वर्ष 2008 के मालेगांव धमाके के मामले में सभी सात आरोपी बरी हो गए, लेकिन वास्तविक कहानी सिर्फ बरी होने की नहीं है, बल्कि ये है कि कैसे एक विरोधी मुस्लिम आतंकवादी साजिश सामने आने के बावजूद भी न्याय से बच निकला।

Image: freepressjournal.in
मुंबई की एक विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) अदालत ने 31 जुलाई 2025 को साल 2008 मालेगांव विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। आरोपियों में शामिल थे:
● प्रज्ञा सिंह ठाकुर - भाजपा नेता, पूर्व सांसद और स्वयंभू साध्वी
● लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित - गिरफ्तारी के समय भारतीय सेना की खुफिया इकाई में कार्यरत अधिकारी
● मेजर (सेवानिवृत्त) रमेश उपाध्याय
● समीर कुलकर्णी
● सुधाकर चतुर्वेदी
● अजय राहिरकर
● सुधाकर धर द्विवेदी उर्फ दयानंद पांडे
न्यायाधीश ए.के. लाहोटी की अध्यक्षता वाली विशेष अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह मामला संदेह से परे सिद्ध करने में असफल रहा और आरोपियों को “संदेह का लाभ दिए जाने के योग्य” बताया।
मालेगांव विस्फोट: क्या हुआ था?
29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में एक मुस्लिम-बहुल व्यावसायिक क्षेत्र भिखू चौक में एक शक्तिशाली विस्फोट हुआ। यह बम एक एलएमएल फ्रीडम मोटरसाइकिल पर लगाया गया था, जिसकी नंबर प्लेट फर्जी थी। विस्फोट में छह लोगों की मौत हो गई और 100 से ज्यादा लोग घायल हुए थे।
प्रारंभिक जांच महाराष्ट्र एटीएस द्वारा की गई थी, जिसकी अगुवाई दिवंगत हेमंत करकरे ने की थी। जांच में आरडीएक्स और अमोनियम नाइट्रेट के इस्तेमाल की संभावना जताई गई। एटीएस ने जल्द ही मोटरसाइकिल का पता लगाया और यह प्रज्ञा सिंह ठाकुर से जुड़ा बताया, जिन्होंने शुरू में खुद की मोटरसाइकिल होने से इनकार किया।
एटीएस की 4,500 पन्नों की चार्जशीट में इस साजिश में शामिल थे:
● रायगढ़ किला, देवलाई, पुणे, भोपाल, इंदौर, फरीदाबाद, कोलकाता और नासिक में गुप्त बैठकें आयोजित की गईं।
● लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित द्वारा जम्मू-कश्मीर में तैनाती के दौरान सेना के भंडार से विस्फोटक सामग्री हासिल की गई।
● बम का निर्माण देवलाई स्थित सुधाकर चतुर्वेदी के घर में किया गया, जिसकी चाबियां मिलिट्री इंटेलिजेंस (सेना की खुफिया इकाई) के कार्यालय में रखी जाती थीं।
●अभिनव भारत नाम के संगठन के माध्यम से एक कट्टरपंथी योजना बनाई गई थी, जिसका उद्देश्य एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना था। आरोप था कि यह संगठन पुरोहित और अन्य आरोपियों द्वारा शुरू किया गया था।
मामला कैसे कमजोर पड़ा
2008 मालेगांव विस्फोट मामले की शुरुआती जांच महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) ने दिवंगत हेमंत करकरे के नेतृत्व में की थी। जनवरी 2009 में एटीएस ने अपनी पहली चार्जशीट दाखिल की, जिसमें 12 लोगों को आरोपी बनाया गया, जिनमें प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित शामिल थे। इन दोनों को विस्फोट के कुछ महीनों बाद गिरफ्तार किया गया था।
2011 में यह मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) को सौंपा गया, जिसने अंततः 13 मई 2016 को एक पूरक चार्जशीट दाखिल की।
