रामनगर हिंसा पर पुलिस को फटकार, भाजपा नेता पर कार्रवाई का आदेश: उत्तराखंड हाईकोर्ट  

Written by sabrang india | Published on: November 5, 2025
पीठ ने 6 नवंबर तक कार्रवाई रिपोर्ट दाखिल करने का आदेश दिया। याचिकाकर्ता ने मुख्य आरोपी को राजनीतिक संरक्षण मिलने का आरोप लगाया।



उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने नैनीताल जिले के रामनगर में हुई सांप्रदायिक हिंसा के मामले में पुलिस की कथित निष्क्रियता को गंभीरता से लेते हुए स्थानीय पुलिस को भाजपा नेता मदन जोशी के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। उन पर गोहत्या के झूठे आरोपों के आधार पर हिंसक भीड़ को उकसाने का आरोप है।

मुख्य न्यायाधीश जी. नरेंद्र और न्यायमूर्ति सुभाष उपाध्याय की खंडपीठ ने 29 अक्टूबर 2025 को नूरजहां बनाम उत्तराखंड राज्य मामले की सुनवाई करते हुए जांच अधिकारी (आईओ) को 6 नवंबर तक कार्रवाई रिपोर्ट दाखिल करने और घटना से संबंधित सभी भड़काऊ सोशल मीडिया पोस्ट हटाने का निर्देश दिया।

अदालत का यह निर्देश नूरजहां द्वारा दायर एक सुरक्षा याचिका के जवाब में आया है। नूरजहां, स्थानीय ड्राइवर नासिर की पत्नी हैं। 23 अक्टूबर को यह अफवाह फैलने के बाद कि नासिर अपने वाहन में गोमांस ले जा रहा है, उस पर बेरहमी से हमला किया गया था। याचिका में आरोप लगाया गया है कि स्थानीय भाजपा नेता और पार्टी की रामनगर नगर इकाई के पूर्व अध्यक्ष मदन जोशी ने फेसबुक पर लाइव जाकर झूठा दावा किया कि गोमांस ले जाया जा रहा है। इससे कथित तौर पर भीड़ को नासिर पर हमला करने के लिए उकसाया गया।

"अराजकता का प्रदर्शन": याचिकाकर्ता ने सीबीआई जांच और पुलिस सुरक्षा की मांग की

Live Law द्वारा प्रकाशित याचिका के अनुसार, जोशी के फ़ेसबुक लाइव के बाद उकसाई गई भीड़ ने नासिर की गाड़ी रोक ली। कथित तौर पर भीड़ ने नासिर को घसीटकर बाहर निकाला, पत्थरों से हमला किया, लात-घूंसों से पीटा और हमले का लाइवस्ट्रीम किया। पुलिस पर आरोप है कि उसे अस्पताल पहुंचाने के बजाय, वह गंभीर रूप से घायल व्यक्ति को पहले थाने ले गई।

नूरजहां ने इस घटना को "अराजकता का ज्वलंत उदाहरण" बताया और कहा कि यह “गौ-रक्षा के नाम पर की गई हिंसा है, जो तेहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की खुली अवहेलना” को दर्शाती है। उन्होंने यह भी कहा कि घटना के बाद से उनके परिवार को अज्ञात व्यक्तियों से गंभीर धमकियां मिल रही हैं।

याचिका में सीबीआई जांच, पुलिस सुरक्षा, सर्वोच्च न्यायालय के मॉब लिंचिंग दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन कराने और उनके गंभीर रूप से घायल पति के लिए मुआवजे की मांग की गई है।

उच्च न्यायालय का आदेश

हालांकि उच्च न्यायालय का आदेश संक्षिप्त है, लेकिन यह राजनीतिक व्यक्तियों से जुड़े मामलों में चयनात्मक कानून प्रवर्तन और दण्डमुक्ति (impunity) की कड़ी आलोचना करता है। जहां उप महाधिवक्ता ने अदालत को बताया कि दो हमलावरों को गिरफ्तार किया गया है, वहीं पीठ ने जांच की पूरी स्थिति रिपोर्ट मांगी और यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि भड़काऊ पोस्ट हटाने के आदेशों के अनुपालन का प्रमाण अगली सुनवाई में प्रस्तुत किया जाए।

अब इस मामले की सुनवाई 6 नवंबर 2025 को होगी, जब पुलिस को अपनी कार्रवाई रिपोर्ट पेश करनी होगी। नफरत फैलाने वाली सामग्री को तुरंत हटाने पर पीठ का जोर, सांप्रदायिक हिंसा के डिजिटल आयाम में एक महत्वपूर्ण न्यायिक हस्तक्षेप को दर्शाता है, जहां गलत सूचना और फेसबुक लाइव प्रसारण अक्सर भीड़ की कार्रवाई के उत्प्रेरक के रूप में काम करते हैं।

चयनात्मक जवाबदेही

रामनगर हमला उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में गौरक्षकों द्वारा हिंसा की बढ़ती घटनाओं की कड़ी में एक और उदाहरण है। यहां अक्सर सांप्रदायिक हिंसा से पहले अफवाहें और फेसबुक लाइव वीडियो सामने आते हैं। जैसा कि सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, स्थानीय गौरक्षक समूह अक्सर मौन राजनीतिक संरक्षण में काम करते हैं और पुलिस द्वारा उन्हें रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते।

याचिका में तेहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ (2018) मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया गया है, जिसमें राज्यों को मॉब लिंचिंग पर रोक लगाने, नोडल अधिकारी नियुक्त करने, तत्काल एफआईआर दर्ज करने और पीड़ितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था। फिर भी, जैसा कि नूरजहां के मामले से स्पष्ट होता है, इन निर्देशों का क्रियान्वयन अब भी कागजों तक सीमित है।

हाईकोर्ट का यह हस्तक्षेप एक बड़े प्रश्न को जन्म देता है—कि नफरत या भड़काऊ भाषण देने के आरोपी राजनेताओं पर, सबूत सार्वजनिक होने के बावजूद, शायद ही कभी कार्रवाई क्यों होती है? जहां नागरिकों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं पर अक्सर ऑनलाइन अभिव्यक्ति के लिए मुकदमे चलाए जाते हैं, वहीं सांप्रदायिक नफरत फैलाने के आरोपित नेताओं को दंड से छूट मिलती है। कानूनी टिप्पणीकारों का कहना है कि यह “बोलने पर चयनात्मक निगरानी” कानून के शासन में जनता के विश्वास को कमजोर करती है।

पूरा आदेश यहां पढ़ा जा सकता है।



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