1946 में स्वतंत्रता की खातिर अंतिम जंग, रॉयल इंडियन नेवी म्युटिनी द्वारा लड़ी गई थी, उस आईएनए से प्रेरित युवा रॉयल इंडियन नेवी के नौसैनिकों के ऐतिहासिक विद्रोह की घटना को प्रमोद कपूर एक बार फिर से वर्णित कर रहे हैं।
ऐसा माना जाता है कि फरवरी 1946 के नौसैनिक विद्रोह को रॉयल इंडियन नेवी (आरआईएन) के भीतर उनके साथ किये जा रहे दुर्व्यवहार ने हवा दी थी, लेकिन इसके साथ ही वे इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) के नेताओं के राजनीतिक कारणों की वजह से भी प्रेरित थे, जिनके प्रमुख सदस्यों के ऊपर उस दौरान मुकदमा चलाया जा रहा था। समूचे भारत में नागरिकों और सैनिकों, अनेकों प्रगतिशील हस्तियों और कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से उन सभी धर्मों को मानने वाले 20,000 नौसैनिकों का समर्थन किया जा रहा था, जिन्होंने जहाजों और तटों पर स्थित प्रतिष्ठानों को अपने कब्जे में ले लिया था। इस विद्रोह ने अंग्रेजों के सामने इस बात को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया था कि यहाँ के लोग अब भारत के ऊपर विदेशी हुकूमत को और ज्यादा बर्दाश्त नहीं करने वाले हैं।
नौसैनिकों का यह विद्रोह मात्र चार दिनों तक चला। लेकिन इसने आम लोगों को प्रेरित करने का काम किया, जिन्होंने उनके साथ अपनी एकजुटता को जाहिर करने के लिए सड़कों पर उतरने का काम किया। जहाँ एक तरफ बंबई इसका मुख्य केंद्र बना हुआ था और इसके चलते उसे इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ा, वहीं कराची, विशाखापट्टनम, मद्रास, कलकत्ता, अहमदाबाद, त्रिचिनापल्ली, मदुरै, कानपुर एवं अन्य स्थानों पर भी अशांति भड़की हुई थी। नौसेना के विद्रोह से प्रेरणा पाकर, लोगों ने आजादी की लड़ाई की खातिर अपनी जान को जोखिम में डाल दिया। सड़कों पर उमड़ते लोगों के हुजूम को नियंत्रित करने में अंग्रेजों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। अंधाधुंध गोलीबारी से भी प्रदर्शनकारी शांत नहीं हुए। नौसैनिकों के इस अदम्य साहस ने आम लोगों को भी अपनी जद में ले लिया था।
विशाखापट्टनम में, कम्युनिस्ट पार्टी ने मजदूरों और अन्य नागरिकों के एक जुलूस का आयोजन किया था, जिसके पोस्टरों में कहा गया था, ‘गिरफ्तार नौसेना के लड़ाकों को रिहा करो’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’। प्रशासन ने प्रतिउत्तर में धारा 144 [आपराधिक प्रक्रिया संहिता] लागू करने और एक महीने के लिए सभी प्रकार के सामूहिक समारोहों पर प्रतिबंध लगाने के रूप में जवाबी कार्रवाई की।
कलकत्ता में, कलकत्ता ट्रामवे के श्रमिकों के नेतृत्व में एक अभूतपूर्व हड़ताल शुरू हो गई थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि सभी प्रकार के परिवहन के साधन - ट्राम, बस, टैक्सी और यहाँ तक कि ट्रेन तक पूरी तरह से ठप पड़ गई थीं। लगभग एक लाख छात्र और श्रमिक सड़कों पर उतरे हुए थे। प्रदर्शनकारी हाथों में कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झंडे लेकर नारे लगाते हुए पूरे शहर भर में चक्कर काट रहे थे और तीनों पार्टियों से एकजुट होकर नौसैनिक विद्रोह में मदद करने का आग्रह कर रहे थे। वे वेलिंगटन स्क्वायर पर एकत्र हुए, जहाँ पर इन तीनों दलों के नेताओं के द्वारा उन्हें संबोधित किया गया।
