साल 2020 में जब पूरी दुनिया कोरोना महामारी के कारण अनेकों मुश्किलों का सामना कर रही है। भारत-वर्ष जो पहले ही सरकार के द्वारा बनायी गलत नीतियों के कारण आर्थिक मंदी, साम्प्रदायिक-हिंसा, पूंजीवाद और भयंकर बेरोज़गारी की मार झेल रहा था, कोरोना महामारी के कहर ने इसके भविष्य को भयंकर अन्धकार की ओर धकेल दिया है। इस दौर में आज़ादी के 73 सालों के बाद आज जब फासीवादी ताकतें अपने चरम पर हैं शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जयंती कई मायनों में अहम है।
भगत सिंह ने देश की आज़ादी के महत्व को बताते हुए कहा था कि भारत को सही मायनों में आजाद तभी माना जाना चाहिए जब व्यवस्था परिवर्तन हो। मतलब, राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक ढांचे में परिवर्तन भी आए। केवल राजनीतिक सत्ता में परिवर्तन से तो सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथों निकल कर काले अंग्रेजों अर्थात् अभिजात वर्ग के हाथ में चली जाएगी जिससे देश की आम जनता को शोषण से मुक्ति नही मिलेगी। उनका कहना था जब तक एक मनुष्य के द्वारा दुसरे मनुष्य की लूट जारी हैं जब तक क्रांति का काम जारी रखने की जरूरत है।
भगत सिंह साम्प्रदायिकता का जिम्मेदार मुख्य रूप से नेताओं और अखबारों को मानते थे। जो आज भी सरेआम देखा जा सकता है। नया बस इतना है कि अखबारों के साथ-साथ टीवी और सोशल मीडिया भी साम्प्रदायिकता फैलाने के हथियारों में शामिल हो चुके हैं। जिनको नेता अपनी सहूलियत के हिसाब दंगे और नफरत फ़ैलाने में उपयोग करते हैं। आरएसएस, जो मूलरूप से एक सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करती हैं और 1925 में अस्तित्व में आयी थी। आज अपनी राजनितिक पार्टी भाजपा का मुखौटा ओढ़े, भारत को हिन्दू-राष्ट्र बनाने के अपने 100 साल पुरानी योजना को अमलिजामा पहनाने को बेताब है। आरएसएस पर गाँधी की हत्या से बाबरी-मजिद के ध्वंस, गुजरात के नरसंहार से मुज्ज़फरनगर के दंगें भड़काने के आरोप लगते रहे हैं। जामिया, जेएनयू और एएमयू जैसे देश के सर्वश्रेष्ट विश्वविद्यालयों पर सरकार के हमले से लेकर एनआरसी और नागरिकता संसोधन क़ानून का संसद में पास होना और इन सब पर हाल ही में हुए दिल्ली दंगों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ फ़ैलायी गयी हिंसा में भी आरएसएस पर लगे आरोप जगजाहिर हैं। साम्प्रदायिकता की आग इतनी फ़ैल चुकी है कि एक धर्म के लोग हत्यारा बनने की तर्ज़ पर भी दुसरे धर्म के लोगों की हत्या में आनन्द पाते देखे जा सकते हैं। इन लोगों को सत्ता और मीडिया दोनों का समर्थन हासिल है जो मिलकर लोगों को भय और भ्रम में रखने का काम करते हैं।
भगत सिंह देश के विद्यार्थियों का राजनीति में भाग लेना उनकी जिम्मेदारी मानते थे। जब पूरा देश ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, कुछ नेता ऐसे भी थे जो विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाह देते थे। इस सलाह के जवाब में भगत सिंह ने ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई, 1928 में ‘किरती’ में छपा था। वो लिखते हैं ‘’हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए”। “राजनीति में विद्यार्थियों का क्या काम” कहने वाले आज भी मिल जाते हैं। उनमें से ज्यादतर राजनीतिक गतिविधयों से जुड़े लोग ही होते हैं।
