छह फैसले ऐसे थे जिन्हें छात्रों के माता-पिता समेत कई हितधारकों के विरोध के बाद वापस ले लिया गया।

फोटो साभार : मनी कंट्रोल
आय और जाति पर आधारित कोटा से लेकर तीसरी भाषा के रूप में हिंदी, परीक्षा प्रवेश पत्रों पर जाति का जिक्र, स्कूल के खाने में मीठी चीजें. और यहां तक कि स्कूल बैग का वजन कम करने के लिए पाठ्यपुस्तकों से खाली पन्नों के हटाने के फैसले महाराष्ट्र की बीजेपी शासित सरकार ने लिया जिसे आलोचना के बाद पिछले छह महीने में वापस लेना पड़ा है। ऐसे में विशेषज्ञों ने यह कहकर आलोचना की कि ये फैसले “बिना सोचे-समझे” या “ठीक से सलाह किए बिना” लिए गए।
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से छह फैसले विरोध के चलते वापस लेने पड़े, जिसमें छात्रों के माता-पिता समेत कई हितधारकों की नाराजगी शामिल थी। सेंट्रलाइज्ड यूनिफॉर्म नीति की आलोचना खराब गुणवत्ता और समय पर उपलब्ध न होने के कारण हुई। एक मामले में, फैसला तब वापस लिया गया जब बॉम्बे हाईकोर्ट ने सामाजिक आरक्षण लागू करने के निर्देश के खिलाफ अल्पसंख्यक ट्रस्ट द्वारा संचालित जूनियर कॉलेजों को अंतरिम राहत दी।
इनमें से छह फैसले स्कूल शिक्षा विभाग के तहत वापस लिए गए, जिसकी ज़िम्मेदारी इस समय दादा भुसे के पास है। उन्होंने पिछले दिसंबर में दीपक केसरकर (अगस्त 2022 से नवंबर 2024 तक) से ये पद लिया था। दोनों ही नेता एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिवसेना से हैं। एक और अहम यू-टर्न निजी मेडिकल कॉलेजों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% कोटे को लेकर था।
द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में दीपक केसरकर ने इन फैसलों को वापस लेने की वजह “जमीनी स्तर पर अमल में कुछ चुनौतियां” बताई, जबकि दादा भुसे ने कहा कि ये फैसले “फीडबैक के आधार पर किए गए कुछ बदलाव” थे।
विपक्ष का आरोप है कि इनमें से कुछ फैसले इस साल के आखिर में होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों को ध्यान में रखकर लिए गए थे, खासतौर पर वे आरक्षण से जुड़े फैसले जो जून में लिए गए और एक महीने के भीतर ही वापस ले लिए गए। हालांकि सरकार ने इन आरोपों से इनकार किया है।
फैसला करना और उसे वापस लेना:
प्राथमिक कक्षाओं में हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बनाना: 16 अप्रैल को सरकार ने एक आदेश जारी किया, जिसमें राज्य बोर्ड के स्कूलों की कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों के लिए हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य कर दिया गया। इससे पहले ये छात्र केवल दो भाषाएं ही पढ़ते थे। इस फैसले को लेकर काफी आलोचना और राजनीतिक विरोध हुआ। नतीजतन, 17 जून को सरकार ने संशोधित आदेश जारी कर यह साफ कर दिया कि हिंदी अब अनिवार्य नहीं, बल्कि वैकल्पिक (ऑप्शनल) होगी।
लेकिन संशोधित आदेश के बाद भी चिंता कम नहीं हुई और जब विरोध तेज हुआ, तो 23 जून को एक उच्चस्तरीय बैठक के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने घोषणा की कि इस पर अंतिम फैसला हितधारकों से चर्चा के बाद लिया जाएगा। इसके बाद 29 जून को सरकार ने दोनों पुराने आदेश रद्द कर दिए और नई सिफारिशों के लिए शिक्षाविद नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में एक नई समिति गठित की।
