वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद विरोध की आवाज को खामोश करने की कोशिश करना नया नहीं है. लगातार बढ़ते ऐसे प्रयासों को अब क्रूरता के साथ लागू किया जा रहा है जो ख़त्म होते संवैधानिक मूल्य और देश के लोकतान्त्रिक वजूद को झकझोर रहा है. धर्म के नाम पर नफरत के खेल को उजागर करने वाले मोहम्मद जुबेर हों या वंचितों की मजबूत आवाज मानवाधिकार कार्यकर्ता व् पत्रकार तीस्ता सेतलवाड़, उन पर सरकारी दमन लोकतंत्र के एक पिलर न्यायपालिका पर भी सवाल खड़ा करता है.
अमेरिका में जाकर भारत के चीफ जस्टिस ने कहा है कि “नागरिकों को स्वतंत्रता और लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए अथक परिश्रम करना चाहिए. जस्टिस चंद्रचूड के वक्तव्य है कि “सरकार के झूठ को उजागर करते रहना चाहिए” सवाल है इन दोनों ही कार्य को करने वाले तीस्ता सेतलवाड़ और पत्रकार जुबेर जैसे लोग आज सलाखों के पीछे क्यूँ हैं? न्यायालय को सीढ़ी बना कर किए गए इस सरकारी कृत्य की दुनियाभर में निंदा की जा रही है और इनकी रिहाई की मांग हो रही है.
पुरानी पीढ़ी से विरासत में मिले मानव अधिकारों के लिए किए जा रहे काम को मजबूती और तन्मयता से आगे बढ़ा रहीं तीस्ता सेतलवाड़ किसी पहचान की मुहताज नहीं हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ता समाज में वो काम करते हैं जो राजनीतिक दल नहीं करते हैं. जैसे असम में हुए नेल्ली का संहार हो या भागलपुर का मुसलमानों का संहार या 1984 का सिखों का संहार, ये मानवाधिकार समूह ही इन वाकयों की रिपोर्ट तैयार करने में आगे रहे जिससे मालूम हुआ कि वास्तव में क्या हुआ था और फिर जो हिंसा के शिकार हुए, उन्हें इंसाफ दिलाने में भी उनकी मदद की.
मानवाधिकार कार्यकर्ता राज्य और समाज के बीच एक कड़ी का काम करते हैं. वे संवैधानिक संस्थाओं को जवाबदेह बनाने का काम भी करती हैं. राज्य सत्ता से उनका सीधा सामना होना लाजिमी है.
अपूर्वानंद विस्तार से लिखते हैं कि, “महात्मा गाँधी की चंपारण यात्रा एक तथ्य संग्रह यात्रा थी. वे उन किसानों की शिकायत पर वहाँ गए थे जो निलहे साहबों के अत्याचार और शोषण के शिकार थे. अंग्रेज़ सरकार ने उनसे वही कहा था जो अभी तीस्ता सेतलवाड़ से कहा जा रहा है. यह कि आपका यहाँ क्या काम है. फिर भी गाँधी ने वापस जाने से इनकार किया और वहाँ के हालात पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. क्या यह आश्चर्य की बात है कि तत्कालीन अंग्रेज़ हुकूमत ने गाँधी की उस रिपोर्ट पर उनसे संवाद भी किया और कुछ कार्रवाई भी की? क्या यह अभी संभव है? यही जालियाँवाला बाग के हत्याकांड के बाद भी हुआ”.
जालियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद जो हंटर कमीशन बना उसमें जनरल डायर से जिस शख्स ने तीखी जिरह की, उनका नाम चिमनलाल सेतलवाड़ था. अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें इसके लिए जेल में नहीं डाल दिया था. यह संयोग ही है कि तीस्ता उनकी प्रपौत्री हैं. वही काम आज़ाद हिंदुस्तान में करने के लिए जो उनके प्रपितामह ने किया, उन्हें आज जेल में डाल दिया गया है.