महाराष्ट्र एटीएस की जांच में आरोप लगाया गया था कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित (जिन्हें एक कट्टरपंथी दक्षिणपंथी संगठन अभिनव भारत का संस्थापक बताया गया) और अन्य आरोपी एक बड़ी साजिश का हिस्सा थे, जिसका उद्देश्य “बदला लेना” और मुस्लिम समुदाय में डर पैदा करना था। एटीएस के अनुसार, इन आरोपियों ने भोपाल और इंदौर सहित कई शहरों में साजिश रचने के लिए हुई बैठकों में हिस्सा लिया था। जांच में यह भी दावा किया गया था कि विस्फोट में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल प्रज्ञा सिंह ठाकुर के नाम पर पंजीकृत थी और उन्होंने ही इसे हमले के लिए उपलब्ध कराया था।
साल 2009 में दाखिल अपनी चार्जशीट में एटीएस ने सभी आरोपियों के खिलाफ कई धाराओं के तहत मामला दर्ज किया था, जिनमें सख्त महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA) की धाराएं भी शामिल थीं।
हालांकि, जब 2011 में जांच एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) को सौंपी गई, तो मामला एक निर्णायक मोड़ पर आ गया। 2011 से 2016 के बीच एनआईए ने शुरुआत में प्रज्ञा सिंह ठाकुर को कोई राहत देने का विरोध किया था। लेकिन 2016 में दाखिल की गई पूरक चार्जशीट में एनआईए ने अपना रुख पूरी तरह बदल लिया। इस चार्जशीट में प्रज्ञा सिंह ठाकुर के खिलाफ सभी आरोप हटा दिए गए। जबकि अन्य आरोपियों के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धाराएं बरकरार रखी गईं, एनआईए ने कहा कि उसे ठाकुर के खिलाफ कोई विश्वसनीय सबूत नहीं मिला। इसके विपरीत, एनआईए ने आरोप लगाया कि एटीएस ने गवाहों पर दबाव डालकर ठाकुर के खिलाफ बयान दिलवाए थे। एजेंसी ने यह भी सिफारिश की कि सभी 12 आरोपियों के खिलाफ MCOCA की धाराएं हटा दी जाएं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि एनआईए ने 2016 में जो पूरक चार्जशीट दाखिल की, वह नियुक्त विशेष सरकारी वकील अविनाश रसल को बिना सूचित किए दाखिल की गई थी। इसने प्रक्रियात्मक पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए।
हालांकि एनआईए ने प्रज्ञा सिंह ठाकुर को आरोपमुक्त कर दिया था, लेकिन विशेष एनआईए अदालत ने उन्हें आरोपमुक्त करने से इनकार कर दिया। अदालत ने कहा कि एटीएस द्वारा पहले प्रस्तुत किए गए आरोप साबित करने वाले साक्ष्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
शुरुआती जांच में भले ही कुछ सफलताएं मिली थीं, लेकिन धीरे-धीरे यह मामला कमजोर होता चला गया। अदालत के फैसले में कई तकनीकी और साक्ष्यगत कमियों का उल्लेख है, लेकिन इसकी जड़ें बहुत गहरी थी।
(एटीएस चार्जशीट की विस्तृत प्रति यहां पढ़ी जा सकती है।)
1. फोरेंसिक विफलताएं और “विकृत” साक्ष्य
● विस्फोट स्थल से कोई फिंगरप्रिंट या डीएनए साक्ष्य नहीं मिले।
● मोटरसाइकिल के चेसिस और इंजन नंबर नष्ट कर दिए गए थे, जिन्हें प्रज्ञा सिंह ठाकुर से जोड़ा नहीं जा सका।
● अदालत ने पाया कि फोरेंसिक नमूने विकृत थे, जिससे वे अविश्वसनीय हो गए।
2. अस्वीकृत इंटरसेप्ट और दोषपूर्ण अनुमति
● आरोपियों के फोन टैप कानूनी अनुमति के अभाव में अदालत में स्वीकार्य नहीं किए गए।
● अदालत ने पाया कि गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव द्वारा हस्ताक्षरित दो UAPA मंजूरियां प्रक्रियात्मक रूप से दोषपूर्ण थीं।
● महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA), जिसे शुरू में एटीएस ने एक संगठित अपराध सिंडिकेट स्थापित करने के लिए लागू किया था, बाद में एनआईए ने 2016 की चार्जशीट में हटा दिया।
गायब होते साक्ष्य: खोए हुए कागजात, खोया हुआ इंसाफ
इस मामले के सबसे काले अध्यायों में से एक है महत्वपूर्ण साक्ष्यों का गायब हो जाना:
