दूरदर्शन के कैमरामैन अच्यूतानंद साहू की मौत की खबर मंगलवार को सुबह ही मिली। सोशल मीडिया पर किसी ने जानकारी दी थी। जैसे ही जानकारी मिली तुरंत और जानकारी पाने की इच्छा हुई । टीवी खोल न्यूज चैनलों को देखने लगा । पर देश के राष्ट्रीय न्यूज चैनलो में कही भी खबर चल नहीं रही थी। घंटे भर बाद तीन राष्ट्रीय चैनलो ने अपने संवाददाता से फोन-इन कर जानकारी ली। और सामान्यत तमाम रिपोर्टर जो फोन के जरीये जानकारी दे रहे थे वह रायपुर में थे। तो उनके पास भी उतनी ही जानकारी थी जो सोशल मीडिया में रेंग रही थी। बाकी तमाम हिन्दी - अग्रेजी के न्यूज चैनलों में सिर्फ टिकर यानी स्क्रीन के नीचे चलने वाली पट्टी पर ही ये जानकारी चल रही थी कि छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने डीडी के एक कैमरामैन को मार दिया है।
कुछ जगहों पर दो जवान के साथ कैमरामैन के भी शहीद होने की खबर पट्टी के तौर पर ही चल रही थी। हालांकि, इस भीड़ में कुछ संवेदनशीलता दूरदर्शन ने अपने कैमरामैन-पत्रकार के प्रति दिखायी। और दोपहर में करीब 12-1 के बीच कैमरामैन के बारे में पूरी जानकारी बतायी। कैमरामैन ने दंतेवाडा में रिपोर्टिग के वक्त जो सेल्फी आदिवासी इलाके में ली या कहें आदिवासी बच्चों के साथ ली, उसे शेयर किया गया। और हर सेल्फी में जिस तरह कैमरामैन अच्यूतानंद साहू के चेहरे पर एक खास तरह की बाल-चमक थी, वह बरबस शहरी मिजाज में जीने वाली पत्रकारों से उन्हें अलग भी कर रही थी।
अच्युतानंद खुद आदिवासी इलाके के रहने वाले थे। पर तमाम न्यूज चैनलों के बाद जो जानकारी निकल कर आयी वह सिर्फ इतनी ही थी कि डीडी के कैमरामैन अच्यूतानंद की मौत नक्सली हमले में हो गई है। छत्तीसगढ के नक्सल प्रभावित इलाके में चुनाव की रिपोर्टिग करते हुये उनकी मौत हो गई। दंतेवाडा इलाके में नक्सलियो ने सुरक्षाकर्मियों की टोली पर घात लगाकर हमला किया। हमले की जद में कैमरामैन भी आये और अस्पताल पहुंचने से पहले उनकी मौत हो गई।
कैमरामैन की मौत की इतनी जानकारी के बाद आज सुबह जब मैंने छत्तीसगढ से निकलने वाले अखबारो को नेट पर देखा तो कैमरामैन की मौत अखबार के पन्नों में कुछ इस तरह गुम दिखायी दी कि जबतक खबर खोजने की इच्छा ना हो तबतक वह खबर आपको दिखायी नहीं देगी। वैसे दो अखबारो ने प्रमुखता से छापा जरुर पर वह सारे सवाल जो किसी पत्रकार की रिपोर्टिग के वक्त हत्या के बाद उभरने चाहिये वह भी गायब मिले। और ये सोचने पर मै भी विवश हुआ कि आखिर वह कौन से हालात हैं, जब पत्रकार या मीडिया ही अपने ही प्रोफेशन के कर्मचारी की मौत पर इतना संवेदनहीन हो चला है। या फिर पत्रकारिता की दुनिया या मीडिया का मर्म ही बदल चुका है। और इसे कई खांचो में बांट कर समझने की जरुरत है। क्योंकि पहली सोच तो यही कहती है कि अगर किसी राष्ट्रीय निजी न्यूज चैनल का कोई कैमरामैन इस तरह नक्सली हमले में मारा जाता तो वह चैनल हंगामा खड़ा कर देता। इतना शोर होता कि राज्य के सीएम से लेकर देश के गृहमंत्री तक को बयान देना पड़ता। प्रधानमंत्री भी ट्वीट करते। और सूचना प्रसारण मंत्री भी रिपोर्टिग के वक्त के नियम कायदे की बात करते। यानी देश जान जाता कि एक कैमरामैन की मौत नक्सली इलाके में रिपोर्टिग करते हुये हुई। और हो सकता है कि राज्य में विधानसभा चुनाव चल रहे है तो रमन