अल्पसंख्यक ट्रस्ट द्वारा संचालित जूनियर कॉलेजों में आरक्षण: मई के अंत में महाराष्ट्र सरकार ने राज्यभर में पहली बार केंद्रीकृत ऑनलाइन FYJC (फर्स्ट ईयर जूनियर कॉलेज) दाखिले की प्रक्रिया शुरू की। इसमें अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण की व्यवस्था सभी कॉलेजों की सीट मैट्रिक्स में शामिल की गई यहां तक कि उन अल्पसंख्यक ट्रस्ट द्वारा संचालित कॉलेजों में भी, जिन्हें कई अदालती आदेशों के तहत इस नियम से छूट मिली हुई है। परंपरागत तरीके से, ऐसे कॉलेज अपनी 50% सीटें अपने समुदाय के लिए आरक्षित रखते हैं, 5% प्रबंधन कोटे के लिए होती हैं और बाकी सीटें मेरिट के आधार पर ओपन कैटेगरी के लिए। इनमें सामाजिक आरक्षण लागू नहीं होता।
10 जून को राज्य के अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों की संघ और कुछ कॉलेजों ने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। दो दिन बाद, 12 जून को हाईकोर्ट ने उन्हें अंतरिम राहत देते हुए सरकार की इस नीति पर रोक लगा दी। इसके बाद सरकार ने 23 जून को औपचारिक रूप से यह फैसला वापस ले लिया।
वन स्टेट, वन यूनिफॉर्म: 2 अप्रैल को सरकार ने अपनी "वन स्टेट, वन यूनिफॉर्म" नीति को रद्द कर दिया और स्कूल यूनिफॉर्म तय करने की जिम्मेदारी स्कूल प्रबंधन समितियों को सौंप दी। यह उस फैसले को पलटने का कदम था जो मई 2023 में तत्कालीन मंत्री दीपक केसरकर के कार्यकाल में लिया गया था। उस समय निर्णय हुआ था कि कक्षा 1 से 8 तक के सभी सरकारी स्कूलों में एक जैसी यूनिफॉर्म लागू की जाए और 44 लाख से ज्यादा छात्रों के लिए यूनिफॉर्म का निर्माण और वितरण एक केंद्रीकृत व्यवस्था के जरिए हो।
इस नीति को 2024-25 के सत्र में लागू किया गया, लेकिन यूनिफॉर्म अक्टूबर 2024 तक छात्रों तक नहीं पहुंच पाए। बाद में, कपड़ों की खराब गुणवत्ता और फिटिंग को लेकर कई शिकायतें आईं। दिसंबर 2024 में, लॉजिस्टिक समस्याओं के कारण इस केंद्रीकृत प्रक्रिया को वापस ले लिया गया।
मिड-डे मील में मीठी चीजें: 11 जून 2024 को सरकार ने घोषणा की कि सरकारी स्कूलों के मिड-डे मील में तीन कोर्स होंगे, जिनमें अंकुरित दाने, मिठाई के साथ-साथ चावल, दाल, दलहन और सब्जियों के नए विकल्प भी शामिल होंगे। इस साल 28 जनवरी को, जब दादा भुसे ने जिम्मेदारी संभाली तो यह बताया गया कि मिठाई तभी दी जाएगी जब स्कूल प्रबंधन समितियां शुगर के लिए जनता से फंड जुटा सकेंगी।
पाठ्यपुस्तकों में खाली पन्ने: 8 मार्च 2023 को सरकार ने राज्य बोर्ड की कक्षाएं 2 से 8 के लिए बालभारती द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तकों में हर अध्याय के बाद खाली पन्ने जोड़ने की घोषणा की। इसका मकसद था कि छात्र अलग से नोटबुक लेकर न जाएं और इससे स्कूल बैग का वजन कम हो। लेकिन इस फैसले को लेकर विरोध हुआ क्योंकि छात्र दोनों, यानी किताबें और नोटबुक, स्कूल लेकर आते रहे। यही कारण है कि यह योजना केवल एक शैक्षणिक वर्ष 2024-25 के लिए ही लागू रही और 28 जनवरी को इसे वापस ले लिया गया।
