1905 में अंग्रेज़ हुकूमत ने धर्म का सहारा लेकर पहली बार बंगाल का बंटवारा कर दिया - पूरब में मुसलमान, पश्चिम में हिन्दू।
1906 में पूर्वी बंगाल में एक अजीब अकाल की नौबत आयी - असाढ़ में पानी बरसा नहीं; भादों में सैलाब आ गया; जो बची खुची धान थी वो भी बर्बाद हो गयी। गांव गांव से आदमी ढाका और कलकत्ते की तरफ चल दिए। अख़बारों में खबरें छपने लगीं कि मर्द घर-परिवार की ज़िम्मेदारी से "भाग" रहे हैं। "पलायन" शब्द का खूब प्रचार होने लगा।
इसी समय स्वामी विवेकानंद की शिष्या, सिस्टर निवेदिता, पूर्वी बंगाल के बाकरगंज ज़िले गयीं और उनकी करुणा छलक गयी, "ऐसी तीखी भूख, हे भगवान, ऐसी तीखी"! कल्पना कीजिये, एक ही ज़िले में 11 लाख लोग जिनको तीन महीने तक दो जून भात नसीब न हो।
पश्चिम बंगाल के शहरों से एक दूसरा सैलाब उमड़ पड़ा। हज़ारों युवा अनाज, चावल, दाल, तेल, पैसा, कपड़ा, जो मिला सो लेकर पूरब की तरफ चल पड़े। क्यों? क्योंकि "पलायन" की ज़मीनी सच्चाई को निवेदिता जैसे कुछ लेखकों ने उजागर किया। एक घटना का बयान किया जिसमे एक किसान, सरकार कर्ज़ा दे रही है सुन कर, अपनी अर्ज़ी देने गांव से निकला। नज़ीरपुर के डिप्टी ने मनाही कर दी। फिर फ़िरोज़पुर के मजिस्ट्रेट ने झटका दिया। तीन दिन बाद खाली हाथ लौटा तो देखा कि सारा परिवार बेहोश पड़ा है। बरिसाल के पास के एक किसान ने थाने में आकर अपने आप को पुलिस के हवाले कर दिया ये कहते हुए, "जब मैं अपने घर की परवरिश ही नहीं कर सकता, तो मुझे हत्या की सज़ा दे दो!"
ऐसी दिल दहला देने वाली कहानियां सुन कर अनेकों लोग प्रभावित हुए। बरिसाल के स्कूलमास्टर और विद्यार्थियों ने शहरी युवाओं से मिलकर 160 राहत केंद्र खोले जिसमे करीब 5 लाख लोगों की मदद की, जबकि सरकार सिर्फ 43,000 लोगों तक पहुंच पायी। एक तरफ अधिकारीयों का ऐब इतना कि ऐलान कर दिया, अकाल की घोषणा नहीं हुई है इसलिए उसके लिए चंदा इकट्ठा करना राज-द्रोह है; दूसरी तरफ सेवकों का स्नेहमय रिश्ता और भूखे लोगों की गरिमामई व्यवहार; कोई छीना-झपटी, रंजिश नहीं, जो मिला बाँट कर खाया।
100 साल से ज़्यादा बीत गए हैं; 2020 में लोगों का रुख शहर से गांव की तरफ है; अख़बारों के शीर्षक हैं: "मज़दूरों का पलायन: दोहरी आपदा"; "हाइवे पर एक दिन का रिवर्स पलायन"; "मज़दूरों के पलायन से ट्रांसपोर्ट उद्योग पर संकट"; “प्रवासी का दर्दः पलायन का दर्द”, इत्यादि। सिस्टर निवेदिता होतीं तो इस "पलायन" को कैसे समझतीं?
आज के पत्रकारों के अंदाज़ में पूछतीं तो मज़दूर क्या कहता? समस्तीपुर के सुमित गाजियाबाद से पैदल निकल कर पांच दिन में 750 किलोमीटर तय कर गोरखपुर पहुंचे हैं क्योंकि व्याकुल घर वाले बारम्बार फोन कर रहे हैं; मधुबनी के बलराम दिल्ली से ठेले पर तंबू बना कर पत्नी और दो बच्चों के साथ निकले हैं क्योंकि काम-धंधा बन्द है, और जमा राशन-पानी भी खत्म हो रहा है; मानेसर से गया अरविंद पैदल चल रहे हैं क्योंकि लंगरों में भीड़ है, ऊपर से बीमारी फैल रही है: इस सब को सुन कर निवेदिता क्या सोचतीं?