● मुंबई मिरर की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 तक कम से कम 13 गवाहों और 2 आरोपियों के कबूलनामे, जो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 और MCOCA के अंतर्गत दर्ज किए गए थे, अदालत के रिकॉर्ड से गायब हो गए थे।
● इन बयानों में वे विवरण शामिल थे जिनमें प्रज्ञा सिंह ठाकुर और फरार आरोपी रामजी कलसांगरा के बीच मालेगांव विस्फोट की साजिश पर हुई चर्चाओं का जिक्र था।
● जब मूल दस्तावेज लगातार अदालत से अदालत भेजे जाने के बावजूद भी नहीं मिल पाए, तो विशेष अदालत ने बचाव पक्ष के विरोध के बावजूद फोटोकॉपी के आधार पर ही उन्हें स्वीकार करने की अनुमति दी।
स्थिति और जटिल तब हो गई जब एनआईए द्वारा दिल्ली में दर्ज किए गए नए बयानों ने पहले के बयानों का सीधा खंडन कर दिया, जिससे आरोपियों को बरी करने की जमीन तैयार हो गई।
गवाहों का पलटना: अब तक 39 गवाह पलट गए
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, कुल 323 गवाहों में से करीब 39 गवाह मुकदमे के दौरान अपने बयानों से पलट गए, जिनमें सेवा में कार्यरत सेना अधिकारी और अन्य महत्वपूर्ण अभियोजन पक्ष के गवाह शामिल थे। इनमें से कई गवाहों ने पहले पुष्टि की थी :
● योजनाओं की बैठक में उपस्थिति
● “हिंदू राष्ट्र” की वैचारिक कट्टरता
● पुरोहित और ठाकुर की अभिनव भारत में भूमिका
फिर भी, शपथ के तहत गवाही देते समय, उन्होंने अपने पहले दिए गए बयानों से पलटी मार ली।
अन्य 30 गवाहों की मृत्यु हो गई, इससे पहले कि वे गवाही दे पाते।
सबसे चिंताजनक बात यह रही कि न तो किसी गवाह के खिलाफ झूठी गवाही (perjury) के लिए अभियोजन की पहल की गई, और न ही अदालत ने गवाहों के बड़े पैमाने पर पलटने की इस सुनियोजित प्रवृत्ति पर कोई गंभीर सवाल उठाया।
राजनीतिक माहौल और अभियोजन की उदासीनता
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, 2014 के बाद अभियोजन पक्ष का रूख बदल गया, जिसकी पुष्टि शुरुआती विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियान ने सार्वजनिक रूप से की।
2015 में, सालियान ने खुलासा किया कि एनआईए अधिकारियों ने उन्हें आरोपियों के प्रति "नरम रुख" अपनाने का निर्देश दिया था। जब उन्होंने इनकार किया, तो उन्हें अलग कर दिया गया और उनकी जगह किसी और को नियुक्त कर दिया गया। उन्होंने बताया:
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, "एनआईए के एक वरिष्ठ अधिकारी आए और कहा कि उच्च अधिकारियों से निर्देश मिले हैं। आपकी जगह कोई और पेश होगा।"
सालियन की जगह आए अविनाश रसल ने बाकी मुकदमे की अगुवाई की। एनआईए की 2016 की पूरक चार्जशीट ने एटीएस के मामले को कमजोर कर दिया, मकोका हटा दिया और एटीएस की हिरासत में लिए गए बयानों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए -अक्सर कथित यातना के आधार पर।
आरोपियों ने दावा किया कि उनसे जबरन बयान लिए गए थे। एनआईए भी इससे सहमत दिखी - लेकिन एटीएस पर हिरासत में दुर्व्यवहार का औपचारिक मुकदमा नहीं चलाया।
अभिनव भारत - भुला दी गई साजिश
एटीएस ने एक मजबूत मामला तैयार किया था कि अभिनव भारत एक कट्टर हिंदुत्ववादी संगठन था जो संगठित हिंसा की साजिश रच रहा था।
● सबसंगइंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, स्वामी दयानंद पांडेय द्वारा रिकॉर्ड किए गए कई बैठक ट्रांसक्रिप्ट्स में एक समानांतर राज्य संरचना के लिए विस्तृत योजनाएं दिखीं, जिसमें अपना ध्वज, संविधान और सेना शामिल थे।
● आरोपी मुसलमानों द्वारा किए गए आतंकवादी कृत्यों के बदले की चर्चा करते थे और जबरदस्ती “हिंदू राष्ट्र” बनाने के लिए खुद को सशस्त्र रूप से तैयार कर रहे थे।
