लखनऊ के हजरतगंज चैराहे पर लगी डॉ. अम्बेडकर की मूर्ति पर 16 फरवरी, 2019 को मुझे 200 दलित छात्रों द्वारा आयोजित दो दिन पहले पुलवामा में हुए आतंकी हमले में मारे गए 40 जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला। दलित छात्रों का कार्यक्रम घटना में गम्भीर क्षति को देखते हुए सौम्य था तथा छात्रों ने कोई नारे न लगाने का निर्णय लिया था। वहीं बगल में स्थित महात्मा गांधी की मूर्ति पर तमाम किस्म के राष्ट्रवादी संगठन, जिनमें शामिल होने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी किंतु पाकिस्तान के खिलाफ नारेबाजी आवेश भरी व आक्रामक थी, जिसे देख कर गांधी भी असहज महसूस करते।
महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि ऐसे आतंकवादी हमले अभी भी जारी क्यों हैं जबकि देश के प्रधान मंत्री बता चुके हैं कि 2016 में उरी आतंकवादी हमले का सबक सिखाने वाला जवाब पाकिस्तान को निर्णायक सर्जिकल स्ट्राइक में दिया जा चुका है। हिन्दुत्ववादियों का शोर है कि सरकार पाकिस्तान पर और करारा सर्जिकल स्ट्राइक करे। किंतु सवाल यह है कि जब पाकिस्तान को एक सर्जिकल स्ट्राइक से हम निरूत्साहित नहीं कर पा रहे हैं तो क्या जरूरी है कि दूसरी सर्जिकल स्ट्राइक कामयाब रहेगी? और हमें यह कैसे पता लगेगा कि सर्जिकल स्ट्राइक इतनी करारी न हो कि युद्ध ही छिड़ जाए? युद्ध छिड़ने की स्थिति में यह कैसा पता चलेगा कि उसकी तीव्रता इतनी न हो कि युद्ध में नाभिकीय शस्त्र का इस्तेमाल न हो जाए? यानी युद्ध तो अनिश्चितताओं से भरा खेल है। भारत सरकार ने पाकिस्तान के साथ बातचीत न करने का कठोर निर्णय लेकर स्थिति को और बिगड़ने का मौका दिया है।
उधर अफगानिस्तान में जैसे अमरीका ने अपनी सेना को वहां से निकालने का निर्णय लिया है, भारत के लिए संकट खड़ा हो गया है। डोनाल्ड ट्रम्प जो अभी तक आतंकवादी संगठनों को संरक्षण देने के लिए पाकिस्तान सरकार की आलोचना कर रहा था अब उन्हें समझ में आ गया है कि तालिबान से अमरीका की वार्ता कराने में पाकिस्तान की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। अमरीका के राष्ट्रपति अब नरेन्द्र मोदी का मजाक उड़ाते हैं कि मोदी उन्हें बताते हैं कि उन्होंने काबुल में एक पुस्तकालय, जो असल में भारक की पूर्व सरकार की देन अफगानिस्तान का संसद भवन है, बनवाया है। नरेन्द्र मोदी ने एक भी ऐसा अंतर्राष्ट्रीय मौका नहीं छोड़ा होगा जहां उन्होंने पाकिस्तान को आतंकवाद को संरक्षण देने के लिए अलग थलग करवाने की कोशिश न की हो किंतु वे किसी एक भी महत्वपूर्ण देश को अपनी बात मनवा नहीं पाए। जैश-ए-मोहम्मद के मसूद अजहर जिसका 2001 के संसद भवन पर हमले से लेकर पुलवामा हमले तक में हाथ है, को संयुक्त राष्ट्र में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करवाने के प्रयास में चीन ने हमेशा अड़ंगा लगाया है। रूस जो अभी तक भारत का अभिन्न मित्र माना जाता था, भारत के अमरीका के करीब जाने की कोशिशों को देखते हुए, अब पाकिस्तान के साथ संयुक्त सैनिक अभ्यास करने लगा है।
भारत की सरकार पहले हुए आतंकी हमलों की तरह इस बार भी पाकिस्तान सरकार को ही पुलवामा हमले के लिए जिम्मेदार ठहरा रही है। क्या पाकिस्तानी सरकार को जैश-ए-मोहम्मद की कार्यवाहियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? भारत ऐसा सोचता है किंतु शेष दुनिया तो ऐसा नहीं सोचती। पाकिस्तान सरकार क्या ऐसा हमला कराकर इस्लामाबाद में जो जल्दी ही अमरीका और तालिबान की वार्ता होने वाली है और पाकिस्तान को फिर से अमरीका के साथ अपने सम्बंध सुधारने का मौका मिल रहा है को खतरे में डालेगा? पाकिस्तान सरकार अपनी सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने के लिए अमरीका की आर्थिक मदद पर पूरी तरह से निर्भर रहता है।