2014 में मोदी सरकार के आने के बाद से देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों पर सरकार की तरफ से हमले जारी हैं। धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता को खत्म किया जा रहा है। इसी बीच 2019 के अंत में, एनआरसी और नागरिकता संसोधन क़ानून का विरोध करने के कारण सरकार समर्थित पुलिस ने गोला-बारूद लेकर देश प्रतिष्ठित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्व-विद्यालय पर हमला बोला और लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्रों पर निर्ममतापूर्ण लाठियां बरसायी। इस हमले में सरकार समर्थित साम्प्रदायिक सोच किसी से छिपी नहीं थी। आज सैकड़ों नौजवानों और बुद्धिजीवियों को जेल में बंद कर दिया गया है। ये वही छात्र और लोग हैं जो भगत सिंह के विचारों को जिन्दा रखते हुए सरकार से सवाल करते हैं। उनकी गलत नीतियों का भंडाफोड़ कर काले अंग्रेजों का सच देश की आवाम के सामने रखते हुए बलिदान दे रहे हैं। जिस तरह से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खड़े होने पर भगत सिंह और उनके साथियों को आतंकवादी घोषित कर फाँसी पर चढ़ा दिया गया था लेकिन आम लोगों की नज़र में वे हमेशा उनके जनायक थे और अभी भी हैं। आज़ादी के 25 साल बाद 1972 में भारत सरकार ने उनको शहीद और क्रन्तिकारी का दर्जा दिया। उसी तरह आज जेल में बंद छात्रों और बाक़ी लोगों पर देशद्रोह के मुकदमे कर सताया जा रहा है लेकिन बहुत सारे प्रगतिशील और शोषित वर्ग के लोगों की नज़र में वो देश के नायक हैं।
आज सत्ता पूर्णरूप से पूंजीवादी ताकतों के हाथ में जा चुकी है। और सरकार देश की सारी सम्पदा को बेचने पर उतारू है। पिछले 6 सालों में, सरकार के द्वारा पूंजीवाद को समर्थन तथा आम जनता से खिलाफ बनाई गयी नीतियों के कारण देश में बेरोजगारी अपने चरम पर है। लोग अपनी योग्यता से कम दर्जे का काम करने को मजबूर हैं तथा उपेक्षा के कारण छात्र खुद को शिक्षित बेरोजकार कह कर संबोधित करने लगे हैं। 2016 में जहाँ नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी ने छोटे व्यापारियों का नुकसान कर देश की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई थी। वहीं कोरोना महामारी की आड़ में सरकार ने किसान और मज़दूर विरोधी बिल विपक्ष और किसान-मजदूर संगठनों की सहमती के बिना संसद में पास कर कानून का रूप से दिया। जिसका देश भर के किसानों और मजदूरों द्वारा कड़ा विरोध हो रहा है। आज किसान, विध्यार्थी, मजदूर उसी व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर हैं जिसकी कल्पना भगत सिंह ने की थी। आज हमारे सामने जो चुनौतियां हैं भगत सिंह के विचार उन सबसे लड़ने में हमारा मार्गदर्शन करते हैं। उन्होंने हमें जातपात से ऊपर उठ कर, धर्म को निजी मामला रखते हुए, अपनी आर्थिक और सामाजिक तरक्की को ध्यान में रखते हुए, राजनीतिक नुमाईंदों को चुनने और देश के लोगों के हित के कार्यों के लिए मिलकर उन पर दबाव बनाने का सन्देश दिया। हमें धर्म के नाम पर आपस में लड़कर राजनीतिक पार्टियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिये।
