दिल्ली के रामजस कॉलेज में हुए विवाद, जिसके चलते उमर खालिद को वहां इस आधार पर भाषण नहीं देने दिया गया कि उन्होंने राष्ट्र-विरोधी नारे लगाए थे, के बाद कई लोगों, जिनमें जानेमाने गायक अभिजीत भट्टाचार्य शामिल हैं, ने अभाविप का समर्थन किया है। पिछले साल की नौ फरवरी से, षासक दल की राजनीति से असहमत व्यक्तियों पर राष्ट्र-विरोधी का लेबल चस्पा करने का सिलसिला जारी है। ऐसे लोग विशेषकर निशाने पर हैं जो ‘कश्मीर-समर्थक’ और ‘भारत-विरोधी’ नारे लगाते हैं। किसी क्षेत्र के लिए स्वायत्तता की मांग करना, अलग राज्य की मांग उठाना या इनके समर्थन में नारे लगाना, हमारे संविधान की दृष्टि में क्या राष्ट्र-विरोध है?
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर पूर्व में विचार किया है। खलिस्तान के नाम से एक अलग सिक्ख देश की मांग के समर्थन में नारे लगाने को उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रद्रोह मानने से इंकार कर दिया था। इसके पहले, सन 1962 में, केदारनाथ बनाम बिहार शासन प्रकरण में अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि देशद्रोह का अभियोग उसी व्यक्ति पर लगाया जा सकता है, जो ‘‘ऐसा कोई कार्य करे, जिसका उद्देश्य अव्यवस्था फैलाना, कानून और व्यवस्था को बिगाड़ना या हिंसा भड़काना हो।’’
इसी तरह, उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू के अनुसार ‘‘आज़ादी इत्यादि की मांग करना और उसके समर्थन में नारे लगाना तब तक अपराध नहीं है जब तक कि कोई व्यक्ति इससे आगे जाकर 1) हिंसा करे, 2) हिंसा आयोजित करे या 3) हिंसा भड़काए।’’
स्पष्ट है कि अभाविप-आरएसएस की इस मुद्दे पर सोच, देश के कानून के अनुरूप नहीं है और ना ही भारतीय संविधान के मूल्यों से मेल खाती है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के मामले में पुलिस ने कन्हैया कुमार, उमर खालिद और उनके साथियों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार तो कर लिया परंतु आज तक वह न्यायालय में उनके खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल नहीं कर सकी है। यह ज़रूरी है कि हमारे पुलिसकर्मी, देश के कानून से अच्छी तरह से वाकिफ हों। आश्चर्यजनक तो यह है कि कई वरिष्ठ भाजपा नेताओं, जिनमें केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्री शामिल हैं, ने भी इसी तरह की बातें कहीं हैं।
भारत के सीमावर्ती इलाकों जैसे उत्तरपूर्व, तमिलनाडु, पंजाब और कष्मीर में समय-समय पर इन क्षेत्रों को अलग देश बनाए जाने की मांग उठती रही है। कई राजनीतिक दलों ने भी इस तरह की मांग का समर्थन किया है और उसके पक्ष में नारे बुलंद किए हैं। राज्यसभा में द्रविड़ नायक और द्रविड़ मुनित्र कषगम के सर्वोच्च नेता सीएन अन्नादुरई ने तमिलनाडु को देश से अलग किए जाने की मांग की थी। इस तरह की बातें स्वाधीनता के बाद से ही देश में कही जा रही हैं परंतु हाल के कुछ वर्षों में इन्हें राष्ट्र की एकता के लिए खतरा बताया जाने लगा है।
इसका मुख्य कारण है संघ परिवार की विचारधारा। यह विचारधारा, भारतीय राष्ट्रवाद की उस अवधारणा से सहमत नहीं है, जो राष्ट्रीय आंदोलन से उभरी। संघ परिवार, हिन्दू राष्ट्रवाद का हामी है। भारत में राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास उस दौर में हुआ जब हम पर अंग्रेज़ों का शासन था। एक ओर था भारतीय राष्ट्रवाद, जो समावेशी था तो दूसरी ओर थे मुस्लिम और हिन्दू राष्ट्रवाद, जो अपने-अपने ढंग से अतीत का प्रस्तुतिकरण करते थे।
