उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में शिवालिक वनों में रहने वाले टोंगिया काश्तकारों के लिए वनाधिकार कानून बेमानी साबित हो रहा है। 2009 में 550 दावे फार्म भरकर बेहट एसडीएम की अध्यक्षता वाली उपखंडीय समिति को दिए गए थे जिनमें से करीब 150 दावे हो स्वीकृत किए गए हैं। बाकी टोंगिया काश्तकार अफसरों के चक्कर दर चक्कर काटने को मजबूर हैं। और तो और जिन लोगों के दावे स्वीकृत भी हुए हैं उनके नाम भी राजस्व रिकार्ड में दर्ज नहीं किए जा सके है। ऐसे में शिवालिक क्षेत्र के जिन तीन गावों को 2018 में राजस्व का दर्जा दिया गया था वो कागजों तक ही सीमित होकर रह गया है और उनमें आज भी वन विभाग की ही हुकूमत चल रही है। ऐसे में सवाल लाज़िम है कि ये कैसा वनाधिकार और कैसा राजस्व का दर्जा?
जी हां, सहारनपुर ज़िले के शिवालिक वनों में कालूवाला, भगवतपुर व सोढ़ीनगर 3 वन टोंगिया गावों को राजस्व का दर्जा मिले करीब 4 साल होने को है लेकिन धरातल पर यह दर्जा कागज़ों तक में ही महदूद होकर रह गया है। ज्यादातर ग्रामीणों को वनाधिकार पत्र नहीं मिल सके हैं और न ही राजस्व गांव होने का कोई लाभ मिल सका है। सड़क, स्कूल व अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाओं तक से लोग वंचित हैं। हालांकि कुछ (करीब 25-30%) लोगों को रिहायश व कृषि भूमि के व्यक्तिगत अधिकार-पत्र मिले हैं लेकिन राजस्व रिकॉर्ड में इंद्राज न हो पाने के चलते, यह भी महज कागज का टुकड़ा मात्र बनकर रह गया है। धरातल पर इन्हें भी कोई लाभ मिलता नहीं दिख रहा है।
सवाल उठता है कि आखिर राजस्व गांव का यह कैसा दर्जा है? अधिकार पत्र हैं लेकिन अधिकार कोई नहीं है। राजस्व का दर्जा है लेकिन खतौनी में नाम नहीं है। मूलभूत बुनियादी सुविधाएं भी नदारद हैं। इसी सब से वन अधिकार अधिनियम 2006 के धरातल पर क्रियान्वयन को लेकर प्रदेश की योगी सरकार भी कटघरे में है।
वनाधिकार कानून-2006 में साफ है कि टांगिया गांव, राजस्व घोषित हो। लोगों के अपने घर मकान हों। जमीन व आजीविका का अधिकार हो ताकि गुमनामी और नाइंसाफी के अंधेरों में खोए टोंगिया ग्रामीण, न सिर्फ आजादी को महसूस कर सके बल्कि उसे जी भी सके और समाज व देश की मुख्य धारा से जुड़कर देश और प्रदेश के विकास के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ सके।
यूपी के सहारनपुर के घाड़ क्षेत्र में बसे चार टांगिया गांव कालूवाला, सोढ़ीनगर, भगवतपुर और बुड्ढाबन हैं। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के नेतृत्व में टोंगिया काश्तकारों के लंबे आंदोलन का ही परिणाम हैं कि गांव को राजस्व का दरजा मिला है। वहीं, कुछेक (करीब 25-30 प्रतिशत) लोगों को ही सही, आखिरकार वनाधिकार कानून के तहत अधिकार-पत्र भी दे दिये गये हैं। शिवालिक वन प्रभाग में बसे कालूवाला टांगिया के काश्तकारों को 2018 को जिला समाज कल्याण अधिकारी, प्रभागीय वन अधिकारी व उप जिलाधिकारी बेहट की उपस्थिति में रिहायश व काश्त की जमीन के अधिकार पत्र दिये गये हैं परन्तु जिन करीब 70-75% लोगों के दावे निरस्त कर दिए गए है, उनका निराकरण अभी नहीं हो सका है। हालांकि, सामुदायिक अधिकार अभी भी दूर की ही कौड़ी बने हैं।