इस राजनीतिक और आर्थिक संकट के बीच जब कोरोना महामारी का प्रकोप शिखर पर हैं तथा लोगों के इकठ्ठा होने पर तरह तरह की पाबंदियाँ हैं। दक्षिण एशिया के क्रांतिकारी शहिद-ऐ-आज़म भगत सिंह की 113वी जयंती का जश्न मानते हुए, हिंदुस्तान और पकिस्तान के लोगों के बीच शांति के पैगाम को आगे बढ़ाते हुए पीस संगठन “पाकिस्तान इंडिया पीपल्स फ़ोरम फ़ोर पीस एंड डेमोक्रेसी” ने 28 सितम्बर 2020 की देर शाम सोशल मीडिया के माध्यम से गुफ्तगू बंद ना हो सीरीज के तहत "अरूज-ऐ-कामयाबी"- 'भगत सिंह तू जिन्दा हैं' प्रोग्राम का आयोजन किया। जिसका संचालन पीआईपीएफ़पीडी के महासचिव विजयन एमजे और पाकिस्तान के मोहमद्द तहसीन ने किया। इस प्रोग्राम में दक्षिण एशिया के स्तर पर भगत सिंह के विचारों को मनाने वाले कई बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार अधिकार कार्यकर्ताओं और सांस्कृतिक आन्दोलन से जुड़े लोगों ने भाग लिया। प्रोग्राम की शुरुआत प्रोफेसर सुभेंदु घोष ने पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने की "अरूजे कामयाबी पर कभी तो हिंदुस्तान होगा" गीत से की।
प्रोफ़ेसर जगमोहन सिंह ने भगत सिंह के जीवन के बारे में बताया। प्रोग्राम को आगे बढ़ते हुए डॉ. सईदा हमीद ने दोनों मुल्कों की जेलों में बंद लोगों को याद करते हुए जोश मलीहाबादी की नज़्म "शिकस्त-ऐ-जिँदा का ख़्वाब" पेश की। प्रोफेसर अहमद अज़ीज़ ने भगत सिंह की सक्रिय राजनीतिक जीवन के 10 सालों के सफर और उनको प्रभावित करने वाली घटनायों पर नज़र डाली।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी ने भगत सिंह के "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन" बनाने के पीछे की राजनीतिक विचारधारा पर बात रखी और भगत सिंह को जातपात के भेदभाव और साम्राजयवाद के खिलाफ राजनीतिक प्रोग्राम देने वाले शुरुवाती क्रांतिकारियों में बताया। वहीं इंक़लाबी शायर फैज़ अहमद फैज़ की बेटी सलीमा हाश्मी ने फैज़ की जिंदगी पर भगत सिंह के प्रभाव के बारे बताया और कहा फैज़ भगत सिंह को हीरो मानते थे और उनकी तरह बनने की आरज़ू रखते थे।
प्रोफेसर हरजिंदर सिंह (लाल्टू) ने पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की कविता पेश की और साथ ही पड़ोसी मुल्कों से सरहदों की रक्षा ने नाम पर सैनिक और बारूद पर होने वाले खर्चो को कम कर उस पैसे को देश के लोगों की तरक्की में लगाने को प्राथमिकता देने की सलाह दी।
मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सेतलवाड़ ने भारत की बढ़ती चुनौतियों पर बात रखी और सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ किसान, मज़दूर, छात्रों और बाकि सभी तरक्कीपसंद ताकतों को साथ मिलकर आन्दोलन में शामिल होने की बात कही। इनके अलावा एक्टिविस्ट सयदा दीप, डॉ अमर अली जान, एमी सिंह, गुरप्रीत डोनी, निक-ई-निक, शफ़क़त हुसैन, अनन्या गौर, दीपक दास, सिब्ते हस्सन और उनकी टीम ने अगल-अलग प्रस्तुतियां दी।
सभी लोगों ने इस बात पर सहमती जतायी कि आज के दौर में दक्षिण एशिया के कई लोगों का मिलकर शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के जन्मदिवस पर उनके विचारों पर चर्चा करने का महत्व बहुत ज़्यादा है। आज दक्षिण एशिया के लगभग सभी देश एक समान राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संकट का सामना कर रहे हैं। और भगत सिंह सिर्फ़ भारत के नायक ना होकर पूरे दक्षिण एशिया के नायक हैं और उनके विचार सभी को रास्ता दिखाते हैं। सभी को मिलजुल कर काम करने की जरूरत है। प्रोग्राम का समापन आगे भी मिलते रहने की कामना के साथ, साहिर लुधियानवी की रचना "वो सुबह कभी तो आएगी" तथा क्रांतिकारी नारों “इंकलाब-जिंदाबाद” और “साम्राज्यवाद मुर्दाबाद” की गूँज के साथ हुआ।
