न कमजोर हैं, न मौन हैं: भाजपा सांसद दुबे की टिप्पणी पर सुप्रीम कोर्ट ने सजा के बजाय सिद्धांत को चुना और संवैधानिक संतुलन की अपनी भूमिका को फिर से स्पष्ट किया

Written by sabrang india | Published on: May 10, 2025
न्यायालय ने अपनी शक्ति और जवाबदेही को रेखांकित किया और उसने सांप्रदायिक उकसावे की बढ़ती घटनाओं पर गंभीर चिंता जताते हुए चेतावनी दी है।



5 मई, 2025 को दिए गए एक अहम फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद निशिकांत दुबे को भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय की संस्था के खिलाफ उनकी भड़काऊ और अपमानजनक टिप्पणियों को लेकर कड़ी फटकार लगाई। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने उनके बयानों को “बेहद गैरजिम्मेदाराना” और ध्यान खींचने वाला बताया जो न केवल संवैधानिक कार्यप्रणाली की अज्ञानता को दर्शाता है बल्कि न्यायपालिका को बदनाम करने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास भी है।

"हमारी राय में, ये टिप्पणियाे बेहद गैर-जिम्मेदाराना थीं और भारत के सर्वोच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को बदनाम कर ध्यान खींचने की प्रवृत्ति को दर्शाती हैं। इसके अलावा, ये बयान संवैधानिक न्यायालयों की भूमिका और संविधान के तहत उन्हें दिए गए कर्तव्यों और दायित्वों के बारे में अज्ञानता दिखाते हैं।" (पैरा 5)

ये टिप्पणियां अधिवक्ता विशाल तिवारी द्वारा संविधान के अनुच्छेद 129 के साथ अनुच्छेद 32 के तहत दायर एक रिट याचिका के जवाब में आईं। याचिका में न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने के लिए दुबे के खिलाफ स्वतः संज्ञान लेकर आपराधिक अवमानना कार्यवाही शुरू करने की मांग की गई है, साथ ही गृह मंत्रालय को वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 से संबंधित भड़काऊ भाषण देने वाले नेताओं के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत एफआईआर दर्ज करने के निर्देश देने की भी मांग की गई है।

हालांकि न्यायालय ने नोटिस जारी करने या अवमानना कार्यवाही शुरू करने से परहेज किया लेकिन इसने एक सशक्त और अहम आदेश दिया, जिसमें न्यायपालिका की भूमिका और संवैधानिक जनादेश पर दृढ़ता से जोर दिया गया और साथ ही कड़े शब्दों में अभद्र भाषा की निंदा की गई।

न्यायालय ने कहा कि दुबे की टिप्पणी का उद्देश्य बदनाम करना था

न्यायालय ने दुबे की सार्वजनिक टिप्पणियों के कंटेंट की जांच की जिसमें उन्होंने मुख्य न्यायाधीश खन्ना पर “भारत में हो रहे सभी गृहयुद्धों के लिए जिम्मेदार” होने का आरोप लगाया और दावा किया कि “देश में धार्मिक युद्धों को भड़काने के लिए केवल और केवल सर्वोच्च न्यायालय ही जिम्मेदार है।” पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि इस तरह के बयान "भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार को बदनाम करने और कम करने की प्रवृत्ति रखते हैं" और न्याय प्रशासन को बाधित करने की मंशा प्रदर्शित करते हैं।

"हमने प्रतिवादी संख्या 4 द्वारा किए गए दावों की विषय-वस्तु की जांच की है जो निस्संदेह भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार को बदनाम करने और कम करने की प्रवृत्ति रखते हैं यदि इस न्यायालय के समक्ष लंबित न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं करते हैं या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखते हैं और न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करने और बाधा डालने की प्रवृत्ति रखते हैं।" (पैरा 4)

न्यायालय ने कहा कि ये बयान सर्वोच्च न्यायालय की मौजूदा पीठ पर सीधे तौर पर आरोप लगाने के समान हैं। इसने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 3 और 4 के तहत वैधानिक छूट जो निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग या निर्दोष प्रकाशन से संबंधित हैं, इस मामले में प्रथम दृष्टया लागू नहीं होती हैं। इसने जोर देकर कहा, "भारत में कोई गृहयुद्ध नहीं है।"