भारत को यह समझना पड़ेगा कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर बार-बार अपने को पीड़ित दिखा कर पाकिस्तान को अलग थलग करने की कोशिश कामयाब नहीं हो रही है बल्कि भारत ही अकेला पड़ता जा रहा है। भारत पाकिस्तान के साथ खुलकर युद्ध भी नहीं कर सकता क्यों ऐसे किसी भी युद्ध में नाभिकीय शस्त्र के इस्तेमान का खतरा रहेगा। अतः अब भारत के हित में यही है कि वह पाकिस्तान से मित्रता कर व कश्मीर में हालात को सामान्य बना कर इस इलाके में शांति स्थापित करे।
अफगानिस्तान शांति वार्ता में हाशिए पर ढकेले जाने के खतरे का सामना करते हुए भारतीय सरकार ने अपने सेना प्रमुख बिपिन रावत के मुंह से कहलवाया है कि वह तालिबान से बात करने को तैयार है। यह वही सरकार है जो पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार से बात करने से लगातार मना करती रही है, जो जम्मू व कश्मीर में पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार नहीं चला पाई और जो ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के अस्तित्व को ही नकारती है, जिसका जनाधार शायद जम्मू व कश्मीर के किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा है। बल्कि हाल ही में उसने पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी पर हुर्रियत के दो नेताओं से फोन पर बात करने के लिए सवाल खड़े किए। वह न तो खुद बात करने में रुचि रखती है और न ही चाहती कि कोई भी किसी से बात करे। अपने आप को और अपनी ही विचारधारा को सही मानना और दूसरे लोगों को गलत मानने की सोच ने ही कश्मीर में जन जीवन को तबाह कर दिया है।
यदि भारत सरकार तालिबान के साथ बातचीत करने को राजी है तो उसे पाकिस्तान सरकार व कश्मीर की राजनीति में दखल रखने वाले समूहों से बातचीत न करने की भूमिका पर पुनर्विचार करना चाहिए। इमरान खान ने करतारपुर गलियार खोलने की पहल कर भारत सरकार को इस परियोजना पर पाकिस्तान के साथ सहयोग करने पर मजबूर कर दिया है क्योंकि भारत सरकार सिख धर्म के अनुयायियों को नाराज करने का खतरा नहीं उठा सकती। भारत को उच्चतम स्तर पर बातचीत की प्रकिया को बहाल करना चाहिए। बातचीत करने के लिए इमरान खान-शाह महमूद कुरैशी की जोड़ी से अनुकूल लोग नहीं मिलेंगे। यह बड़े दुख की बात है कि नवजोत सिंह सिद्धू जो भारत का एकमात्र राजनीतिज्ञ है जो पाकिस्तान से शांति वार्ता की वकालत कर राष्ट्रवाद की राजनीति के नाम पर देश में निर्मित विशाक्त माहौल में कुछ समझदारी की बात कर रहा है की आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है। भारत सरकार को तो पाकिस्तान के साथ वार्ता हेतु नवजोत सिंह सिद्धू से इमरान खान की मित्रता का लाभ उठाना चाहिए।
जम्मू व कश्मीर में शांति बहाल करने के लिए भारत सरकार को हुर्रियत से बातचीत करनी चाहिए, राज्य के विधान सभा चुनाव, हो सके तो लोक सभा के चुनाव के साथ ही, करा देने चाहिए व वहां एक चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंप देनी चाहिए। किंतु सबसे महत्वपूर्ण काम जो उसे करना है वह सेना को कश्मीर के अंदरूनी इलाके से हटा लेना चाहिए। एक बार उसे चुनी हुई सरकार पर भरोसा कर जम्मू व कश्मीर की सरकार को वहां की पुलिस की मदद से कानून व व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी, जैसी व्यवस्था अन्य राज्यों में है, दे देनी चाहिए। सेना की भूमिका सिर्फ सीमा की सुरक्षा तक होनी चाहिए। सशस्त्र बल विशेषधिकार अधिनियम को जम्मू व कश्मीर से हटा लिया जाना चाहिए, जिसकी मांग ओमार अब्दुल्लाह ने मुख्यमंत्री रहते हुए भी उठाई थी। यदि भारत सरकार जम्मू व कश्मीर की चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री की बात भी नहीं मानेगी तो इसका अभिप्राय यही होगा कि भारत कश्मीर को अपना उपनिवेश मानता है। कश्मीर में स्थिति को सामान्य करने के लिए भारत को अपनी सोच बदलनी पड़ेगी। कोई भी सरकार अपनी जनता पर उन बंदूकों का इस्तेमाल कैसे कर सकती है जिनसे बौछार की तरह छर्रे निकलते हों?
