Written by Kishore
इस सप्ताह स्वंत्रता दिवस की बहुत सी मुबारकबाद मिली.
वो उम्रदराज़ लोग जिन्होंने आज़ादी से पहले का वक्त देखा है उन्होंने समझाया कि आज़ादी में सांस लेने के मायने क्या है? आज़ाद मुल्क में आँख खोलने वाली ये नस्ल क्या गुलाम मुल्क की ग़ुलाम आवाम का दर्द समझ पाएगी? इन्ही सब सवालों से मुखातिब होते हुए स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाओं के बहुत से मुख्तलिफ संदेश मिले. सोशल मीडिया के आने से हर मौके पर आने वाले पैगामों की गिनती कुछ बढ़ भी गयी है जिसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों आयाम है. खैर उसकी गुफ्तगू और कभी. मैं स्वंत्रता दिवस पर आने वाले संदेशों की बात कर रहा था.
आने वाले मुख्तलिफ संदेशों में से कई में देश को आज़ाद कराने वालों को याद किया और कई में मजबूत और समानता कि बुनियाद पर राष्ट्र निर्माण और उसमे हमारी भूमिका की बात की गयी. कई में सभी तरह के भेदभाव और तमाम कुरीतियों को मिटाने का संकल्प लिया. इन सकारात्मक संदेशों, का आज के समाज में जहाँ एक बेहतर समाज बनाने के प्रति जिम्मेदारी के अहसास में लगातार कमी आ रही है, का खास महत्व है.
पर इन संदेशों के साथ साथ बहुत से पैगाम ऐसे भी थे जिनमे अंधराष्ट्रवाद की बू आ रही थी. कई सन्देश देश की अखंडता की खातिर मारने काटने की बात कर रहे थे, कुछ संदेशो में एक कौम विशेष के कुछ नेताओं द्वारा स्वंत्रता दिवस को गणतंत्रता दिवस कह कर छपाये गए हास्यास्पद पोस्टरों की छवि पोस्ट करके, पूरी कौम का अनपढ़ गवार होने की तरफ इशारा था, कई लोग एक खास तरह के विद्यालयों को दी जाने वाली सहायता की तुलना आस्तीन में सांप पालने से कर रहे थे तो कुछ लोग आरक्षण को देश कि तरक्की की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बता रहे थे. यह लोग शायद यह भूल गए कि स्वतंत्रता दिवस को गणतंत्रता दिवस कहने वाला पहला प्रधानमंत्री किस कौम का था.
कुछ संदेशों में भारतीय होने पर गर्व होने के साथ एक धर्म विशेष से सम्बन्ध रखने पर गर्व का व्याख्यान था. ऐसे ही पिछले दिनों एक धार्मिक यात्रा में तिरंगे लहराते कुछ यात्री दिखे जो की समझ से परे था. देश प्रेम और मजहब का ये घालमेल अपनी समझ से तो बाहर है. कुछ सन्देशो में स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ पूरी तरह नदारद थी और इनमे पडोसी मुल्क के साथ गाली गालोच मात्र था. अपने देश की स्वतंत्रता की ख़ुशी और उसकी प्रगति पर गर्व होना तो समझ आता पर किसी को गाली देना समझ नहीं आता ना ही ऐसा राष्ट्रवाद गले उतरता .
पिछले कुछ सालों में स्वंत्रता दिवस पर आने वाले संदेशों में काफी इज़ाफा हुआ है. व्हाट्स एप्प के आने के बाद ऐसे संदेशों का सैलाब सा आ गया है. एक तरह से सोशल मीडिया का अपने देश प्रेम के इज़हार के लिए उपयोग एक अच्छी बात है. पर पिछले कुछ समय में लोगों से बातचीत करके और सोशल मीडिया पर उनके सन्देश पढ़ कर ऐसा लगा है कि पिछले कुछ समय में देश प्रेम कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. कभी कुछ तरह का देश प्रेम आरक्षण के विरोध में झलकता है, कभी पडौसी मुल्क का तिरस्कार करने में और कभी गाँधी के हत्यारों का एक नायक की तरह महिमा मंडित करने में.