एचएससी परीक्षा के हॉल टिकट पर जाति: राज्य बोर्ड ने 11 जनवरी को जारी किए गए हायर सेकेंडरी सर्टिफिकेट (एचएससी) परीक्षा के हॉल टिकट पर जाति की जानकारी छापी। इसके बाद सामाजिक समूहों की कड़ी आलोचना हुई। विरोध के चलते बोर्ड ने खेद व्यक्त किया और 18 जनवरी को एक नया आदेश जारी कर पुराने हॉल टिकट वापस लिए और 23 जनवरी को नए हॉल टिकट जारी किए।
निजी मेडिकल कॉलेजों में 10% EWS आरक्षण: 23 जुलाई को CET सेल द्वारा जारी राज्य मेडिकल प्रवेश के लिए जानकारी पुस्तिका में 10% आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) आरक्षण शामिल किया गया। इस आरक्षण को लागू करने पर, छात्रों, उनके माता-पिता और कॉलेजों ने मंत्री को लिखा कि बिना सीटों की संख्या बढ़ाए इस आरक्षण को लागू करने से सामान्य श्रेणी के लिए उपलब्ध सीटें कम हो जाएंगी।
30 जुलाई को, जब अभिभावकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने मंत्री से मुलाकात की, उसके अगले दिन सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर यह फैसला वापस ले लिया। अधिसूचना में कहा गया कि यह आरक्षण केवल तभी लागू किया जाएगा जब अतिरिक्त सीटों की मंजूरी दी जाएगी।
राज्य के पूर्व शिक्षा निदेशक रह चुके वसंत कल्पांडे ने निर्णय लेने और उसे लागू करने के बीच दूरी को “शैक्षणिक शासन में संवाद की कमी” बताया। उन्होंने कहा, “मौजूदा ऊपर से नीचे की रणनीति महाराष्ट्र जैसे विविध राज्य में प्रभावी नीति निर्माण के लिए हानिकारक है। प्रभावी शासन हितधारकों के साथ संवाद, सहानुभूति और संवेदनशीलता पर निर्भर करता है। छात्रों और शिक्षकों की अलग-अलग जरूरतों को देखते हुए एक ही तरीका सब पर लागू नहीं हो सकता।”
राज्य के शिक्षा विभाग में 30 से ज्यादा वर्षों तक सेवा देने वाली बसंती रॉय ने नए प्रयासों को पहले छोटे स्तर पर लागू करके उनकी चुनौतियों और प्रभाव का मूल्यांकन करने की अहमियत पर जोर दिया। उन्होंने चेतावनी दी कि बिना ऐसा किए, “फैसलों को वापस लेना जरूरी हो जाता है।” उन्होंने कहा, “नवाचार की जल्दी में हम उचित जांच-पड़ताल की उपेक्षा कर रहे हैं।”
मंत्री ने कहा - हमेशा सब कुछ बिना परेशानी के नहीं हो सकता
एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, जब संपर्क किया गया तो केसरकर ने उन्हें “छात्र-केंद्रित” बताया। इन्हीं के कार्यालय में खाली पन्ने, यूनिफॉर्म और मिठाई से जुड़े फैसले लिए गए थे। उन्होंने कहा, “फैसले लेने की प्रक्रिया में संबंधित हितधारकों से पूरी सलाह-मशविरा किया गया था। हो सकता है कि जमीनी स्तर पर इसे लागू करने में कुछ चुनौतियां आई हों। लेकिन उन्हें सुधारात्मक कदमों से हल किया जा सकता था, जिससे आने वाले वर्षों में इन फैसलों के फायदे दिख सकते थे।”
मौजूदा मंत्री भुसे ने कहा कि शिक्षा नीतियां सावधानीपूर्वक मूल्यांकन के बाद बनाई जाती हैं। उन्होंने कहा, “स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा लिए गए सभी नीतिगत फैसले हमारे मुख्य हितधारकों - छात्रों, माता-पिता, शिक्षकों और स्कूलों - के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखकर किए जाते हैं। जब फीडबैक से बदलाव की जरूरत सामने आती है, तो उसे गंभीरता से लिया जाता है और लागू किया जाता है। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं कि मूल फैसले गलत थे।”