24 और 25 फरवरी को अहमदाबाद में भी बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए। लगभग 6,000 कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने कामदार मैदान में रैली निकाली और हड़ताल का आह्वान किया। कम्युनिस्टों से प्रेरणा लेते हुए, 10,000 से अधिक मिल मजदूरों ने, जिनमें से अधिकांश कांग्रेस और मुस्लिम लीग से जुड़े हुए थे, ने काम ठप कर दिया और इस प्रकार अठारह मिलें पूरी तरह से बंद हो गई थीं।
इसी तरह त्रिचिनापल्ली में करीब-करीब 10,000 मिल और कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों ने नौसैनिकों के साथ अपनी एकजुटता का इजहार करते हुए डेढ़ मील लंबा जुलूस निकाला। मद्रास में हड़ताल पूरी तरह से सफल रही जहाँ छात्रों, श्रमिकों, दुकानदारों ने तिलक घाट पर एक और विशाल रैली निकाली। इलियट रोड और रोयापुरम में पुलिस के साथ खूनी संघर्ष देखने को मिला। 27 फरवरी को मदुरै में एक दिवसीय बंद का समापन एक सभा में हुआ, जिसमें नौसेना विद्रोह के समर्थन में 50,000 से अधिक लोगों ने समर्थन में शपथ ली।
कराची में भी व्यापक पैमाने पर विरोध और हिंसा देखी गई। जबरदस्त संघर्ष के बाद एचएमआईएस हिंदुस्तान के आत्मसमर्पण के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आये। सीपीआई [भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी] के द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक सभा में लोगों को नौसैनिकों के विद्रोह का समर्थन करने का आह्वान करने के साथ 22 फरवरी को सारा शहर पूरी तरह से ठप पड़ गया था। ऐसा अनुमान है कि इस सभा में लगभग 5,000 लोग उपस्थित थे। 23 फरवरी को सीपीआई के नेतृत्व में एक अन्य प्रदर्शन में 30,000 हिंदूओं और मुसलामानों, मिल कामगारों और छात्रों ने प्रसिद्ध ईदगाह मैदान में विरोध प्रदर्शन करने के लिए जमा होना शुरू कर दिया, जिसे कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने जानबूझकर अनदेखा कर दिया था।
घबराए हुए जिलाधिकारी (डीएम) ने धारा 144 लागू कर दी थी, लेकिन लोगों ने अपने घरों में रहने से इनकार कर दिया था।
दोपहर 12:30 बजे तक अधिकारियों के द्वारा लगातार आंसू-गैस के गोले दागे गये, लेकिन निर्भीक महिलाओं के द्वारा उनके इन प्रयासों को निष्फल कर दिया गया, जिन्होंने प्रदर्शनकारियों के ऊपर बाल्टी भर-भर पानी उड़ेला और इस बात को सुनिश्चित किया कि आंसू गैस का उन पर कोई प्रभाव न पड़े। दोपहर 2:00 बजे युवा पुरुषों और महिलाओं ने अपने हमलावरों के ऊपर पथराव करना शुरू कर दिया था, जिसका जवाब उनकी ओर से मशीन गन की फायरिंग से दिया गया। चार प्रदर्शनकारियों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई, लेकिन संघर्ष जारी रहा क्योंकि मनोरा द्वीप से और लोग नावों से आ रहे थे और प्रदर्शन में शामिल हो रहे थे। इस दौरान पुलिस की ओर से कई दफा फायरिंग की गई। आधिकारिक आंकड़ों में आठ मौतों और छब्बीस लोगों के गंभीर रूप से घायल होने का उल्लेख है। घायलों को सार्वजनिक वाहनों के जरिये शहर ले जाया गया, जबकि वाहन मालिकों और चालकों ने बदले में पैसा लेने से इनकार कर दिया था।