● नासिक में स्थित भोंसला मिलिट्री स्कूल जिसका इस्तेमाल कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए किया जाता था- जांच से बच गया।
● वरिष्ठ सेना अधिकारी, जिन्होंने बैठकों की सुविधा की या विस्फोटकों तक पहुxच दी, उन्हें आरोपी नहीं बल्कि गवाह के रूप में सूचीबद्ध किया गया।
इसके बावजूद, अदालत ने माना कि इस समूह की संरचना साबित नहीं की जा सकी, इसलिए साज़िश स्थापित नहीं हो सकी।
एक बड़ा नेटवर्क, जिसकी कभी जांच नहीं हुई
मालेगांव मामला एक अलग घटना नहीं थी। इसके कथित संबंध थे:
● समझौता एक्सप्रेस धमाके (2007)
● अजमेर शरीफ दरगाह धमाका (2007)
● हैदराबाद में मक्का मस्जिद धमाका (2007)
● नांदेड और परभणी मस्जिद धमाके (2003–2006)
एटीएस ने शुरू में तर्क दिया था कि इन्हें एक बड़े हिंदुत्ववादी आतंकवादी नेटवर्क का हिस्सा माना जाना चाहिए, जिसमें साझा विचारधारा, फंडिंग और कर्मी शामिल हैं। यह सिद्धांत 2011 में जब एनआईए ने मामले को संभाला, तो खामोशी खारिज कर दिया गया।
(विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।)
पीड़ितों के लिए न्याय का मतलब
मालेगांव के अधिकांश पीड़ित गरीब मुस्लिम दिहाड़ी मजदूर थे। उनके परिवारों ने न्याय के लिए 17 साल इंतजार किया।
● उनकी परेशानियों के लिए कोई मुआवजा का ऐलान नहीं किया गया है।
● जांच एजेंसियों की केस निपटाने में हुई लापरवाही के लिए कोई जवाबदेही तय नहीं की गई है।
● हिरासत में टॉर्चर या गलत प्रक्रियाओं के लिए किसी भी पुलिस अधिकारी की जांच नहीं हुई है।
इसी बीच, आरोपी अपनी जिंदगी आगे बढ़ा चुके हैं:
● प्रज्ञा ठाकुर उस समय संसद की सदस्य थीं।
● लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित को सेना में बहाल कर दिया गया।
● अन्य आरोपी सार्वजनिक जीवन में लौट आए हैं, जिनमें से कुछ को हिंदू संगठनों द्वारा सार्वजनिक रूप से सम्मानित भी किया गया। इसे सबरंग इंडिया ने प्रकाशित किया है।
विशेष रूप से, न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि धमाके के छह पीड़ितों के परिवारों को प्रत्येक को 2 लाख रुपये दिए जाएंगे और सभी घायल पीड़ितों को 50,000 रुपये मुआवजे के रूप में दिए जाएंगे।
बरी होने की असली कीमत
जज लाहोटी की यह टिप्पणी कि “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता क्योंकि कोई धर्म हिंसा की वकालत नहीं करता… फैसले नैतिकता और सार्वजनिक धारणा पर आधारित नहीं हो सकते” कानूनी तौर पर सही है। लेकिन यह मामला केवल कानूनी मानदंडों तक सीमित नहीं था।
यह मामला है:
● गायब हो रहे दस्तावेज
● पलटी हुई गवाही
● राजनीतिक हस्तक्षेप
● संस्थागत बाधा
● और एक न्याय व्यवस्था जो धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से ध्यान देना बंद कर गई।
बरी होना आखिरी हो सकता है, लेकिन यह बेदाग़ होना नहीं है। यह एक राजनीतिक जख्म का कानूनी समापन है, न कि तथ्यात्मक समाधान।
निष्कर्ष: फैसला नहीं, बल्कि एक चेतावनी
मालेगांव धमाके का मुकदमा कभी केवल एक बम धमाके तक सीमित नहीं था। यह हमारे संस्थानों की सत्यनिष्ठता, धर्मनिरपेक्षता की अनिवार्यता और आतंकवाद के मामलों में राज्य की निष्पक्षता बनाए रखने के कर्तव्य के बारे में था।
31 जुलाई, 2025 का फैसला इस मामले का एक अंत हो सकता है। लेकिन यह भारतीय गणराज्य के लिए एक खुला सवाल भी है: जब सबूत गायब हो जाते हैं, गवाह पीछे हट जाते हैं, अभियोजक चुप हो जाते हैं और विचारधारा जांच में घुसपैठ कर लेती है तो क्या हम इसे अभी भी न्याय कह सकते हैं?