सरकार की असफलता के तौर पर विपक्ष इसे राजनीतिक मुद्दा बनाता। वैसे कुछ पत्रकार जो निजी न्यूज चैनलों में काम करते है वह ये भी महसूस करते है कि हो सकता है इस तरह रिपोर्टिग करते हुये कैमरामैन की मौत की खबर को उभारा ही नहीं जाता। क्योंकि इससे सरकार के सामने कुछ मुश्किले खडी हो जाती और
हो सकता है कि नक्सल प्रभावित इलाके में सुरक्षा से लैस हुये बगैर जाने को लेकर कैमरामैन को ही कटघरे में खडा कर दिया जाता और मौत आई गई हो जाती ।
लेकिन इन तमाम परिस्थितियो के बीच क्या ये सच नहीं है कि मीडिया जिस तरह असल खबरो को लेकर संवेदनहीन हो चला है या फिर जिस तरह मीडिया सिर्फ सत्ता की चापलुसी से जुडी खबरो में जा खोया है और ग्राउंड रिपोटिंग ही बंद हो चुकी है यानी किसी आम नागरिक के क्या दर्द है। जमीनी हालात और सरकारी एलान के बीच कितनी चौडी खाई है। जिन मुश्किल हालातों के बीच देश का एक आम नागरिक खास तौर से ग्रामीण क्षेत्र में जी रहा है, उससे दूर सकारात्मक होकर मीडिया सरकारी चकाचौंध में अगर खोया हुआ है तो फिर उसकी अपनी मौत जिस दिन होगी वह भी ना ता खबर बनेगी और ना ही उस तरफ ध्यान जायेगा।
क्या ऐसे हालात बन नहीं रहे है ? ये सवाल हमारा खुद से है। क्योंकि किसी भी खबर को रिपोर्ट करते वक्त कोई भी पत्रकार और अगर न्यूज चैनल का हो तो कोई भी कैमरामैन जिस मनोस्थिति से गुजरता है वही उसकी जिन्दगी का सच होता है। ये संभव ही नहीं है कि दंतेवाड़ा में जाकर वहां के सामाजिक-आर्थिक हालातो से पत्रकार अपनी रिपोर्ट को ना जोड़े। मारे गये कैमरामैन अच्यूतानंद साहू की मौत से पहले ली गई सेल्फी बताती है कि वह सुरक्षाकर्मियों के बीच सेल्फी नहीं ले रहा था बल्कि ग्रामीण जीवन के बीच हंसते-मुसकुराते बच्चों के बीच सेल्फी ले रहा था। घास-फूस की झोपडियों के बीच अपने होने के एहसास को जी रहा था। यानी दिल्ली में रहते हुये भी कहीं ना कहीं कोई भी पत्रकार जब ग्रामीण इलाकों में पहुचता है तो उसके अपने जीवन के एहसास जागते है और शायद दिल्ली सरीखे जीवन को लेकर उसके भीतर कश्मकश चली है। और पत्रकारों के यही वह हालात है जो सरकार की नीतियों को लेकर क्रिटिकल होते हैं।
क्योंकि एक तरफ रेशमी नगर दिल्ली के एलानों के बीच उसे बार बार क्रंकीट की वह खुरदुरी जमीन दिखायी देती है जो सत्ता की नाक तले देश की त्रासदी होती है पर दिल्ली हमेशा उस तरफ से आंखें मूंद लेती हैं। और न्यूज चैनलों में तो कैमरामैन कितना संवेदनशील हो जाता है ये मैने पांच बरस पहले इसी छत्तीसगढ और महाराष्ट्र-तेलगाना की सीमा पर रिपोर्टिंग करते हुये देखा। जब रात के दस बजे हमे हमारे सोर्स ने कहा कि नक्सल प्रभावित इलाको को समझना है तो रात में सफर करें। और तमाम खतरो के बीच मेरे साथ गये आजतक के कैमरामैन संजय चौधरी मेरे पीछे लग गये कि हम रात में जरुर चलेंगे।