कराची में अशांति की खबरों की रिपोर्टिंग करते हुए डॉन ने अपने पहले पेज पर घोषणा की थी: ‘कराची पुलिस ने फायरिंग की।’ खबर में आगे लिखा हुआ था: ‘पुलिस ने शुक्रवार (22 फरवरी) को कराची के ईदगाह मैदान के पास भीड़ पर गोलियां बरसाई, जो दोपहर करीब 2:30 बजे तक पुलिस पर तीन दफा धावा बोल चुकी थी..। शनिवार की सुबह तीन कम्युनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, जो एक सभा को संबोधित करते हुए जनता से हड़ताल करने का आह्वान कर रहे थे। बाद में छह स्कूली बच्चों और दुग्ध विक्रेताओं को नगरपालिका कार्यालय पर कब्जा जमाने की कोशिश करने…और पुलिस के ऊपर पथराव करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था।
अंग्रेजों के द्वारा भारत छोड़ने का फैसला लेने के पीछे एक और वजह महिलाओं और बच्चों सहित आम नागरिकों के द्वारा स्वतः स्फूर्त और व्यापक विरोध प्रदर्शनों में शामिल होना भी था। अब वे आम लोगों को झुकाने के लिए हथियारों पर अपनी भारी बढ़त पर भरोसा नहीं कर सकते थे, और इसके साथ ही ऐसी कई घटनाएं देखने में आ रही थीं, जिसमें भारतीय पुलिसकर्मियों और सैनिकों ने अपने देशवासियों के ऊपर गोली चलाने से इनकार कर दिया था।
इतिहास फरवरी 1946 के नौसैनिक विद्रोह को ब्रिटिश राज के खात्मे की शुरुआत के तौर पर दर्ज करेगा। आजादी के लिए चले इस ऐतिहासिक संघर्ष की परिणति आखिरकार अठारह महीने बाद जाकर फलदाई साबित हुई, और निःसंदेह इसमें नौसैनिक विद्रोह के अथक प्रयासों ने एक अहम भूमिका निभाई है। चार दिनों और रातों के लिए, नौसेनिकों ने बर्तानवी सैन्य शक्ति का जमकर लोहा लिया था, और वे इसमें करीब-करीब सफल हो चुके थे। उन्होंने रॉयल इंडियन नेवी को अपने कब्जे में लेने और इसे राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व को सौंपने के अविश्वसनीय कारनामे को लगभग पूरा कर लिया था। वे संभवतः इसमें सफल भी हो जाते, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व से समर्थन के अभाव में ऐसा संभव नहीं हो सका।
मृतकों की संख्या, जिसे मुख्य रूप से बंबई के सड़कों पर चले संघर्ष के रूप में दर्ज किया गया था, वह उस दौरान पहले ही सबसे अधिक दर्ज की गई थी। सड़कों पर पुलिस के खिलाफ इस संघर्ष को आम नागरिकों के द्वारा कई दिनों तक जारी रखा गया। नौसैनिकों के लिए आत्मसमर्पण करना एक मार्मिक और दिल तोड़ने वाला क्षण था। असफल विद्रोह और बाद में इसके प्रमुख नेताओं और अन्य लोगों को दी गई सजा तो और भी दिल को व्यथित करने वाली थी।
अड़तालीस घंटों के भीतर ही प्रशासन ने विद्रोह में हिस्सा लेने वाले प्रत्येक नौसैनिक को हिरासत में लेते हुए सामूहिक गिरफ्तारी शुरू कर दी थी। एमएस खान [विद्रोह के एक नेता], मदन सिंह [नौसेना केंद्रीय हड़ताल कमेटी या एनसीएससी के निर्वाचित उपाध्यक्ष], एवं एनसीएससी के अन्य प्रमुख सदस्यों को हिरासत में ले लिया गया था और उन्हें बंदी शिविरों में ले जाया गया था।
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जबकि कोई आधिकारिक आंकड़े कभी जारी नहीं किया गया, वहीं [बुलाई चंद] दत्त [“एक अदम्य साहसी व्यक्ति जिनका कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति गहरा झुकाव था” जो “महात्मा गाँधी की तुलना में नेताजी सुभाष बोस पर कहीं अधिक भरोसा रखते थे” और जिन्होंने इस प्रकरण पर एक किताब लिखी है] के अनुमान के मुताबिक 2,000 से अधिक की संख्या में विभिन्न केन्द्रों से नौसैनिकों की सामूहिक गिरफ्तारी की गई थी। इतिहास के पृष्ठों से इन्हें गायब कर दिया गया। यह तुलनात्मक रूप से काफी विश्वसनीय आकलन है क्योंकि हिरासत में लेने की पहली लहर के दौरान ही अकेले बम्बई से लगभग 400 नौसैनिकों को गिरफ्तार किया गया था, और कम से कम 500 अन्य लोगों को कराची में हिरासत में लिया गया था।