हम गांधीवादी मूल्यों से दूर चले गए हैं खासकर नरेन्द्र मोदी की सरकार में जिन्हें शायद गांधी की स्वच्छ भारत अभियान से ज्यादा कोई भूमिका समझ में नहीं आती है। और कश्मीर में हालात सामान्य करने के लिए हमें अपने संविधान पर भरोसा करना होगा। नरेन्द्र मोदी को अपने सार्वजनिक किए गए सीने की माप 56 इंच से अपना सीना और चौड़ा कर, दिल बड़ा कर, कश्मीर के लोगों के साथ, वहां के राजनीतिक समूहों के साथ, जिसमें अलगाववादी भी शामिल हैं व पाकिस्तान की सरकार की तरफ मैत्री का हाथ बढ़ाना पड़ेगा। उसे जैसा चीन के साथ लिखित या अलिखित समझौता है कि दोनों देशों के सैनिक एक दूसरे पर गोली नहीं चलाएंगे, वैसा ही एक समझौता पाकिस्तान की सरकार के साथ भी कर लेना चाहिए। जहां तक आतंकवाद का सवाल है दोनों देशों की सरकारों को मिलकर ही उससे निपटना पड़ेगा क्योंकि जितना नुकसान आतंकवाद से भारत का हुआ है उससे कहीं ज्यादा तो पाकिस्तान का हुआ है, जो बात भारत के लोग अपने दृष्टिकोण से समझ नहीं पाते।
(डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं। इस आर्टिकल में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति सबरंग इंडिया उत्तरदायी नहीं है।)
महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि ऐसे आतंकवादी हमले अभी भी जारी क्यों हैं जबकि देश के प्रधान मंत्री बता चुके हैं कि 2016 में उरी आतंकवादी हमले का सबक सिखाने वाला जवाब पाकिस्तान को निर्णायक सर्जिकल स्ट्राइक में दिया जा चुका है। हिन्दुत्ववादियों का शोर है कि सरकार पाकिस्तान पर और करारा सर्जिकल स्ट्राइक करे। किंतु सवाल यह है कि जब पाकिस्तान को एक सर्जिकल स्ट्राइक से हम निरूत्साहित नहीं कर पा रहे हैं तो क्या जरूरी है कि दूसरी सर्जिकल स्ट्राइक कामयाब रहेगी? और हमें यह कैसे पता लगेगा कि सर्जिकल स्ट्राइक इतनी करारी न हो कि युद्ध ही छिड़ जाए? युद्ध छिड़ने की स्थिति में यह कैसा पता चलेगा कि उसकी तीव्रता इतनी न हो कि युद्ध में नाभिकीय शस्त्र का इस्तेमाल न हो जाए? यानी युद्ध तो अनिश्चितताओं से भरा खेल है। भारत सरकार ने पाकिस्तान के साथ बातचीत न करने का कठोर निर्णय लेकर स्थिति को और बिगड़ने का मौका दिया है।
उधर अफगानिस्तान में जैसे अमरीका ने अपनी सेना को वहां से निकालने का निर्णय लिया है, भारत के लिए संकट खड़ा हो गया है। डोनाल्ड ट्रम्प जो अभी तक आतंकवादी संगठनों को संरक्षण देने के लिए पाकिस्तान सरकार की आलोचना कर रहा था अब उन्हें समझ में आ गया है कि तालिबान से अमरीका की वार्ता कराने में पाकिस्तान की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। अमरीका के राष्ट्रपति अब नरेन्द्र मोदी का मजाक उड़ाते हैं कि मोदी उन्हें बताते हैं कि उन्होंने काबुल में एक पुस्तकालय, जो असल में भारक की पूर्व सरकार की देन अफगानिस्तान का संसद भवन है, बनवाया है। नरेन्द्र मोदी ने एक भी ऐसा अंतर्राष्ट्रीय मौका नहीं छोड़ा होगा जहां उन्होंने पाकिस्तान को आतंकवाद को संरक्षण देने के लिए अलग थलग करवाने की कोशिश न की हो किंतु वे किसी एक भी महत्वपूर्ण देश को अपनी बात मनवा नहीं पाए। जैश-ए-मोहम्मद के मसूद अजहर जिसका 2001 के संसद भवन पर हमले से लेकर पुलवामा हमले तक में हाथ है, को संयुक्त राष्ट्र में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करवाने के प्रयास में चीन ने हमेशा अड़ंगा लगाया है। रूस जो अभी तक भारत का अभिन्न मित्र माना जाता था, भारत के अमरीका के करीब जाने की कोशिशों को देखते हुए, अब पाकिस्तान के साथ संयुक्त सैनिक अभ्यास करने लगा है।