(नोट: दिव्या कपूर ने पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से पॉलिटिकल साइंस में मास्टर्स और मास कॉम्युनिकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन डिप्लोमा किया है।)
भगत सिंह ने देश की आज़ादी के महत्व को बताते हुए कहा था कि भारत को सही मायनों में आजाद तभी माना जाना चाहिए जब व्यवस्था परिवर्तन हो। मतलब, राजनीतिक सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक ढांचे में परिवर्तन भी आए। केवल राजनीतिक सत्ता में परिवर्तन से तो सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथों निकल कर काले अंग्रेजों अर्थात् अभिजात वर्ग के हाथ में चली जाएगी जिससे देश की आम जनता को शोषण से मुक्ति नही मिलेगी। उनका कहना था जब तक एक मनुष्य के द्वारा दुसरे मनुष्य की लूट जारी हैं जब तक क्रांति का काम जारी रखने की जरूरत है।
भगत सिंह साम्प्रदायिकता का जिम्मेदार मुख्य रूप से नेताओं और अखबारों को मानते थे। जो आज भी सरेआम देखा जा सकता है। नया बस इतना है कि अखबारों के साथ-साथ टीवी और सोशल मीडिया भी साम्प्रदायिकता फैलाने के हथियारों में शामिल हो चुके हैं। जिनको नेता अपनी सहूलियत के हिसाब दंगे और नफरत फ़ैलाने में उपयोग करते हैं। आरएसएस, जो मूलरूप से एक सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करती हैं और 1925 में अस्तित्व में आयी थी। आज अपनी राजनितिक पार्टी भाजपा का मुखौटा ओढ़े, भारत को हिन्दू-राष्ट्र बनाने के अपने 100 साल पुरानी योजना को अमलिजामा पहनाने को बेताब है। आरएसएस पर गाँधी की हत्या से बाबरी-मजिद के ध्वंस, गुजरात के नरसंहार से मुज्ज़फरनगर के दंगें भड़काने के आरोप लगते रहे हैं। जामिया, जेएनयू और एएमयू जैसे देश के सर्वश्रेष्ट विश्वविद्यालयों पर सरकार के हमले से लेकर एनआरसी और नागरिकता संसोधन क़ानून का संसद में पास होना और इन सब पर हाल ही में हुए दिल्ली दंगों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ फ़ैलायी गयी हिंसा में भी आरएसएस पर लगे आरोप जगजाहिर हैं। साम्प्रदायिकता की आग इतनी फ़ैल चुकी है कि एक धर्म के लोग हत्यारा बनने की तर्ज़ पर भी दुसरे धर्म के लोगों की हत्या में आनन्द पाते देखे जा सकते हैं। इन लोगों को सत्ता और मीडिया दोनों का समर्थन हासिल है जो मिलकर लोगों को भय और भ्रम में रखने का काम करते हैं।
भगत सिंह देश के विद्यार्थियों का राजनीति में भाग लेना उनकी जिम्मेदारी मानते थे। जब पूरा देश ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, कुछ नेता ऐसे भी थे जो विद्यार्थियों को राजनीति में हिस्सा न लेने की सलाह देते थे। इस सलाह के जवाब में भगत सिंह ने ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो जुलाई, 1928 में ‘किरती’ में छपा था। वो लिखते हैं ‘’हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ़ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए”। “राजनीति में विद्यार्थियों का क्या काम” कहने वाले आज भी मिल जाते हैं। उनमें से ज्यादतर राजनीतिक गतिविधयों से जुड़े लोग ही होते हैं।