एक उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “सरकारी स्कूल के छात्रों को उच्च गुणवत्ता वाली यूनिफॉर्म देने की पहल सही उद्देश्य से शुरू की गई थी, लेकिन बड़े पैमाने पर इसे लागू करने में आने वाली चुनौतियों के कारण प्रक्रिया में बदलाव करना पड़ा।”
भुसे ने “सफल” निर्णयों की ओर इशारा करते हुए कहा, “राज्य बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान ‘कॉपी-फ्री परीक्षा’ अभियान एक उदाहरण है। हो सकता है कि इसने गलत प्रथाओं को पूरी तरह खत्म न किया हो, लेकिन इसने जागरूकता बढ़ाकर इसे काफी हद तक कम किया। एक और उदाहरण है राज्य में कक्षा 11 के लिए केंद्रीकृत ऑनलाइन प्रवेश प्रक्रिया का विस्तार। हालांकि इसके पहले वर्ष में कुछ चुनौतियां आईं, जैसा कि उम्मीद की जाती है, लेकिन इस प्रक्रिया ने लाखों छात्रों को उनकी पसंद के कॉलेजों में दाखिला पाने के बराबर अवसर सुनिश्चित किए हैं।”
उन्होंने यह कहते हुए कि कोई भी फैसला सभी के लिए एकदम सही नहीं हो सकता। उन्होंने कहा, “मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से हूं, लेकिन शहरी हालात भी मुझे अच्छी तरह समझ में आते हैं। यह दोहरी समझ मुझे हमारे शिक्षा सिस्टम की विविध जरूरतों को समझने में मदद करती है। हमें यह मानना होगा कि हर चीज हमेशा बिना किसी दिक्कत के नहीं हो सकती- सार्वजनिक नीति में एक ऐसा समाधान नहीं होता जो सब पर फिट बैठे।”
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फोटो साभार : मनी कंट्रोल
आय और जाति पर आधारित कोटा से लेकर तीसरी भाषा के रूप में हिंदी, परीक्षा प्रवेश पत्रों पर जाति का जिक्र, स्कूल के खाने में मीठी चीजें. और यहां तक कि स्कूल बैग का वजन कम करने के लिए पाठ्यपुस्तकों से खाली पन्नों के हटाने के फैसले महाराष्ट्र की बीजेपी शासित सरकार ने लिया जिसे आलोचना के बाद पिछले छह महीने में वापस लेना पड़ा है। ऐसे में विशेषज्ञों ने यह कहकर आलोचना की कि ये फैसले “बिना सोचे-समझे” या “ठीक से सलाह किए बिना” लिए गए।
द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से छह फैसले विरोध के चलते वापस लेने पड़े, जिसमें छात्रों के माता-पिता समेत कई हितधारकों की नाराजगी शामिल थी। सेंट्रलाइज्ड यूनिफॉर्म नीति की आलोचना खराब गुणवत्ता और समय पर उपलब्ध न होने के कारण हुई। एक मामले में, फैसला तब वापस लिया गया जब बॉम्बे हाईकोर्ट ने सामाजिक आरक्षण लागू करने के निर्देश के खिलाफ अल्पसंख्यक ट्रस्ट द्वारा संचालित जूनियर कॉलेजों को अंतरिम राहत दी।
इनमें से छह फैसले स्कूल शिक्षा विभाग के तहत वापस लिए गए, जिसकी ज़िम्मेदारी इस समय दादा भुसे के पास है। उन्होंने पिछले दिसंबर में दीपक केसरकर (अगस्त 2022 से नवंबर 2024 तक) से ये पद लिया था। दोनों ही नेता एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिवसेना से हैं। एक और अहम यू-टर्न निजी मेडिकल कॉलेजों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% कोटे को लेकर था।
