"क्या यातना पुलिस जांच का हिस्सा है?" भीमा कोरेगांव मामले के आरोपियों के बारे में स्टेन स्वामी ने अपने लेख में यह सवाल पूछा था। यह सवाल आज भी बरक़रार है जब स्टेन स्वामी ख़ुद, हमारी सरकार और न्याय तंत्र की 'यातना' का शिकार होकर हमारे बीच नहीं रहे।
भीमा कोरेगांव मामले के आरोपियों में से एक दिवंगत स्टेन स्वामी, ने 2019 में यह लेख लिखा है, जिसे हम आज उनकी दूसरी बरसी पर एक बार फिर प्रकाशित कर रहे हैं।
अक्टूबर 2020 में यूएपीए जैसे सख्त आतंकवाद-विरोधी कानून के तहत गिरफ़्तार 84 वर्षीय स्टेन स्वामी की 5 जुलाई 2021 में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई थी। वे पर्किंसन बीमारी से पीड़ित थे। इससे पहले वे आठ महीने से अधिक समय तक जेल में बिता चुके थे। उनकी मौत के दो दिन बाद मुंबई के बाहरी इलाके में स्थित तलोजा केंद्रीय कारावास में उनके तीन सह-कैदियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि “हम इस मामले में फादर के साथ सह-आरोपी हैं और उनके खिलाफ की गई साजिश के चश्मदीद गवाह हैं।” “हमारे दृष्टिकोण में वे एक स्वाभाविक मौत नहीं मरे हैं। यह एक सुनियोजित सांस्थानिक हत्या थी...। "
"स्वामी को यथोचित उपचार से वंचित करके, जब उन्हें मदद की जरूरत थी तो उन्हें एकांतवास में रखा गया...।" पत्र में विस्तार से बताया गया है कि “उन्हें जरूरी दवाएं और पानी पीने के लिए स्ट्रॉ-सिपर तक से वंचित कर दिया गया था।”
आइए पढ़ते हैं 2019 में लिखा गया उनका पत्र, जो आज भी ज़रूरी सवाल उठाता है-
"यातना का अर्थ है कोई भी ऐसा काम जिससे गंभीर दर्द या पीड़ा उत्पन्न हो, फिर चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, जब इसे जानबूझकर किसी व्यक्ति पर बरपाया जाता है, ऐसे उद्देश्यों से कि उससे कुछ जानकारी उगलवाई जाए या कुछ क़बूल करवाया जाए, या उसके द्वारा किए गए कृत्य या अपराध या फिर अपराधी होने के शक में ऐसा किया जाता है।"
कुछ साल पहले, भारत के अटॉर्नी जनरल ने संयुक्त राष्ट्र में कहा था कि “हमारा देश (भारत) गांधी और बुद्ध का देश है। हम शांति, अहिंसा और मानवीय गरिमा को बनाए रखने में विश्वास करते हैं। जैसे, यातना की अवधारणा हमारी संस्कृति के लिए पूरी तरह से जुदा बात है और इसका देश के शासन में कोई स्थान नहीं है। ”(ईपीडब्ल्यू खंड 53 में बलजीत कौर, अंक संख्या 36, 08 सितंबर, 2018)
वास्तव में ये तकरीर के लिए अच्छे शब्द हैं। हालांकि 2015-2016 की राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की वार्षिक रिपोर्ट कहती है:
देश में हिरासत के दौरान भयंकर हिंसा और यातनाएँ जारी हैं। यह क़ानून लागू करने वाले लोक सेवकों द्वारा की जा रही सबसे ज़्यादा ज़्यादतियों के मामले में सबसे ख़राब प्रदर्शन में आता है।
सितंबर 2017 और जून 2018 के बीच समाचार रिपोर्टों में हिरासत में अत्याचार की 122 घटनाओं का उल्लेख किया गया, जिसके परिणामस्वरूप 30 मौतें हुईं। यातना संबंधी शिकायतों का कोई सुसंगत दस्तावेज़ीकरण नहीं किया गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) हिरासत में यातना के मामलों का दस्तावेज़ीकरण नहीं करता है। (बलजीत ...)