"इन बयानों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि बेंच के इरादे पर आरोप लगाने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश को "भारत में हो रहे सभी गृहयुद्धों के लिए जिम्मेदार" बताया गया है और "इस देश में धार्मिक युद्धों को भड़काने के लिए केवल और केवल सर्वोच्च न्यायालय ही जिम्मेदार है"। अधिनियम की धारा 3 और 4 में अपवादों को शामिल किया गया है जो प्रथम दृष्टया लागू नहीं होते हैं। भारत में कोई 'गृहयुद्ध' नहीं है।" (पैरा 4)

इसके बावजूद, न्यायालय ने यह देखते हुए अवमानना कार्यवाही शुरू नहीं करने का फैसला किया कि न्यायिक शक्ति का प्रयोग विवेक और संयम के साथ किया जाना चाहिए।

"इसलिए, हम कोई भी कार्रवाई करने से बचते हैं। इन रे एस. मुलगावकर,3 में इस न्यायालय ने कहा कि न्यायपालिका आलोचना से मुक्त नहीं है, लेकिन जब आलोचना एक स्पष्ट विकृति या बेहद गलत बयान है, जो न्यायपालिका के सम्मान को कम करने और जनता के विश्वास को नष्ट करने के लिए तैयार किए गए तरीके से की जाती है, तो इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि न्यायालय के पास अवमानना की कार्यवाही शुरू करने की शक्ति है, लेकिन इसका इस्तेमाल पूरी तरह न्यायिक विवेक पर निर्भर होता है। यह कोई स्वचालित प्रक्रिया नहीं, बल्कि विशेष परिस्थितियों में उठाया गया विवेकाधीन कदम होता है।" (पैरा 6)

'इन रे: एस. मुलगावकर [(1978) 3 एससीसी 339]’ की ऐतिहासिक मिसाल का हवाला देते हुए न्यायालय ने स्वीकार किया कि चूंकि न्यायपालिका आलोचना से मुक्त नहीं है, ऐसे में अवमानना शक्तियों का प्रयोग न्यायिक विवेक का मामला है, मजबूरी का नहीं।

“…हमारा दृढ़ मत है कि न्यायालय फूलों की तरह नाजुक नहीं हैं जो इस तरह के हास्यास्पद बयानों के सामने मुरझा जाएं। हम नहीं मानते कि इस तरह के बेतुके बयानों से जनता की नजरों में न्यायालयों के प्रति विश्वास और विश्वसनीयता डगमगा सकती है, हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा करने की इच्छा और एक सुनियोजित प्रयास स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।” (पैरा 5)

न्यायपालिका संवैधानिक मूल्यों से ताकत हासिल करती है, न कि बलपूर्वक शक्ति से

अवमानना शक्तियों का इस्तेमाल न करने के अपने फैसले का बचाव करते हुए न्यायालय ने संवैधानिक लोकतंत्र में न्यायालयों की भूमिका की पुष्टि की। इसने जोर देकर कहा कि न्यायाधीश मूल्यों से निर्देशित होते हैं, अहंकार से नहीं और पारदर्शिता, खुली कार्यवाही और तर्कपूर्ण निर्णयों से वैधता प्राप्त करते हैं, बल से नहीं।

“न्यायाधीश विवेकशील होते हैं, उनकी वीरता अहिंसक होती है और जब मूल्यों की बौछार होती है, तो उनका ज्ञान काम आता है, जिनमें से सबसे कम व्यक्तिगत सुरक्षा है।” (पैरा 6)

न्यायालय ने रेखांकित किया कि संस्थाएं आलोचना के दमन के जरिए नहीं, बल्कि तर्कसंगत निर्णयों, पारदर्शिता और सार्वजनिक विश्वास के जरिए जवाबदेह होती हैं। इसने कहा कि निर्णय खुली अदालत में किए जाते हैं, जो जांच, अपील, समीक्षा और यहां तक कि उपचारात्मक अधिकार क्षेत्र के अधीन होते हैं, जो सभी तंत्र हैं जो एक लोकतांत्रिक समाज में जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं।