द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में दीपक केसरकर ने इन फैसलों को वापस लेने की वजह “जमीनी स्तर पर अमल में कुछ चुनौतियां” बताई, जबकि दादा भुसे ने कहा कि ये फैसले “फीडबैक के आधार पर किए गए कुछ बदलाव” थे।
विपक्ष का आरोप है कि इनमें से कुछ फैसले इस साल के आखिर में होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों को ध्यान में रखकर लिए गए थे, खासतौर पर वे आरक्षण से जुड़े फैसले जो जून में लिए गए और एक महीने के भीतर ही वापस ले लिए गए। हालांकि सरकार ने इन आरोपों से इनकार किया है।
फैसला करना और उसे वापस लेना:
प्राथमिक कक्षाओं में हिंदी को अनिवार्य तीसरी भाषा बनाना: 16 अप्रैल को सरकार ने एक आदेश जारी किया, जिसमें राज्य बोर्ड के स्कूलों की कक्षा 1 से 5 तक के छात्रों के लिए हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य कर दिया गया। इससे पहले ये छात्र केवल दो भाषाएं ही पढ़ते थे। इस फैसले को लेकर काफी आलोचना और राजनीतिक विरोध हुआ। नतीजतन, 17 जून को सरकार ने संशोधित आदेश जारी कर यह साफ कर दिया कि हिंदी अब अनिवार्य नहीं, बल्कि वैकल्पिक (ऑप्शनल) होगी।
लेकिन संशोधित आदेश के बाद भी चिंता कम नहीं हुई और जब विरोध तेज हुआ, तो 23 जून को एक उच्चस्तरीय बैठक के बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने घोषणा की कि इस पर अंतिम फैसला हितधारकों से चर्चा के बाद लिया जाएगा। इसके बाद 29 जून को सरकार ने दोनों पुराने आदेश रद्द कर दिए और नई सिफारिशों के लिए शिक्षाविद नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में एक नई समिति गठित की।
अल्पसंख्यक ट्रस्ट द्वारा संचालित जूनियर कॉलेजों में आरक्षण: मई के अंत में महाराष्ट्र सरकार ने राज्यभर में पहली बार केंद्रीकृत ऑनलाइन FYJC (फर्स्ट ईयर जूनियर कॉलेज) दाखिले की प्रक्रिया शुरू की। इसमें अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण की व्यवस्था सभी कॉलेजों की सीट मैट्रिक्स में शामिल की गई यहां तक कि उन अल्पसंख्यक ट्रस्ट द्वारा संचालित कॉलेजों में भी, जिन्हें कई अदालती आदेशों के तहत इस नियम से छूट मिली हुई है। परंपरागत तरीके से, ऐसे कॉलेज अपनी 50% सीटें अपने समुदाय के लिए आरक्षित रखते हैं, 5% प्रबंधन कोटे के लिए होती हैं और बाकी सीटें मेरिट के आधार पर ओपन कैटेगरी के लिए। इनमें सामाजिक आरक्षण लागू नहीं होता।
10 जून को राज्य के अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों की संघ और कुछ कॉलेजों ने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की। दो दिन बाद, 12 जून को हाईकोर्ट ने उन्हें अंतरिम राहत देते हुए सरकार की इस नीति पर रोक लगा दी। इसके बाद सरकार ने 23 जून को औपचारिक रूप से यह फैसला वापस ले लिया।