ये वही तीस्ता सेतलवाड़ हैं जिनके बाबा एमसी सेतलवाड़ देश के पहले अटॉर्नी जनरल थे. जिनके परबाबा चिमनलाल हरिलाल सेतलवाड़ ने जालियांवाला बाग में 400 हिंदुस्तानियों को मार देने वाले जनरल डायर के खिलाफ ब्रिटिश अदालत में मुकदमा लड़ा और डायर को कोर्ट मार्शल कराया, उसे डिमोट कराया. इनके परबाबा डा. भीमराव आंबेडकर के बहिष्कृत हितकारिणी सभा के फॉऊंडिंग प्रेसिडेंट थे.
तीस्ता सेतलवाड़ के परिवार के बारे में पूरी सच्चाई इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय के इस वीडियो में देख सकते हैं
ये वही तीस्ता हैं जो दंगों में मारे गए सैकड़ों हिंदुओं के न्याय की लड़ाई ही नहीं लड़तीं, बल्कि दर्जनों की शिक्षा दीक्षा का काम भी देखती हैं. मुम्बई बम ब्लास्ट 1993 में मारे गए "हिंदुओ" की लड़ाई भी तीस्ता ही लड़ीं, सरकार से मदद दिलाई.
यह पूरा परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी आम लोगों की लड़ाई लड़ता रहा है. तीस्ता के पिता भी जाने माने बैरिस्टर थे और जनहित के मुद्दों पर लड़ने के लिए जाने जाते हैं. ये लोग देश भक्ति का ढोंग नहीं करते, इनकी तीन पीढ़ी आम लोगों के लिए गोरे अंग्रेजों से लड़ी है और स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी काले अंग्रेजों से लड़ रही है.
लोगों का मानना है कि “तीस्ता सेतलवाड़ के होने का मतलब एक बहादुर औरत का पब्लिक स्फीयर में होना है, जिससे देश की साम्प्रदायिक ताकतों और उनके सबसे बड़े आका को डर लगता है. तीस्ता को बर्बाद करने के लिए सरकार ने जितनी ताकत झोंक रखी है, वही तो तीस्ता होने का मतलब है.”
आरएसएस देश की आजादी के लिए लड़ने वाले हर व्यक्ति, परिवार, विचारधारा से स्वाभाविक रूप से नफरत करती है और उनके खिलाफ कार्यवाही करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती है. ऐसा एक भी आज़ादी का नायक आप को नहीं मिलेगा जिसके पक्ष और समर्थन में आरएसएस के लोगों ने 1925 से 1947 तक कोई लेख लिखा हो, या कोई आंदोलन चलाया हो. उस समय या तो यह जिन्ना के हमखयाल थे, या अंग्रजी राज की फंडिंग पर स्वाधीनता संग्राम सेनानियों की मुखबिरी कर रहे थे. मानवाधिकार कार्यकर्ता व् पत्रकार तीस्ता सेतलवाड़ की रिहाई को लेकर देश में युवा, श्रमिक, पत्रकार व् सिविल सोसाइटी का एक बड़ा वर्ग सड़कों पर उतर चुका है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार द्वारा किए गए इस कृत्य की निंदा हो रही है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भूमिका भारत जैसे देश में काफी महत्व रखती है जहाँ भारतीय पुलिस और प्रशासन सामान्यतः कमजोर जनता के विरुद्ध ही खड़ी होती है. भारत के पुलिस थानों में पहुंची औरत, दलित, आदिवासी, मुसलमान या अन्य अल्पसंख्यकों और वंचितों को हमेशा संदेह की नजर से ही देखा जाता है. उन पर लगातार हो रहे प्रताड़ना की शिकायत भी बहुत ही मुश्किल से सुनी जाती है. दुनिया के लगभग सभी देशों के ताकतवर वर्गों द्वारा मानवाधिकार समूहों को हिकारत की नजर से ही देखा जाता है. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए खड़े होने की वजह से बहुसंख्यक समूह उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं. जाहिर है इस देश का एक बड़ा तबका भी मानवाधिकार कार्यकर्ता से नफरत करता है. मगर याद रहना चाहिए कि बदनाम और बर्बाद हो कर भी ये समूह इन्साफ की लड़ाई प्रशासन और सरकार से लडता रहा है और इन्हें कमजोर किए जाने का मतलब एक बड़ी आबादी पर चोट किया जाना है.