निश्चित रूप से व्यापक पैमाने पर गिरफ्तारियां की गई थीं। आत्मसमर्पण के दस घंटों के भीतर ही बंबई में 396 नौसैनिकों को हिरासत में ले लिया गया था। इनमें से 80 लोग तलवार, कैसल बैरक, फोर्ट बैरक जैसे तट प्रतिष्ठानों से सम्बद्ध थे। इसके अलावा 180 नौसेनिक समुदी जाहाजों से थे, और तकरीबन 130 लोग माहुल में स्थित वायरलेस स्टेशन और बॉम्बे डॉक में स्थित छोटे जहाज़ों से थे। खान की बाद की कहानी और भी दर्दनाक रही होगी…। खान और सिंह दोनों इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि अंग्रेज उनके प्रति किसी प्रकार की दया नहीं दिखायेंगे, और वे उन 396 नौसैनिकों के पहले बैच में से थे जिन्हें बंबई के उत्तरपूर्वी इलाके में मुलुंड शिविर में गुप्त रूप से स्थानांतरित कर दिया गया था।
ऊँचे कटीले तार की बाड़ें हर सुबह उनका स्वागत करती थीं, और साथी नौसैनिकों या बाहरी दुनिया के बारे में उनके पास कोई खबर नहीं थी। अंग्रेज इन लोगों को तोड़ना चाहते थे और भविष्य में इस प्रकार के प्रतिरोध की किसी भी संभावना को खत्म करना चाहते थे। मुलुंड शिविर में सभी तरफ से कंटीले तारों से घिरे इन लोगों को समूह में झुंड बनाकर रखा गया था और निसान झोंपड़ियों में बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया था। उनके साथ मारपीट की जाती थी और लात-घूंसे बरसाए जाते थे और यहाँ तक कि भोजन, पानी और दवाओं तक से मरहूम रखा गया था। इनमें से बहुत से लोग टूट गये और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, जहाँ पर गार्ड के द्वारा इन लोगों पर लगातार निगाह रखी जाती थी, जबकि वे मैले-कुचैले खटमल से भरे बिस्तरों में क्षीणकाय अचेत अवस्था में पड़े हुए थे।
उनके साथियों में से जिन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका था, और इस मामले में सौभाग्यशाली रहे थे, ने सहानुभूति रखने वाले महरट्टा गार्डों के पीछे राष्ट्रवादी कागजात की तस्करी के जरिये प्रतिरोध को बनाये रखा हुआ था। इन समाचार पत्रों ने उनके पराक्रम की कहानियाँ छापी, जिससे उनके हौसले और मनोबल को ऊँचा बनाये रखने में मदद मिली। उन्हें अभी भी इस बात की उम्मीद थी कि राष्ट्रवादी राजनेता, जिन्होंने उन्हें किसी भी प्रकार की दमनात्मक कार्रवाई से बचाने का वादा किया था, उनकी मदद के लिए आगे आयेंगे। लेकिन उनकी यह उम्मीद बेमानी साबित हुई।
इन बहादुर युवाओं में से कई के बाद के भाग्य का लेखा-जोखा अज्ञात बना हुआ है। उन्होंने अपना समय जेल में या बंदी शिविरों में गुजारा; जिसके बाद उन्हें अपमानजनक तरीके से सेवा से बरखास्त कर दिया गया था। इनमें से कई लोग गायब हो गये और आज तक उनका कोई पता या सुराग नहीं लग सका है, और उनकी कहानियाँ आज तक हमारे लोगों के लिए गुमनाम बनी हुई है। ऐतिहासिक रिकॉर्ड में यह अंतर बना हुआ है, जो पूरी तरह से अक्षम्य है।