2014 में मोदी सरकार के आने के बाद से देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों पर सरकार की तरफ से हमले जारी हैं। धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों की स्वायत्ता को खत्म किया जा रहा है। इसी बीच 2019 के अंत में, एनआरसी और नागरिकता संसोधन क़ानून का विरोध करने के कारण सरकार समर्थित पुलिस ने गोला-बारूद लेकर देश प्रतिष्ठित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्व-विद्यालय पर हमला बोला और लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्रों पर निर्ममतापूर्ण लाठियां बरसायी। इस हमले में सरकार समर्थित साम्प्रदायिक सोच किसी से छिपी नहीं थी। आज सैकड़ों नौजवानों और बुद्धिजीवियों को जेल में बंद कर दिया गया है। ये वही छात्र और लोग हैं जो भगत सिंह के विचारों को जिन्दा रखते हुए सरकार से सवाल करते हैं। उनकी गलत नीतियों का भंडाफोड़ कर काले अंग्रेजों का सच देश की आवाम के सामने रखते हुए बलिदान दे रहे हैं। जिस तरह से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खड़े होने पर भगत सिंह और उनके साथियों को आतंकवादी घोषित कर फाँसी पर चढ़ा दिया गया था लेकिन आम लोगों की नज़र में वे हमेशा उनके जनायक थे और अभी भी हैं। आज़ादी के 25 साल बाद 1972 में भारत सरकार ने उनको शहीद और क्रन्तिकारी का दर्जा दिया। उसी तरह आज जेल में बंद छात्रों और बाक़ी लोगों पर देशद्रोह के मुकदमे कर सताया जा रहा है लेकिन बहुत सारे प्रगतिशील और शोषित वर्ग के लोगों की नज़र में वो देश के नायक हैं।
आज सत्ता पूर्णरूप से पूंजीवादी ताकतों के हाथ में जा चुकी है। और सरकार देश की सारी सम्पदा को बेचने पर उतारू है। पिछले 6 सालों में, सरकार के द्वारा पूंजीवाद को समर्थन तथा आम जनता से खिलाफ बनाई गयी नीतियों के कारण देश में बेरोजगारी अपने चरम पर है। लोग अपनी योग्यता से कम दर्जे का काम करने को मजबूर हैं तथा उपेक्षा के कारण छात्र खुद को शिक्षित बेरोजकार कह कर संबोधित करने लगे हैं। 2016 में जहाँ नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी ने छोटे व्यापारियों का नुकसान कर देश की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई थी। वहीं कोरोना महामारी की आड़ में सरकार ने किसान और मज़दूर विरोधी बिल विपक्ष और किसान-मजदूर संगठनों की सहमती के बिना संसद में पास कर कानून का रूप से दिया। जिसका देश भर के किसानों और मजदूरों द्वारा कड़ा विरोध हो रहा है। आज किसान, विध्यार्थी, मजदूर उसी व्यवस्था परिवर्तन के लिए सड़कों पर हैं जिसकी कल्पना भगत सिंह ने की थी। आज हमारे सामने जो चुनौतियां हैं भगत सिंह के विचार उन सबसे लड़ने में हमारा मार्गदर्शन करते हैं। उन्होंने हमें जातपात से ऊपर उठ कर, धर्म को निजी मामला रखते हुए, अपनी आर्थिक और सामाजिक तरक्की को ध्यान में रखते हुए, राजनीतिक नुमाईंदों को चुनने और देश के लोगों के हित के कार्यों के लिए मिलकर उन पर दबाव बनाने का सन्देश दिया। हमें धर्म के नाम पर आपस में लड़कर राजनीतिक पार्टियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिये।
इस राजनीतिक और आर्थिक संकट के बीच जब कोरोना महामारी का प्रकोप शिखर पर हैं तथा लोगों के इकठ्ठा होने पर तरह तरह की पाबंदियाँ हैं। दक्षिण एशिया के क्रांतिकारी शहिद-ऐ-आज़म भगत सिंह की 113वी जयंती का जश्न मानते हुए, हिंदुस्तान और पकिस्तान के लोगों के बीच शांति के पैगाम को आगे बढ़ाते हुए पीस संगठन “पाकिस्तान इंडिया पीपल्स फ़ोरम फ़ोर पीस एंड डेमोक्रेसी” ने 28 सितम्बर 2020 की देर शाम सोशल मीडिया के माध्यम से गुफ्तगू बंद ना हो सीरीज के तहत "अरूज-ऐ-कामयाबी"- 'भगत सिंह तू जिन्दा हैं' प्रोग्राम का