आइए, देश में तथाकथित उग्रवाद को नष्ट करने के लिए भारत सरकार के प्रयासों के संदर्भ में हो रही कुछ यातनाओं को समझें:
कई बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक, पत्रकार, क़ानूनी पेशेवर, कवि, दलित और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता, मानवाधिकार अधिकार कार्यकर्ता अब शासक वर्ग की नज़र में संदिग्ध बन गए हैं। अब उन्हें बिना किसी रोक-टोक के कभी भी ‘माओवादी’ ‘नक्सल’, ‘शहरी नक्सल’ आदि कहा जाता है, ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम [यूएपीए], का इस्तेमाल और देशद्रोह जैसे गंभीर मुक़दमे लागाना आम बात है। इनमें से कई लोग पहले ही जेल जा चुके हैं, अन्य को उनके कार्य स्थलों और आवासों पर छापे मार कर परेशान किया जा रहा है।
अब हम पूछते हैं कि ये 'कौन' और 'कैसे' व्यक्ति हैं। वे शायद सबसे क़ीमती इंसान हैं जिन्होंने सत्य और न्याय के लिए अपना सबसे अधिक योगदान दिया है और जिन्होंने स्पष्ट रूप से समाज के वंचित, हाशिए वाले वर्गों का पक्ष लिया है। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं, पेशेवर क्षमताओं का इस्तेमाल वंचित जनता को बिना शर्त एकजुट करने के लिए किया और उनमें से कई लोगों ने वंचित लोगों के लिए राहत मुहैया कराने में अभूतपूर्व सफ़लताएँ भी हासिल की हैं, यह राहत उन लोगों को दी गई जिनके बारे में समाज अक्सर चिंतित नहीं होता है। इस तरह के लोगों ने ख़ुद को सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा से वंचित कर लिया है, जिसका अन्यथा वे बख़ूबी आनंद ले सकते थे।
जब शासक वर्ग उनकी प्रतिबद्धता की सराहना करने के बजाय उन्हें इस तरह से दंडित करने पर आमादा है, तो यह अपमानजनक है।
क्या यह यातना नहीं है?
आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित वर्गों की स्थिति और भी चिंता का कारण है। तथ्य यह है कि भारत में दो-तिहाई [67 प्रतिशत] ऐसे क़ैदियों पर मुक़दमा चलाया जा रहा है। इसके अलावा, भारत में हर तीन अंडर-ट्रायल क़ैदियों में से एक दलित या आदिवासी है। यद्यपि वे केवल 24 प्रतिशत आबादी का गठन करते हैं, लेकिन उनमें से 34 प्रतिशत अंडर-ट्रायल हैं। झारखंड में विचाराधीन क़ैदियों के एक यादृच्छिक नमूने के अध्ययन से पता चलता है कि मुक़दमे के तहत 59 प्रतिशत क़ैदियों की पारिवारिक आय 3000 रुपये प्रति माह से कम है और उनमें से 38 प्रतिशत की 3000 और 5000 प्रति माह के बीच है। इसका मतलब है कि झारखंड में कुल 97 प्रतिशत अंडर ट्रायल क़ैदी 5000 रुपये प्रति माह से कम कमाते हैं। अपरिहार्य निष्कर्ष यह है कि व्यावहारिक रूप से सभी अंडर-ट्रायल विचाराधीन क़ैदी बहुत ग़रीब तबक़े से हैं। (बगैचा रिसर्च टीम, 2016, p.54 द्वारा ‘झारखंड में अंडरट्रायल के एक अध्ययन से ली गई है)