प्रमोद कपूर, 1946: लास्ट वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस, रॉयल इंडियन नेवी म्युटिनी, रोली बुक्स, 2022
Courtesy: Newsclick
ऐसा माना जाता है कि फरवरी 1946 के नौसैनिक विद्रोह को रॉयल इंडियन नेवी (आरआईएन) के भीतर उनके साथ किये जा रहे दुर्व्यवहार ने हवा दी थी, लेकिन इसके साथ ही वे इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) के नेताओं के राजनीतिक कारणों की वजह से भी प्रेरित थे, जिनके प्रमुख सदस्यों के ऊपर उस दौरान मुकदमा चलाया जा रहा था। समूचे भारत में नागरिकों और सैनिकों, अनेकों प्रगतिशील हस्तियों और कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से उन सभी धर्मों को मानने वाले 20,000 नौसैनिकों का समर्थन किया जा रहा था, जिन्होंने जहाजों और तटों पर स्थित प्रतिष्ठानों को अपने कब्जे में ले लिया था। इस विद्रोह ने अंग्रेजों के सामने इस बात को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया था कि यहाँ के लोग अब भारत के ऊपर विदेशी हुकूमत को और ज्यादा बर्दाश्त नहीं करने वाले हैं।
नौसैनिकों का यह विद्रोह मात्र चार दिनों तक चला। लेकिन इसने आम लोगों को प्रेरित करने का काम किया, जिन्होंने उनके साथ अपनी एकजुटता को जाहिर करने के लिए सड़कों पर उतरने का काम किया। जहाँ एक तरफ बंबई इसका मुख्य केंद्र बना हुआ था और इसके चलते उसे इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ा, वहीं कराची, विशाखापट्टनम, मद्रास, कलकत्ता, अहमदाबाद, त्रिचिनापल्ली, मदुरै, कानपुर एवं अन्य स्थानों पर भी अशांति भड़की हुई थी। नौसेना के विद्रोह से प्रेरणा पाकर, लोगों ने आजादी की लड़ाई की खातिर अपनी जान को जोखिम में डाल दिया। सड़कों पर उमड़ते लोगों के हुजूम को नियंत्रित करने में अंग्रेजों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। अंधाधुंध गोलीबारी से भी प्रदर्शनकारी शांत नहीं हुए। नौसैनिकों के इस अदम्य साहस ने आम लोगों को भी अपनी जद में ले लिया था।
विशाखापट्टनम में, कम्युनिस्ट पार्टी ने मजदूरों और अन्य नागरिकों के एक जुलूस का आयोजन किया था, जिसके पोस्टरों में कहा गया था, ‘गिरफ्तार नौसेना के लड़ाकों को रिहा करो’ और ‘साम्राज्यवाद का नाश हो’। प्रशासन ने प्रतिउत्तर में धारा 144 [आपराधिक प्रक्रिया संहिता] लागू करने और एक महीने के लिए सभी प्रकार के सामूहिक समारोहों पर प्रतिबंध लगाने के रूप में जवाबी कार्रवाई की।
कलकत्ता में, कलकत्ता ट्रामवे के श्रमिकों के नेतृत्व में एक अभूतपूर्व हड़ताल शुरू हो गई थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि सभी प्रकार के परिवहन के साधन - ट्राम, बस, टैक्सी और यहाँ तक कि ट्रेन तक पूरी तरह से ठप पड़ गई थीं। लगभग एक लाख छात्र और श्रमिक सड़कों पर उतरे हुए थे। प्रदर्शनकारी हाथों में कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झंडे लेकर नारे लगाते हुए पूरे शहर भर में चक्कर काट रहे थे और तीनों पार्टियों से एकजुट होकर नौसैनिक विद्रोह में मदद करने का आग्रह कर रहे थे। वे वेलिंगटन स्क्वायर पर एकत्र हुए, जहाँ पर इन तीनों दलों के नेताओं के द्वारा उन्हें संबोधित किया गया।