भारतीय राष्ट्रवाद, भारत के भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले सभी लोगों को भारतीय मानता है और उनकी सांझा परंपरा और संस्कृति पर ज़ोर देता है। गांधीजी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ और जवाहरलाल नेहरू रचित ‘भारत एक खोज’, भारत के इतिहास को धर्म से ऊपर उठने का इतिहास बताती हैं। मुस्लिम राष्ट्रवादियों का मानना था कि आठवीं सदी ईस्वी में सिन्ध में मोहम्मद-बिन-कासिम के अपना शासन स्थापित करने के साथ भारत में मुस्लिम राष्ट्रवाद का उदय हुआ। उनका कहना था कि मुसलमान इस देश के शासक रहे हैं और वे ही इसके असली मालिक हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी इससे कहीं पीछे जाकर अपने को आर्यों का वंशज बताते हैं और यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि यह देश हमेशा से हिन्दू रहा है और हिन्दू ही यहां के मूल निवासी हैं। इसी को साबित करने के लिए शंकराचार्य ने भारत भूमि के चारों कोनों पर मठों की स्थापना की थी। इतिहास के ये दोनों ही संस्करण, समाज को स्थिर और अपरिवर्तनशील मानते हैं। वे उत्पादन के साधनों में परिवर्तन और अलग-अलग साम्राज्यों के उदय के देश पर प्रभाव को नजरअंदाज करते हुए, पूरे इतिहास को एक रंग में रंगने पर आमादा हैं।
यूरोप में राष्ट्रवाद की अवधारणा की शुरूआत, औद्योगिक समाज के उदय और आधुनिक शिक्षा व संचार के साधनों के विकास के साथ हुई। एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोग स्वयं को राष्ट्र-राज्य बताने लगे। भारत का इतिहास, पशुपालक आर्यों से शुरू होकर कृषि-आधारित राज्यों से होते हुए औपनिवेशिक भारत तक पहुंचा। इस दौरान सामाजिक रिश्तों में कई परिवर्तन आए। औपनिवेशिक राज्य ने उस अधोसंरचना का विकास किया, जिससे भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ और भारत एक राष्ट्र बना। इसके राष्ट्र बनने की राह को प्रशस्त किया हमारे स्वाधीनता संग्राम ने, जो दुनिया का सबसे बड़ा जनांदोलन था।
वर्तमान में देश पर हावी सांप्रदायिक विमर्श, सामाजिक परिवर्तनों को नज़रअंदाज़ करता है। वह शंकराचार्य द्वारा चार मठों की स्थापना और गांधी के लोगों को भारतीय के रूप में एक होने के आह्वान के बीच के अंतर को समझने को ही तैयार नहीं है। वह यह नहीं समझ पा रहा है कि औपनिवेशिक काल के पहले, नागरिकता की कोई अवधारणा नहीं थी और आधुनिक अधोसंरचना के विकास के साथ ही नागरिकता की अवधारणा भी उभरी। हिन्दू राष्ट्रवादी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि भौगोलिक क्षेत्र ही राष्ट्र का आधार है। वे यह मानते हैं कि हिन्दू संस्कृति, भारतीय नागरिकता की एकमात्र कसौटी है। वे धर्म को संस्कृति का चोला पहना रहे हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि हिन्दू अप्रवासी भारतीयों को भारत में नागरिक के अधिकार मिलने चाहिए।