Related:
अमेरिका में जाकर भारत के चीफ जस्टिस ने कहा है कि “नागरिकों को स्वतंत्रता और लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए अथक परिश्रम करना चाहिए. जस्टिस चंद्रचूड के वक्तव्य है कि “सरकार के झूठ को उजागर करते रहना चाहिए” सवाल है इन दोनों ही कार्य को करने वाले तीस्ता सेतलवाड़ और पत्रकार जुबेर जैसे लोग आज सलाखों के पीछे क्यूँ हैं? न्यायालय को सीढ़ी बना कर किए गए इस सरकारी कृत्य की दुनियाभर में निंदा की जा रही है और इनकी रिहाई की मांग हो रही है.
पुरानी पीढ़ी से विरासत में मिले मानव अधिकारों के लिए किए जा रहे काम को मजबूती और तन्मयता से आगे बढ़ा रहीं तीस्ता सेतलवाड़ किसी पहचान की मुहताज नहीं हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ता समाज में वो काम करते हैं जो राजनीतिक दल नहीं करते हैं. जैसे असम में हुए नेल्ली का संहार हो या भागलपुर का मुसलमानों का संहार या 1984 का सिखों का संहार, ये मानवाधिकार समूह ही इन वाकयों की रिपोर्ट तैयार करने में आगे रहे जिससे मालूम हुआ कि वास्तव में क्या हुआ था और फिर जो हिंसा के शिकार हुए, उन्हें इंसाफ दिलाने में भी उनकी मदद की.
मानवाधिकार कार्यकर्ता राज्य और समाज के बीच एक कड़ी का काम करते हैं. वे संवैधानिक संस्थाओं को जवाबदेह बनाने का काम भी करती हैं. राज्य सत्ता से उनका सीधा सामना होना लाजिमी है.
अपूर्वानंद विस्तार से लिखते हैं कि, “महात्मा गाँधी की चंपारण यात्रा एक तथ्य संग्रह यात्रा थी. वे उन किसानों की शिकायत पर वहाँ गए थे जो निलहे साहबों के अत्याचार और शोषण के शिकार थे. अंग्रेज़ सरकार ने उनसे वही कहा था जो अभी तीस्ता सेतलवाड़ से कहा जा रहा है. यह कि आपका यहाँ क्या काम है. फिर भी गाँधी ने वापस जाने से इनकार किया और वहाँ के हालात पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी. क्या यह आश्चर्य की बात है कि तत्कालीन अंग्रेज़ हुकूमत ने गाँधी की उस रिपोर्ट पर उनसे संवाद भी किया और कुछ कार्रवाई भी की? क्या यह अभी संभव है? यही जालियाँवाला बाग के हत्याकांड के बाद भी हुआ”.
जालियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद जो हंटर कमीशन बना उसमें जनरल डायर से जिस शख्स ने तीखी जिरह की, उनका नाम चिमनलाल सेतलवाड़ था. अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें इसके लिए जेल में नहीं डाल दिया था. यह संयोग ही है कि तीस्ता उनकी प्रपौत्री हैं. वही काम आज़ाद हिंदुस्तान में करने के लिए जो उनके प्रपितामह ने किया, उन्हें आज जेल में डाल दिया गया है.
ये वही तीस्ता सेतलवाड़ हैं जिनके बाबा एमसी सेतलवाड़ देश के पहले अटॉर्नी जनरल थे. जिनके परबाबा चिमनलाल हरिलाल सेतलवाड़ ने जालियांवाला बाग में 400 हिंदुस्तानियों को मार देने वाले जनरल डायर के खिलाफ ब्रिटिश अदालत में मुकदमा लड़ा और डायर को कोर्ट मार्शल कराया, उसे डिमोट कराया. इनके परबाबा डा. भीमराव आंबेडकर के बहिष्कृत हितकारिणी सभा के फॉऊंडिंग प्रेसिडेंट थे.