अगर असलियत में देश के प्रति लोगों में समर्पण कि भावना बढ़ी है तो यह सराहनीय है पर अगर यह देश प्रेम व्हाट्स एप्प पर सन्देश फॉरवर्ड करने तक ही सीमित है तो यह गौरे तलब है. इन सदेशों को भेजने वालों में कहीं वह लोग तो शामिल नहीं है जिनकी गाड़ियों को सुबह सुबह म्यूनिस्पेलिटी के पीने वाले पानी से नहलाया जाता है? क्या इनमें वह लोग तो शामिल नहीं जो टैक्स चोरी या बैंकों का कर्जा घटगने करने में अपनी शान समझते हैं? इनमे कहीं वह लोग तो शामिल नहीं जो देश के घटते लिंग अनुपात में योगदान कर हैं? वह लोग तो शामिल नहीं हैं जो देर रात, जब लाउडस्पीकर पर गाना बजाना वर्जित है, अपनी पार्टियों में जोर जोर से गाना बजाने में अपनी शान समझते हैं? अगर हाँ तो यह विचारणीय विषय है कि उनमे अचानक यह देशप्रेम की भावना कहाँ से जग गयी? क्या इन्होने देश की खातिर टेक्स चोरी करना छोड़ दिया? क्या इन्होने इमानदारी से कर्जा चुकाने का संकल्प ले लिया है? क्या इन्होने कन्या भ्रूण हत्या बंद कर दिया? अगर हाँ तो अगले बजट में देश की आर्थिक स्थिति कहीं बेहतर होगी और अगली जनगरणा में लिंग अनुपात कहीं बेहतर हो जाएगा. अगर नहीं तो इन लोगों को अगले वर्ष अपनी राष्ट्र भक्ति इज़हार करने से पहले सोचना चाहिए.
इस सप्ताह स्वंत्रता दिवस की बहुत सी मुबारकबाद मिली.
वो उम्रदराज़ लोग जिन्होंने आज़ादी से पहले का वक्त देखा है उन्होंने समझाया कि आज़ादी में सांस लेने के मायने क्या है? आज़ाद मुल्क में आँख खोलने वाली ये नस्ल क्या गुलाम मुल्क की ग़ुलाम आवाम का दर्द समझ पाएगी? इन्ही सब सवालों से मुखातिब होते हुए स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाओं के बहुत से मुख्तलिफ संदेश मिले. सोशल मीडिया के आने से हर मौके पर आने वाले पैगामों की गिनती कुछ बढ़ भी गयी है जिसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों आयाम है. खैर उसकी गुफ्तगू और कभी. मैं स्वंत्रता दिवस पर आने वाले संदेशों की बात कर रहा था.
आने वाले मुख्तलिफ संदेशों में से कई में देश को आज़ाद कराने वालों को याद किया और कई में मजबूत और समानता कि बुनियाद पर राष्ट्र निर्माण और उसमे हमारी भूमिका की बात की गयी. कई में सभी तरह के भेदभाव और तमाम कुरीतियों को मिटाने का संकल्प लिया. इन सकारात्मक संदेशों, का आज के समाज में जहाँ एक बेहतर समाज बनाने के प्रति जिम्मेदारी के अहसास में लगातार कमी आ रही है, का खास महत्व है.