एक भयावह सवाल यह उठता है कि उन्हें नक्सली या ‘नक्सलियों’ के हमदर्द के रूप में गिरफ़्तार कैसे किया गया? उपर्युक्त अध्ययन में पाया गया कि लगभग 57 प्रतिशत लोगों को उस वक़्त गिरफ़्तार किया गया जब वे अपने घरों में थे। 30 प्रतिशत को ख़रीदारी करते समय, रेलवे स्टेशन पर या शहर में यात्रा करते समय गिरफ़्तार किया गया। आठ प्रतिशत ने कहा कि उन्होंने ख़ुद ही आत्मसमर्पण किया जब उन्हें पता चला कि उनके ख़िलाफ़ कोई मुक़दमा दर्ज कर दिया गया है, और पांच प्रतिशत ने कहा कि उन्हें पुलिस ने किसी अन्य उद्देश्य के लिए थाने में बुलाया था, लेकिन आने पर उन्हें नक्सल के नाम पर गिरफ़्तार कर लिया गया। लेकिन, पुलिस ने अपने ज़्यादातर आरोप पत्र में कहा कि ये गिरफ़्तारियाँ जंगलों से की गई हैं। इस तरह की बेमेल बात एक स्पष्ट संकेत है कि पुलिस आदतन ग्रामीणों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज करती रही है। (उपर्युक्त अध्ययन से, p.56)
यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि इन क़ैदियों का एक बड़ा हिस्सा युवा वर्ग है। 22 प्रतिशत 18-28 आयु वर्ग में हैं यह जीवन का सबसे रचनात्मक समय होता है और 46 प्रतिशत 29-40 की आयु के है जो कि किसी के भी जीवन का सबसे उत्पादक समय होता है। (उपरोक्त अध्ययन के लिए, पी. 50 से तथ्य लिए गए)
लेकिन उनके अपने उपर और उनके परिवारों पर इन हिरासतो के नतीजे काफ़ी दुखद हैं। कई परिवारों ने इस सब के चलते अपनी ज़मीन, मवेशी जैसी छोटी संपत्तियों को गिरवी रख दिया या उन्हे बेच दिया है। परिवार का एकमात्र कमाने वाला या तो जेल में है या मुक़दमें में फँसा है। यह देखना हृदयविदारक है कि कई परिवार बेसहारा हो गए है और उनके छोटे बच्चे पिता प्रेम और देखभाल के बिना बड़े हो रहे हैं। और यह अच्छी तरह से जानते हुए कि जब भी उन पर मुक़दमा चलाया जाएगा, तो वे बरी हो जाएंगे। इसलिए उनके मुक़दमे को जानबूझकर लंबे समय तक खींचा जाता है।
क्या यह यातना नहीं है?
यह सामान्य ज्ञान है कि हमारे देश में क़ैदियों को व्यवस्थित रूप से प्रताड़ित किया जाता है। आप जितने ग़रीब हैं, आप जेल में उतनी ही शारीरिक यातना के शिकार बन जाते हैं। यहाँ तक कि बहुत शिक्षित, जानकार, पेशेवर लोग भी शारीरिक और मानसिक यातना से दूर नहीं रह पाते हैं। यह तब स्पष्ट हो गया जब भीमा-कोरेगांव मामले में एक आरोपी, जो ख़ुद एक वकील है, को पुणे जेल में पुलिस हिरासत के दौरान बार-बार थप्पड़ मारा गया था, और इस हद तक पीटा कि उन्हें चिकित्सा के लिए अस्पताल ले जाना पड़ा। यदि ऐसा व्यवहार एक प्रतिष्ठित क़ानूनी पेशेवर के साथ हो सकता है, तो आप एक ग़रीब असहाय अंडर-ट्रायल क़ैदियों के भाग्य की कल्पना ही कर सकते हैं। क्या यह यातना नहीं है?
और फिर भी हमें बताया जाता है कि 'भारत बुद्ध और गांधी की भूमि है और यातना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है'!
हम केवल अपने पूज्य देशभक्त, दार्शनिक, कवि रवींद्रनाथ टैगोर के अंतिम गीत से ही कुछ सांत्वना पा सकते हैं.....
जहाँ मन भय से मुक्त हो
जहाँ मन भय से मुक्त हो और मस्तक सम्मान से उठा हो
जहाँ मुक्त ज्ञान की धारा हो, जहाँ दुनिया टुकड़ों में बिखर, संकीर्ण घरेलू दीवारों में न बदल गई हो
जहाँ शब्द सत्य की गहराई से निकलते हैं,
जहाँ अथक प्रयास पूर्णता की ओर अपनी बांहें फैलाते हैं,
जहाँ तर्क की धारा मरे हुए वास के सुनसान रेगिस्तान में, अपना रास्ता नहीं खोती है।
जहाँ मन के बढ़ते दायरे के साथ आज़ादी के स्वर्ग में आगे बढ़ा जाता है, मेरे पिता, मेरे देश को जगा दें!
