पंचायत चुनाव: यूपी के 33 वनटांगिया गांवों में आजादी के बाद पहली बार बनेगी लोगों की अपनी सरकार

Written by Navnish Kumar | Published on: April 10, 2021
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, महाराजगंज, गोंडा और बलरामपुर के 33 वनटांगिया गांवों में पहली बार लोगों की अपनी सरकार बनेगी। राजस्व गांव घोषित होने के बाद इन वनटांगिया गांवों में भी पंचायत चुनाव का बिगुल बज उठा है। आजादी के 74 सालों के बाद वनटांगिया गांव के लोग पहली बार पंचायत चुनाव में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए, ग्राम प्रधान चुनेंगे और अपने गांव की सरकार बनाएंगे। 2017 से पहले यह टांगिया गांव, राजस्व ग्राम के रूप में अभिलेखों में दर्ज नहीं थे। वनाधिकार कानून 2006 आने और उत्तर प्रदेश विधानसभा में सहारनपुर नगर विधायक संजय गर्ग के मामला उठाने के बाद वनटांगिया गांवों को राजस्व ग्राम का दर्जा मिलना शुरू हुआ और उन्हें आजाद देश में मिलने वाली बुनियादी सुविधाएं मुहैया होने का रास्ता खुल सका। अब गांवों में पहली बार चुनाव प्रचार हो रहा है तो लोग भी खासे खुश हैं। हालांकि वेस्ट यूपी में खासकर सहारनपुर के वनटांगिया गांव, राजस्व दर्जा मिलने के बावजूद अपनी सरकार चुनने के अधिकार से महरूम हैं। 



खास है कि इससे पहले इन वनटांगिया (गांवों) के बाशिंदों को अपना ग्राम प्रधान चुनने का अधिकार नहीं था और वनटांगिया के लिए सात दशक तक आजादी का वास्तविक मतलब बेमानी था। उनका वजूद राजस्व अभिलेखों में न होने की वजह से वह समाज और विकास की मुख्यधारा से कटे हुए थे। उत्तराखंड में तो आज तक राजस्व गांव का दर्जा ही अभी किसी गांव को नहीं मिल सका है। लिहाजा देश आजाद होने के बाद भी विकास योजनाओं में वनटांगिया काश्तकारों और मजदूरों पर किसी की नजर नहीं पड़ी है। नतीजतन वह पीछे छूटते चले गए। अब आजादी के बाद पहली बार प्रदेश में गोरखपुर, बलरामपुर और गोंडा के 5-5 तथा महाराजगंज जिले के 18 वनटांगिया, कुल 33 गांव के लोग गांव में अपनी सरकार बनाएंगे तो दीवाली मनाने का सा माहौल है। 

खानाबदोश जिंदगी, पहाड़ सी गरीबी, कच्चे मकान और जंगल की जमीन पर खेती मजदूरी से बमुश्किल दो वक्त की रोटी। बिजली, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं से दूर, यही सब पहचान है वनटांगिया समुदाय के लोगों की। लेकिन वनाधिकार कानून आने के बाद तस्वीर बदली है। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन आदि संगठनों की बदौलत लोग जागरूक हुए हैं। अधिकार मांगने लगे हैं तो सरकारों की भी नींद टूटी है। नतीजा इनकी बस्तियों में झोपड़ी की जगह पक्के मकान नजर आने लगे हैं। यही नहीं सड़कें, स्कूल और स्वच्‍छ पेयजल आदि बुनियादी सुविधाएं भी मिलना शुरू हुआ है। और सबसे खास- वनटांगिया समुदाय के लोग पहली बार अब अपने गांव की सरकार चुनेंगे ताकि उपेक्षा की गर्त से निकल कर विकास की मुख्य धारा से जुड़ सकें। 