खास है कि कालुवाला, सोढ़ीनगर व भगवतपुर को करीब 4 साल पहले राजस्व का दर्जा दिया जा चुका है। बुड्ढाबन पहले से ही राजस्व से जुड़ा हुआ है लेकिन यह दर्जा कागजों तक में ही कैद होकर रह गया है। सांसद हाजी फजलुर्रहमान के नेतृत्व में डीएम सहारनपुर से मिले वन टांगिया काश्तकारों वेदप्रकाश, सोमपाल, शेरसिंह ने बताया कि दो तिहाई लोगों के दावे निरस्त कर दिए गए हैं। उनमें काश्तकार और श्रमिक दोनों शामिल हैं। सर्वप्रथम उनका सत्यापन कराकर उनके दावे स्वीकृत किए जाएं। दूसरा जिन लोगों को स्वीकृति पत्र दिए गए हैं उन्हें भी सभी को जमीन नहीं दी गई है। सोमपाल बताते हैं कि उल्टा वन विभाग प्रशासन उन्हें लड़ाने की कोशिश कर रहा है। सोमपाल बताते हैं कि मौके पर अधिकारी इसकी काबिज काश्त की जमीन को दूसरे को आवंटित कर दे रहा है। जबकि वनाधिकार कानून में काबिज काश्त की जमीन पर ही मालिकाना हक़ दिया जाना है।
यही नहीं, वेदप्रकाश राजस्व के दर्जे पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि जब तक तहसील के रिकॉर्ड में यह दर्ज न हो तब तक उन्हें मिले अधिकार पत्रों का भी कोई औचित्य नहीं रह जाता है। टांगिया ग्रामीणों का कहना है कि अव्वल तो ज्यादातर लोगों के ग्राम सभा से पास दावों को गैर कानूनी तरीके से खारिज कर दिया गया है। दूसरा, जिन लोगों को अधिकार-पत्र मिले भी हैं, उनका भी नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज न हो पाने के चलते उन्हें भी कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है।
एक टांगिया काश्तकार कहते हैं कि उन्हें अधिकार पत्र मिल गया है लेकिन राजस्व अभिलेखों में उसका 'इंद्राज' न हो पाने के चलते प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि आदि योजनाओं तक का भी लाभ नहीं मिल पा रहा है। कहा कि पिछले दिनों टोंगिया गांव के एक लड़के की दुखद मृत्यु हो गई थी लेकिन राजस्व अभिलेख में नाम न होने से कृषक दुर्घटना बीमा योजना का भी लाभ परिवार को नहीं मिल सका है। यही नहीं, ग्रामीणों का कहना है कि खेतों में सिंचाई को बिजली आदि कनेक्शन व फसली ऋण तक नहीं मिल पा रहा है। अब ऐसा राजस्व का दर्जा भला किस काम का है।
ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल AIUFWP के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं कि जब राजस्व गांव घोषित हो गया है तो राजस्व गांव में वन विभाग का क्या काम है? राजस्व के आधे अधूरे दर्जे का कोई मतलब नहीं है, संपूर्ण दर्जा मिलना चाहिए। बाकी चीजे तो छोड़िए, तहसील रिकॉर्ड में इंद्राज के बिना राजस्व दर्जा कैसा है। चौधरी, इसके लिए प्रशासनिक अधिकारियों को कानून की बाबत अधूरी जानकारी और संवेदनशील न होने को ज़िम्मेवार ठहराते हैं।
अशोक चौधरी कहते हैं कि अधिकारी, वनाधिकार कानून का अनुपालन भूमि आवंटन (पट्टा वितरण) प्रक्रिया की तरह करा रहे हैं जबकि वनाधिकार अधिनियम, वन भूमि पर लोगों के (व्यक्तिगत व सामुदायिक) अधिकारों को मान्यता देने का 'विशेष' कानून है। इसमें ग्राम सभा का रोल सर्वाधिक अहम व निर्णायक होता है। वनाधिकार कानून के तहत तालाब-पोखर, सड़क, खुले स्थान, चारागाह व लघु वन उपज आदि आजीविका के स्रोतों के लिए वन भूमि पर सामुदायिक अधिकार भी हैं। सभी को संकलित करते हुए सर्वे/सत्यापन व सीमांकन होना चाहिए। ताकि सभी का राजस्व रिकॉर्ड में विधिवत इंद्राज दर्ज हो सके। वही जिन लोगों के दावे निरस्त किए गए हैं उन्हें स्वीकृत कर अधिकार पत्र दिए जाएं।
किस गांव में कितने दावे हुए स्वीकृत, कितने अस्वीकृत
वन अधिकार कानून समिति भगवतपुर टोंगिया के अध्यक्ष प्रवीण कुमार व वेदप्रकाश बताते हैं कि 550 दावे थे जिनमें से 150 दावे उत्तराखंड ट्रांसफर हो गए थे। बाकी हमारे 400 दावों में से 153 दावे स्वीकृत किए गए हैं। 247 दावों की बाबत हम लोग तहसील व जिले के चक्कर काट रहे है। अफसर मौन है। डीएम ने मौके पर टीम भेजकर सत्यापन कराने का भरोसा दिया है। कहा कि भगवतपुर टोंगिया में 147 दावे थे, 53 स्वीकृत किए गए हैं। 94 दावे उल्टे सीधे कारण गिनाकर निरस्त कर दिए गए हैं। कालूवाला टोंगिया में 37 में 27 दावे स्वीकृत किए हैं लेकिन कई मूल टोंगिया काश्तकार भी छोड़ दिए हैं।