भारत की सरकार पहले हुए आतंकी हमलों की तरह इस बार भी पाकिस्तान सरकार को ही पुलवामा हमले के लिए जिम्मेदार ठहरा रही है। क्या पाकिस्तानी सरकार को जैश-ए-मोहम्मद की कार्यवाहियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? भारत ऐसा सोचता है किंतु शेष दुनिया तो ऐसा नहीं सोचती। पाकिस्तान सरकार क्या ऐसा हमला कराकर इस्लामाबाद में जो जल्दी ही अमरीका और तालिबान की वार्ता होने वाली है और पाकिस्तान को फिर से अमरीका के साथ अपने सम्बंध सुधारने का मौका मिल रहा है को खतरे में डालेगा? पाकिस्तान सरकार अपनी सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने के लिए अमरीका की आर्थिक मदद पर पूरी तरह से निर्भर रहता है।
भारत को यह समझना पड़ेगा कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर बार-बार अपने को पीड़ित दिखा कर पाकिस्तान को अलग थलग करने की कोशिश कामयाब नहीं हो रही है बल्कि भारत ही अकेला पड़ता जा रहा है। भारत पाकिस्तान के साथ खुलकर युद्ध भी नहीं कर सकता क्यों ऐसे किसी भी युद्ध में नाभिकीय शस्त्र के इस्तेमान का खतरा रहेगा। अतः अब भारत के हित में यही है कि वह पाकिस्तान से मित्रता कर व कश्मीर में हालात को सामान्य बना कर इस इलाके में शांति स्थापित करे।
अफगानिस्तान शांति वार्ता में हाशिए पर ढकेले जाने के खतरे का सामना करते हुए भारतीय सरकार ने अपने सेना प्रमुख बिपिन रावत के मुंह से कहलवाया है कि वह तालिबान से बात करने को तैयार है। यह वही सरकार है जो पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार से बात करने से लगातार मना करती रही है, जो जम्मू व कश्मीर में पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी के साथ गठबंधन की सरकार नहीं चला पाई और जो ऑल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस के अस्तित्व को ही नकारती है, जिसका जनाधार शायद जम्मू व कश्मीर के किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा है। बल्कि हाल ही में उसने पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी पर हुर्रियत के दो नेताओं से फोन पर बात करने के लिए सवाल खड़े किए। वह न तो खुद बात करने में रुचि रखती है और न ही चाहती कि कोई भी किसी से बात करे। अपने आप को और अपनी ही विचारधारा को सही मानना और दूसरे लोगों को गलत मानने की सोच ने ही कश्मीर में जन जीवन को तबाह कर दिया है।