आयोजन किया। जिसका संचालन पीआईपीएफ़पीडी के महासचिव विजयन एमजे और पाकिस्तान के मोहमद्द तहसीन ने किया। इस प्रोग्राम में दक्षिण एशिया के स्तर पर भगत सिंह के विचारों को मनाने वाले कई बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार अधिकार कार्यकर्ताओं और सांस्कृतिक आन्दोलन से जुड़े लोगों ने भाग लिया। प्रोग्राम की शुरुआत प्रोफेसर सुभेंदु घोष ने पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने की "अरूजे कामयाबी पर कभी तो हिंदुस्तान होगा" गीत से की।
प्रोफ़ेसर जगमोहन सिंह ने भगत सिंह के जीवन के बारे में बताया। प्रोग्राम को आगे बढ़ते हुए डॉ. सईदा हमीद ने दोनों मुल्कों की जेलों में बंद लोगों को याद करते हुए जोश मलीहाबादी की नज़्म "शिकस्त-ऐ-जिँदा का ख़्वाब" पेश की। प्रोफेसर अहमद अज़ीज़ ने भगत सिंह की सक्रिय राजनीतिक जीवन के 10 सालों के सफर और उनको प्रभावित करने वाली घटनायों पर नज़र डाली।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी ने भगत सिंह के "हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन" बनाने के पीछे की राजनीतिक विचारधारा पर बात रखी और भगत सिंह को जातपात के भेदभाव और साम्राजयवाद के खिलाफ राजनीतिक प्रोग्राम देने वाले शुरुवाती क्रांतिकारियों में बताया। वहीं इंक़लाबी शायर फैज़ अहमद फैज़ की बेटी सलीमा हाश्मी ने फैज़ की जिंदगी पर भगत सिंह के प्रभाव के बारे बताया और कहा फैज़ भगत सिंह को हीरो मानते थे और उनकी तरह बनने की आरज़ू रखते थे।
प्रोफेसर हरजिंदर सिंह (लाल्टू) ने पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश की कविता पेश की और साथ ही पड़ोसी मुल्कों से सरहदों की रक्षा ने नाम पर सैनिक और बारूद पर होने वाले खर्चो को कम कर उस पैसे को देश के लोगों की तरक्की में लगाने को प्राथमिकता देने की सलाह दी।
मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सेतलवाड़ ने भारत की बढ़ती चुनौतियों पर बात रखी और सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ किसान, मज़दूर, छात्रों और बाकि सभी तरक्कीपसंद ताकतों को साथ मिलकर आन्दोलन में शामिल होने की बात कही। इनके अलावा एक्टिविस्ट सयदा दीप, डॉ अमर अली जान, एमी सिंह, गुरप्रीत डोनी, निक-ई-निक, शफ़क़त हुसैन, अनन्या गौर, दीपक दास, सिब्ते हस्सन और उनकी टीम ने अगल-अलग प्रस्तुतियां दी।
सभी लोगों ने इस बात पर सहमती जतायी कि आज के दौर में दक्षिण एशिया के कई लोगों का मिलकर शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के जन्मदिवस पर उनके विचारों पर चर्चा करने का महत्व बहुत ज़्यादा है। आज दक्षिण एशिया के लगभग सभी देश एक समान राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संकट का सामना कर रहे हैं। और भगत सिंह सिर्फ़ भारत के नायक ना होकर पूरे दक्षिण एशिया के नायक हैं और उनके विचार सभी को रास्ता दिखाते हैं। सभी को मिलजुल कर काम करने की जरूरत है। प्रोग्राम का समापन आगे भी मिलते रहने की कामना के साथ, साहिर लुधियानवी की रचना "वो सुबह कभी तो आएगी" तथा क्रांतिकारी नारों “इंकलाब-जिंदाबाद” और “साम्राज्यवाद मुर्दाबाद” की गूँज के साथ हुआ।
(नोट: दिव्या कपूर ने पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से पॉलिटिकल साइंस में मास्टर्स और मास कॉम्युनिकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन डिप्लोमा किया है।)