पुख्ता हो गई है। लिहाजा वह पार्टी में गैर यादव पिछड़े नेताओं को तवज्जो देने में लगी हैं। मुसलमानों को भी नए सिरे से साध रही हैं।
हाल में पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा और बीएसपी के विधायक दल के नेता लालजी वर्मा के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई गई, जो वक्त-वक्त पर सीएम योगी आदित्यनाथ से विभिन्न मुद्दों पर मिलेगी। वर्मा को इस कमेटी में रखना यह साबित करता है कि वह पिछड़े वर्ग के मतदाताओं तक पहुंच बनाने की कोशिश कर रही हैं। इसके अलावा राष्ट्रपति के पद के उम्मीदवार तलाशने की विपक्षी कवायद में भी मायावती सक्रिय दिखीं। उन्होंने यह भी कहा कि वह टीम की खिलाड़ी हैं।
मायावती पार्टी से दूर जा चुके कुछ पुराने नेताओं को भी लाने की कोशिश में हैं। अकबर अहमद डंपी आजमगढ़ में फिर सक्रिय हुए हैं। इसी तरह फूलबाबू को दोबारा पार्टी में जगह दी गई है। अब्दुल मन्नान दोबारा लखनऊ-हरदोई इलाके में सक्रिय हुए हैं। यह सब मुसलमान नेताओं में अपनी छवि और पुख्ता करने की कवायद है। यह नसीमुद्दीन के उस आरोप की भी काट है, जिसमें उन्होंने यह कहा था कि मायावती ने मुसलमानों को गद्दार कहा।
लेकिन सवाल यह है कि मायावती के रुख में यह बदलाव क्या उनके राजनीतिक कद को ऊंचा करने में कामयाब हो पाएगा। पिछले दो-तीन साल में यह साफ दिखा है कि बीएसपी की जमीनी पकड़ कमजोर हुई है। पार्टी में जमीन पर संघर्ष करने वाले नेताओं की संख्या कम हो गई है। यूपी में मायावती के नाम कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन नहीं है। हाल में जंतर-मंतर में भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर की रैली में आए गुजरात के युवा दलित नेता ने मायावती को चूकी हुई ताकत करार दिया। दरअसल, मायावती जब तक दलितों की गरीबी, जहालत, बेरोजगारी और उनके दमन के मुद्दों से जमीन पर नहीं जूझेंगी तब तक अपना दलित आधार बरकरार नहीं रख पाएंगी। मायावती को सत्ता की राजनीति के साथ समाज की भी राजनीति करनी होगी।
दरअसल यूपी चुनाव में सिर्फ 19 सीटें हासिल करने के बाद बीएसपी के में एक तरह की खलबली है। भाजपा और अन्य विरोधी दल लगातार इस तर्क को हवा दे रहे हैं कि मायावती पिछड़ों और मुस्लिमों को तवज्जो नहीं दे रही हैं। पिछले एक साल में पार्टी से गैर यादव पिछड़ों के बड़े नेताओं के निकलने के बाद मायावती के बारे में यह धारणा और पुख्ता हो गई है। लिहाजा वह पार्टी में गैर यादव पिछड़े नेताओं को तवज्जो देने में लगी हैं। मुसलमानों को भी नए सिरे से साध रही हैं।
हाल में पार्टी के महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा और बीएसपी के विधायक दल के नेता लालजी वर्मा के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई गई, जो वक्त-वक्त पर सीएम योगी आदित्यनाथ से विभिन्न मुद्दों पर मिलेगी। वर्मा को इस कमेटी में रखना यह साबित करता है कि वह पिछड़े वर्ग के मतदाताओं तक पहुंच बनाने की कोशिश कर रही हैं। इसके अलावा राष्ट्रपति के पद के उम्मीदवार तलाशने की विपक्षी कवायद में भी मायावती सक्रिय दिखीं। उन्होंने यह भी कहा कि वह टीम की खिलाड़ी हैं।
मायावती पार्टी से दूर जा चुके कुछ पुराने नेताओं को भी लाने की कोशिश में हैं। अकबर अहमद डंपी आजमगढ़ में फिर सक्रिय हुए हैं। इसी तरह फूलबाबू को दोबारा पार्टी में जगह दी गई है। अब्दुल मन्नान दोबारा लखनऊ-हरदोई इलाके में सक्रिय हुए हैं। यह सब मुसलमान नेताओं में अपनी छवि और पुख्ता करने की कवायद है। यह नसीमुद्दीन के उस आरोप की भी काट है, जिसमें उन्होंने यह कहा था कि मायावती ने मुसलमानों को गद्दार कहा।
लेकिन सवाल यह है कि मायावती के रुख में यह बदलाव क्या उनके राजनीतिक कद को ऊंचा करने में कामयाब हो पाएगा। पिछले दो-तीन साल में यह साफ दिखा है कि बीएसपी की जमीनी पकड़ कमजोर हुई है। पार्टी में जमीन पर संघर्ष करने वाले नेताओं की संख्या कम हो गई है। यूपी में मायावती के नाम कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन नहीं है। हाल में जंतर-मंतर में भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर की रैली में आए गुजरात के युवा दलित नेता ने मायावती को चूकी हुई ताकत करार दिया। दरअसल, मायावती जब तक दलितों की गरीबी, जहालत, बेरोजगारी और उनके दमन के मुद्दों से जमीन पर नहीं जूझेंगी तब तक अपना दलित आधार बरकरार नहीं रख पाएंगी। मायावती को सत्ता की राजनीति के साथ समाज की भी राजनीति करनी होगी।