Related

Image: freepressjournal.in
मुंबई की एक विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) अदालत ने 31 जुलाई 2025 को साल 2008 मालेगांव विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। आरोपियों में शामिल थे:
● प्रज्ञा सिंह ठाकुर - भाजपा नेता, पूर्व सांसद और स्वयंभू साध्वी
● लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित - गिरफ्तारी के समय भारतीय सेना की खुफिया इकाई में कार्यरत अधिकारी
● मेजर (सेवानिवृत्त) रमेश उपाध्याय
● समीर कुलकर्णी
● सुधाकर चतुर्वेदी
● अजय राहिरकर
● सुधाकर धर द्विवेदी उर्फ दयानंद पांडे
न्यायाधीश ए.के. लाहोटी की अध्यक्षता वाली विशेष अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह मामला संदेह से परे सिद्ध करने में असफल रहा और आरोपियों को “संदेह का लाभ दिए जाने के योग्य” बताया।
मालेगांव विस्फोट: क्या हुआ था?
29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में एक मुस्लिम-बहुल व्यावसायिक क्षेत्र भिखू चौक में एक शक्तिशाली विस्फोट हुआ। यह बम एक एलएमएल फ्रीडम मोटरसाइकिल पर लगाया गया था, जिसकी नंबर प्लेट फर्जी थी। विस्फोट में छह लोगों की मौत हो गई और 100 से ज्यादा लोग घायल हुए थे।
प्रारंभिक जांच महाराष्ट्र एटीएस द्वारा की गई थी, जिसकी अगुवाई दिवंगत हेमंत करकरे ने की थी। जांच में आरडीएक्स और अमोनियम नाइट्रेट के इस्तेमाल की संभावना जताई गई। एटीएस ने जल्द ही मोटरसाइकिल का पता लगाया और यह प्रज्ञा सिंह ठाकुर से जुड़ा बताया, जिन्होंने शुरू में खुद की मोटरसाइकिल होने से इनकार किया।
एटीएस की 4,500 पन्नों की चार्जशीट में इस साजिश में शामिल थे:
● रायगढ़ किला, देवलाई, पुणे, भोपाल, इंदौर, फरीदाबाद, कोलकाता और नासिक में गुप्त बैठकें आयोजित की गईं।
● लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित द्वारा जम्मू-कश्मीर में तैनाती के दौरान सेना के भंडार से विस्फोटक सामग्री हासिल की गई।
● बम का निर्माण देवलाई स्थित सुधाकर चतुर्वेदी के घर में किया गया, जिसकी चाबियां मिलिट्री इंटेलिजेंस (सेना की खुफिया इकाई) के कार्यालय में रखी जाती थीं।
●अभिनव भारत नाम के संगठन के माध्यम से एक कट्टरपंथी योजना बनाई गई थी, जिसका उद्देश्य एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना था। आरोप था कि यह संगठन पुरोहित और अन्य आरोपियों द्वारा शुरू किया गया था।
मामला कैसे कमजोर पड़ा
2008 मालेगांव विस्फोट मामले की शुरुआती जांच महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) ने दिवंगत हेमंत करकरे के नेतृत्व में की थी। जनवरी 2009 में एटीएस ने अपनी पहली चार्जशीट दाखिल की, जिसमें 12 लोगों को आरोपी बनाया गया, जिनमें प्रज्ञा सिंह ठाकुर और लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित शामिल थे। इन दोनों को विस्फोट के कुछ महीनों बाद गिरफ्तार किया गया था।
2011 में यह मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) को सौंपा गया, जिसने अंततः 13 मई 2016 को एक पूरक चार्जशीट दाखिल की।
महाराष्ट्र एटीएस की जांच में आरोप लगाया गया था कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित (जिन्हें एक कट्टरपंथी दक्षिणपंथी संगठन अभिनव भारत का संस्थापक बताया गया) और अन्य आरोपी एक बड़ी साजिश का हिस्सा थे, जिसका उद्देश्य “बदला लेना” और मुस्लिम समुदाय में डर पैदा करना था। एटीएस के अनुसार, इन आरोपियों ने भोपाल और इंदौर सहित कई शहरों में साजिश रचने के लिए हुई बैठकों में हिस्सा लिया था। जांच में यह भी दावा किया गया था कि विस्फोट में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल प्रज्ञा सिंह ठाकुर के नाम पर पंजीकृत थी और उन्होंने ही इसे हमले के लिए उपलब्ध कराया था।