हिन्दुत्ववादियों का अति-राष्ट्रवाद, भारत के ‘‘गौरवशाली अतीत’’ और ‘‘अखंड भारत’’ की उनकी अवधारणाओं से जुड़ा हुआ है। वे यह समझना ही नहीं चाहते कि राष्ट्र-राज्य के विकास की क्या प्रक्रिया होती है। वे देश के कानूनों का भी सम्मान नहीं करना चाहते। उनके लिए राष्ट्रवाद एक भावनात्मक मुद्दा है और वे इसका इस्तेमाल लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए करना चाहते हैं। वे यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि प्रजातंत्र में विविध विचारों और परस्पर विरोधी विचारधाराओं के लिए जगह होनी चाहिए। जिस राष्ट्र-राज्य में ऐसा नहीं होगा, वह जिंदा नहीं रह सकेगा।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर पूर्व में विचार किया है। खलिस्तान के नाम से एक अलग सिक्ख देश की मांग के समर्थन में नारे लगाने को उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रद्रोह मानने से इंकार कर दिया था। इसके पहले, सन 1962 में, केदारनाथ बनाम बिहार शासन प्रकरण में अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि देशद्रोह का अभियोग उसी व्यक्ति पर लगाया जा सकता है, जो ‘‘ऐसा कोई कार्य करे, जिसका उद्देश्य अव्यवस्था फैलाना, कानून और व्यवस्था को बिगाड़ना या हिंसा भड़काना हो।’’
इसी तरह, उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू के अनुसार ‘‘आज़ादी इत्यादि की मांग करना और उसके समर्थन में नारे लगाना तब तक अपराध नहीं है जब तक कि कोई व्यक्ति इससे आगे जाकर 1) हिंसा करे, 2) हिंसा आयोजित करे या 3) हिंसा भड़काए।’’
स्पष्ट है कि अभाविप-आरएसएस की इस मुद्दे पर सोच, देश के कानून के अनुरूप नहीं है और ना ही भारतीय संविधान के मूल्यों से मेल खाती है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के मामले में पुलिस ने कन्हैया कुमार, उमर खालिद और उनके साथियों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार तो कर लिया परंतु आज तक वह न्यायालय में उनके खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल नहीं कर सकी है। यह ज़रूरी है कि हमारे पुलिसकर्मी, देश के कानून से अच्छी तरह से वाकिफ हों। आश्चर्यजनक तो यह है कि कई वरिष्ठ भाजपा नेताओं, जिनमें केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्री शामिल हैं, ने भी इसी तरह की बातें कहीं हैं।
भारत के सीमावर्ती इलाकों जैसे उत्तरपूर्व, तमिलनाडु, पंजाब और कष्मीर में समय-समय पर इन क्षेत्रों को अलग देश बनाए जाने की मांग उठती रही है। कई राजनीतिक दलों ने भी इस तरह की मांग का समर्थन किया है और उसके पक्ष में नारे बुलंद किए हैं। राज्यसभा में द्रविड़ नायक और द्रविड़ मुनित्र कषगम के सर्वोच्च नेता सीएन अन्नादुरई ने तमिलनाडु को देश से अलग किए जाने की मांग की थी। इस तरह की बातें स्वाधीनता के बाद से ही देश में कही जा रही हैं परंतु हाल के कुछ वर्षों में इन्हें राष्ट्र की एकता के लिए खतरा बताया जाने लगा है।
इसका मुख्य कारण है संघ परिवार की विचारधारा। यह विचारधारा, भारतीय राष्ट्रवाद की उस अवधारणा से सहमत नहीं है, जो राष्ट्रीय आंदोलन से उभरी। संघ परिवार, हिन्दू राष्ट्रवाद का हामी है। भारत में राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास उस दौर में हुआ जब हम पर अंग्रेज़ों का शासन था। एक ओर था भारतीय राष्ट्रवाद, जो समावेशी था तो दूसरी ओर थे मुस्लिम और हिन्दू राष्ट्रवाद, जो अपने-अपने ढंग से अतीत का प्रस्तुतिकरण करते थे।