“निस्संदेह, न्यायालयों और न्यायाधीशों के कंधे इतने व्यापक हैं कि वे आलोचना का बोझ सह सकें, और उन्हें इस बात पर भरोसा है कि जनता यह पहचानने में सक्षम है कि कब कोई आलोचना पक्षपातपूर्ण, अपमानजनक या दुर्भावनापूर्ण इरादों से की गई है।” (पैरा 6)

न्यायिक समीक्षा न्यायिक सक्रियता नहीं बल्कि एक संवैधानिक जनादेश है

न्यायिक समीक्षा को निशाना बनाने वाली राजनीतिक आलोचना के व्यापक माहौल पर प्रतिक्रिया देते हुए - विशेष रूप से वक्फ संशोधन अधिनियम के संदर्भ में - न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि संवैधानिक न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर काम नहीं कर रहे हैं। न्यायिक समीक्षा केवल एक शक्ति नहीं है बल्कि एक संवैधानिक कर्तव्य है जिसे अनुच्छेद 32 और 226 के तहत स्पष्ट रूप से स्थापित किया गया है।

“लोकतंत्र में राज्य की प्रत्येक शाखा चाहे वह विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका, विशेष रूप से संवैधानिक लोकतंत्र में संविधान के ढांचे के भीतर कार्य करती है। यह संविधान है जो हम सभी से ऊपर है।” (पैरा 7)

न्यायालय ने फिर कहा कि संवैधानिक न्यायालयों की भूमिका राजनीतिक, धार्मिक या सामुदायिक आधार पर नहीं बल्कि कानूनी सिद्धांतों के अनुसार कानूनों और कार्यकारी कार्यों की वैधता और संवैधानिकता का परीक्षण करना है। इसने चेतावनी दी कि इस भूमिका को अस्वीकार करना संविधान को फिर से लिखने या उसे नकारने के समान होगा।

“न्यायालय को न्यायिक समीक्षा की शक्ति से वंचित करना संविधान को फिर से लिखना और नकारना होगा, क्योंकि न्यायिक समीक्षा की शक्ति लोकतंत्र की आधारशिलाओं में से एक है। यह शक्ति संविधान के निर्माताओं द्वारा अनुच्छेद 32 और 226 द्वारा स्पष्ट शब्दों में प्रदान की गई है और यह चेक एंड बैलेंस की व्यवस्था पर निर्भर करती है।” (पैरा 9)

लोकतंत्र में संवैधानिक न्यायालयों की आधारभूत भूमिका पर जोर देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि न्यायिक निर्णय कानूनी तर्क पर आधारित होते हैं न कि राजनीतिक, धार्मिक या सांप्रदायिक विचारों से प्रभावित होते हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब नागरिक न्यायिक समीक्षा के प्रयोग की मांग करते हुए न्यायालय के पास आते हैं तो वे अपने मौलिक या कानूनी अधिकारों की रक्षा के लिए ऐसा करते हैं न कि न्यायपालिका को राजनीतिक बहस में घसीटने के लिए। ऐसी दलीलों पर विचार करते हुए, न्यायालय अपनी भूमिका का अतिक्रमण नहीं कर रहा है, बल्कि अपने संवैधानिक कर्तव्य का पालन कर रहा है। यह स्पष्ट अभिव्यक्ति एक रिमाइंडर के रूप में काम करती है कि न्यायिक समीक्षा संवैधानिक संरचना का एक मुख्य तत्व है - जिसका उद्देश्य विधायिका या कार्यपालिका का विरोध करना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि की राज्य सभी कार्रवाई संवैधानिक आदेशों का पालन करें।

“न्यायिक निर्णय कानूनी सिद्धांतों के अनुसार किए जाते हैं, न कि राजनीतिक, धार्मिक या सामुदायिक विचारों के अनुसार। जब नागरिक न्यायिक समीक्षा की शक्ति के प्रयोग के लिए न्यायालय के पास आते हैं तो वे अपने मौलिक और/या कानूनी अधिकारों को आगे बढ़ाने के लिए ऐसा करते हैं। न्यायालय द्वारा ऐसी प्रार्थना पर विचार करना उसके संवैधानिक कर्तव्य की पूर्ति है।” (पैरा 9)