साल 2009 में दाखिल अपनी चार्जशीट में एटीएस ने सभी आरोपियों के खिलाफ कई धाराओं के तहत मामला दर्ज किया था, जिनमें सख्त महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA) की धाराएं भी शामिल थीं।
हालांकि, जब 2011 में जांच एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी) को सौंपी गई, तो मामला एक निर्णायक मोड़ पर आ गया। 2011 से 2016 के बीच एनआईए ने शुरुआत में प्रज्ञा सिंह ठाकुर को कोई राहत देने का विरोध किया था। लेकिन 2016 में दाखिल की गई पूरक चार्जशीट में एनआईए ने अपना रुख पूरी तरह बदल लिया। इस चार्जशीट में प्रज्ञा सिंह ठाकुर के खिलाफ सभी आरोप हटा दिए गए। जबकि अन्य आरोपियों के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धाराएं बरकरार रखी गईं, एनआईए ने कहा कि उसे ठाकुर के खिलाफ कोई विश्वसनीय सबूत नहीं मिला। इसके विपरीत, एनआईए ने आरोप लगाया कि एटीएस ने गवाहों पर दबाव डालकर ठाकुर के खिलाफ बयान दिलवाए थे। एजेंसी ने यह भी सिफारिश की कि सभी 12 आरोपियों के खिलाफ MCOCA की धाराएं हटा दी जाएं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि एनआईए ने 2016 में जो पूरक चार्जशीट दाखिल की, वह नियुक्त विशेष सरकारी वकील अविनाश रसल को बिना सूचित किए दाखिल की गई थी। इसने प्रक्रियात्मक पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए।
हालांकि एनआईए ने प्रज्ञा सिंह ठाकुर को आरोपमुक्त कर दिया था, लेकिन विशेष एनआईए अदालत ने उन्हें आरोपमुक्त करने से इनकार कर दिया। अदालत ने कहा कि एटीएस द्वारा पहले प्रस्तुत किए गए आरोप साबित करने वाले साक्ष्यों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
शुरुआती जांच में भले ही कुछ सफलताएं मिली थीं, लेकिन धीरे-धीरे यह मामला कमजोर होता चला गया। अदालत के फैसले में कई तकनीकी और साक्ष्यगत कमियों का उल्लेख है, लेकिन इसकी जड़ें बहुत गहरी थी।
(एटीएस चार्जशीट की विस्तृत प्रति यहां पढ़ी जा सकती है।)
1. फोरेंसिक विफलताएं और “विकृत” साक्ष्य
● विस्फोट स्थल से कोई फिंगरप्रिंट या डीएनए साक्ष्य नहीं मिले।
● मोटरसाइकिल के चेसिस और इंजन नंबर नष्ट कर दिए गए थे, जिन्हें प्रज्ञा सिंह ठाकुर से जोड़ा नहीं जा सका।
● अदालत ने पाया कि फोरेंसिक नमूने विकृत थे, जिससे वे अविश्वसनीय हो गए।
2. अस्वीकृत इंटरसेप्ट और दोषपूर्ण अनुमति
● आरोपियों के फोन टैप कानूनी अनुमति के अभाव में अदालत में स्वीकार्य नहीं किए गए।
● अदालत ने पाया कि गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव द्वारा हस्ताक्षरित दो UAPA मंजूरियां प्रक्रियात्मक रूप से दोषपूर्ण थीं।
● महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (MCOCA), जिसे शुरू में एटीएस ने एक संगठित अपराध सिंडिकेट स्थापित करने के लिए लागू किया था, बाद में एनआईए ने 2016 की चार्जशीट में हटा दिया।
गायब होते साक्ष्य: खोए हुए कागजात, खोया हुआ इंसाफ
इस मामले के सबसे काले अध्यायों में से एक है महत्वपूर्ण साक्ष्यों का गायब हो जाना:
● मुंबई मिरर की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 तक कम से कम 13 गवाहों और 2 आरोपियों के कबूलनामे, जो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 और MCOCA के अंतर्गत दर्ज किए गए थे, अदालत के रिकॉर्ड से गायब हो गए थे।
● इन बयानों में वे विवरण शामिल थे जिनमें प्रज्ञा सिंह ठाकुर और फरार आरोपी रामजी कलसांगरा के बीच मालेगांव विस्फोट की साजिश पर हुई चर्चाओं का जिक्र था।