और समूची रात महाराष्ट्र के चन्द्रपर से निकल कर तेलंगाना होते हुये हम उस जगह पर पहुंचे जहा दो सौ मीटर के दायरे में तीन राज्यों की सीमा [तेलगाना-उडीसा-छत्तीसगढ़] लगती थी । और कंघे पर बंदूक लटकाये नकसलियों की आवाजाही एक राज्य से दूसरे राज्य में कितनी आसान है और सुरक्षाकर्मियों का अपने राज्य की सीमा को पार करना कितना मुस्किल है, ये सब सुबह चार से पांच बजे के बीज हमने आंखों से देखा। रिपोर्ट फाइल की।
और वापस दिल्ली लौटते वक्त कैमरामैन संजय चौधरी का कहना था ये सब दिल्ली को कहां दिखायी देता है। प्रसून जी आप ऐसा जगहो पर ही रिपोर्टिंग करने जाइये तो मुझे साथ लीजिये। दिल्ली में तो कोई काम होता नहीं है। हो सकता है डीडी के कैमरामैन अच्यूतानंद साहू के जहन में भी रिपोर्टिग को लेकर कोई ऐसी ही सोच रही हो। लेकिन इस सोच से इतर अब का संकट दूसरा है। क्योंकि न्यूज चैनलों का दायरा दिल्ली या महानगर या फिर प्रधानमंत्री खुद या उनकी नीतियों के एलान वाले इलाके से आगे जाती नहीं है। और मीडिया जिस तरह अपनी रिपोर्ट के आसरे ही देश से जिस तरह कट चुका है उसमें वाकई ये सवाल है कि आखिर एक पत्रकार-कैमरामैन की मौत कैसे खबर बन सकती है। जबतक उसपर सत्ता सरकार मंत्री की नजर ना जाये । और नजर जानी चाहिये इसके लिये मीडिया में रीढ बची नहीं या फिर सत्ता के मुनाफे के माडल में मीडिया की ये रिपोर्टिग फिट बैठती नहीं है।
दरअसल संकट इतना भर नहीं है कि आज डीडी के कैमरा मैन अच्यूतानंद साहू की मौत की खबर कही दिखायी नहीं दी। संकट तो ये है कि न्यूज चैनलो पर रेगतें बर भी सरोकार से दूर हो चले है। मुनाफे के दायरे में या सत्ता से डर के दायरे में जिस तरह न्यूज चैनलो पर खबरो को परोसा जा रहा है उसमें शुरु में आप एक दो दिन और फिर हफ्ते भर और उसके बाद महीनो भर न्यूज चैनल नहीं देखेगें तो भी आप खुद को देश से जुडे हुये ही पायेगें। या फिर कोई खबर आप तक नहीं पहुंची ऐसा आप महसूस ही नहीं कर पायेंगे। तो अगला सवाल मीडियाकर्मियों या मीडिया संस्थानों को चलाने वालो के जहन में आना तो चाहिये कि वह एक ऐसे इक्नामिक माडल को अपना रहे है या अपना चुके हैं जिसमें खबरो को परोस कर अपने प्रोडक्ट को जनता से जोडना या जनता को अपने प्रोडक्ट से जोडने का बच ही नहीं रहा है। यानी सकारात्मक खबरों का मतलब रेशमी नगर दिल्ली की वाहवाही कैसे हो सकती है।
