ODF: WHO और यूनिसेफ की रिपोर्ट ने खोली भारत में खुले में शौच से मुक्ति के केंद्र के दावों की पोल

Written by Navnish Kumar | Published on: July 12, 2023
"दो अक्टूबर, 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित कर दिया था। लेकिन दो वैश्विक संस्थानों डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ की नई रिपोर्ट की मानें तो हकीकत कुछ और ही है। भारत में खुले में शौच जाना कभी बंद हुआ ही नहीं है। रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में ग्रामीण भारत में 17 प्रतिशत लोग अभी भी खुले में शौच कर रहे थे।"



केंद्र की मोदी सरकार ने 'स्वच्छ भारत' अभियान के तहत 2019 में ही भारत को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित कर दिया था। लेकिन डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ की नई रिपोर्ट कुछ और ही कहानी बता रही है। वो यह कि खुले में शौच जाना भारत में कभी बंद हुआ ही नहीं है।

डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ ने हाल ही में पानी की सप्लाई और स्वच्छता पर अपने जॉइंट मॉनिटरिंग प्रोग्राम की ताजा रिपोर्ट जारी की है, जो 2022 तक इन मोर्चों पर अलग अलग देशों द्वारा दर्ज की गई तरक्की के बारे में विस्तार से बताती है। दो अक्टूबर, 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया था। लेकिन इन वैश्विक संस्थानों की मानें तो हकीकत कुछ और है। इस रिपोर्ट के मुताबिक कम से कम 15 करोड़ लोग आज भी खुले में शौच करते हैं।

कभी बंद ही नहीं हुआ खुले में शौच

रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में ग्रामीण भारत में 17 प्रतिशत लोग अभी भी खुले में शौच कर रहे थे। भारत की कुल आबादी करीब 1.40 अरब है, जिसमें करीब 65 प्रतिशत लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक कम से कम 15 करोड़ लोग आज भी खुले में शौच करते हैं। इतना ही नहीं, रिपोर्ट ने यह भी दावा किया है कि ग्रामीण भारत में करीब 25 प्रतिशत परिवारों के पास अपना अलग शौचालय भी नहीं है। जबकि यह ओडीएफ घोषित किये जाने के मुख्य लक्ष्यों में से एक था।

जुलाई 2021 में इन दोनों संस्थाओं ने कहा था कि ग्रामीण भारत में खुले में शौच करने वालों की संख्या 22 प्रतिशत थी, यानी एक साल में समस्या पांच प्रतिशत और कम हुई है। 2015 में यह संख्या 41 प्रतिशत थी।

सरकार के दावों पर एक बड़ा सवाल

रिपोर्ट की माने तो भारत ने खुले में शौच से लड़ाई में लगातार तरक्की हासिल की है लेकिन साथ ही रिपोर्ट ने पूरी तरह खुले में शौच से मुक्ति के सरकार के दावों पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।

हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। भारत सरकार के ओडीएफ लक्ष्यों, परिभाषा और दावों को लेकर शुरू से विवाद रहा है। सरकार के स्वच्छ भारत मिशन के तहत ओडीएफ की परिभाषा है– खुले में मल नजर ना आना और हर घर और सार्वजनिक संस्थान द्वारा मल के निस्तारण के लिए सुरक्षित तकनीकी विकल्पों का इस्तेमाल।

ओडीएफ के दावों को गलत बताया

2019-20 में हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के पांचवें दौर के मुताबिक, उस समय देश में कम से कम 19 प्रतिशत परिवार खुले में शौच कर रहे थे। बिहार, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में तो यह संख्या 62, 70 और 71 प्रतिशत तक थी। अब एक बार फिर सरकार के ओडीएफ के दावों को गलत ठहराया गया है। देखना यह होगा कि सरकार इस अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट के नतीजों को चुनौती देती है या नहीं।

व्यवहार में आया महत्वपूर्ण बदलाव!

