वो समय साल 2005 का था जब छत्तीसगढ़ के बस्तर में सलवा जुडूम की शुरुआत हुई. सरकारी प्रश्रय प्राप्त इस संगठन को ऐसे प्रचारित किया गया कि इसके ज़रिये नक्सल समस्या से निजात मिल जाएगा. इसके बाद बस्तर ने वो मंज़र देखा जिसमें बलात्कार, लूट, अपहरण, हत्या और गाँव के गाँव जला दिए जाना रोज़ की बात हो गई. सैकड़ों आदिवासी बेरहमी से मार दिए गए, बेकसूरों को जेलों में ठूंस दिया गया, यौन हिंसा चरम पर थी. उन आदिवासी महिलाओं की तो कोई ठीक-ठीक गिनती ही नहीं है जिनके साथ बलात्कार किया गया. जान बचाने के लिए आदिवासियों को मजबूरन अपनी ज़मीन छोडनी पड़ी. कुछ सालों में विस्थापितों की संख्या 3,50,000 तक पहुंच गई. सामाजिक कार्यकर्ता इसके खिलाफ कोर्ट पहुंचे और साल 2011 में सर्वोच्च न्यायालय ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक घोषित किया.
सलवा जुडूम की वजह से विस्थापित हुए लाखों आदिवासियों में से 24 परिवार, बीते गुरुवार (25 अप्रैल) को छत्तीसगढ़ वापस लौट आए हैं. अपनी ज़मीन से जबरन बेदख़ल किए गए ये आदिवासी परिवार आँध्रप्रदेश में भद्राचलम के पास कन्नापुरम गांव में जाकर बस गए थे. ये परिवार लगभग 13 साल बाद अपने घर वापस आ पाए हैं. गुरूवार को एक बस में सवार होकर ये अपने मूल गांव मरईगुड़ा पहुंचे जो बस्तर संभाग के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में आता है. सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी जो बस्तर शांति वार्ता में शामिल रहे हैं उनके द्वारा यह कार्य संभव हो पाया. शुभ्रांशु की मुलाकात इन आदिवासियों से शांति यात्रा के दौरान हुई थी तभी आदिवासियों ने वापस अपने गाँव आने की इच्छा ज़ाहिर की थी.
घर वापस लौटे इन 24 आदिवासी परिवारों के ज़ेहन से सलवा जुडूम का खौफ़ अब भी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है. घर वापस लौटती बस की छत पर बैठे एक व्यक्ति ने कहा कि उनमें अब वो जनसंहार देखने की हिम्मत नहीं है जो सलवा जुडूम के दौरान हुआ.
24 आदिवासी परिवारों को उनके मूल स्थान पर वापस लाना एक प्रयोग की तरह है। अगर यह प्रयोग शांति पूर्ण तरीके से सफल रहा तो भविष्य में हज़ारो की संख्या में जो आदिवासी परिवार अपने प्रदेश के बहार अपना जीवन जीने को मजबूर हैं उनकी वापसी का रास्ता सरल हो सकता है. अभी यह समाजिक बदलाव क्राउडफण्डिंग और सामाजिक संस्थानों की कोशिश से पूरा हो पाया है हालांकि क्षेत्रीय प्रशासन ने कहा है कि वह मदद के लिए आगे आएगा.
वापस आए आदिवासियों के खेत अब जंगल हो चुके हैं, इनके पास अभी न खेती के औज़ार हैं न ही रोज़गार का कोई अन्य साधन, और घर तो पहले ही जला दिए गए थे. अब सभी इस उम्मीद में हैं कि प्रशासन जल्द ही वापस आए आदिवासियों के हित में कोई ठोस कदम उठाएगा.
जुडूम ने आदिवासियों को दो हिस्सों में बांट दिया - "हम" और "वे"
सलवा जुडूम गोंडी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है शांति या शुद्धिकरण की खोज. छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम एक निजी सशस्त्र अभियान था जिसे सरकार ने प्रायोजित किया, निजी पूंजी जिसे पोषित कर रही थी और जिसका इस्तेमाल पुलिस और अन्य सुरक्षा बल दक्षिण बस्तर में नक्सलवाद का सफ़ाया करने के लिए कर रहे थे. हालांकि प्रशासन और पुलिस का अब भी यही कहना है कि सलवा जुडूम माओवाद के विरुद्ध एक स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया थी.
सलवा जुडूम की पहली बैठक एस्सार समूह और टाटा स्टील के साथ छत्तीसगढ़ सरकार के अनुबन्ध होने के कुछ ही दिनों बाद जून 2005 में हुई थी. इस अनुबन्ध के तहत कंपनियों को धुरली, भांसी व लोहांडीगुड़ा में बड़ी मात्रा में ज़मीन दी गई जो खनिज सम्पदा से भरपूर थी.