जब देश के हालात बद से बदतर हो चले हैं तब मीडिया मनोरंजन कर कितने दिन टिक पायेगा। खबरो की छौक लगाकर कुछ दिन नागरिको को ठगा तो जा सकता है लेकिन ठगने के आगे का सवाल तो लोकतंत्र के उस खतरे का भी है जिसका चौथा स्तम्भ मीडिया को कहने में हमे गुरेज नहीं होता। और अगर मीडिया ही खुद को मुनाफे के के लिये ध्वस्त करने पर आमादा है तो फिर सत्ता को ही समझना होगा कि सत्ता के लिये उसका राजनीतिक प्रयोग [सारे मीडिया उसका गुणगान करें] आने वाले वक्त में सत्ता की जरुरत उसकी महत्ता को भी नागरिको के जहन से मिटा देगा। यानी धीरे धीरे तमाम संस्थान। फिर गांव। उसके बाद आम नागरिक। फिर चौथा स्तम्भ मायने नहीं रखेगा तो एक वक्त के बाद चुनाव भी बेमानी हो जायेंगे। सचेत रहिये। संवेदनशील रहिये। धीरे धीरे आप भी मर रहे हैं।
कुछ जगहों पर दो जवान के साथ कैमरामैन के भी शहीद होने की खबर पट्टी के तौर पर ही चल रही थी। हालांकि, इस भीड़ में कुछ संवेदनशीलता दूरदर्शन ने अपने कैमरामैन-पत्रकार के प्रति दिखायी। और दोपहर में करीब 12-1 के बीच कैमरामैन के बारे में पूरी जानकारी बतायी। कैमरामैन ने दंतेवाडा में रिपोर्टिग के वक्त जो सेल्फी आदिवासी इलाके में ली या कहें आदिवासी बच्चों के साथ ली, उसे शेयर किया गया। और हर सेल्फी में जिस तरह कैमरामैन अच्यूतानंद साहू के चेहरे पर एक खास तरह की बाल-चमक थी, वह बरबस शहरी मिजाज में जीने वाली पत्रकारों से उन्हें अलग भी कर रही थी।
अच्युतानंद खुद आदिवासी इलाके के रहने वाले थे। पर तमाम न्यूज चैनलों के बाद जो जानकारी निकल कर आयी वह सिर्फ इतनी ही थी कि डीडी के कैमरामैन अच्यूतानंद की मौत नक्सली हमले में हो गई है। छत्तीसगढ के नक्सल प्रभावित इलाके में चुनाव की रिपोर्टिग करते हुये उनकी मौत हो गई। दंतेवाडा इलाके में नक्सलियो ने सुरक्षाकर्मियों की टोली पर घात लगाकर हमला किया। हमले की जद में कैमरामैन भी आये और अस्पताल पहुंचने से पहले उनकी मौत हो गई।
कैमरामैन की मौत की इतनी जानकारी के बाद आज सुबह जब मैंने छत्तीसगढ से निकलने वाले अखबारो को नेट पर देखा तो कैमरामैन की मौत अखबार के पन्नों में कुछ इस तरह गुम दिखायी दी कि जबतक खबर खोजने की इच्छा ना हो तबतक वह खबर आपको दिखायी नहीं देगी। वैसे दो अखबारो ने प्रमुखता से छापा जरुर पर वह सारे सवाल जो किसी पत्रकार की रिपोर्टिग के वक्त हत्या के बाद उभरने चाहिये वह भी गायब मिले। और ये सोचने पर मै भी विवश हुआ कि आखिर वह कौन से हालात हैं, जब पत्रकार या मीडिया ही अपने ही प्रोफेशन के कर्मचारी की मौत पर इतना संवेदनहीन हो चला है। या फिर पत्रकारिता की दुनिया या मीडिया का मर्म ही बदल चुका है। और इसे कई खांचो में बांट कर समझने की जरुरत है। क्योंकि पहली सोच तो यही कहती है कि अगर किसी राष्ट्रीय निजी न्यूज चैनल का कोई कैमरामैन इस तरह नक्सली हमले में मारा जाता तो वह चैनल हंगामा खड़ा कर देता। इतना शोर होता कि राज्य के सीएम से लेकर देश के गृहमंत्री तक को बयान देना पड़ता। प्रधानमंत्री भी ट्वीट करते। और सूचना प्रसारण मंत्री भी रिपोर्टिग के वक्त के नियम कायदे की बात करते। यानी देश जान जाता कि एक कैमरामैन की मौत नक्सली इलाके में रिपोर्टिग करते हुये हुई। और हो सकता है कि राज्य में विधानसभा चुनाव चल रहे है तो रमन