फुरकान का अलग नज़रिया है; आठ लोगों का परिवार; उनके मदारी का करतब देखने वाला कोई नहीं; इसलिए घर का रास्ता पकड़े हैं। आशुतोष,ज़ैनुद्दीन और उनके साथी बल्लभगढ़ से देवरिया पैदल जा रहे हैं - उनका ठेकेदार एक-एक हजार रुपये देकर फरार हो गया है। रांची से मुर्शिदाबाद जा रहे 32 मजदूर - कहते हैं प्रशासन से उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। किशन और उनके 11 मजदूर साथी ने लुधिआना छोड़ा है - काम ही नहीं मिल रहा है। तो किसने "पलायन" किया है? - मज़दूरों ने या दर्शक, ठेकेदार, मालिक, सरकार ने?
कुछ मज़दूरों का यहाँ तक कहना है कि उनको अपने घर जाने पर ही शांति मिलेगी। गांव में रहेंगे तो अपनों के साथ होंगे और गेंहू कटाई से अपना गुजारा कर लेंगे। प्रतापगढ़ केअरुण का मानना है कि गुरुग्राम आये थे "गँवारू" की उपाधि से बचने के लिए; इस बार घर वापस जायेंगे तो लौट कर नहीं आयेंगे। कलकत्ते के मनोरंजन पहले खुद कमाते थे, खुद खाते थे; अब भिखारी बन कर अपनी इज़्ज़त खो बैठे हैं।
मज़दूर परदेस से निकला है घर जाने को। रास्ते में हो सकता है तालाबंदी की वजह से वो मददगारों की भीड़ न हो जो 1906 में बाकरगंज में दिखी थी लेकिन फिर भी खिदमत करने वाले मिल जाते हैं। झालरापाटन और बहादुरगढ़ में भोजन के पैकेट बांटे। झज्जर और बेगमगंज में सूखा राशन दिया, धर्मशाला में ठहरने का इंतेज़ाम किया। कहीं पर किन्नरों ने मदद की, कहीं पर स्कूल के बच्चों ने, और कहीं पर समाजिक और धार्मिक संस्थाओं ने। लेकिन इस सब के बाद भी मज़दूर रुकने को तैयार नहीं हुए।
इसकी क्या वजह है? हज़ारों किलोमीटर का सफर है; पांव पर छाले पड़ रहे हैं; रास्ते में न खाने की जगह, न आराम करने की; जगह जगह पर पुलिस रोक रही है, मुर्गा बना रही है, मार भी रही है; बगल में चल रहे बच्चों का कष्ट देखा नहीं जाता; फिर भी असंगठितों की अनियोजित पलटन चली जा रही है।
'मोबाइल वाणी' के पास फोन पर आये हुए सूचनाओं के मुताबिक मज़दूरों में बेइज़्ज़ती की भावना प्रबल है, की उनकी कोई कीमत ही नहीं है इस समाज में। 'स्वान' के सहायकों का मत है कि जिनसे भी उन्होंने बात की उनमे भूख के साथ साथ व्यथा और आघात भी है - जैसे की किसीने दिलपर गहरी चोट की हो। इसके बीच में एक प्रसीद्ध लेखिका का सपना है कि कोरोना महामारी ने एक पटल खोल दिया है जिसमे से हम एक बेहतर दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं।
लेकिन जिस तरह निवेदिता ने "पलायन" को नयी दृष्टि से देखा था क्या यह सम्भव है कि हम भी मज़दूरों की नज़र को समझने की कोशिश करें? अली सरदार जाफ़री की तरह क्या हम भी इस समाज से पूछ सकते हैं: "कौन आज़ाद हुआ? किसके माथे से सियाही छूटी?" जिस मेहनतकश के अदम्य साहस ने इतने लम्बे सफर पर बेहिचक चलना शुरू किया, जिसने वो दरवाज़ा खोला जिसमें से अब हम सब आरामपोश घुसने के लिए बेताब हैं, क्या हम उसके सोच की गहराई तक पहुंच पाएंगे?