● जब मूल दस्तावेज लगातार अदालत से अदालत भेजे जाने के बावजूद भी नहीं मिल पाए, तो विशेष अदालत ने बचाव पक्ष के विरोध के बावजूद फोटोकॉपी के आधार पर ही उन्हें स्वीकार करने की अनुमति दी।
स्थिति और जटिल तब हो गई जब एनआईए द्वारा दिल्ली में दर्ज किए गए नए बयानों ने पहले के बयानों का सीधा खंडन कर दिया, जिससे आरोपियों को बरी करने की जमीन तैयार हो गई।
गवाहों का पलटना: अब तक 39 गवाह पलट गए
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, कुल 323 गवाहों में से करीब 39 गवाह मुकदमे के दौरान अपने बयानों से पलट गए, जिनमें सेवा में कार्यरत सेना अधिकारी और अन्य महत्वपूर्ण अभियोजन पक्ष के गवाह शामिल थे। इनमें से कई गवाहों ने पहले पुष्टि की थी :
● योजनाओं की बैठक में उपस्थिति
● “हिंदू राष्ट्र” की वैचारिक कट्टरता
● पुरोहित और ठाकुर की अभिनव भारत में भूमिका
फिर भी, शपथ के तहत गवाही देते समय, उन्होंने अपने पहले दिए गए बयानों से पलटी मार ली।
अन्य 30 गवाहों की मृत्यु हो गई, इससे पहले कि वे गवाही दे पाते।
सबसे चिंताजनक बात यह रही कि न तो किसी गवाह के खिलाफ झूठी गवाही (perjury) के लिए अभियोजन की पहल की गई, और न ही अदालत ने गवाहों के बड़े पैमाने पर पलटने की इस सुनियोजित प्रवृत्ति पर कोई गंभीर सवाल उठाया।
राजनीतिक माहौल और अभियोजन की उदासीनता
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, 2014 के बाद अभियोजन पक्ष का रूख बदल गया, जिसकी पुष्टि शुरुआती विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियान ने सार्वजनिक रूप से की।
2015 में, सालियान ने खुलासा किया कि एनआईए अधिकारियों ने उन्हें आरोपियों के प्रति "नरम रुख" अपनाने का निर्देश दिया था। जब उन्होंने इनकार किया, तो उन्हें अलग कर दिया गया और उनकी जगह किसी और को नियुक्त कर दिया गया। उन्होंने बताया:
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, "एनआईए के एक वरिष्ठ अधिकारी आए और कहा कि उच्च अधिकारियों से निर्देश मिले हैं। आपकी जगह कोई और पेश होगा।"
सालियन की जगह आए अविनाश रसल ने बाकी मुकदमे की अगुवाई की। एनआईए की 2016 की पूरक चार्जशीट ने एटीएस के मामले को कमजोर कर दिया, मकोका हटा दिया और एटीएस की हिरासत में लिए गए बयानों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए -अक्सर कथित यातना के आधार पर।
आरोपियों ने दावा किया कि उनसे जबरन बयान लिए गए थे। एनआईए भी इससे सहमत दिखी - लेकिन एटीएस पर हिरासत में दुर्व्यवहार का औपचारिक मुकदमा नहीं चलाया।
अभिनव भारत - भुला दी गई साजिश
एटीएस ने एक मजबूत मामला तैयार किया था कि अभिनव भारत एक कट्टर हिंदुत्ववादी संगठन था जो संगठित हिंसा की साजिश रच रहा था।
● सबसंगइंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, स्वामी दयानंद पांडेय द्वारा रिकॉर्ड किए गए कई बैठक ट्रांसक्रिप्ट्स में एक समानांतर राज्य संरचना के लिए विस्तृत योजनाएं दिखीं, जिसमें अपना ध्वज, संविधान और सेना शामिल थे।
● आरोपी मुसलमानों द्वारा किए गए आतंकवादी कृत्यों के बदले की चर्चा करते थे और जबरदस्ती “हिंदू राष्ट्र” बनाने के लिए खुद को सशस्त्र रूप से तैयार कर रहे थे।
● नासिक में स्थित भोंसला मिलिट्री स्कूल जिसका इस्तेमाल कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए किया जाता था- जांच से बच गया।
● वरिष्ठ सेना अधिकारी, जिन्होंने बैठकों की सुविधा की या विस्फोटकों तक पहुxच दी, उन्हें आरोपी नहीं बल्कि गवाह के रूप में सूचीबद्ध किया गया।