भले आज भी करोड़ों परिवार खुले में शौच जाते हो या जाने को मजबूर हो लेकिन इस पर भी कोई संदेह नहीं है कि यह बड़ी बात है। 2019 तक देश भर के 6 लाख गांवों में 10 करोड़ और शहरों में 63 लाख से ज्यादा शौचालय बने हैं। तब के सरकार के एक अनुमान के मुताबिक, फरवरी 2019 तक देश के 93 फीसदी ग्रामीण घरों में शौचालय बन चुके थे, जबकि इनमें से 96 फीसदी ग्रामीण इनका इस्तेमाल भी कर रहे थे, जिससे पता चलता है कि  लोगों के व्यवहार में भी महत्वपूर्ण बदलाव आया है! 

अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी

2019 में ही जब ‘डाउन टू अर्थ’ ने देश के अलग-अलग जिलों में पड़ताल की तो अच्छी और बुरी खबर दोनों मिली। कुछ समय पहले तक शौचालयों की भारी कमी झेल रहे उत्तर प्रदेश के कई जिलों में लोगों, खासकर महिलाओं में शौचालयों का इस्तेमाल बढ़ा है और वे अधिक शौचालयों की मांग कर रहे हैं। लेकिन 2017 में खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित हरियाणा में लोगों की आदत नहीं बदली है। यह भी तब हो रहा है, जब हरियाणा ने लोगों के व्यवहार में बदलाव के लिए अच्छा खासा पैसा खर्च किया है। दूसरा, मल-मूत्र के निपटान का मुद्दा है। एनएआरएसएस 2018-19 सर्वेक्षण में ‘सुरक्षित निपटान’ की जो परिभाषा दी गई है, वह न केवल अपर्याप्त है, बल्कि दोषपूर्ण है। इस परिभाषा में कहा गया है कि सुरक्षित निपटान से आशय है कि शौचालय किसी सेप्टिक टैंक, एकल या दोहरे गड्ढे या किसी नाले से जुड़ा हुआ है।

जबकि हकीकत यह है कि यह केवल मल-मूत्र को फैलने से रोकने की व्यवस्था भर है, इसे मल-मूत्र का सुरक्षित निपटान नहीं कहा जा सकता। एनएआरएसएस 2018-19 के मुताबिक, लगभग 34 फीसदी शौचालय एक गड्डे (सोक पिट) वाले सेप्टिक टैंक से जुड़े हैं, जबकि 30 फीसदी शौचालय दोहरे गड्ढे (लीच पिट) वाले सेप्टिक टैंक से जुड़े हैं और शेष 20 फीसदी शौचालय एकल गड्ढे वाले सेप्टिक टैंक से जुड़े हुए हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शौचालयों से निकलने वाले मल का वहीं सुरक्षित तरीके से निपटान किया जा रहा है? लेकिन क्या यह पूरी तरह से शौचालय के निर्माण की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। यदि सेप्टिक टैंक या दोहरे गड्ढे (लिच पिट) वाले शौचालय के डिजाइन से बनाए गए हैं- उदाहरण के लिए, अगर दोहरे लिच पिट में शहद के छत्ते जैसे ईंटों से बनाया गया है तो मल-मूत्र सुरक्षित तरीके से मिट्टी में मिल जाएगा और जब उसे हटाया जाएगा तो उसका इस्तेमाल मिट्टी में सुरक्षित तरीके से दोबारा किया जा सकेगा।

हालांकि यह सब ‘अगर’ के दायरे में आता है। सेंटर फॉर साइंस एंड इनवॉयरमेंट द्वारा शहरी क्षेत्रों में कराए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि सेप्टिक टैंक की गुणवत्ता काफी खराब है। टैंकर चालकों द्वारा जमीन पर मल-मूत्र का निपटान सुरक्षित नहीं किया जाता, खासकर जलाशयों में बुरे तरीके से निपटान किया जाता है। तो, क्या ग्रामीण भारत में बने ये शौचालय डिजाइन से बने हैं? या ये एक और चुनौती बनने वाले हैं, जब एक गड्ढा भर जाएगा और उसे किसी जलाशय या खेत में खाली कर दिया जाएगा? तब ये शौचालय न केवल संक्रमण का कारण बनेंगे, बल्कि इनसे मिट्टी और पानी भी दूषित होगा, जिससे स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है।

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