ये "पलायन" नहीं बंधुगण, ये क्रूर निर्दयी समाज का बहिष्कार है। इसकी इज़्ज़त कर सकेंगे?
1906 में पूर्वी बंगाल में एक अजीब अकाल की नौबत आयी - असाढ़ में पानी बरसा नहीं; भादों में सैलाब आ गया; जो बची खुची धान थी वो भी बर्बाद हो गयी। गांव गांव से आदमी ढाका और कलकत्ते की तरफ चल दिए। अख़बारों में खबरें छपने लगीं कि मर्द घर-परिवार की ज़िम्मेदारी से "भाग" रहे हैं। "पलायन" शब्द का खूब प्रचार होने लगा।
इसी समय स्वामी विवेकानंद की शिष्या, सिस्टर निवेदिता, पूर्वी बंगाल के बाकरगंज ज़िले गयीं और उनकी करुणा छलक गयी, "ऐसी तीखी भूख, हे भगवान, ऐसी तीखी"! कल्पना कीजिये, एक ही ज़िले में 11 लाख लोग जिनको तीन महीने तक दो जून भात नसीब न हो।
पश्चिम बंगाल के शहरों से एक दूसरा सैलाब उमड़ पड़ा। हज़ारों युवा अनाज, चावल, दाल, तेल, पैसा, कपड़ा, जो मिला सो लेकर पूरब की तरफ चल पड़े। क्यों? क्योंकि "पलायन" की ज़मीनी सच्चाई को निवेदिता जैसे कुछ लेखकों ने उजागर किया। एक घटना का बयान किया जिसमे एक किसान, सरकार कर्ज़ा दे रही है सुन कर, अपनी अर्ज़ी देने गांव से निकला। नज़ीरपुर के डिप्टी ने मनाही कर दी। फिर फ़िरोज़पुर के मजिस्ट्रेट ने झटका दिया। तीन दिन बाद खाली हाथ लौटा तो देखा कि सारा परिवार बेहोश पड़ा है। बरिसाल के पास के एक किसान ने थाने में आकर अपने आप को पुलिस के हवाले कर दिया ये कहते हुए, "जब मैं अपने घर की परवरिश ही नहीं कर सकता, तो मुझे हत्या की सज़ा दे दो!"
ऐसी दिल दहला देने वाली कहानियां सुन कर अनेकों लोग प्रभावित हुए। बरिसाल के स्कूलमास्टर और विद्यार्थियों ने शहरी युवाओं से मिलकर 160 राहत केंद्र खोले जिसमे करीब 5 लाख लोगों की मदद की, जबकि सरकार सिर्फ 43,000 लोगों तक पहुंच पायी। एक तरफ अधिकारीयों का ऐब इतना कि ऐलान कर दिया, अकाल की घोषणा नहीं हुई है इसलिए उसके लिए चंदा इकट्ठा करना राज-द्रोह है; दूसरी तरफ सेवकों का स्नेहमय रिश्ता और भूखे लोगों की गरिमामई व्यवहार; कोई छीना-झपटी, रंजिश नहीं, जो मिला बाँट कर खाया।
100 साल से ज़्यादा बीत गए हैं; 2020 में लोगों का रुख शहर से गांव की तरफ है; अख़बारों के शीर्षक हैं: "मज़दूरों का पलायन: दोहरी आपदा"; "हाइवे पर एक दिन का रिवर्स पलायन"; "मज़दूरों के पलायन से ट्रांसपोर्ट उद्योग पर संकट"; “प्रवासी का दर्दः पलायन का दर्द”, इत्यादि। सिस्टर निवेदिता होतीं तो इस "पलायन" को कैसे समझतीं?
आज के पत्रकारों के अंदाज़ में पूछतीं तो मज़दूर क्या कहता? समस्तीपुर के सुमित गाजियाबाद से पैदल निकल कर पांच दिन में 750 किलोमीटर तय कर गोरखपुर पहुंचे हैं क्योंकि व्याकुल घर वाले बारम्बार फोन कर रहे हैं; मधुबनी के बलराम दिल्ली से ठेले पर तंबू बना कर पत्नी और दो बच्चों के साथ निकले हैं क्योंकि काम-धंधा बन्द है, और जमा राशन-पानी भी खत्म हो रहा है; मानेसर से गया अरविंद पैदल चल रहे हैं क्योंकि लंगरों में भीड़ है, ऊपर से बीमारी फैल रही है: इस सब को सुन कर निवेदिता क्या सोचतीं?