पर इन संदेशों के साथ साथ बहुत से पैगाम ऐसे भी थे जिनमे अंधराष्ट्रवाद की बू आ रही थी. कई सन्देश देश की अखंडता की खातिर मारने काटने की बात कर रहे थे, कुछ संदेशो में एक कौम विशेष के कुछ नेताओं द्वारा स्वंत्रता दिवस को गणतंत्रता दिवस कह कर छपाये गए हास्यास्पद पोस्टरों की छवि पोस्ट करके, पूरी कौम का अनपढ़ गवार होने की तरफ इशारा था, कई लोग एक खास तरह के विद्यालयों को दी जाने वाली सहायता की तुलना आस्तीन में सांप पालने से कर रहे थे तो कुछ लोग आरक्षण को देश कि तरक्की की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बता रहे थे. यह लोग शायद यह भूल गए कि स्वतंत्रता दिवस को गणतंत्रता दिवस कहने वाला पहला प्रधानमंत्री किस कौम का था.
कुछ संदेशों में भारतीय होने पर गर्व होने के साथ एक धर्म विशेष से सम्बन्ध रखने पर गर्व का व्याख्यान था. ऐसे ही पिछले दिनों एक धार्मिक यात्रा में तिरंगे लहराते कुछ यात्री दिखे जो की समझ से परे था. देश प्रेम और मजहब का ये घालमेल अपनी समझ से तो बाहर है. कुछ सन्देशो में स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ पूरी तरह नदारद थी और इनमे पडोसी मुल्क के साथ गाली गालोच मात्र था. अपने देश की स्वतंत्रता की ख़ुशी और उसकी प्रगति पर गर्व होना तो समझ आता पर किसी को गाली देना समझ नहीं आता ना ही ऐसा राष्ट्रवाद गले उतरता .
पिछले कुछ सालों में स्वंत्रता दिवस पर आने वाले संदेशों में काफी इज़ाफा हुआ है. व्हाट्स एप्प के आने के बाद ऐसे संदेशों का सैलाब सा आ गया है. एक तरह से सोशल मीडिया का अपने देश प्रेम के इज़हार के लिए उपयोग एक अच्छी बात है. पर पिछले कुछ समय में लोगों से बातचीत करके और सोशल मीडिया पर उनके सन्देश पढ़ कर ऐसा लगा है कि पिछले कुछ समय में देश प्रेम कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. कभी कुछ तरह का देश प्रेम आरक्षण के विरोध में झलकता है, कभी पडौसी मुल्क का तिरस्कार करने में और कभी गाँधी के हत्यारों का एक नायक की तरह महिमा मंडित करने में.
अगर असलियत में देश के प्रति लोगों में समर्पण कि भावना बढ़ी है तो यह सराहनीय है पर अगर यह देश प्रेम व्हाट्स एप्प पर सन्देश फॉरवर्ड करने तक ही सीमित है तो यह गौरे तलब है. इन सदेशों को भेजने वालों में कहीं वह लोग तो शामिल नहीं है जिनकी गाड़ियों को सुबह सुबह म्यूनिस्पेलिटी के पीने वाले पानी से नहलाया जाता है? क्या इनमें वह लोग तो शामिल नहीं जो टैक्स चोरी या बैंकों का कर्जा घटगने करने में अपनी शान समझते हैं? इनमे कहीं वह लोग तो शामिल नहीं जो देश के घटते लिंग अनुपात में योगदान कर हैं? वह लोग तो शामिल नहीं हैं जो देर रात, जब लाउडस्पीकर पर गाना बजाना वर्जित है, अपनी पार्टियों में जोर जोर से गाना बजाने में अपनी शान समझते हैं? अगर हाँ तो यह विचारणीय विषय है कि उनमे अचानक यह देशप्रेम की भावना कहाँ से जग गयी? क्या इन्होने देश की खातिर टेक्स चोरी करना छोड़ दिया? क्या इन्होने इमानदारी से कर्जा चुकाने का संकल्प ले लिया है? क्या इन्होने कन्या भ्रूण हत्या बंद कर दिया? अगर हाँ तो अगले बजट में देश की आर्थिक स्थिति कहीं बेहतर होगी और अगली जनगरणा में लिंग अनुपात कहीं बेहतर हो जाएगा. अगर नहीं तो इन लोगों को अगले वर्ष अपनी राष्ट्र भक्ति इज़हार करने से पहले सोचना चाहिए.