सहारनपुर के बसपा सांसद हाजी फजलुर्रहमान को ज्ञापन सौंपते ग्रामीण
सोढ़ीनगर टोंगिया में 64 में 28 दावे स्वीकृत किए गए हैं जबकि पहले से राजस्व गांव से जुड़े खुशहालीपुर व गणेशपुर बुड्ढाबन टोंगिया के 153 दावों में से महज 46 दावे ही स्वीकृत किए जा सके है। 106 दावे निरस्त कर दिए गए हैं। इन सभी का सत्यापन कराकर स्वीकृत करते हुए वनाधिकार कानून के तहत लोगों को उनकी काबिज काश्त की जमीन पर मालिकाना हक दिया जाए।
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सवाल उठता है कि आखिर राजस्व गांव का यह कैसा दर्जा है? अधिकार पत्र हैं लेकिन अधिकार कोई नहीं है। राजस्व का दर्जा है लेकिन खतौनी में नाम नहीं है। मूलभूत बुनियादी सुविधाएं भी नदारद हैं। इसी सब से वन अधिकार अधिनियम 2006 के धरातल पर क्रियान्वयन को लेकर प्रदेश की योगी सरकार भी कटघरे में है।
वनाधिकार कानून-2006 में साफ है कि टांगिया गांव, राजस्व घोषित हो। लोगों के अपने घर मकान हों। जमीन व आजीविका का अधिकार हो ताकि गुमनामी और नाइंसाफी के अंधेरों में खोए टोंगिया ग्रामीण, न सिर्फ आजादी को महसूस कर सके बल्कि उसे जी भी सके और समाज व देश की मुख्य धारा से जुड़कर देश और प्रदेश के विकास के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ सके।
यूपी के सहारनपुर के घाड़ क्षेत्र में बसे चार टांगिया गांव कालूवाला, सोढ़ीनगर, भगवतपुर और बुड्ढाबन हैं। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के नेतृत्व में टोंगिया काश्तकारों के लंबे आंदोलन का ही परिणाम हैं कि गांव को राजस्व का दरजा मिला है। वहीं, कुछेक (करीब 25-30 प्रतिशत) लोगों को ही सही, आखिरकार वनाधिकार कानून के तहत अधिकार-पत्र भी दे दिये गये हैं। शिवालिक वन प्रभाग में बसे कालूवाला टांगिया के काश्तकारों को 2018 को जिला समाज कल्याण अधिकारी, प्रभागीय वन अधिकारी व उप जिलाधिकारी बेहट की उपस्थिति में रिहायश व काश्त की जमीन के अधिकार पत्र दिये गये हैं परन्तु जिन करीब 70-75% लोगों के दावे निरस्त कर दिए गए है, उनका निराकरण अभी नहीं हो सका है। हालांकि, सामुदायिक अधिकार अभी भी दूर की ही कौड़ी बने हैं।
खास है कि कालुवाला, सोढ़ीनगर व भगवतपुर को करीब 4 साल पहले राजस्व का दर्जा दिया जा चुका है। बुड्ढाबन पहले से ही राजस्व से जुड़ा हुआ है लेकिन यह दर्जा कागजों तक में ही कैद होकर रह गया है। सांसद हाजी फजलुर्रहमान के नेतृत्व में डीएम सहारनपुर से मिले वन टांगिया काश्तकारों वेदप्रकाश, सोमपाल, शेरसिंह ने बताया कि दो तिहाई लोगों के दावे निरस्त कर दिए गए हैं। उनमें काश्तकार और श्रमिक दोनों शामिल हैं। सर्वप्रथम उनका सत्यापन कराकर उनके दावे स्वीकृत किए जाएं। दूसरा जिन लोगों को स्वीकृति पत्र दिए गए हैं उन्हें भी सभी को जमीन नहीं दी गई है। सोमपाल बताते हैं कि उल्टा वन विभाग प्रशासन उन्हें लड़ाने की कोशिश कर रहा है। सोमपाल बताते हैं कि मौके पर अधिकारी इसकी काबिज काश्त की जमीन को दूसरे को आवंटित कर दे रहा है। जबकि वनाधिकार कानून में काबिज काश्त की जमीन पर ही मालिकाना हक़ दिया जाना है।
