एक साहब बड़े देशभक्त थे। कहने लगे कि देश सर्वोपरि है, बाकी सब उसके बाद। मैंने कहा- पर प्राथमिकता तो देश के नागरिकों को मिलनी चाहिए। जब नागरिक ही नहीं रहेंगे तो देश कैसा ?
साहब जिद्दी थे और बड़े वाले देशभक्त तो थे ही, कहने लगे- जब देश ही नहीं रहेगा तो देशवासी कहाँ से रहेंगे ?
मैंने फिर पूछा- देश से आपका क्या तात्पर्य है ?
वे मुस्कुराते हुए कहने लगे- देश का तात्पर्य हमारी सीमा से है। फैली हुई जमीन से है।
हमनें कहा- मतलब प्राथमिकता में देश की जमीन है ?
उन्होंने कहा- जी।
वे थोड़ा रुके, शायद कुछ सोच रहे थे। फिर अचानक थोड़ा चीखने जैसे लहजे में कहने लगे- देश की सीमा पर जवान जान देते हैं देश के लिए ही न, देश की जमीन के लिए ही न ?
मैंने उनकी हाँ में हाँ मिला दिया। जब बहस सेना तक पहुंच जाए तो चुप हो जाना चाहिए। क्योंकि तर्क के लिए कुछ नहीं बचता।
बात प्राथमिकता की थी। सबकी प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं। आम आदमी कहेगा- क्या सीमा क्या देश, बस दो वक्त की रोटी और रोजगार का जुगाड़ हो जाये यही मेरी प्राथमिकता में है। लेकिन भरे पेट वाला कहता है- देश सर्वोपरि है।
प्राथमिकता परिस्थिति और मानसिक के ऊपर निर्भर है। मेरे एक रिश्तेदार हैं। उनकी मानसिकता ये कहती है कि बिना बेटे के जिंदगी सफल नहीं हो सकती। उन्होंने बेटा पैदा करने को प्राथमिकता दे दी। अब उनकी नौ बेटियां हैं और बेटा एक भी नहीं। पर उन्होंने अपनी प्राथमिकता नहीं छोड़ी। पत्नी फिर गर्भवती है। लोग कहते हैं उम्मीद से हैं। कुछ लोग 'गर्भवती है' कहने में असहज महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि यह शब्द असंस्कारी है इसलिए वे कहते हैं- उम्मीद से हैं।
पर संस्कार के चक्कर में वे ये भूल जाते हैं कि 'उम्मीद से हैं' वाक्य किसी धूर्त की खोज है। जब धूर्त खुले तौर पर यह नहीं कह पाया होगा- कि बेटा होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं तब उसनें कह दिया होगा- पत्नी जी उम्मीद से हैं।
हां तो बात रिश्तेदार की थी। उन्हें दसवीं बार लड़का पैदा हो गया। खूब पटाखे फूटे, मिठाईयां बटीं। मुझे निमंत्रण के लिए फोन आया। मैंने कहा- भाई आपके और भी नौ बच्चे हुए पर कभी आपने मुझे निमंत्रण में नहीं बुलाया ?
वे कहने लगे- इस बार बेटा हुआ है।
मैं भड़क गया। वे असहज हो गए। मैंने उन्हें कहा- मेरी प्राथमिकता में बेटा- बेटी बराबर हैं। यदि आपने मुझे बेटी पैदा होने पर खुशी में शामिल होने के लिए बुलाया होता तो मैं आज जरूर आता। वे मेरी बात समझ तो गए पर गुस्से में फोन रख दिया।
इन घटनाओं में एक बात मैंने और नोटिस की है। महिलाओं के लिए कोई प्राथमिकता नहीं होती। उसकी प्राथमिकता उसके पिता, पति या बेटे की प्राथमिकता में निहीत है।
सरकार के एक मंत्री जी चिल्ला-चिल्लाकर भाषण में कहे जा रहे थे- हमारी प्राथमिकता में सबके हाथ आधारकार्ड पहुंचाना था और इसमें हम सफल होते दिख रहे हैं। आधार के हो जाने से घपले रुक जाएंगे। गरीबों का अनाज उन्हें पूरा मिलेगा।
एक भोला आदमी बीच में बोल पड़ा- साहब, हमार अधार बन तो गवा है पर रासन लेत की अंगूठा मैच नाही होत है। चार बार से रासन नाय मिला है सरकार।
मंत्री जी के अफसर ने कहा- आप बैठ जाइए। सरकार की प्राथमिकता अभी आधारकार्ड बनाने की है।
बात सही है। सरकार की प्राथमिकता में सबको आधारकार्ड देना है क्योंकि चुनाव के पहले आंकड़े भी तो पेश करने हैं। सरकार के पास दस्तावेज के आंकड़े होते हैं। भूख से मरने के आंकड़े रखने के लिए सरकार के पास कोई रजिस्टर नहीं है।
आखिर जरूरत भी तो नहीं है मौत के आंकड़ों की! चुनाव के भाषण में अब ये कोई थोड़ी कहेगा कि हमारे शासन में भूख से इतने लोग मर गए इसलिए आप हमें वोट दें।
समस्या विकट है। जिनका पेट भरा है वह कुछ बोलता नहीं और जिनके पास अनाज नहीं उनकी कोई सुनता नहीं। आखिर सुने भी कोई क्यों ? सब की परिस्थितियां अलग हैं , सब की प्राथमिकताएँ अलग हैं।
साहब जिद्दी थे और बड़े वाले देशभक्त तो थे ही, कहने लगे- जब देश ही नहीं रहेगा तो देशवासी कहाँ से रहेंगे ?
