"18वीं लोकसभा में आपराधिक छवि वाले सांसद बढ़े हैं जबकि महिला सांसदों की संख्या घट गई है। ADR की रिपोर्ट के मुताबिक, लोकसभा चुनावों में जीतने वाले प्रत्याशियों में से 46 प्रतिशत ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। दूसरी ओर, 18वीं लोकसभा में केवल 74 महिलाएं सांसद चुनी गई हैं। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में महिला सांसदों की संख्या 78 थी।"
लोकतंत्र में सुधार के मुद्दों पर काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, 543 जीतने वाले प्रत्याशियों में से 46 प्रतिशत (251) प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। वहीं, सभी जीतने वाले प्रत्याशियों में 31 प्रतिशत (170) ऐसे हैं जिनके खिलाफ बलात्कार, हत्या, अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 27 जीतने वाले प्रत्याशी ऐसे हैं जो दोषी भी पाए जा चुके हैं और या तो जेल में हैं या जमानत पर बाहर हैं। चार जीतने वाले प्रत्याशियों के खिलाफ हत्या के मामले, 27 के खिलाफ हत्या की कोशिश के मामले, दो के खिलाफ बलात्कार, 15 के खिलाफ महिलाओं के खिलाफ अन्य अपराध, चार के खिलाफ अपहरण और 43 के खिलाफ नफरती भाषण देने के मामले दर्ज हैं।
यही नहीं, रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि किसी साफ पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी के जीतने की संभावना सिर्फ 4.4 प्रतिशत है, जबकि आपराधिक मामलों का सामना कर रहे प्रत्याशी की जीतने की संभावना 15.3 प्रतिशत है।
पार्टी व राज्यवार स्थिति
बीजेपी के 240 विजयी प्रत्याशियों में से 39 प्रतिशत (94), कांग्रेस के 99 विजयी प्रत्याशियों में से 49 प्रतिशत (49), सपा के 37 में से 57 प्रतिशत (21), तृणमूल कांग्रेस के 29 में से 45 प्रतिशत (13), डीएमके के 22 में से 59 प्रतिशत (13), टीडीपी के 16 में से 50 प्रतिशत (आठ) और शिवसेना (शिंदे) के सात में से 71 प्रतिशत (पांच) प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। जबकि आरजेडी के 100 प्रतिशत (चारों) प्रत्याशियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
राज्यवार देखें तो केरल सबसे आगे है, जहां विजयी प्रत्याशियों में से 95 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। उसके बाद तेलंगाना (82 प्रतिशत), ओडिशा (76 प्रतिशत), झारखंड (71 प्रतिशत) और तमिलनाडु (67 प्रतिशत) जैसे राज्यों का स्थान है। इनके अलावा बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, गोवा, कर्नाटक और दिल्ली में 40 प्रतिशत से ज्यादा विजयी प्रत्याशी आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं।
बढ़ती जा रही है ऐसे नेताओं की संख्या
एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, चुनाव दर चुनाव ऐसे सांसदों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनके खिलाफ आपराधिक और गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 2009 में लोकसभा में आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या 30 प्रतिशत थी। 2014 में यह संख्या बढ़कर 34 प्रतिशत, 2019 में 43 प्रतिशत और 2024 में 46 प्रतिशत हो गई। गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या देखें तो 2009 में उनकी संख्या 14 प्रतिशत थी, 2014 में बढ़कर 21 प्रतिशत, 2019 में 29 प्रतिशत और 2024 में 31 प्रतिशत हो गई।
चुनाव का महंगा होना बड़ा कारण
बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार की कंसल्टिंग एडिटर अदिति फडनिस कहती हैं, "पहली बात तो यह कि आज जिसके पास संसाधन नहीं हैं उसके लिए चुनाव लड़ना बहुत मुश्किल हो गया है। जब आप चुनाव लड़ने का खर्च उठा नहीं सकते हैं तो संसाधन जुटाने यानी अमीर बनने के रास्तों में से एक होता है कानून तोड़ के पैसा कमाना।" "दूसरा है कि हमारे तंत्र में मुकदमे बहुत होते हैं। आपने कोई टैक्स नहीं भरा या कोई सरकारी बिल नहीं दिया हो तो भी आपके खिलाफ मुकदमा दायर हो सकता है।"
लोकसभा चुनाव 2024 में घट गई महिला सांसदों की संख्या
देश में आपराधिक छवि के सांसद बढ़े हैं लेकिन महिला सांसदों की संख्या घट गई है। 18वीं लोकसभा की 543 सीटों में इस बार सिर्फ 74 महिला सांसद ही हैं। पिछली लोकसभा में यह संख्या 78 थी। इस बार चुनी गईं महिला प्रतिनिधि नई संसद का केवल 13.63 फीसदी हिस्सा हैं। सबसे अधिक 31 महिला सांसद बीजेपी से हैं। वहीं कांग्रेस से 13, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से 11, समाजवादी पार्टी (सपा) से 5 और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) से 3 महिला सांसद चुनी गई हैं। बिहार की पार्टियां जनता दल-यूनाइटेड (जेडीयू) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) से 2-2 महिला सांसद चुनी गई हैं।