यही नहीं, वेदप्रकाश राजस्व के दर्जे पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि जब तक तहसील के रिकॉर्ड में यह दर्ज न हो तब तक उन्हें मिले अधिकार पत्रों का भी कोई औचित्य नहीं रह जाता है। टांगिया ग्रामीणों का कहना है कि अव्वल तो ज्यादातर लोगों के ग्राम सभा से पास दावों को गैर कानूनी तरीके से खारिज कर दिया गया है। दूसरा, जिन लोगों को अधिकार-पत्र मिले भी हैं, उनका भी नाम राजस्व अभिलेखों में दर्ज न हो पाने के चलते उन्हें भी कोई लाभ नहीं मिल पा रहा है।
एक टांगिया काश्तकार कहते हैं कि उन्हें अधिकार पत्र मिल गया है लेकिन राजस्व अभिलेखों में उसका 'इंद्राज' न हो पाने के चलते प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि आदि योजनाओं तक का भी लाभ नहीं मिल पा रहा है। कहा कि पिछले दिनों टोंगिया गांव के एक लड़के की दुखद मृत्यु हो गई थी लेकिन राजस्व अभिलेख में नाम न होने से कृषक दुर्घटना बीमा योजना का भी लाभ परिवार को नहीं मिल सका है। यही नहीं, ग्रामीणों का कहना है कि खेतों में सिंचाई को बिजली आदि कनेक्शन व फसली ऋण तक नहीं मिल पा रहा है। अब ऐसा राजस्व का दर्जा भला किस काम का है।
ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल AIUFWP के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी कहते हैं कि जब राजस्व गांव घोषित हो गया है तो राजस्व गांव में वन विभाग का क्या काम है? राजस्व के आधे अधूरे दर्जे का कोई मतलब नहीं है, संपूर्ण दर्जा मिलना चाहिए। बाकी चीजे तो छोड़िए, तहसील रिकॉर्ड में इंद्राज के बिना राजस्व दर्जा कैसा है। चौधरी, इसके लिए प्रशासनिक अधिकारियों को कानून की बाबत अधूरी जानकारी और संवेदनशील न होने को ज़िम्मेवार ठहराते हैं।
अशोक चौधरी कहते हैं कि अधिकारी, वनाधिकार कानून का अनुपालन भूमि आवंटन (पट्टा वितरण) प्रक्रिया की तरह करा रहे हैं जबकि वनाधिकार अधिनियम, वन भूमि पर लोगों के (व्यक्तिगत व सामुदायिक) अधिकारों को मान्यता देने का 'विशेष' कानून है। इसमें ग्राम सभा का रोल सर्वाधिक अहम व निर्णायक होता है। वनाधिकार कानून के तहत तालाब-पोखर, सड़क, खुले स्थान, चारागाह व लघु वन उपज आदि आजीविका के स्रोतों के लिए वन भूमि पर सामुदायिक अधिकार भी हैं। सभी को संकलित करते हुए सर्वे/सत्यापन व सीमांकन होना चाहिए। ताकि सभी का राजस्व रिकॉर्ड में विधिवत इंद्राज दर्ज हो सके। वही जिन लोगों के दावे निरस्त किए गए हैं उन्हें स्वीकृत कर अधिकार पत्र दिए जाएं।
किस गांव में कितने दावे हुए स्वीकृत, कितने अस्वीकृत
वन अधिकार कानून समिति भगवतपुर टोंगिया के अध्यक्ष प्रवीण कुमार व वेदप्रकाश बताते हैं कि 550 दावे थे जिनमें से 150 दावे उत्तराखंड ट्रांसफर हो गए थे। बाकी हमारे 400 दावों में से 153 दावे स्वीकृत किए गए हैं। 247 दावों की बाबत हम लोग तहसील व जिले के चक्कर काट रहे है। अफसर मौन है। डीएम ने मौके पर टीम भेजकर सत्यापन कराने का भरोसा दिया है। कहा कि भगवतपुर टोंगिया में 147 दावे थे, 53 स्वीकृत किए गए हैं। 94 दावे उल्टे सीधे कारण गिनाकर निरस्त कर दिए गए हैं। कालूवाला टोंगिया में 37 में 27 दावे स्वीकृत किए हैं लेकिन कई मूल टोंगिया काश्तकार भी छोड़ दिए हैं।
सहारनपुर के बसपा सांसद हाजी फजलुर्रहमान को ज्ञापन सौंपते ग्रामीण
सोढ़ीनगर टोंगिया में 64 में 28 दावे स्वीकृत किए गए हैं जबकि पहले से राजस्व गांव से जुड़े खुशहालीपुर व गणेशपुर बुड्ढाबन टोंगिया के 153 दावों में से महज 46 दावे ही स्वीकृत किए जा सके है। 106 दावे निरस्त कर दिए गए हैं। इन सभी का सत्यापन कराकर स्वीकृत करते हुए वनाधिकार कानून के तहत लोगों को उनकी काबिज काश्त की जमीन पर मालिकाना हक दिया जाए।
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