जाओ जाकर पढ़ो-लिखो
बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं
इसलिए, खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा लो
दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अंत करो
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो
ब्राह्मणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो
उन्नीसवीं सदी , पेशवा का दौर और ब्राह्मणवाद अपने चरम पर था। महिलाएं तो दूर की चीज थी, ब्राह्मण पुरुषों के अलावा समाज में किसी को भी पढ़ने का अधिकार नहीं था। ब्राह्मण पुरूषों के अलावा यदि गलती से भी किसी ने पढ़ने की सोची तो ब्राह्मणों द्वारा उसका समाज से बहिष्कार होता था। उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी जाती। ऐसी परिस्थिति में 3 जनवरी 1831 को पिता खन्दोजी नेवसे और माता लक्ष्मी के घर जन्म हुआ भारत की प्रथम सशक्त महिला 'सावित्री बाई फुले' का जिसनें उस दौर में उपरोक्त कविता लिखी।
महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में दलित परिवार में जन्मी सावित्री बाई का बचपन संघर्ष से भरा रहा। उनकी जिंदगी में बदलाव तब आया जब जब छोटी सी उम्र उनका विवाह ज्योतिराव फुले से हुआ। ज्योतिराव फुले ने न सिर्फ ब्राह्मणत्व वाले समाज में रहकर संघर्ष करते हुए खुद पढाई की और मनुवाद, ब्राह्मणवाद को ललकारा बल्कि पत्नी सावित्री बाई को भी पढ़ाया।
पढाई के बाद भारत में महिलाओं के लिए सावित्री बाई ने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर पहला स्कूल खोला। स्कूल खुल जाना ही बड़ी बात नहीं थी ,महिलाओं को स्कूल तक ले आना उस समय सबसे बड़ी चुनौती थी। आज हम इक्कीसवीं सदी में हैं। दुनिया ने भरपूर तरक्की कर ली है पर फिर भी हम देखते हैं कि कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ लड़कियों को अब भी पढ़ने के लिए घर से नहीं निकलने दिया जाता। सावित्री बाई ने उस दौर में इस चुनौती को स्वीकारा और संघर्ष करते हुए कई बार धर्म के ठेकेदारो का शिकार हुईं। वे जिससे भी अपनी बच्चियों को स्कूल भेजने को कहती वे उनका मजाक उड़ाते और अपमानित करते। वे जब पढ़ाने निकलती तो उनके ऊपर कीचड फेंका जाता ,गोबर फेंका जाता। मगर इन सब की परवाह किये बगैर वे डटी रहती। धीरे- धीरे लोगों ने शिक्षा के महत्त्व को समझा और पढ़ने के लिए उत्सुक हुए।
वे भारत में महिला विद्यालय की पहली अध्यापिका बनी। उन्होंने महिलाओं की स्थिति सुधार के लिए कई महत्वपूर्व प्रयास किये। वे नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता बनीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी माना जाता है। उनकी कविताएं मारक होती थीं जो समाज के सच को नंगा कर देती थीं। अपनी कविता में वे एक जगह स्वर्ग नरक और ज्योतिष पंचांग के साथ पितृसत्तात्मक समाज पर चोट करते हुए लिखती हैं-
ज्योतिष पंचांग हस्तरेखा में पड़े मूर्ख
स्वर्ग नरक की कल्पना में रूचि
पशु जीवन में भी
ऐसे भ्रम के लिए कोई स्थान नहीं
पत्नी बेचारी काम करती रहे
मुफ्तखोर बेशर्म खाता रहे
पशुओं में भी ऐसा अजूबा नहीं
उसे कैसे इन्सान कहे?
सावित्रीबाई ने उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियां के विरुद्ध काम किया.
उनका सम्पूर्ण जीवन समाज के निचले तबके खासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने में बीता।
1897 में प्लेग की महामारी में बीमारों की सेवा करते हुए वे खुद प्लेग का शिकार हुईं और आज ही के दिन 10 मार्च को दुनिया को अलविदा कह दिया।
अफसोस की बात ये की परसों ही महिला दिवस था और चारों तरफ महिला सशक्तिकरण की बात होती रही लेकिन मैंने कहीं भी भारत की प्रथम सशक्त महिला सावित्री बाई फुले का जिक्र नहीं देखा। आज उनकी पुण्यतिथि पर भी कहीं कुछ देखने सुनने को नहीं मिला।
"सावित्री बाई फुले को नमन"