सलवा जुडूम के दौरान हज़ारों ग्रामीणों को गांवों से जबरन निकाल कर सुरक्षा कैम्पों में लाया गया. लोगों को पीटा जाता, नंगा किया जाता, उनके घर जला दिए जाते. उनकी आजीविकाएं भी नष्ट कर दी गईं, ये कहते हुए कि कैम्पों में लोग माओवादियों से सुरक्षित रहेंगे पर असलियत ये थी कि जो लोग अपना घर नहीं छोड़ना चाहते थे उनके साथ मारपीट की गई। उन्हें धमकाया गया और कईयों को मार भी डाला गया. सलवा जुडूम ने आदिवासियों को दो हिस्सों में बांट दिया - "हम" और "वे" में. "वे" में वह सब शामिल थे जो अपना पैतृक घर छोड़ना नहीं चाहते थे. उन सभी को माओवादियों का समर्थक घोषित करके निशाने पर लिया गया. साफ़ ज़ाहिर है कि ये निजी सशस्त्र बल कॉर्पोरेटीकरण के विरोध को दबाने के लिए खड़ा किया गया था.
सलवा जुडूम और यौन हिंसा
राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (NCPCR) दिसंबर 2007 में दंतेवाड़ा गया था. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा "कई लोगों ने सलवा जुडूम द्वारा महिलाओं के साथ यौन हिंसा किए जाने के अनुभव साझा किए". लिंगागिरी गाँव के एक व्यक्ति ने बताया कि "चूंकि हमारे गाँव से कोई सलवा जुडूम में शामिल नहीं हुआ था इसलिए पुलिस ने आकर मेरे परिवार के दो लोगों को मार डाला और मेरी भतीजी के साथ बलात्कार किया." इस रिपोर्ट में विस्थापित ग्रामीणों की कई अर्जियां भी शामिल हैं जिनमे दरख्वास्त की गई है कि उन्हें सलवा जुडूम से बचाया जाए. इन अर्जियों में तकरीबन हर एक में परिवार के किसी सदस्य या गाँव की किसी औरत से बलात्कार का ज़िक्र है. इंडिपेडेंट सिटिज़न्स इनिशिएटिव ने 2006 की अपनी रिपोर्ट में 31 औरतों की सूची दी जिनके साथ पुलिस, सुरक्षा बलों और सलवा जुडूम ने बलात्कार किया.
महिलाओं की एक राष्ट्र स्तरीय टीम ने भी 2006 में दो बार इस इलाके का दौरा करके महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा की रिपोर्ट बनाई. कई गाँवों में लोगों ने उन्हें बताया कि तलाशी अभियानों के दौरान यौन हिंसा आम बात है. कई ने ये भी कहा कि जितनी अटाई जाती है यौन हिंसा कहीं ज्यादा मात्रा में होती है पर डर और सामजिक बदनामी के चलते बलात्कार की बात सामने नहीं आती. ये टीम एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता से मिली जिसके साथ नागा बटालियन के 15 लोगों ने बलात्कार किया था. जेल में टीम के सदस्य कई ऐसी औरतों से मिले जिनके साथ हिरासत में बलात्कार हुए थे.
2007 में तीन लोगों ने इन तथ्यान्वेषी रिपोर्ट्स के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की. इसके बाद दंतेवाड़ा के ही तीन निवासियों ने एक याचिका दायर की जो स्वयं सलवा जुडूम की मारपीट, आगज़नी, लूटपाट, और धौंसपट्टी के शिकार थे. याचिकाकर्ताओं की मांग थी कि सर्वोच्च न्यायालय के मार्गदर्शन में एक स्वतन्त्र जांच बिठाई जाए जो सुरक्षाबलों और सलवा जुडूम द्वारा किए गए अपराधों- ह्त्या, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार व मानवाधिकार के अन्य उल्लंघनों के मामलों की जांच करे. ये भी निवेदन था कि न्यायालय छत्तीसगढ़ सरकार को आदेश दे कि वो सलवा जुडूम को किसी भी तरह की मदद देना बंद करे. अपने जवाब में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस बात से इनकार किया कि सलवा जुडूम कोई ज़्यादती कर रहा है और स्वतन्त्र जांच का भी विरोध किया.
सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 में इस मामले में एक ऐतिहासिक फ़ैसला देकर सलवा जुडूम की स्थापना को असंवैधानिक करार देते हुए उसे भंग करने का आदेश दिया. इस याचिका में 99 शपथपत्र भी शामिल थे जिनमें सलवा जुडूम के सदस्यों पर बलात्कार के आरोप लगाए गए थे. इस फ़ैसले को आए अब आठ साल हो चुके हैं पर अब तक किसी दोषी को सज़ा नहीं हुई है.