हालांकि गोरखपुर आदि पूर्वांचल के वनटांगिया गांव के मुकाबले पश्चिम उप्र के सहारनपुर आदि के वन टांगिया गांव आज भी विकास की दौड़ में खासे पिछड़े हैं। सहारनपुर की ही बात करें तो यहां कालूवाला, सोढ़ीनगर व भगवतपुर वनटांगिया गांव को दो साल पहले राजस्व का दर्जा मिल गया था लेकिन अधिकार आज तक भी नहीं मिल सके हैं। वनाधिकार के तहत कुछ लोगों को काश्त व रिहायश की जमीन पर व्यक्तिगत अधिकार पत्र जरूर मिले हैं। जहां अधिकतर लोगों को यह व्यक्तिगत अधिकार पत्र भी नहीं मिल सके हैं, वहीं जिन लोगों को यह अधिकार पत्र मिल भी गए हैं तो, वह तहसील के रिकॉर्ड में न चढ़ पाने से उनके लिए भी महज कागज का टुकड़ा-भर बनकर रह गए हैं। सामूहिक अधिकारों की दिशा में भी अभी कोई पहल नहीं हुई है जबकि उत्तराखंड में और बुरा हाल है। वहां किसी को व्यक्तिगत अधिकार पत्र भी नहीं मिल सके हैं। घुमंतू वन गुर्जर समुदाय के अधिकारों की बाबत तो उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों की ही सरकार मौन ताने बैठी हैं।

इतिहास में झांकें तो खास हैं कि, अंग्रेजी राज में 100 साल पहले रेल लाइन बिछाने और दूसरे सरकारी विभागों के लिए इबारती लकड़ी मुहैया कराने के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए। वन विभाग के रिकार्ड में दर्ज है कि हर वर्ष 300 एकड़ से ज्यादा वन साफ़ किए गए। अंग्रेजों को उम्मीद थी कि काटे गए पेड़ों की खूंट से फिर जंगल तैयार हो जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

तब अंग्रेजों ने 1920 में बर्मा (म्यांमार) में आदिवासियों द्वारा पहाड़ों पर जंगल तैयार करने के साथ-साथ खाली स्थानों पर खेती करने की पद्धति 'टांगिया' को अपनाया। इसके लिए बड़ी संख्या में आस-पास के इलाकों से गरीब लोगों को लाया गया। जुल्म की चक्की में पिस रहे दलित और अति पिछड़े वर्ग के ये मजदूर राहत पाने के लिए आए लेकिन यहां आकर वह शोषण के एक नए जाल में फंस गए। अंग्रेजों ने उन्हें गुलामों की तरह रखा और यही मजदूर वनटांगिया कहलाए। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के लाखों हेक्टेयर वन क्षेत्र का अधिकांश हिस्सा भी इन वनटांगिया किसानों की ही देन है।

खास यह है कि सांगवान आदि के पेड़ तैयार करने के लिए उन्हें कोई मेहनताना नहीं दिया जाता था बल्कि दो क्यारियों के बीच की जमीन अनाज उगाने के लिए दी जाती थी। पौधे जब बड़े हो जाते तो उन्हें दूसरे स्थानों पर भेज दिया जाता। 1980 में वन निगम बनने के बाद विभाग ने वनटांगियां लोगों से काम लेना बंद कर दिया और उन्हें जंगल से बेदखल करने की कोशिश हुई लेकिन वे अपनी जमीन छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हुए। बल्कि अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन आदि संगठनों से जुड़कर संघर्ष किया। नतीजा, न सिर्फ वनाधिकार कानून पास हुआ बल्कि लोगों को उनके अधिकार मिलना भी सुनिश्चित होना शुरू हो सका है।

जी हां, 2006 में वन अधिकार कानून (अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन अधिकारों की मान्यता कानून 2006) बना जिसके बाद उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश भर में वनटांगिया और आदिवासी समुदाय के लोगों को वन भूमि पर अधिकारों (मालिकाना हक) को मान्यता मिलने का काम शुरू हुआ है। हालांकि वनाधिकार कानून के 15 साल बाद भी वनटांगिया को वह सभी हक हासिल नहीं हैं जो दूसरे गांवों में रहने वाले ग्रामीणों को हैं। आधे अधूरे अधिकार ही मिलने शुरू हुए हैं लेकिन लोग पूरी तरह मुतमईन हैं कि संगठन और संघर्ष के बल पर वह अधिकारों को पाकर ही दम लेंगे। 

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि संविधान ने वोट का अधिकार दिया है। अब भले कुछ गांवों में ही सही, राजस्व दर्जे के बाद पंचायत चुनाव के माध्यम से लोग, वनटांगिया गांव में अपनी सरकारें चुन सकेंगे। अपने खुद के फैसले ले सकेंगे तो निसंदेह स्वतंत्रचेत्ता नागरिक होने और अधिकारों की लड़ाई में इसे बड़ी जीत ही कहा जाएगा।

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