Courtesy: E Newsroom
भीमा कोरेगांव मामले के आरोपियों में से एक दिवंगत स्टेन स्वामी, ने 2019 में यह लेख लिखा है, जिसे हम आज उनकी दूसरी बरसी पर एक बार फिर प्रकाशित कर रहे हैं।
अक्टूबर 2020 में यूएपीए जैसे सख्त आतंकवाद-विरोधी कानून के तहत गिरफ़्तार 84 वर्षीय स्टेन स्वामी की 5 जुलाई 2021 में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई थी। वे पर्किंसन बीमारी से पीड़ित थे। इससे पहले वे आठ महीने से अधिक समय तक जेल में बिता चुके थे। उनकी मौत के दो दिन बाद मुंबई के बाहरी इलाके में स्थित तलोजा केंद्रीय कारावास में उनके तीन सह-कैदियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि “हम इस मामले में फादर के साथ सह-आरोपी हैं और उनके खिलाफ की गई साजिश के चश्मदीद गवाह हैं।” “हमारे दृष्टिकोण में वे एक स्वाभाविक मौत नहीं मरे हैं। यह एक सुनियोजित सांस्थानिक हत्या थी...। "
"स्वामी को यथोचित उपचार से वंचित करके, जब उन्हें मदद की जरूरत थी तो उन्हें एकांतवास में रखा गया...।" पत्र में विस्तार से बताया गया है कि “उन्हें जरूरी दवाएं और पानी पीने के लिए स्ट्रॉ-सिपर तक से वंचित कर दिया गया था।”
आइए पढ़ते हैं 2019 में लिखा गया उनका पत्र, जो आज भी ज़रूरी सवाल उठाता है-
"यातना का अर्थ है कोई भी ऐसा काम जिससे गंभीर दर्द या पीड़ा उत्पन्न हो, फिर चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, जब इसे जानबूझकर किसी व्यक्ति पर बरपाया जाता है, ऐसे उद्देश्यों से कि उससे कुछ जानकारी उगलवाई जाए या कुछ क़बूल करवाया जाए, या उसके द्वारा किए गए कृत्य या अपराध या फिर अपराधी होने के शक में ऐसा किया जाता है।"
कुछ साल पहले, भारत के अटॉर्नी जनरल ने संयुक्त राष्ट्र में कहा था कि “हमारा देश (भारत) गांधी और बुद्ध का देश है। हम शांति, अहिंसा और मानवीय गरिमा को बनाए रखने में विश्वास करते हैं। जैसे, यातना की अवधारणा हमारी संस्कृति के लिए पूरी तरह से जुदा बात है और इसका देश के शासन में कोई स्थान नहीं है। ”(ईपीडब्ल्यू खंड 53 में बलजीत कौर, अंक संख्या 36, 08 सितंबर, 2018)
वास्तव में ये तकरीर के लिए अच्छे शब्द हैं। हालांकि 2015-2016 की राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की वार्षिक रिपोर्ट कहती है:
देश में हिरासत के दौरान भयंकर हिंसा और यातनाएँ जारी हैं। यह क़ानून लागू करने वाले लोक सेवकों द्वारा की जा रही सबसे ज़्यादा ज़्यादतियों के मामले में सबसे ख़राब प्रदर्शन में आता है।
सितंबर 2017 और जून 2018 के बीच समाचार रिपोर्टों में हिरासत में अत्याचार की 122 घटनाओं का उल्लेख किया गया, जिसके परिणामस्वरूप 30 मौतें हुईं। यातना संबंधी शिकायतों का कोई सुसंगत दस्तावेज़ीकरण नहीं किया गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) हिरासत में यातना के मामलों का दस्तावेज़ीकरण नहीं करता है। (बलजीत ...)