24 और 25 फरवरी को अहमदाबाद में भी बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए। लगभग 6,000 कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने कामदार मैदान में रैली निकाली और हड़ताल का आह्वान किया। कम्युनिस्टों से प्रेरणा लेते हुए, 10,000 से अधिक मिल मजदूरों ने, जिनमें से अधिकांश कांग्रेस और मुस्लिम लीग से जुड़े हुए थे, ने काम ठप कर दिया और इस प्रकार अठारह मिलें पूरी तरह से बंद हो गई थीं।
इसी तरह त्रिचिनापल्ली में करीब-करीब 10,000 मिल और कार्यालय में काम करने वाले कर्मचारियों ने नौसैनिकों के साथ अपनी एकजुटता का इजहार करते हुए डेढ़ मील लंबा जुलूस निकाला। मद्रास में हड़ताल पूरी तरह से सफल रही जहाँ छात्रों, श्रमिकों, दुकानदारों ने तिलक घाट पर एक और विशाल रैली निकाली। इलियट रोड और रोयापुरम में पुलिस के साथ खूनी संघर्ष देखने को मिला। 27 फरवरी को मदुरै में एक दिवसीय बंद का समापन एक सभा में हुआ, जिसमें नौसेना विद्रोह के समर्थन में 50,000 से अधिक लोगों ने समर्थन में शपथ ली।
कराची में भी व्यापक पैमाने पर विरोध और हिंसा देखी गई। जबरदस्त संघर्ष के बाद एचएमआईएस हिंदुस्तान के आत्मसमर्पण के विरोध में लोग सड़कों पर उतर आये। सीपीआई [भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी] के द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक सभा में लोगों को नौसैनिकों के विद्रोह का समर्थन करने का आह्वान करने के साथ 22 फरवरी को सारा शहर पूरी तरह से ठप पड़ गया था। ऐसा अनुमान है कि इस सभा में लगभग 5,000 लोग उपस्थित थे। 23 फरवरी को सीपीआई के नेतृत्व में एक अन्य प्रदर्शन में 30,000 हिंदूओं और मुसलामानों, मिल कामगारों और छात्रों ने प्रसिद्ध ईदगाह मैदान में विरोध प्रदर्शन करने के लिए जमा होना शुरू कर दिया, जिसे कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने जानबूझकर अनदेखा कर दिया था।
घबराए हुए जिलाधिकारी (डीएम) ने धारा 144 लागू कर दी थी, लेकिन लोगों ने अपने घरों में रहने से इनकार कर दिया था।
दोपहर 12:30 बजे तक अधिकारियों के द्वारा लगातार आंसू-गैस के गोले दागे गये, लेकिन निर्भीक महिलाओं के द्वारा उनके इन प्रयासों को निष्फल कर दिया गया, जिन्होंने प्रदर्शनकारियों के ऊपर बाल्टी भर-भर पानी उड़ेला और इस बात को सुनिश्चित किया कि आंसू गैस का उन पर कोई प्रभाव न पड़े। दोपहर 2:00 बजे युवा पुरुषों और महिलाओं ने अपने हमलावरों के ऊपर पथराव करना शुरू कर दिया था, जिसका जवाब उनकी ओर से मशीन गन की फायरिंग से दिया गया। चार प्रदर्शनकारियों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई, लेकिन संघर्ष जारी रहा क्योंकि मनोरा द्वीप से और लोग नावों से आ रहे थे और प्रदर्शन में शामिल हो रहे थे। इस दौरान पुलिस की ओर से कई दफा फायरिंग की गई। आधिकारिक आंकड़ों में आठ मौतों और छब्बीस लोगों के गंभीर रूप से घायल होने का उल्लेख है। घायलों को सार्वजनिक वाहनों के जरिये शहर ले जाया गया, जबकि वाहन मालिकों और चालकों ने बदले में पैसा लेने से इनकार कर दिया था।