यदि भारत सरकार तालिबान के साथ बातचीत करने को राजी है तो उसे पाकिस्तान सरकार व कश्मीर की राजनीति में दखल रखने वाले समूहों से बातचीत न करने की भूमिका पर पुनर्विचार करना चाहिए। इमरान खान ने करतारपुर गलियार खोलने की पहल कर भारत सरकार को इस परियोजना पर पाकिस्तान के साथ सहयोग करने पर मजबूर कर दिया है क्योंकि भारत सरकार सिख धर्म के अनुयायियों को नाराज करने का खतरा नहीं उठा सकती। भारत को उच्चतम स्तर पर बातचीत की प्रकिया को बहाल करना चाहिए। बातचीत करने के लिए इमरान खान-शाह महमूद कुरैशी की जोड़ी से अनुकूल लोग नहीं मिलेंगे। यह बड़े दुख की बात है कि नवजोत सिंह सिद्धू जो भारत का एकमात्र राजनीतिज्ञ है जो पाकिस्तान से शांति वार्ता की वकालत कर राष्ट्रवाद की राजनीति के नाम पर देश में निर्मित विशाक्त माहौल में कुछ समझदारी की बात कर रहा है की आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है। भारत सरकार को तो पाकिस्तान के साथ वार्ता हेतु नवजोत सिंह सिद्धू से इमरान खान की मित्रता का लाभ उठाना चाहिए।
जम्मू व कश्मीर में शांति बहाल करने के लिए भारत सरकार को हुर्रियत से बातचीत करनी चाहिए, राज्य के विधान सभा चुनाव, हो सके तो लोक सभा के चुनाव के साथ ही, करा देने चाहिए व वहां एक चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंप देनी चाहिए। किंतु सबसे महत्वपूर्ण काम जो उसे करना है वह सेना को कश्मीर के अंदरूनी इलाके से हटा लेना चाहिए। एक बार उसे चुनी हुई सरकार पर भरोसा कर जम्मू व कश्मीर की सरकार को वहां की पुलिस की मदद से कानून व व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी, जैसी व्यवस्था अन्य राज्यों में है, दे देनी चाहिए। सेना की भूमिका सिर्फ सीमा की सुरक्षा तक होनी चाहिए। सशस्त्र बल विशेषधिकार अधिनियम को जम्मू व कश्मीर से हटा लिया जाना चाहिए, जिसकी मांग ओमार अब्दुल्लाह ने मुख्यमंत्री रहते हुए भी उठाई थी। यदि भारत सरकार जम्मू व कश्मीर की चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री की बात भी नहीं मानेगी तो इसका अभिप्राय यही होगा कि भारत कश्मीर को अपना उपनिवेश मानता है। कश्मीर में स्थिति को सामान्य करने के लिए भारत को अपनी सोच बदलनी पड़ेगी। कोई भी सरकार अपनी जनता पर उन बंदूकों का इस्तेमाल कैसे कर सकती है जिनसे बौछार की तरह छर्रे निकलते हों?
हम गांधीवादी मूल्यों से दूर चले गए हैं खासकर नरेन्द्र मोदी की सरकार में जिन्हें शायद गांधी की स्वच्छ भारत अभियान से ज्यादा कोई भूमिका समझ में नहीं आती है। और कश्मीर में हालात सामान्य करने के लिए हमें अपने संविधान पर भरोसा करना होगा। नरेन्द्र मोदी को अपने सार्वजनिक किए गए सीने की माप 56 इंच से अपना सीना और चौड़ा कर, दिल बड़ा कर, कश्मीर के लोगों के साथ, वहां के राजनीतिक समूहों के साथ, जिसमें अलगाववादी भी शामिल हैं व पाकिस्तान की सरकार की तरफ मैत्री का हाथ बढ़ाना पड़ेगा। उसे जैसा चीन के साथ लिखित या अलिखित समझौता है कि दोनों देशों के सैनिक एक दूसरे पर गोली नहीं चलाएंगे, वैसा ही एक समझौता पाकिस्तान की सरकार के साथ भी कर लेना चाहिए। जहां तक आतंकवाद का सवाल है दोनों देशों की सरकारों को मिलकर ही उससे निपटना पड़ेगा क्योंकि जितना नुकसान आतंकवाद से भारत का हुआ है उससे कहीं ज्यादा तो पाकिस्तान का हुआ है, जो बात भारत के लोग अपने दृष्टिकोण से समझ नहीं पाते।
(डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं। इस आर्टिकल में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति सबरंग इंडिया उत्तरदायी नहीं है।)