आइए, देश में तथाकथित उग्रवाद को नष्ट करने के लिए भारत सरकार के प्रयासों के संदर्भ में हो रही कुछ यातनाओं को समझें:
कई बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक, पत्रकार, क़ानूनी पेशेवर, कवि, दलित और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता, मानवाधिकार अधिकार कार्यकर्ता अब शासक वर्ग की नज़र में संदिग्ध बन गए हैं। अब उन्हें बिना किसी रोक-टोक के कभी भी ‘माओवादी’ ‘नक्सल’, ‘शहरी नक्सल’ आदि कहा जाता है, ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम [यूएपीए], का इस्तेमाल और देशद्रोह जैसे गंभीर मुक़दमे लागाना आम बात है। इनमें से कई लोग पहले ही जेल जा चुके हैं, अन्य को उनके कार्य स्थलों और आवासों पर छापे मार कर परेशान किया जा रहा है।
अब हम पूछते हैं कि ये 'कौन' और 'कैसे' व्यक्ति हैं। वे शायद सबसे क़ीमती इंसान हैं जिन्होंने सत्य और न्याय के लिए अपना सबसे अधिक योगदान दिया है और जिन्होंने स्पष्ट रूप से समाज के वंचित, हाशिए वाले वर्गों का पक्ष लिया है। उन्होंने अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं, पेशेवर क्षमताओं का इस्तेमाल वंचित जनता को बिना शर्त एकजुट करने के लिए किया और उनमें से कई लोगों ने वंचित लोगों के लिए राहत मुहैया कराने में अभूतपूर्व सफ़लताएँ भी हासिल की हैं, यह राहत उन लोगों को दी गई जिनके बारे में समाज अक्सर चिंतित नहीं होता है। इस तरह के लोगों ने ख़ुद को सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा से वंचित कर लिया है, जिसका अन्यथा वे बख़ूबी आनंद ले सकते थे।
जब शासक वर्ग उनकी प्रतिबद्धता की सराहना करने के बजाय उन्हें इस तरह से दंडित करने पर आमादा है, तो यह अपमानजनक है।
क्या यह यातना नहीं है?
आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित वर्गों की स्थिति और भी चिंता का कारण है। तथ्य यह है कि भारत में दो-तिहाई [67 प्रतिशत] ऐसे क़ैदियों पर मुक़दमा चलाया जा रहा है। इसके अलावा, भारत में हर तीन अंडर-ट्रायल क़ैदियों में से एक दलित या आदिवासी है। यद्यपि वे केवल 24 प्रतिशत आबादी का गठन करते हैं, लेकिन उनमें से 34 प्रतिशत अंडर-ट्रायल हैं। झारखंड में विचाराधीन क़ैदियों के एक यादृच्छिक नमूने के अध्ययन से पता चलता है कि मुक़दमे के तहत 59 प्रतिशत क़ैदियों की पारिवारिक आय 3000 रुपये प्रति माह से कम है और उनमें से 38 प्रतिशत की 3000 और 5000 प्रति माह के बीच है। इसका मतलब है कि झारखंड में कुल 97 प्रतिशत अंडर ट्रायल क़ैदी 5000 रुपये प्रति माह से कम कमाते हैं। अपरिहार्य निष्कर्ष यह है कि व्यावहारिक रूप से सभी अंडर-ट्रायल विचाराधीन क़ैदी बहुत ग़रीब तबक़े से हैं। (बगैचा रिसर्च टीम, 2016, p.54 द्वारा ‘झारखंड में अंडरट्रायल के एक अध्ययन से ली गई है)