भारतीय राष्ट्रवाद, भारत के भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले सभी लोगों को भारतीय मानता है और उनकी सांझा परंपरा और संस्कृति पर ज़ोर देता है। गांधीजी की पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ और जवाहरलाल नेहरू रचित ‘भारत एक खोज’, भारत के इतिहास को धर्म से ऊपर उठने का इतिहास बताती हैं। मुस्लिम राष्ट्रवादियों का मानना था कि आठवीं सदी ईस्वी में सिन्ध में मोहम्मद-बिन-कासिम के अपना शासन स्थापित करने के साथ भारत में मुस्लिम राष्ट्रवाद का उदय हुआ। उनका कहना था कि मुसलमान इस देश के शासक रहे हैं और वे ही इसके असली मालिक हैं। हिन्दू राष्ट्रवादी इससे कहीं पीछे जाकर अपने को आर्यों का वंशज बताते हैं और यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि यह देश हमेशा से हिन्दू रहा है और हिन्दू ही यहां के मूल निवासी हैं। इसी को साबित करने के लिए शंकराचार्य ने भारत भूमि के चारों कोनों पर मठों की स्थापना की थी। इतिहास के ये दोनों ही संस्करण, समाज को स्थिर और अपरिवर्तनशील मानते हैं। वे उत्पादन के साधनों में परिवर्तन और अलग-अलग साम्राज्यों के उदय के देश पर प्रभाव को नजरअंदाज करते हुए, पूरे इतिहास को एक रंग में रंगने पर आमादा हैं।
यूरोप में राष्ट्रवाद की अवधारणा की शुरूआत, औद्योगिक समाज के उदय और आधुनिक शिक्षा व संचार के साधनों के विकास के साथ हुई। एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले लोग स्वयं को राष्ट्र-राज्य बताने लगे। भारत का इतिहास, पशुपालक आर्यों से शुरू होकर कृषि-आधारित राज्यों से होते हुए औपनिवेशिक भारत तक पहुंचा। इस दौरान सामाजिक रिश्तों में कई परिवर्तन आए। औपनिवेशिक राज्य ने उस अधोसंरचना का विकास किया, जिससे भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ और भारत एक राष्ट्र बना। इसके राष्ट्र बनने की राह को प्रशस्त किया हमारे स्वाधीनता संग्राम ने, जो दुनिया का सबसे बड़ा जनांदोलन था।
वर्तमान में देश पर हावी सांप्रदायिक विमर्श, सामाजिक परिवर्तनों को नज़रअंदाज़ करता है। वह शंकराचार्य द्वारा चार मठों की स्थापना और गांधी के लोगों को भारतीय के रूप में एक होने के आह्वान के बीच के अंतर को समझने को ही तैयार नहीं है। वह यह नहीं समझ पा रहा है कि औपनिवेशिक काल के पहले, नागरिकता की कोई अवधारणा नहीं थी और आधुनिक अधोसंरचना के विकास के साथ ही नागरिकता की अवधारणा भी उभरी। हिन्दू राष्ट्रवादी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि भौगोलिक क्षेत्र ही राष्ट्र का आधार है। वे यह मानते हैं कि हिन्दू संस्कृति, भारतीय नागरिकता की एकमात्र कसौटी है। वे धर्म को संस्कृति का चोला पहना रहे हैं। इसीलिए वे कहते हैं कि हिन्दू अप्रवासी भारतीयों को भारत में नागरिक के अधिकार मिलने चाहिए।
हिन्दुत्ववादियों का अति-राष्ट्रवाद, भारत के ‘‘गौरवशाली अतीत’’ और ‘‘अखंड भारत’’ की उनकी अवधारणाओं से जुड़ा हुआ है। वे यह समझना ही नहीं चाहते कि राष्ट्र-राज्य के विकास की क्या प्रक्रिया होती है। वे देश के कानूनों का भी सम्मान नहीं करना चाहते। उनके लिए राष्ट्रवाद एक भावनात्मक मुद्दा है और वे इसका इस्तेमाल लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए करना चाहते हैं। वे यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि प्रजातंत्र में विविध विचारों और परस्पर विरोधी विचारधाराओं के लिए जगह होनी चाहिए। जिस राष्ट्र-राज्य में ऐसा नहीं होगा, वह जिंदा नहीं रह सकेगा।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)