नफरत भरे बयान से ‘सख्ती’ से निपटा जाना चाहिए

याचिका खारिज होने के बावजूद न्यायालय ने नफरत भरे बयान के मुद्दे को अनदेखा नहीं किया। पीठ ने स्पष्ट टिप्पणी करते हुए कहा कि नफरत भरे बयान के जरिए सांप्रदायिक नफरत भड़काने के किसी भी प्रयास के लिए कठोर कानूनी परिणाम भुगतने होंगे।

“हालांकि हम मौजूदा रिट याचिका पर विचार नहीं कर रहे हैं, हम यह स्पष्ट करते हैं कि सांप्रदायिक नफरत फैलाने या नफरत भरे बयान देने के किसी भी प्रयास से कठोर तरीके से निपटा जाना चाहिए। नफरत भरे बयान को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे लक्षित समूह के सदस्यों की गरिमा और आत्म-सम्मान को नुकसान पहुंचता है, समूहों के बीच असामंजस्य बढ़ता है और सहिष्णुता और खुले विचारों को खत्म करता है, जो समानता के विचार के लिए प्रतिबद्ध बहु-सांस्कृतिक समाज के लिए जरूरी है। लक्षित समूह को अलग-थलग करने या अपमानित करने का कोई भी प्रयास एक आपराधिक अपराध है और इसके साथ उसी तरह निपटा जाना चाहिए।” (पैरा 10)

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इस तरह की अभिव्यक्ति को संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत संरक्षण नहीं प्राप्त है। बल्कि, यह अलगाव और अपमान का कारण बनता है जिससे यह एक अपराध बन जाता है, जिससे राज्य को निर्णायक रूप से निपटना चाहिए।

निष्कर्ष: विभाजनकारी समय में संवैधानिक अधिकार का एक विवेकपूर्ण बचाव

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अंततः निशिकांत दुबे के खिलाफ आपराधिक अवमानना कार्यवाही शुरू नहीं करने का फैसला किया, लेकिन इसके तर्क की गंभीरता और स्पष्टता ने इस मामले में कोई भी संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ी। यह निर्णय न्यायिक शक्ति की एक शक्तिशाली पुष्टि के रूप में सामने आया - दंडात्मक प्रतिक्रिया के जरिए नहीं, बल्कि सैद्धांतिक संयम के माध्यम से। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह निरर्थक उकसावे को अभियोजन की गरिमा नहीं देगा, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित करेगा कि यदि ऐसे उकसावे न्यायपालिका की वैधता को चुनौती देने या झूठ और सांप्रदायिक बयानबाजी के ज़रिये जनभावनाओं को भड़काने की कोशिश करें, तो उन पर चुप भी नहीं रहा जा सकता।

मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय की संस्था के खिलाफ निराधार आरोपों की पुरजोर तरीके से निंदा करके पीठ ने एक स्पष्ट संकेत दिया कि संवैधानिक न्यायालय न तो कमजोर हैं और न ही उदासीन। वे लचीले हैं, कानून और तर्क द्वारा निर्देशित हैं और निष्पक्ष आलोचना और न्यायपालिका की विश्वसनीयता को कम करने के जानबूझकर किए गए प्रयासों के बीच अंतर करने में सक्षम हैं। न्यायालय द्वारा नफरत भरे बयान की कड़ी निंदा की गई और ये कहा गया कि इस तरह के विभाजनकारी बयानबाजी का सख्त तरीके से सामना किया जाना चाहिए जो सामाजिक सामंजस्य और लोकतांत्रिक अखंडता के लिए बढ़ते खतरों के बारे में इसकी जागरूकता को भी दर्शाता है।

ऐसे समय में जब सार्वजनिक विमर्श सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और संस्थागत अविश्वास से तेजी से खराब हो रहा है, तो इस फैसले ने न्यायपालिका की दोहरी भूमिका को मजबूत किया जैसे संवैधानिक मूल्यों के संरक्षक के रूप में और असहिष्णुता और अधिनायकवाद के खिलाफ एक ढाल के रूप में। गुससे के बजाय बुद्धिमत्ता और टकराव के बजाय स्पष्टता को चुनकर न्यायालय ने न केवल अपनी गरिमा बनाए रखी, बल्कि राष्ट्र को यह भी याद दिलाया कि भारतीय लोकतंत्र की नींव 'शोर का शासन' नहीं, बल्कि 'कानून का शासन' है।

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