कराची में अशांति की खबरों की रिपोर्टिंग करते हुए डॉन ने अपने पहले पेज पर घोषणा की थी: ‘कराची पुलिस ने फायरिंग की।’ खबर में आगे लिखा हुआ था: ‘पुलिस ने शुक्रवार (22 फरवरी) को कराची के ईदगाह मैदान के पास भीड़ पर गोलियां बरसाई, जो दोपहर करीब 2:30 बजे तक पुलिस पर तीन दफा धावा बोल चुकी थी..। शनिवार की सुबह तीन कम्युनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, जो एक सभा को संबोधित करते हुए जनता से हड़ताल करने का आह्वान कर रहे थे। बाद में छह स्कूली बच्चों और दुग्ध विक्रेताओं को नगरपालिका कार्यालय पर कब्जा जमाने की कोशिश करने…और पुलिस के ऊपर पथराव करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था।
अंग्रेजों के द्वारा भारत छोड़ने का फैसला लेने के पीछे एक और वजह महिलाओं और बच्चों सहित आम नागरिकों के द्वारा स्वतः स्फूर्त और व्यापक विरोध प्रदर्शनों में शामिल होना भी था। अब वे आम लोगों को झुकाने के लिए हथियारों पर अपनी भारी बढ़त पर भरोसा नहीं कर सकते थे, और इसके साथ ही ऐसी कई घटनाएं देखने में आ रही थीं, जिसमें भारतीय पुलिसकर्मियों और सैनिकों ने अपने देशवासियों के ऊपर गोली चलाने से इनकार कर दिया था।
इतिहास फरवरी 1946 के नौसैनिक विद्रोह को ब्रिटिश राज के खात्मे की शुरुआत के तौर पर दर्ज करेगा। आजादी के लिए चले इस ऐतिहासिक संघर्ष की परिणति आखिरकार अठारह महीने बाद जाकर फलदाई साबित हुई, और निःसंदेह इसमें नौसैनिक विद्रोह के अथक प्रयासों ने एक अहम भूमिका निभाई है। चार दिनों और रातों के लिए, नौसेनिकों ने बर्तानवी सैन्य शक्ति का जमकर लोहा लिया था, और वे इसमें करीब-करीब सफल हो चुके थे। उन्होंने रॉयल इंडियन नेवी को अपने कब्जे में लेने और इसे राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व को सौंपने के अविश्वसनीय कारनामे को लगभग पूरा कर लिया था। वे संभवतः इसमें सफल भी हो जाते, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व से समर्थन के अभाव में ऐसा संभव नहीं हो सका।
मृतकों की संख्या, जिसे मुख्य रूप से बंबई के सड़कों पर चले संघर्ष के रूप में दर्ज किया गया था, वह उस दौरान पहले ही सबसे अधिक दर्ज की गई थी। सड़कों पर पुलिस के खिलाफ इस संघर्ष को आम नागरिकों के द्वारा कई दिनों तक जारी रखा गया। नौसैनिकों के लिए आत्मसमर्पण करना एक मार्मिक और दिल तोड़ने वाला क्षण था। असफल विद्रोह और बाद में इसके प्रमुख नेताओं और अन्य लोगों को दी गई सजा तो और भी दिल को व्यथित करने वाली थी।
अड़तालीस घंटों के भीतर ही प्रशासन ने विद्रोह में हिस्सा लेने वाले प्रत्येक नौसैनिक को हिरासत में लेते हुए सामूहिक गिरफ्तारी शुरू कर दी थी। एमएस खान [विद्रोह के एक नेता], मदन सिंह [नौसेना केंद्रीय हड़ताल कमेटी या एनसीएससी के निर्वाचित उपाध्यक्ष], एवं एनसीएससी के अन्य प्रमुख सदस्यों को हिरासत में ले लिया गया था और उन्हें बंदी शिविरों में ले जाया गया था।
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जबकि कोई आधिकारिक आंकड़े कभी जारी नहीं किया गया, वहीं [बुलाई चंद] दत्त [“एक अदम्य साहसी व्यक्ति जिनका कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति गहरा झुकाव था” जो “महात्मा गाँधी की तुलना में नेताजी सुभाष बोस पर कहीं अधिक भरोसा रखते थे” और जिन्होंने इस प्रकरण पर एक किताब लिखी है] के अनुमान के मुताबिक 2,000 से अधिक की संख्या में विभिन्न केन्द्रों से नौसैनिकों की सामूहिक गिरफ्तारी की गई थी। इतिहास के पृष्ठों से इन्हें गायब कर दिया गया। यह तुलनात्मक रूप से काफी विश्वसनीय आकलन है क्योंकि हिरासत में लेने की पहली लहर के दौरान ही अकेले बम्बई से लगभग 400 नौसैनिकों को गिरफ्तार किया गया था, और कम से कम 500 अन्य लोगों को कराची में हिरासत में लिया गया था।