जले हुए घरों, विस्थापित हुए जीवन और मृत्यु की यादों के साथ हिंसा, विशेषकर यौनिक हिंसा के ज़ख्म अब भी उन लोगों में रिस रहे हैं जिनपर सलवा जुडूम का कहर बरपा था. वैसे तो सलवा जुडूम ख़त्म कर दिया गया है, मगर उसकी विरासत मौजूद है और सरकार अपने ही लोगों के साथ बेरहम हिंसा को सही ठहराने के नए-नए तरीके खोजती रहती है.
सलवा जुडूम की वजह से विस्थापित हुए लाखों आदिवासियों में से 24 परिवार, बीते गुरुवार (25 अप्रैल) को छत्तीसगढ़ वापस लौट आए हैं. अपनी ज़मीन से जबरन बेदख़ल किए गए ये आदिवासी परिवार आँध्रप्रदेश में भद्राचलम के पास कन्नापुरम गांव में जाकर बस गए थे. ये परिवार लगभग 13 साल बाद अपने घर वापस आ पाए हैं. गुरूवार को एक बस में सवार होकर ये अपने मूल गांव मरईगुड़ा पहुंचे जो बस्तर संभाग के नक्सल प्रभावित सुकमा जिले में आता है. सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी जो बस्तर शांति वार्ता में शामिल रहे हैं उनके द्वारा यह कार्य संभव हो पाया. शुभ्रांशु की मुलाकात इन आदिवासियों से शांति यात्रा के दौरान हुई थी तभी आदिवासियों ने वापस अपने गाँव आने की इच्छा ज़ाहिर की थी.
घर वापस लौटे इन 24 आदिवासी परिवारों के ज़ेहन से सलवा जुडूम का खौफ़ अब भी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है. घर वापस लौटती बस की छत पर बैठे एक व्यक्ति ने कहा कि उनमें अब वो जनसंहार देखने की हिम्मत नहीं है जो सलवा जुडूम के दौरान हुआ.
24 आदिवासी परिवारों को उनके मूल स्थान पर वापस लाना एक प्रयोग की तरह है। अगर यह प्रयोग शांति पूर्ण तरीके से सफल रहा तो भविष्य में हज़ारो की संख्या में जो आदिवासी परिवार अपने प्रदेश के बहार अपना जीवन जीने को मजबूर हैं उनकी वापसी का रास्ता सरल हो सकता है. अभी यह समाजिक बदलाव क्राउडफण्डिंग और सामाजिक संस्थानों की कोशिश से पूरा हो पाया है हालांकि क्षेत्रीय प्रशासन ने कहा है कि वह मदद के लिए आगे आएगा.
वापस आए आदिवासियों के खेत अब जंगल हो चुके हैं, इनके पास अभी न खेती के औज़ार हैं न ही रोज़गार का कोई अन्य साधन, और घर तो पहले ही जला दिए गए थे. अब सभी इस उम्मीद में हैं कि प्रशासन जल्द ही वापस आए आदिवासियों के हित में कोई ठोस कदम उठाएगा.
जुडूम ने आदिवासियों को दो हिस्सों में बांट दिया - "हम" और "वे"
सलवा जुडूम गोंडी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है शांति या शुद्धिकरण की खोज. छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम एक निजी सशस्त्र अभियान था जिसे सरकार ने प्रायोजित किया, निजी पूंजी जिसे पोषित कर रही थी और जिसका इस्तेमाल पुलिस और अन्य सुरक्षा बल दक्षिण बस्तर में नक्सलवाद का सफ़ाया करने के लिए कर रहे थे. हालांकि प्रशासन और पुलिस का अब भी यही कहना है कि सलवा जुडूम माओवाद के विरुद्ध एक स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया थी.
सलवा जुडूम की पहली बैठक एस्सार समूह और टाटा स्टील के साथ छत्तीसगढ़ सरकार के अनुबन्ध होने के कुछ ही दिनों बाद जून 2005 में हुई थी. इस अनुबन्ध के तहत कंपनियों को धुरली, भांसी व लोहांडीगुड़ा में बड़ी मात्रा में ज़मीन दी गई जो खनिज सम्पदा से भरपूर थी.
सलवा जुडूम के दौरान हज़ारों ग्रामीणों को गांवों से जबरन निकाल कर सुरक्षा कैम्पों में लाया गया. लोगों को पीटा जाता, नंगा किया जाता, उनके घर जला दिए जाते. उनकी आजीविकाएं भी नष्ट कर दी गईं, ये कहते हुए कि कैम्पों में लोग माओवादियों से सुरक्षित रहेंगे पर असलियत ये थी कि जो लोग अपना घर नहीं छोड़ना चाहते थे उनके साथ मारपीट की गई। उन्हें धमकाया गया और कईयों को मार भी डाला गया. सलवा जुडूम ने आदिवासियों को दो हिस्सों में बांट दिया - "हम" और "वे" में. "वे" में वह सब शामिल थे जो अपना पैतृक घर छोड़ना नहीं चाहते थे. उन सभी को माओवादियों का समर्थक घोषित करके निशाने पर लिया गया. साफ़ ज़ाहिर है कि ये निजी सशस्त्र बल कॉर्पोरेटीकरण के विरोध को दबाने के लिए खड़ा किया गया था.