सरकार की असफलता के तौर पर विपक्ष इसे राजनीतिक मुद्दा बनाता। वैसे कुछ पत्रकार जो निजी न्यूज चैनलों में काम करते है वह ये भी महसूस करते है कि हो सकता है इस तरह रिपोर्टिग करते हुये कैमरामैन की मौत की खबर को उभारा ही नहीं जाता। क्योंकि इससे सरकार के सामने कुछ मुश्किले खडी हो जाती और
हो सकता है कि नक्सल प्रभावित इलाके में सुरक्षा से लैस हुये बगैर जाने को लेकर कैमरामैन को ही कटघरे में खडा कर दिया जाता और मौत आई गई हो जाती ।
लेकिन इन तमाम परिस्थितियो के बीच क्या ये सच नहीं है कि मीडिया जिस तरह असल खबरो को लेकर संवेदनहीन हो चला है या फिर जिस तरह मीडिया सिर्फ सत्ता की चापलुसी से जुडी खबरो में जा खोया है और ग्राउंड रिपोटिंग ही बंद हो चुकी है यानी किसी आम नागरिक के क्या दर्द है। जमीनी हालात और सरकारी एलान के बीच कितनी चौडी खाई है। जिन मुश्किल हालातों के बीच देश का एक आम नागरिक खास तौर से ग्रामीण क्षेत्र में जी रहा है, उससे दूर सकारात्मक होकर मीडिया सरकारी चकाचौंध में अगर खोया हुआ है तो फिर उसकी अपनी मौत जिस दिन होगी वह भी ना ता खबर बनेगी और ना ही उस तरफ ध्यान जायेगा।
क्या ऐसे हालात बन नहीं रहे है ? ये सवाल हमारा खुद से है। क्योंकि किसी भी खबर को रिपोर्ट करते वक्त कोई भी पत्रकार और अगर न्यूज चैनल का हो तो कोई भी कैमरामैन जिस मनोस्थिति से गुजरता है वही उसकी जिन्दगी का सच होता है। ये संभव ही नहीं है कि दंतेवाड़ा में जाकर वहां के सामाजिक-आर्थिक हालातो से पत्रकार अपनी रिपोर्ट को ना जोड़े। मारे गये कैमरामैन अच्यूतानंद साहू की मौत से पहले ली गई सेल्फी बताती है कि वह सुरक्षाकर्मियों के बीच सेल्फी नहीं ले रहा था बल्कि ग्रामीण जीवन के बीच हंसते-मुसकुराते बच्चों के बीच सेल्फी ले रहा था। घास-फूस की झोपडियों के बीच अपने होने के एहसास को जी रहा था। यानी दिल्ली में रहते हुये भी कहीं ना कहीं कोई भी पत्रकार जब ग्रामीण इलाकों में पहुचता है तो उसके अपने जीवन के एहसास जागते है और शायद दिल्ली सरीखे जीवन को लेकर उसके भीतर कश्मकश चली है। और पत्रकारों के यही वह हालात है जो सरकार की नीतियों को लेकर क्रिटिकल होते हैं।
क्योंकि एक तरफ रेशमी नगर दिल्ली के एलानों के बीच उसे बार बार क्रंकीट की वह खुरदुरी जमीन दिखायी देती है जो सत्ता की नाक तले देश की त्रासदी होती है पर दिल्ली हमेशा उस तरफ से आंखें मूंद लेती हैं। और न्यूज चैनलों में तो कैमरामैन कितना संवेदनशील हो जाता है ये मैने पांच बरस पहले इसी छत्तीसगढ और महाराष्ट्र-तेलगाना की सीमा पर रिपोर्टिंग करते हुये देखा। जब रात के दस बजे हमे हमारे सोर्स ने कहा कि नक्सल प्रभावित इलाको को समझना है तो रात में सफर करें। और तमाम खतरो के बीच मेरे साथ गये आजतक के कैमरामैन संजय चौधरी मेरे पीछे लग गये कि हम रात में जरुर चलेंगे।