महिला सांसदों की घटती संख्या के पीछे सबसे बड़ी चुनौती उनकी कम उम्मीदवारी भी है। 2019 लोकसभा चुनावों में 726 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, लेकिन तब 78 महिलाएं ही जीतकर संसद पहुंची थीं। वहीं, 2014 में 640 महिला उम्मीदवार थीं और इनमें से 62 महिलाएं सांसद बनीं। 2009 के चुनावों में 556 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, जिनमें से 58 महिलाएं संसद पहुंचीं। हर लोकसभा चुनाव के साथ महिला उम्मीदवारों की संख्या तो जरूर बढ़ी है, लेकिन इनमें से चुनकर संसद तक पहुंचने का सफर बेहद कम महिलाएं तय कर पाती हैं। वहीं देश की अधिकतर बड़ी पार्टियों ने महिलाओं को टिकट देने में उतनी उदारता नहीं दिखाई है। सत्ताधारी बीजेपी ने 69 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया। वहीं, देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने भी केवल 41 महिला उम्मीदवारों को ही टिकट दिया। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 37 और सपा ने 14 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा। पश्चिम बंगाल में टीएमसी ने 12 महिलाओं को टिकट दिया था।
हर चरण के साथ घटती गई महिलाओं की संख्या
2024 के लोकसभा चुनाव के हर चरण में महिला उम्मीदवारों की भागीदारी बेहद कम देखी गई। पहले चरण के 1,625 उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या सिर्फ 134 थी। दूसरे चरण के 1,192 उम्मीदवारों में 100 और तीसरे चरण के 1,352 उम्मीदवारों में केवल 123 महिलाएं थीं। चौथे चरण में सबसे अधिक 170 महिला उम्मीदवारों ने अपनी दावेदारी पेश की। इसके बाद महिला उम्मीदवारों का आंकड़ा 100 के अंदर ही सिमटता दिखा। पांचवें चरण में 82, छठे चरण में 92 और आखिरी चरण में 95 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं।
कितनी बढ़ी महिलाओं की भागीदारी
देश में 1952 में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए थे। पहली लोकसभा में जहां महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व पांच फीसदी था, तब 22 महिलाएं सांसद बनी थीं। वहीं 17वीं लोकसभा में 78 महिलाओं के साथ यह बढ़कर 14.36 फीसदी तक पहुंचा। 2024 के आम चुनावों के बाद यह घटकर अब 13.63 फीसदी पर आ गया है। पिछली लोकसभा के मुकाबले महिला सासंदों की संख्या ऐसे समय में कम हुई है, जब भारत में महिला आरक्षण विधेयक को मंजूरी मिल चुकी है। हालांकि, यह विधेयक अब तक लागू नहीं हुआ है लेकिन पार्टियों की उम्मीदवारों की लिस्ट में महिलाओं की मौजूदगी को देखते हुए उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठना लाजिमी है।
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यही नहीं, रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि किसी साफ पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी के जीतने की संभावना सिर्फ 4.4 प्रतिशत है, जबकि आपराधिक मामलों का सामना कर रहे प्रत्याशी की जीतने की संभावना 15.3 प्रतिशत है।
पार्टी व राज्यवार स्थिति
बीजेपी के 240 विजयी प्रत्याशियों में से 39 प्रतिशत (94), कांग्रेस के 99 विजयी प्रत्याशियों में से 49 प्रतिशत (49), सपा के 37 में से 57 प्रतिशत (21), तृणमूल कांग्रेस के 29 में से 45 प्रतिशत (13), डीएमके के 22 में से 59 प्रतिशत (13), टीडीपी के 16 में से 50 प्रतिशत (आठ) और शिवसेना (शिंदे) के सात में से 71 प्रतिशत (पांच) प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। जबकि आरजेडी के 100 प्रतिशत (चारों) प्रत्याशियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
राज्यवार देखें तो केरल सबसे आगे है, जहां विजयी प्रत्याशियों में से 95 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। उसके बाद तेलंगाना (82 प्रतिशत), ओडिशा (76 प्रतिशत), झारखंड (71 प्रतिशत) और तमिलनाडु (67 प्रतिशत) जैसे राज्यों का स्थान है। इनके अलावा बिहार, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, गोवा, कर्नाटक और दिल्ली में 40 प्रतिशत से ज्यादा विजयी प्रत्याशी आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं।
बढ़ती जा रही है ऐसे नेताओं की संख्या
एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार, चुनाव दर चुनाव ऐसे सांसदों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनके खिलाफ आपराधिक और गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। 2009 में लोकसभा में आपराधिक मामलों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या 30 प्रतिशत थी। 2014 में यह संख्या बढ़कर 34 प्रतिशत, 2019 में 43 प्रतिशत और 2024 में 46 प्रतिशत हो गई। गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या देखें तो 2009 में उनकी संख्या 14 प्रतिशत थी, 2014 में बढ़कर 21 प्रतिशत, 2019 में 29 प्रतिशत और 2024 में 31 प्रतिशत हो गई।
चुनाव का महंगा होना बड़ा कारण
बिजनेस स्टैंडर्ड अखबार की कंसल्टिंग एडिटर अदिति फडनिस कहती हैं, "पहली बात तो यह कि आज जिसके पास संसाधन नहीं हैं उसके लिए चुनाव लड़ना बहुत मुश्किल हो गया है। जब आप चुनाव लड़ने का खर्च उठा नहीं सकते हैं तो संसाधन जुटाने यानी अमीर बनने के रास्तों में से एक होता है कानून तोड़ के पैसा कमाना।" "दूसरा है कि हमारे तंत्र में मुकदमे बहुत होते हैं। आपने कोई टैक्स नहीं भरा या कोई सरकारी बिल नहीं दिया हो तो भी आपके खिलाफ मुकदमा दायर हो सकता है।"
लोकसभा चुनाव 2024 में घट गई महिला सांसदों की संख्या
देश में आपराधिक छवि के सांसद बढ़े हैं लेकिन महिला सांसदों की संख्या घट गई है। 18वीं लोकसभा की 543 सीटों में इस बार सिर्फ 74 महिला सांसद ही हैं। पिछली लोकसभा में यह संख्या 78 थी। इस बार चुनी गईं महिला प्रतिनिधि नई संसद का केवल 13.63 फीसदी हिस्सा हैं। सबसे अधिक 31 महिला सांसद बीजेपी से हैं। वहीं कांग्रेस से 13, तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से 11, समाजवादी पार्टी (सपा) से 5 और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) से 3 महिला सांसद चुनी गई हैं। बिहार की पार्टियां जनता दल-यूनाइटेड (जेडीयू) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) से 2-2 महिला सांसद चुनी गई हैं।
महिला सांसदों की घटती संख्या के पीछे सबसे बड़ी चुनौती उनकी कम उम्मीदवारी भी है। 2019 लोकसभा चुनावों में 726 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा, लेकिन तब 78 महिलाएं ही जीतकर संसद पहुंची थीं। वहीं, 2014 में 640 महिला उम्मीदवार थीं और इनमें से 62 महिलाएं सांसद बनीं। 2009 के चुनावों में 556 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं, जिनमें से 58 महिलाएं संसद पहुंचीं। हर लोकसभा चुनाव के साथ महिला उम्मीदवारों की संख्या तो जरूर बढ़ी है, लेकिन इनमें से चुनकर संसद तक पहुंचने का सफर बेहद कम महिलाएं तय कर पाती हैं। वहीं देश की अधिकतर बड़ी पार्टियों ने महिलाओं को टिकट देने में उतनी उदारता नहीं दिखाई है। सत्ताधारी बीजेपी ने 69 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया। वहीं, देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने भी केवल 41 महिला उम्मीदवारों को ही टिकट दिया। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 37 और सपा ने 14 सीटों पर महिला उम्मीदवारों को उतारा। पश्चिम बंगाल में टीएमसी ने 12 महिलाओं को टिकट दिया था।
हर चरण के साथ घटती गई महिलाओं की संख्या
2024 के लोकसभा चुनाव के हर चरण में महिला उम्मीदवारों की भागीदारी बेहद कम देखी गई। पहले चरण के 1,625 उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या सिर्फ 134 थी। दूसरे चरण के 1,192 उम्मीदवारों में 100 और तीसरे चरण के 1,352 उम्मीदवारों में केवल 123 महिलाएं थीं। चौथे चरण में सबसे अधिक 170 महिला उम्मीदवारों ने अपनी दावेदारी पेश की। इसके बाद महिला उम्मीदवारों का आंकड़ा 100 के अंदर ही सिमटता दिखा। पांचवें चरण में 82, छठे चरण में 92 और आखिरी चरण में 95 महिला उम्मीदवार मैदान में थीं।
कितनी बढ़ी महिलाओं की भागीदारी
देश में 1952 में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए थे। पहली लोकसभा में जहां महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व पांच फीसदी था, तब 22 महिलाएं सांसद बनी थीं। वहीं 17वीं लोकसभा में 78 महिलाओं के साथ यह बढ़कर 14.36 फीसदी तक पहुंचा। 2024 के आम चुनावों के बाद यह घटकर अब 13.63 फीसदी पर आ गया है। पिछली लोकसभा के मुकाबले महिला सासंदों की संख्या ऐसे समय में कम हुई है, जब भारत में महिला आरक्षण विधेयक को मंजूरी मिल चुकी है। हालांकि, यह विधेयक अब तक लागू नहीं हुआ है लेकिन पार्टियों की उम्मीदवारों की लिस्ट में महिलाओं की मौजूदगी को देखते हुए उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठना लाजिमी है।
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