निश्चित रूप से व्यापक पैमाने पर गिरफ्तारियां की गई थीं। आत्मसमर्पण के दस घंटों के भीतर ही बंबई में 396 नौसैनिकों को हिरासत में ले लिया गया था। इनमें से 80 लोग तलवार, कैसल बैरक, फोर्ट बैरक जैसे तट प्रतिष्ठानों से सम्बद्ध थे। इसके अलावा 180 नौसेनिक समुदी जाहाजों से थे, और तकरीबन 130 लोग माहुल में स्थित वायरलेस स्टेशन और बॉम्बे डॉक में स्थित छोटे जहाज़ों से थे। खान की बाद की कहानी और भी दर्दनाक रही होगी…। खान और सिंह दोनों इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि अंग्रेज उनके प्रति किसी प्रकार की दया नहीं दिखायेंगे, और वे उन 396 नौसैनिकों के पहले बैच में से थे जिन्हें बंबई के उत्तरपूर्वी इलाके में मुलुंड शिविर में गुप्त रूप से स्थानांतरित कर दिया गया था।
ऊँचे कटीले तार की बाड़ें हर सुबह उनका स्वागत करती थीं, और साथी नौसैनिकों या बाहरी दुनिया के बारे में उनके पास कोई खबर नहीं थी। अंग्रेज इन लोगों को तोड़ना चाहते थे और भविष्य में इस प्रकार के प्रतिरोध की किसी भी संभावना को खत्म करना चाहते थे। मुलुंड शिविर में सभी तरफ से कंटीले तारों से घिरे इन लोगों को समूह में झुंड बनाकर रखा गया था और निसान झोंपड़ियों में बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया था। उनके साथ मारपीट की जाती थी और लात-घूंसे बरसाए जाते थे और यहाँ तक कि भोजन, पानी और दवाओं तक से मरहूम रखा गया था। इनमें से बहुत से लोग टूट गये और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, जहाँ पर गार्ड के द्वारा इन लोगों पर लगातार निगाह रखी जाती थी, जबकि वे मैले-कुचैले खटमल से भरे बिस्तरों में क्षीणकाय अचेत अवस्था में पड़े हुए थे।
उनके साथियों में से जिन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सका था, और इस मामले में सौभाग्यशाली रहे थे, ने सहानुभूति रखने वाले महरट्टा गार्डों के पीछे राष्ट्रवादी कागजात की तस्करी के जरिये प्रतिरोध को बनाये रखा हुआ था। इन समाचार पत्रों ने उनके पराक्रम की कहानियाँ छापी, जिससे उनके हौसले और मनोबल को ऊँचा बनाये रखने में मदद मिली। उन्हें अभी भी इस बात की उम्मीद थी कि राष्ट्रवादी राजनेता, जिन्होंने उन्हें किसी भी प्रकार की दमनात्मक कार्रवाई से बचाने का वादा किया था, उनकी मदद के लिए आगे आयेंगे। लेकिन उनकी यह उम्मीद बेमानी साबित हुई।
इन बहादुर युवाओं में से कई के बाद के भाग्य का लेखा-जोखा अज्ञात बना हुआ है। उन्होंने अपना समय जेल में या बंदी शिविरों में गुजारा; जिसके बाद उन्हें अपमानजनक तरीके से सेवा से बरखास्त कर दिया गया था। इनमें से कई लोग गायब हो गये और आज तक उनका कोई पता या सुराग नहीं लग सका है, और उनकी कहानियाँ आज तक हमारे लोगों के लिए गुमनाम बनी हुई है। ऐतिहासिक रिकॉर्ड में यह अंतर बना हुआ है, जो पूरी तरह से अक्षम्य है।
प्रमोद कपूर, 1946: लास्ट वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस, रॉयल इंडियन नेवी म्युटिनी, रोली बुक्स, 2022
Courtesy: Newsclick