सलवा जुडूम और यौन हिंसा
राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (NCPCR) दिसंबर 2007 में दंतेवाड़ा गया था. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा "कई लोगों ने सलवा जुडूम द्वारा महिलाओं के साथ यौन हिंसा किए जाने के अनुभव साझा किए". लिंगागिरी गाँव के एक व्यक्ति ने बताया कि "चूंकि हमारे गाँव से कोई सलवा जुडूम में शामिल नहीं हुआ था इसलिए पुलिस ने आकर मेरे परिवार के दो लोगों को मार डाला और मेरी भतीजी के साथ बलात्कार किया." इस रिपोर्ट में विस्थापित ग्रामीणों की कई अर्जियां भी शामिल हैं जिनमे दरख्वास्त की गई है कि उन्हें सलवा जुडूम से बचाया जाए. इन अर्जियों में तकरीबन हर एक में परिवार के किसी सदस्य या गाँव की किसी औरत से बलात्कार का ज़िक्र है. इंडिपेडेंट सिटिज़न्स इनिशिएटिव ने 2006 की अपनी रिपोर्ट में 31 औरतों की सूची दी जिनके साथ पुलिस, सुरक्षा बलों और सलवा जुडूम ने बलात्कार किया.
महिलाओं की एक राष्ट्र स्तरीय टीम ने भी 2006 में दो बार इस इलाके का दौरा करके महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा की रिपोर्ट बनाई. कई गाँवों में लोगों ने उन्हें बताया कि तलाशी अभियानों के दौरान यौन हिंसा आम बात है. कई ने ये भी कहा कि जितनी अटाई जाती है यौन हिंसा कहीं ज्यादा मात्रा में होती है पर डर और सामजिक बदनामी के चलते बलात्कार की बात सामने नहीं आती. ये टीम एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता से मिली जिसके साथ नागा बटालियन के 15 लोगों ने बलात्कार किया था. जेल में टीम के सदस्य कई ऐसी औरतों से मिले जिनके साथ हिरासत में बलात्कार हुए थे.
2007 में तीन लोगों ने इन तथ्यान्वेषी रिपोर्ट्स के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की. इसके बाद दंतेवाड़ा के ही तीन निवासियों ने एक याचिका दायर की जो स्वयं सलवा जुडूम की मारपीट, आगज़नी, लूटपाट, और धौंसपट्टी के शिकार थे. याचिकाकर्ताओं की मांग थी कि सर्वोच्च न्यायालय के मार्गदर्शन में एक स्वतन्त्र जांच बिठाई जाए जो सुरक्षाबलों और सलवा जुडूम द्वारा किए गए अपराधों- ह्त्या, लूटपाट, अपहरण, बलात्कार व मानवाधिकार के अन्य उल्लंघनों के मामलों की जांच करे. ये भी निवेदन था कि न्यायालय छत्तीसगढ़ सरकार को आदेश दे कि वो सलवा जुडूम को किसी भी तरह की मदद देना बंद करे. अपने जवाब में छत्तीसगढ़ सरकार ने इस बात से इनकार किया कि सलवा जुडूम कोई ज़्यादती कर रहा है और स्वतन्त्र जांच का भी विरोध किया.
सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 में इस मामले में एक ऐतिहासिक फ़ैसला देकर सलवा जुडूम की स्थापना को असंवैधानिक करार देते हुए उसे भंग करने का आदेश दिया. इस याचिका में 99 शपथपत्र भी शामिल थे जिनमें सलवा जुडूम के सदस्यों पर बलात्कार के आरोप लगाए गए थे. इस फ़ैसले को आए अब आठ साल हो चुके हैं पर अब तक किसी दोषी को सज़ा नहीं हुई है.
जले हुए घरों, विस्थापित हुए जीवन और मृत्यु की यादों के साथ हिंसा, विशेषकर यौनिक हिंसा के ज़ख्म अब भी उन लोगों में रिस रहे हैं जिनपर सलवा जुडूम का कहर बरपा था. वैसे तो सलवा जुडूम ख़त्म कर दिया गया है, मगर उसकी विरासत मौजूद है और सरकार अपने ही लोगों के साथ बेरहम हिंसा को सही ठहराने के नए-नए तरीके खोजती रहती है.