वन स्टेट, वन यूनिफॉर्म: 2 अप्रैल को सरकार ने अपनी "वन स्टेट, वन यूनिफॉर्म" नीति को रद्द कर दिया और स्कूल यूनिफॉर्म तय करने की जिम्मेदारी स्कूल प्रबंधन समितियों को सौंप दी। यह उस फैसले को पलटने का कदम था जो मई 2023 में तत्कालीन मंत्री दीपक केसरकर के कार्यकाल में लिया गया था। उस समय निर्णय हुआ था कि कक्षा 1 से 8 तक के सभी सरकारी स्कूलों में एक जैसी यूनिफॉर्म लागू की जाए और 44 लाख से ज्यादा छात्रों के लिए यूनिफॉर्म का निर्माण और वितरण एक केंद्रीकृत व्यवस्था के जरिए हो।
इस नीति को 2024-25 के सत्र में लागू किया गया, लेकिन यूनिफॉर्म अक्टूबर 2024 तक छात्रों तक नहीं पहुंच पाए। बाद में, कपड़ों की खराब गुणवत्ता और फिटिंग को लेकर कई शिकायतें आईं। दिसंबर 2024 में, लॉजिस्टिक समस्याओं के कारण इस केंद्रीकृत प्रक्रिया को वापस ले लिया गया।
मिड-डे मील में मीठी चीजें: 11 जून 2024 को सरकार ने घोषणा की कि सरकारी स्कूलों के मिड-डे मील में तीन कोर्स होंगे, जिनमें अंकुरित दाने, मिठाई के साथ-साथ चावल, दाल, दलहन और सब्जियों के नए विकल्प भी शामिल होंगे। इस साल 28 जनवरी को, जब दादा भुसे ने जिम्मेदारी संभाली तो यह बताया गया कि मिठाई तभी दी जाएगी जब स्कूल प्रबंधन समितियां शुगर के लिए जनता से फंड जुटा सकेंगी।
पाठ्यपुस्तकों में खाली पन्ने: 8 मार्च 2023 को सरकार ने राज्य बोर्ड की कक्षाएं 2 से 8 के लिए बालभारती द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तकों में हर अध्याय के बाद खाली पन्ने जोड़ने की घोषणा की। इसका मकसद था कि छात्र अलग से नोटबुक लेकर न जाएं और इससे स्कूल बैग का वजन कम हो। लेकिन इस फैसले को लेकर विरोध हुआ क्योंकि छात्र दोनों, यानी किताबें और नोटबुक, स्कूल लेकर आते रहे। यही कारण है कि यह योजना केवल एक शैक्षणिक वर्ष 2024-25 के लिए ही लागू रही और 28 जनवरी को इसे वापस ले लिया गया।
एचएससी परीक्षा के हॉल टिकट पर जाति: राज्य बोर्ड ने 11 जनवरी को जारी किए गए हायर सेकेंडरी सर्टिफिकेट (एचएससी) परीक्षा के हॉल टिकट पर जाति की जानकारी छापी। इसके बाद सामाजिक समूहों की कड़ी आलोचना हुई। विरोध के चलते बोर्ड ने खेद व्यक्त किया और 18 जनवरी को एक नया आदेश जारी कर पुराने हॉल टिकट वापस लिए और 23 जनवरी को नए हॉल टिकट जारी किए।
निजी मेडिकल कॉलेजों में 10% EWS आरक्षण: 23 जुलाई को CET सेल द्वारा जारी राज्य मेडिकल प्रवेश के लिए जानकारी पुस्तिका में 10% आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) आरक्षण शामिल किया गया। इस आरक्षण को लागू करने पर, छात्रों, उनके माता-पिता और कॉलेजों ने मंत्री को लिखा कि बिना सीटों की संख्या बढ़ाए इस आरक्षण को लागू करने से सामान्य श्रेणी के लिए उपलब्ध सीटें कम हो जाएंगी।
30 जुलाई को, जब अभिभावकों के एक प्रतिनिधिमंडल ने मंत्री से मुलाकात की, उसके अगले दिन सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर यह फैसला वापस ले लिया। अधिसूचना में कहा गया कि यह आरक्षण केवल तभी लागू किया जाएगा जब अतिरिक्त सीटों की मंजूरी दी जाएगी।
राज्य के पूर्व शिक्षा निदेशक रह चुके वसंत कल्पांडे ने निर्णय लेने और उसे लागू करने के बीच दूरी को “शैक्षणिक शासन में संवाद की कमी” बताया। उन्होंने कहा, “मौजूदा ऊपर से नीचे की रणनीति महाराष्ट्र जैसे विविध राज्य में प्रभावी नीति निर्माण के लिए हानिकारक है। प्रभावी शासन हितधारकों के साथ संवाद, सहानुभूति और संवेदनशीलता पर निर्भर करता है। छात्रों और शिक्षकों की अलग-अलग जरूरतों को देखते हुए एक ही तरीका सब पर लागू नहीं हो सकता।”