मैंने फिर पूछा- देश से आपका क्या तात्पर्य है ?
वे मुस्कुराते हुए कहने लगे- देश का तात्पर्य हमारी सीमा से है। फैली हुई जमीन से है।
हमनें कहा- मतलब प्राथमिकता में देश की जमीन है ?
उन्होंने कहा- जी।
वे थोड़ा रुके, शायद कुछ सोच रहे थे। फिर अचानक थोड़ा चीखने जैसे लहजे में कहने लगे- देश की सीमा पर जवान जान देते हैं देश के लिए ही न, देश की जमीन के लिए ही न ?
मैंने उनकी हाँ में हाँ मिला दिया। जब बहस सेना तक पहुंच जाए तो चुप हो जाना चाहिए। क्योंकि तर्क के लिए कुछ नहीं बचता।
बात प्राथमिकता की थी। सबकी प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं। आम आदमी कहेगा- क्या सीमा क्या देश, बस दो वक्त की रोटी और रोजगार का जुगाड़ हो जाये यही मेरी प्राथमिकता में है। लेकिन भरे पेट वाला कहता है- देश सर्वोपरि है।
प्राथमिकता परिस्थिति और मानसिक के ऊपर निर्भर है। मेरे एक रिश्तेदार हैं। उनकी मानसिकता ये कहती है कि बिना बेटे के जिंदगी सफल नहीं हो सकती। उन्होंने बेटा पैदा करने को प्राथमिकता दे दी। अब उनकी नौ बेटियां हैं और बेटा एक भी नहीं। पर उन्होंने अपनी प्राथमिकता नहीं छोड़ी। पत्नी फिर गर्भवती है। लोग कहते हैं उम्मीद से हैं। कुछ लोग 'गर्भवती है' कहने में असहज महसूस करते हैं। उन्हें लगता है कि यह शब्द असंस्कारी है इसलिए वे कहते हैं- उम्मीद से हैं।
पर संस्कार के चक्कर में वे ये भूल जाते हैं कि 'उम्मीद से हैं' वाक्य किसी धूर्त की खोज है। जब धूर्त खुले तौर पर यह नहीं कह पाया होगा- कि बेटा होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं तब उसनें कह दिया होगा- पत्नी जी उम्मीद से हैं।
हां तो बात रिश्तेदार की थी। उन्हें दसवीं बार लड़का पैदा हो गया। खूब पटाखे फूटे, मिठाईयां बटीं। मुझे निमंत्रण के लिए फोन आया। मैंने कहा- भाई आपके और भी नौ बच्चे हुए पर कभी आपने मुझे निमंत्रण में नहीं बुलाया ?
वे कहने लगे- इस बार बेटा हुआ है।
मैं भड़क गया। वे असहज हो गए। मैंने उन्हें कहा- मेरी प्राथमिकता में बेटा- बेटी बराबर हैं। यदि आपने मुझे बेटी पैदा होने पर खुशी में शामिल होने के लिए बुलाया होता तो मैं आज जरूर आता। वे मेरी बात समझ तो गए पर गुस्से में फोन रख दिया।
इन घटनाओं में एक बात मैंने और नोटिस की है। महिलाओं के लिए कोई प्राथमिकता नहीं होती। उसकी प्राथमिकता उसके पिता, पति या बेटे की प्राथमिकता में निहीत है।
सरकार के एक मंत्री जी चिल्ला-चिल्लाकर भाषण में कहे जा रहे थे- हमारी प्राथमिकता में सबके हाथ आधारकार्ड पहुंचाना था और इसमें हम सफल होते दिख रहे हैं। आधार के हो जाने से घपले रुक जाएंगे। गरीबों का अनाज उन्हें पूरा मिलेगा।
एक भोला आदमी बीच में बोल पड़ा- साहब, हमार अधार बन तो गवा है पर रासन लेत की अंगूठा मैच नाही होत है। चार बार से रासन नाय मिला है सरकार।
मंत्री जी के अफसर ने कहा- आप बैठ जाइए। सरकार की प्राथमिकता अभी आधारकार्ड बनाने की है।
बात सही है। सरकार की प्राथमिकता में सबको आधारकार्ड देना है क्योंकि चुनाव के पहले आंकड़े भी तो पेश करने हैं। सरकार के पास दस्तावेज के आंकड़े होते हैं। भूख से मरने के आंकड़े रखने के लिए सरकार के पास कोई रजिस्टर नहीं है।
आखिर जरूरत भी तो नहीं है मौत के आंकड़ों की! चुनाव के भाषण में अब ये कोई थोड़ी कहेगा कि हमारे शासन में भूख से इतने लोग मर गए इसलिए आप हमें वोट दें।
समस्या विकट है। जिनका पेट भरा है वह कुछ बोलता नहीं और जिनके पास अनाज नहीं उनकी कोई सुनता नहीं। आखिर सुने भी कोई क्यों ? सब की परिस्थितियां अलग हैं , सब की प्राथमिकताएँ अलग हैं।