एक भयावह सवाल यह उठता है कि उन्हें नक्सली या ‘नक्सलियों’ के हमदर्द के रूप में गिरफ़्तार कैसे किया गया? उपर्युक्त अध्ययन में पाया गया कि लगभग 57 प्रतिशत लोगों को उस वक़्त गिरफ़्तार किया गया जब वे अपने घरों में थे। 30 प्रतिशत को ख़रीदारी करते समय, रेलवे स्टेशन पर या शहर में यात्रा करते समय गिरफ़्तार किया गया। आठ प्रतिशत ने कहा कि उन्होंने ख़ुद ही आत्मसमर्पण किया जब उन्हें पता चला कि उनके ख़िलाफ़ कोई मुक़दमा दर्ज कर दिया गया है, और पांच प्रतिशत ने कहा कि उन्हें पुलिस ने किसी अन्य उद्देश्य के लिए थाने में बुलाया था, लेकिन आने पर उन्हें नक्सल के नाम पर गिरफ़्तार कर लिया गया। लेकिन, पुलिस ने अपने ज़्यादातर आरोप पत्र में कहा कि ये गिरफ़्तारियाँ जंगलों से की गई हैं। इस तरह की बेमेल बात एक स्पष्ट संकेत है कि पुलिस आदतन ग्रामीणों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज करती रही है। (उपर्युक्त अध्ययन से, p.56)
यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि इन क़ैदियों का एक बड़ा हिस्सा युवा वर्ग है। 22 प्रतिशत 18-28 आयु वर्ग में हैं यह जीवन का सबसे रचनात्मक समय होता है और 46 प्रतिशत 29-40 की आयु के है जो कि किसी के भी जीवन का सबसे उत्पादक समय होता है। (उपरोक्त अध्ययन के लिए, पी. 50 से तथ्य लिए गए)
लेकिन उनके अपने उपर और उनके परिवारों पर इन हिरासतो के नतीजे काफ़ी दुखद हैं। कई परिवारों ने इस सब के चलते अपनी ज़मीन, मवेशी जैसी छोटी संपत्तियों को गिरवी रख दिया या उन्हे बेच दिया है। परिवार का एकमात्र कमाने वाला या तो जेल में है या मुक़दमें में फँसा है। यह देखना हृदयविदारक है कि कई परिवार बेसहारा हो गए है और उनके छोटे बच्चे पिता प्रेम और देखभाल के बिना बड़े हो रहे हैं। और यह अच्छी तरह से जानते हुए कि जब भी उन पर मुक़दमा चलाया जाएगा, तो वे बरी हो जाएंगे। इसलिए उनके मुक़दमे को जानबूझकर लंबे समय तक खींचा जाता है।
क्या यह यातना नहीं है?
यह सामान्य ज्ञान है कि हमारे देश में क़ैदियों को व्यवस्थित रूप से प्रताड़ित किया जाता है। आप जितने ग़रीब हैं, आप जेल में उतनी ही शारीरिक यातना के शिकार बन जाते हैं। यहाँ तक कि बहुत शिक्षित, जानकार, पेशेवर लोग भी शारीरिक और मानसिक यातना से दूर नहीं रह पाते हैं। यह तब स्पष्ट हो गया जब भीमा-कोरेगांव मामले में एक आरोपी, जो ख़ुद एक वकील है, को पुणे जेल में पुलिस हिरासत के दौरान बार-बार थप्पड़ मारा गया था, और इस हद तक पीटा कि उन्हें चिकित्सा के लिए अस्पताल ले जाना पड़ा। यदि ऐसा व्यवहार एक प्रतिष्ठित क़ानूनी पेशेवर के साथ हो सकता है, तो आप एक ग़रीब असहाय अंडर-ट्रायल क़ैदियों के भाग्य की कल्पना ही कर सकते हैं। क्या यह यातना नहीं है?
और फिर भी हमें बताया जाता है कि 'भारत बुद्ध और गांधी की भूमि है और यातना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है'!
हम केवल अपने पूज्य देशभक्त, दार्शनिक, कवि रवींद्रनाथ टैगोर के अंतिम गीत से ही कुछ सांत्वना पा सकते हैं.....
जहाँ मन भय से मुक्त हो
जहाँ मन भय से मुक्त हो और मस्तक सम्मान से उठा हो
जहाँ मुक्त ज्ञान की धारा हो, जहाँ दुनिया टुकड़ों में बिखर, संकीर्ण घरेलू दीवारों में न बदल गई हो
जहाँ शब्द सत्य की गहराई से निकलते हैं,
जहाँ अथक प्रयास पूर्णता की ओर अपनी बांहें फैलाते हैं,
जहाँ तर्क की धारा मरे हुए वास के सुनसान रेगिस्तान में, अपना रास्ता नहीं खोती है।
जहाँ मन के बढ़ते दायरे के साथ आज़ादी के स्वर्ग में आगे बढ़ा जाता है, मेरे पिता, मेरे देश को जगा दें!
Courtesy: E Newsroom