फुरकान का अलग नज़रिया है; आठ लोगों का परिवार; उनके मदारी का करतब देखने वाला कोई नहीं; इसलिए घर का रास्ता पकड़े हैं। आशुतोष,ज़ैनुद्दीन और उनके साथी बल्लभगढ़ से देवरिया पैदल जा रहे हैं - उनका ठेकेदार एक-एक हजार रुपये देकर फरार हो गया है। रांची से मुर्शिदाबाद जा रहे 32 मजदूर - कहते हैं प्रशासन से उन्हें कोई मदद नहीं मिली है। किशन और उनके 11 मजदूर साथी ने लुधिआना छोड़ा है - काम ही नहीं मिल रहा है। तो किसने "पलायन" किया है? - मज़दूरों ने या दर्शक, ठेकेदार, मालिक, सरकार ने?
कुछ मज़दूरों का यहाँ तक कहना है कि उनको अपने घर जाने पर ही शांति मिलेगी। गांव में रहेंगे तो अपनों के साथ होंगे और गेंहू कटाई से अपना गुजारा कर लेंगे। प्रतापगढ़ केअरुण का मानना है कि गुरुग्राम आये थे "गँवारू" की उपाधि से बचने के लिए; इस बार घर वापस जायेंगे तो लौट कर नहीं आयेंगे। कलकत्ते के मनोरंजन पहले खुद कमाते थे, खुद खाते थे; अब भिखारी बन कर अपनी इज़्ज़त खो बैठे हैं।
मज़दूर परदेस से निकला है घर जाने को। रास्ते में हो सकता है तालाबंदी की वजह से वो मददगारों की भीड़ न हो जो 1906 में बाकरगंज में दिखी थी लेकिन फिर भी खिदमत करने वाले मिल जाते हैं। झालरापाटन और बहादुरगढ़ में भोजन के पैकेट बांटे। झज्जर और बेगमगंज में सूखा राशन दिया, धर्मशाला में ठहरने का इंतेज़ाम किया। कहीं पर किन्नरों ने मदद की, कहीं पर स्कूल के बच्चों ने, और कहीं पर समाजिक और धार्मिक संस्थाओं ने। लेकिन इस सब के बाद भी मज़दूर रुकने को तैयार नहीं हुए।
इसकी क्या वजह है? हज़ारों किलोमीटर का सफर है; पांव पर छाले पड़ रहे हैं; रास्ते में न खाने की जगह, न आराम करने की; जगह जगह पर पुलिस रोक रही है, मुर्गा बना रही है, मार भी रही है; बगल में चल रहे बच्चों का कष्ट देखा नहीं जाता; फिर भी असंगठितों की अनियोजित पलटन चली जा रही है।
'मोबाइल वाणी' के पास फोन पर आये हुए सूचनाओं के मुताबिक मज़दूरों में बेइज़्ज़ती की भावना प्रबल है, की उनकी कोई कीमत ही नहीं है इस समाज में। 'स्वान' के सहायकों का मत है कि जिनसे भी उन्होंने बात की उनमे भूख के साथ साथ व्यथा और आघात भी है - जैसे की किसीने दिलपर गहरी चोट की हो। इसके बीच में एक प्रसीद्ध लेखिका का सपना है कि कोरोना महामारी ने एक पटल खोल दिया है जिसमे से हम एक बेहतर दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं।
लेकिन जिस तरह निवेदिता ने "पलायन" को नयी दृष्टि से देखा था क्या यह सम्भव है कि हम भी मज़दूरों की नज़र को समझने की कोशिश करें? अली सरदार जाफ़री की तरह क्या हम भी इस समाज से पूछ सकते हैं: "कौन आज़ाद हुआ? किसके माथे से सियाही छूटी?" जिस मेहनतकश के अदम्य साहस ने इतने लम्बे सफर पर बेहिचक चलना शुरू किया, जिसने वो दरवाज़ा खोला जिसमें से अब हम सब आरामपोश घुसने के लिए बेताब हैं, क्या हम उसके सोच की गहराई तक पहुंच पाएंगे?
ये "पलायन" नहीं बंधुगण, ये क्रूर निर्दयी समाज का बहिष्कार है। इसकी इज़्ज़त कर सकेंगे?