इसके बावजूद, अदालत ने माना कि इस समूह की संरचना साबित नहीं की जा सकी, इसलिए साज़िश स्थापित नहीं हो सकी।
एक बड़ा नेटवर्क, जिसकी कभी जांच नहीं हुई
मालेगांव मामला एक अलग घटना नहीं थी। इसके कथित संबंध थे:
● समझौता एक्सप्रेस धमाके (2007)
● अजमेर शरीफ दरगाह धमाका (2007)
● हैदराबाद में मक्का मस्जिद धमाका (2007)
● नांदेड और परभणी मस्जिद धमाके (2003–2006)
एटीएस ने शुरू में तर्क दिया था कि इन्हें एक बड़े हिंदुत्ववादी आतंकवादी नेटवर्क का हिस्सा माना जाना चाहिए, जिसमें साझा विचारधारा, फंडिंग और कर्मी शामिल हैं। यह सिद्धांत 2011 में जब एनआईए ने मामले को संभाला, तो खामोशी खारिज कर दिया गया।
(विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।)
पीड़ितों के लिए न्याय का मतलब
मालेगांव के अधिकांश पीड़ित गरीब मुस्लिम दिहाड़ी मजदूर थे। उनके परिवारों ने न्याय के लिए 17 साल इंतजार किया।
● उनकी परेशानियों के लिए कोई मुआवजा का ऐलान नहीं किया गया है।
● जांच एजेंसियों की केस निपटाने में हुई लापरवाही के लिए कोई जवाबदेही तय नहीं की गई है।
● हिरासत में टॉर्चर या गलत प्रक्रियाओं के लिए किसी भी पुलिस अधिकारी की जांच नहीं हुई है।
इसी बीच, आरोपी अपनी जिंदगी आगे बढ़ा चुके हैं:
● प्रज्ञा ठाकुर उस समय संसद की सदस्य थीं।
● लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित को सेना में बहाल कर दिया गया।
● अन्य आरोपी सार्वजनिक जीवन में लौट आए हैं, जिनमें से कुछ को हिंदू संगठनों द्वारा सार्वजनिक रूप से सम्मानित भी किया गया। इसे सबरंग इंडिया ने प्रकाशित किया है।
विशेष रूप से, न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि धमाके के छह पीड़ितों के परिवारों को प्रत्येक को 2 लाख रुपये दिए जाएंगे और सभी घायल पीड़ितों को 50,000 रुपये मुआवजे के रूप में दिए जाएंगे।
बरी होने की असली कीमत
जज लाहोटी की यह टिप्पणी कि “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता क्योंकि कोई धर्म हिंसा की वकालत नहीं करता… फैसले नैतिकता और सार्वजनिक धारणा पर आधारित नहीं हो सकते” कानूनी तौर पर सही है। लेकिन यह मामला केवल कानूनी मानदंडों तक सीमित नहीं था।
यह मामला है:
● गायब हो रहे दस्तावेज
● पलटी हुई गवाही
● राजनीतिक हस्तक्षेप
● संस्थागत बाधा
● और एक न्याय व्यवस्था जो धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से ध्यान देना बंद कर गई।
बरी होना आखिरी हो सकता है, लेकिन यह बेदाग़ होना नहीं है। यह एक राजनीतिक जख्म का कानूनी समापन है, न कि तथ्यात्मक समाधान।
निष्कर्ष: फैसला नहीं, बल्कि एक चेतावनी
मालेगांव धमाके का मुकदमा कभी केवल एक बम धमाके तक सीमित नहीं था। यह हमारे संस्थानों की सत्यनिष्ठता, धर्मनिरपेक्षता की अनिवार्यता और आतंकवाद के मामलों में राज्य की निष्पक्षता बनाए रखने के कर्तव्य के बारे में था।
31 जुलाई, 2025 का फैसला इस मामले का एक अंत हो सकता है। लेकिन यह भारतीय गणराज्य के लिए एक खुला सवाल भी है: जब सबूत गायब हो जाते हैं, गवाह पीछे हट जाते हैं, अभियोजक चुप हो जाते हैं और विचारधारा जांच में घुसपैठ कर लेती है तो क्या हम इसे अभी भी न्याय कह सकते हैं?
Related
विरोध में इस्तीफा: मध्य प्रदेश की महिला न्यायाधीश ने भेदभाव और उत्पीड़न के आरोपी वरिष्ठ की पदोन्नति पर दिया इस्तीफा
कथित हिंदुत्ववादी भीड़ के दबाव में दो नन गिरफ्तार: सहमति पत्र और धर्मांतरण के कोई सबूत न होते हुए भी भेजा गया जेल
यूपी: दलित प्रेमी के साथ भागी नाबालिग लड़की की पिता और चाचा ने की गला घोंटकर हत्या, 6 आरोपी गिरफ्तार