और समूची रात महाराष्ट्र के चन्द्रपर से निकल कर तेलंगाना होते हुये हम उस जगह पर पहुंचे जहा दो सौ मीटर के दायरे में तीन राज्यों की सीमा [तेलगाना-उडीसा-छत्तीसगढ़] लगती थी । और कंघे पर बंदूक लटकाये नकसलियों की आवाजाही एक राज्य से दूसरे राज्य में कितनी आसान है और सुरक्षाकर्मियों का अपने राज्य की सीमा को पार करना कितना मुस्किल है, ये सब सुबह चार से पांच बजे के बीज हमने आंखों से देखा। रिपोर्ट फाइल की।
और वापस दिल्ली लौटते वक्त कैमरामैन संजय चौधरी का कहना था ये सब दिल्ली को कहां दिखायी देता है। प्रसून जी आप ऐसा जगहो पर ही रिपोर्टिंग करने जाइये तो मुझे साथ लीजिये। दिल्ली में तो कोई काम होता नहीं है। हो सकता है डीडी के कैमरामैन अच्यूतानंद साहू के जहन में भी रिपोर्टिग को लेकर कोई ऐसी ही सोच रही हो। लेकिन इस सोच से इतर अब का संकट दूसरा है। क्योंकि न्यूज चैनलों का दायरा दिल्ली या महानगर या फिर प्रधानमंत्री खुद या उनकी नीतियों के एलान वाले इलाके से आगे जाती नहीं है। और मीडिया जिस तरह अपनी रिपोर्ट के आसरे ही देश से जिस तरह कट चुका है उसमें वाकई ये सवाल है कि आखिर एक पत्रकार-कैमरामैन की मौत कैसे खबर बन सकती है। जबतक उसपर सत्ता सरकार मंत्री की नजर ना जाये । और नजर जानी चाहिये इसके लिये मीडिया में रीढ बची नहीं या फिर सत्ता के मुनाफे के माडल में मीडिया की ये रिपोर्टिग फिट बैठती नहीं है।
दरअसल संकट इतना भर नहीं है कि आज डीडी के कैमरा मैन अच्यूतानंद साहू की मौत की खबर कही दिखायी नहीं दी। संकट तो ये है कि न्यूज चैनलो पर रेगतें बर भी सरोकार से दूर हो चले है। मुनाफे के दायरे में या सत्ता से डर के दायरे में जिस तरह न्यूज चैनलो पर खबरो को परोसा जा रहा है उसमें शुरु में आप एक दो दिन और फिर हफ्ते भर और उसके बाद महीनो भर न्यूज चैनल नहीं देखेगें तो भी आप खुद को देश से जुडे हुये ही पायेगें। या फिर कोई खबर आप तक नहीं पहुंची ऐसा आप महसूस ही नहीं कर पायेंगे। तो अगला सवाल मीडियाकर्मियों या मीडिया संस्थानों को चलाने वालो के जहन में आना तो चाहिये कि वह एक ऐसे इक्नामिक माडल को अपना रहे है या अपना चुके हैं जिसमें खबरो को परोस कर अपने प्रोडक्ट को जनता से जोडना या जनता को अपने प्रोडक्ट से जोडने का बच ही नहीं रहा है। यानी सकारात्मक खबरों का मतलब रेशमी नगर दिल्ली की वाहवाही कैसे हो सकती है।
जब देश के हालात बद से बदतर हो चले हैं तब मीडिया मनोरंजन कर कितने दिन टिक पायेगा। खबरो की छौक लगाकर कुछ दिन नागरिको को ठगा तो जा सकता है लेकिन ठगने के आगे का सवाल तो लोकतंत्र के उस खतरे का भी है जिसका चौथा स्तम्भ मीडिया को कहने में हमे गुरेज नहीं होता। और अगर मीडिया ही खुद को मुनाफे के के लिये ध्वस्त करने पर आमादा है तो फिर सत्ता को ही समझना होगा कि सत्ता के लिये उसका राजनीतिक प्रयोग [सारे मीडिया उसका गुणगान करें] आने वाले वक्त में सत्ता की जरुरत उसकी महत्ता को भी नागरिको के जहन से मिटा देगा। यानी धीरे धीरे तमाम संस्थान। फिर गांव। उसके बाद आम नागरिक। फिर चौथा स्तम्भ मायने नहीं रखेगा तो एक वक्त के बाद चुनाव भी बेमानी हो जायेंगे। सचेत रहिये। संवेदनशील रहिये। धीरे धीरे आप भी मर रहे हैं।