राज्य के शिक्षा विभाग में 30 से ज्यादा वर्षों तक सेवा देने वाली बसंती रॉय ने नए प्रयासों को पहले छोटे स्तर पर लागू करके उनकी चुनौतियों और प्रभाव का मूल्यांकन करने की अहमियत पर जोर दिया। उन्होंने चेतावनी दी कि बिना ऐसा किए, “फैसलों को वापस लेना जरूरी हो जाता है।” उन्होंने कहा, “नवाचार की जल्दी में हम उचित जांच-पड़ताल की उपेक्षा कर रहे हैं।”
मंत्री ने कहा - हमेशा सब कुछ बिना परेशानी के नहीं हो सकता
एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, जब संपर्क किया गया तो केसरकर ने उन्हें “छात्र-केंद्रित” बताया। इन्हीं के कार्यालय में खाली पन्ने, यूनिफॉर्म और मिठाई से जुड़े फैसले लिए गए थे। उन्होंने कहा, “फैसले लेने की प्रक्रिया में संबंधित हितधारकों से पूरी सलाह-मशविरा किया गया था। हो सकता है कि जमीनी स्तर पर इसे लागू करने में कुछ चुनौतियां आई हों। लेकिन उन्हें सुधारात्मक कदमों से हल किया जा सकता था, जिससे आने वाले वर्षों में इन फैसलों के फायदे दिख सकते थे।”
मौजूदा मंत्री भुसे ने कहा कि शिक्षा नीतियां सावधानीपूर्वक मूल्यांकन के बाद बनाई जाती हैं। उन्होंने कहा, “स्कूल शिक्षा विभाग द्वारा लिए गए सभी नीतिगत फैसले हमारे मुख्य हितधारकों - छात्रों, माता-पिता, शिक्षकों और स्कूलों - के सर्वोत्तम हित को ध्यान में रखकर किए जाते हैं। जब फीडबैक से बदलाव की जरूरत सामने आती है, तो उसे गंभीरता से लिया जाता है और लागू किया जाता है। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं कि मूल फैसले गलत थे।”
एक उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा, “सरकारी स्कूल के छात्रों को उच्च गुणवत्ता वाली यूनिफॉर्म देने की पहल सही उद्देश्य से शुरू की गई थी, लेकिन बड़े पैमाने पर इसे लागू करने में आने वाली चुनौतियों के कारण प्रक्रिया में बदलाव करना पड़ा।”
भुसे ने “सफल” निर्णयों की ओर इशारा करते हुए कहा, “राज्य बोर्ड की परीक्षाओं के दौरान ‘कॉपी-फ्री परीक्षा’ अभियान एक उदाहरण है। हो सकता है कि इसने गलत प्रथाओं को पूरी तरह खत्म न किया हो, लेकिन इसने जागरूकता बढ़ाकर इसे काफी हद तक कम किया। एक और उदाहरण है राज्य में कक्षा 11 के लिए केंद्रीकृत ऑनलाइन प्रवेश प्रक्रिया का विस्तार। हालांकि इसके पहले वर्ष में कुछ चुनौतियां आईं, जैसा कि उम्मीद की जाती है, लेकिन इस प्रक्रिया ने लाखों छात्रों को उनकी पसंद के कॉलेजों में दाखिला पाने के बराबर अवसर सुनिश्चित किए हैं।”
उन्होंने यह कहते हुए कि कोई भी फैसला सभी के लिए एकदम सही नहीं हो सकता। उन्होंने कहा, “मैं ग्रामीण पृष्ठभूमि से हूं, लेकिन शहरी हालात भी मुझे अच्छी तरह समझ में आते हैं। यह दोहरी समझ मुझे हमारे शिक्षा सिस्टम की विविध जरूरतों को समझने में मदद करती है। हमें यह मानना होगा कि हर चीज हमेशा बिना किसी दिक्कत के नहीं हो सकती- सार्वजनिक नीति में एक ऐसा समाधान नहीं होता जो सब पर फिट बैठे।”
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