तीस्ता सेतलवाड़ के परिवार के बारे में पूरी सच्चाई इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय के इस वीडियो में देख सकते हैं
ये वही तीस्ता हैं जो दंगों में मारे गए सैकड़ों हिंदुओं के न्याय की लड़ाई ही नहीं लड़तीं, बल्कि दर्जनों की शिक्षा दीक्षा का काम भी देखती हैं. मुम्बई बम ब्लास्ट 1993 में मारे गए "हिंदुओ" की लड़ाई भी तीस्ता ही लड़ीं, सरकार से मदद दिलाई.
यह पूरा परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी आम लोगों की लड़ाई लड़ता रहा है. तीस्ता के पिता भी जाने माने बैरिस्टर थे और जनहित के मुद्दों पर लड़ने के लिए जाने जाते हैं. ये लोग देश भक्ति का ढोंग नहीं करते, इनकी तीन पीढ़ी आम लोगों के लिए गोरे अंग्रेजों से लड़ी है और स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी काले अंग्रेजों से लड़ रही है.
लोगों का मानना है कि “तीस्ता सेतलवाड़ के होने का मतलब एक बहादुर औरत का पब्लिक स्फीयर में होना है, जिससे देश की साम्प्रदायिक ताकतों और उनके सबसे बड़े आका को डर लगता है. तीस्ता को बर्बाद करने के लिए सरकार ने जितनी ताकत झोंक रखी है, वही तो तीस्ता होने का मतलब है.”
आरएसएस देश की आजादी के लिए लड़ने वाले हर व्यक्ति, परिवार, विचारधारा से स्वाभाविक रूप से नफरत करती है और उनके खिलाफ कार्यवाही करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती है. ऐसा एक भी आज़ादी का नायक आप को नहीं मिलेगा जिसके पक्ष और समर्थन में आरएसएस के लोगों ने 1925 से 1947 तक कोई लेख लिखा हो, या कोई आंदोलन चलाया हो. उस समय या तो यह जिन्ना के हमखयाल थे, या अंग्रजी राज की फंडिंग पर स्वाधीनता संग्राम सेनानियों की मुखबिरी कर रहे थे. मानवाधिकार कार्यकर्ता व् पत्रकार तीस्ता सेतलवाड़ की रिहाई को लेकर देश में युवा, श्रमिक, पत्रकार व् सिविल सोसाइटी का एक बड़ा वर्ग सड़कों पर उतर चुका है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकार द्वारा किए गए इस कृत्य की निंदा हो रही है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भूमिका भारत जैसे देश में काफी महत्व रखती है जहाँ भारतीय पुलिस और प्रशासन सामान्यतः कमजोर जनता के विरुद्ध ही खड़ी होती है. भारत के पुलिस थानों में पहुंची औरत, दलित, आदिवासी, मुसलमान या अन्य अल्पसंख्यकों और वंचितों को हमेशा संदेह की नजर से ही देखा जाता है. उन पर लगातार हो रहे प्रताड़ना की शिकायत भी बहुत ही मुश्किल से सुनी जाती है. दुनिया के लगभग सभी देशों के ताकतवर वर्गों द्वारा मानवाधिकार समूहों को हिकारत की नजर से ही देखा जाता है. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए खड़े होने की वजह से बहुसंख्यक समूह उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं. जाहिर है इस देश का एक बड़ा तबका भी मानवाधिकार कार्यकर्ता से नफरत करता है. मगर याद रहना चाहिए कि बदनाम और बर्बाद हो कर भी ये समूह इन्साफ की लड़ाई प्रशासन और सरकार से लडता रहा है और इन्हें कमजोर किए जाने का मतलब एक बड़ी आबादी पर चोट किया जाना है.
Related: